शूद्र और ब्राह्मणी का विवाह कराने वाले बासव को सुनने और पूजने का फ़र्क़

रविवार 26 अप्रैल को रेडियो पर मन की बात करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कर्नाटक के प्रसिद्ध क्रांतिकारी संत बासव को उनकी जयंती पर भगवान कहके याद किया। लेकिन बासव के विचार क्या थे, इस पर एक शब्द भी नहीं बोला। यह वह नीति है जिसके तहत समाज को आलोड़ित करने वाला कोई महान व्यक्ति, मूर्ति में तब्दील होकर देवता बन जाता है। इस प्रक्रिया के तहत उसकी वाणी और विचार छीन लिये जाते हैं। मूर्तिपूजा विरोधी गौतम बुद्ध को भगवान बुद्ध बनाकर इसी प्रक्रिया के तहत मूर्तियों में बदला गया 12वीं सदी के महान क्रांतिकारी संत बासव भी भगवान हो गये। बासव का जीवन और दर्शन क्या था, बता रहे हैं मुकेश असीम

 

‘वेदों के बोझ से दबा ब्राह्मण असली गधा है’- यह कहना था साल 1105 में जन्में बासव का जिन्होंने जातिविहीन समाज की स्थापना के लिए लिंगायत आंदोलन शुरू किया। बासव ब्राह्मणवाद द्वारा समाज को दी गई बौद्धिक-भौतिक निर्बलता से नफ़रत करते थे। बासव का कहना था – ‘अछूत की झोंपड़ी और देवता का मंदिर एक ही धरती पर हैं, नहाने और पूजा का जल भी एक है, सब एक ही तरह मानव गर्भ से पैदा हैं। क्या कोई कान से भी पैदा हुआ है?’ और ‘यहाँ भी देवता, वहाँ भी देवता! कहीं हमारे पाँव रखने की भी जगह है!’

बासव ने 28 की उम्र तक पहुँचते जातिविहीन समाज का विचार प्रस्तुत किया। इनके स्थापित ‘अनुभव मंडप’ में सभी जाति के लोग एकत्र होकर विचार करते थे। लेकिन जब इन्होने खान-पान का भेद ख़त्म किया तो कट्टर तत्वों में भारी विरोध हुआ – ‘आज भोजन में निषेध तोडा है, कल विवाह में तोड़ेगा।’ बासव ने भयानक विरोध झेला, भ्रष्टाचार के आरोप भी। पर बासव ने 1167 में जाति विवाह का निषेध भी तोड़ दिया – इनके अनुयायी ‘ब्राह्मण’ जन्मे मधुवर्ष की पुत्री का विवाह ‘अछूत’ जन्मे हारलैया के पुत्र से संपन्न हुआ। यह राजशाही और अभिजात तबके पर सीधा हमला था। दोनों पिताओं की ऑंखें निकलवाकर हाथी से कुचलवा दिया गया। इस घटना से पूरा राज्य ही राजनीतिक संकट में आ गया।

मध्य काल के अन्य आंदोलनों की तरह यह भी धार्मिक विचार की शक्ल में ही उभरा था। शिव पूजा और शिवलिंग को गले में पहनने से इनके अनुयायी ‘लिंगायत’ कहलाये। 12 वीं सदी में तो इस समुदाय का दमन हुआ लेकिन 15वीं सदी में इसके मानने वालों ने ब्राह्मणवाद से समझौता कर लिया। इस प्रकार जातिविहीन समाज की स्थापना करते करते ये खुद आज कर्नाटक की सबसे ताकतवर जाति में शामिल हो गये और येदियुरप्पा इनके समर्थन के बल पर ही बीजेपी का बड़ा नेता है। पिछले चुनाव में उसकी काट के लिए ही कांग्रेस से जुड़े लिंगायतों ने हिन्दू धर्म से अलग होने का आंदोलन चलाया था।

प्रो कालबुर्गी बासव और लिंगायत परम्परा के सबसे बड़े विद्वानों में से एक थे। उन्होंने बासव के वचनों के मूल जाति विरोधी इतिहास/विचारों का प्रचार किया था, इसलिए वह कटटरपंथी आतंकियों के शिकार हुए।

सवाल यह कि आधुनिक समय के पहले भी बुद्ध, बासव, नानक, इत्यादि महान व्यक्तित्वों के इन विद्रोहों के बावजूद भी जाति व्यवस्था समाप्त क्यों नहीं हुई? इसके विरुद्ध सामाजिक-सांस्कृतिक अभियान के साथ और क्या है जो आज करना पडेगा? बुद्ध ने बौद्ध भिक्षुओं के बीच तो समानता आधारित, जातिभेद रहित समुदाय स्थापित किया परंतु उसके बाहर के समाज में यह भेद ज्यों का का त्यों ही रह गया जबकि बुद्ध को राजकीय और व्यापारी वर्ग दोनों में सम्मान मिला। वहीं बासव और नानक के अनुयायी खुद ही जाति व्यवस्था के अंग बन गए।

सामंती समाज में श्रम विभाजन और उत्पादन में हिस्सेदारी का आधार जाति व्यवस्था सामंती प्रभुओं की सेवक होने के कारण हमेशा शासकों का संरक्षण प्राप्त करती रही। वर्तमान पूँजीवादी शासकों को भी इससे मात्र इतनी ही दिक्कत थी कि मजदूर एक साथ काम कैसे करें। इसलिए यह भी जाति के इस एक सीमित पक्ष के विरोध तक ही महदूद रहा। श्रम विक्रय की प्रक्रिया के अतिरिक्त विवाह, आदि अन्य क्षेत्रों में जाति अलगाव से वर्तमान शासक वर्ग को कोई परेशानी तो दूर फायदा ही है। इसलिए पूँजीपति वर्ग ने भी इसे अपनी वैचारिक-सांगठनिक मुहिम का औजार बना लिया है।

जी संपत्ति पर आधारित पूँजीवादी उत्पादन व्यवस्था में संपत्तिहीन शोषित 80% सर्वहारा-अर्द्धसर्वहारा ही इसके खिलाफ लड़ सकते हैं, इनको ही इसके विरुद्ध लड़ने की आवश्यकता है, क्योंकि यह उनकी पूँजीवादी शोषण से मुक्ति की लड़ाई में बड़ी बाधा है। इस वर्ग के संगठनों को इन दोनों लड़ाइयों को साथ-साथ चलाना ज़रूरी है।

मुकेश असीम स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।

 


 

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