अर्थार्थ : अबकी हालात 1930 की महामंदी से भी खतरनाक हैं! समझना ज़रूरी है…

सूर्य कांत सिंह
काॅलम Published On :


अब यह बात स्थापित हो चुकी है कि भारत मंदी की चपेट में आ रहा है। तमाम उद्योगपतियों से लेकर बड़े औद्योगिक घरानों तक ने बयान जारी कर इस विषय पर सरकार का ध्यान आकृष्ट करने की असफल कोशिश की है। टेक्सटाइल और चाय उद्योग ने मंदी की खबरें न दिखाए जाने से तंग आ कर विज्ञापन ही दे डाला। अर्थशास्त्री रघुराम राजन ने भी इस विषय को मुखर तौर से उठाया है। याद रहे कि राजन ही थे जिन्‍होंने 2007-08 की आर्थिक मंदी से साल भर पहले ही ‌‌‌‌‌‌‌‌अमरीकी बैंकरों को चेता दिया था। मंदी से औद्योगिक उत्पादन लगातार गिर रहा है और नौकरियां जा रही हैं। बेरोज़गार हो चुके मज़दूर पैसे की तंगी से व्याकुल हैं पर सरकार पर कोई असर होता नहीं दिख रहा।

पिछले माह वित्तीय वर्ष की पहली तिमाही का अंत हुआ और इस माह की शुरुआत से ही औद्योगिक इकाइयों के आंकड़े आने लगे। चूंकि मंदी (रिसेशन) के आंकड़े इतने व्यापक रूप से मौजूद हैं इसलिए हर एक का विस्तृत वर्णन करने से खास लाभ नहीं, फिर भी परिप्रेक्ष्‍य स्थापित करने के उद्देश्य से बड़े आंकड़ों का जिक्र कर देना उचित होगा।

इसी माह आयी राजस्व विभाग की रिपोर्ट के मुताबिक राज्यों के राजस्व में भारी गिरावट दर्ज हुई है, जो कई राज्यों के लिए 20 फीसदी तक है। सबसे बडी विसंगति यह है कि जिन राज्यों में औद्योगिक कार्य सबसे कम होते हैं, उन्हीं ने सबसे ज़्यादा कर्ज़ राजकोष में जमा किया है। इनमें बिहार, झारखंड, असम, उत्तराखंड प्रमुख हैं, जबकि दक्षिण भारत के कमोबेश विकसित राज्य सबसे कम राजस्व की उगाही कर पाये हैं।

शेयर बाज़ार में लिस्टेड सभी कम्पनियों ने अपने परिणाम सार्वजनिक कर दिए हैं। ये परिणाम भी रिसेशन की ओर ही इशारा कर रहे हैं। शेयर बाज़ार में विदेशी संस्थागत निवेशकों की हिस्सेदारी सबसे अधिक है और उनके पास बेहतर अनुसंधान भी उपलब्ध हैं। डेटा से साफ हो चला है कि विदेशी निवेशक भारतीय शेयर बाज़ार से भारी मात्रा में पैसे निकाल रहे हैं। शेयर बाज़ार रिसेशन से तुरंत पहले तक नहीं गिरता पर पिछली तिमाही में भारतीय बाजारों ने लगातार गिरावट दर्ज की है और कई लाख करोड़ की पूंजी डूब चुकी है। मिड कैप, स्माल कैप, मेटल, पावर, आयल-गैस, मैनुफैक्‍चरिंग, आटोमोबाइल, बैंक, एनबीएफसी समेत चौतरफा कमज़ोरी आयी है। केवल पिछ्ले एक साल को ही देखें तो में मार्केट कैप में आया बदलाव डरा देने वाला है।

रिसेशन (मंदी) किसी अर्थव्यवस्था में वह दौर होता है जब अर्थव्यवस्था के प्रमुख अंगों में आर्थिक क्रियाकलाप कम होने लगते हैं। यह दौर कुछ महीनों से लेकर वर्षों तक चल सकता है और इसके विस्तार के अनुरूप इसका असर जीडीपी, आय, रोज़गार, औद्योगिक उत्पादन और थोक-खुदरा बिक्री में प्रत्यक्ष दिखता है। इस दौर में अर्थव्यवस्था का बढ़ना बंद हो जाता है या वह सिकुड़ने लगती है। जीडीपी का लगातार दो तिमाही तक कम होना, बेरोज़गारी का बढ़ना और घर की कीमतों में गिरावट आना भी मंदी का संकेत है।

जीडीपी बढने की दर


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भारत की जीडीपी लगातार वित्त के जानकारों के लिए कौतूहल का विषय बनी हुई है। जीडीपी की गणना के आधार को मौजूदा सरकार ने बदल दिया था जिसके चलते यूपीए शासन के मुकाबले वह बेहतर दिखने लगी थी। उक्त विषय पर पूर्व वित्तीय सलाहकार द्वारा एक रिसर्च पेपर प्रकाशित किया गया है जिसमें उन्होंने सरकारी आंकड़ों का अध्ययन किया है। उनके पेपर के मुताबिक असल जीडीपी 4.5 फीसदी के आसपास है जिसे सरकार आंकड़ों के खेल से 7 फीसदी बता रही है।

अनुमानित फिस्‍कल डेफिसिट पहले ही चिंता का विषय था। वित्तीय विश्लेषक लगातार इस बात पर लिखते रहे हैं। देश का डेफिसिट पहले दो महीनो में ही सालाना अनुमान के आधे से ऊपर जा पहुंचा है इसलिए इस सरकारी अनुमान को और बढा दिया गया है। पर अब भी संदेह है कि वास्तविक फिस्‍कल डेफिसिट इस नये अनुमान से भी कहीं ज़्यादा होगा।

फिस्‍कल डेफिसिट

एनएसएसओ और सीएमआईई, दोनों के डेटा के मुताबिक बेरोज़गारी अब 45 वर्षों के उच्चतम स्तर पर है। बेरोज़गारों में पढे लिखे युवाओं की संख्या सबसे ज़्यादा है। देश में लगभग 4 करोड़ रजिस्‍टर्ड बेरोज़गार हैं।

मंदी के विस्तार के साथ 2018 में एक करोड़ लोगों की नौकरी चली गई है, साथ ही 2019 में अभी तक पचास लाख लोग अपनी नौकरियां गवां चुके हैं। यह आंकड़े प्रत्यक्ष रूप से गंवाई गई नौकरियों के हैं। अप्रत्यक्ष रूप से नुकसान कहीं ज़्यादा है।

बेरोज़गारी दर


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युवा बेरोज़गारी दर


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तनख्वाह और दैनिक मज़दूरी में गिरावट दर्ज़ की गई है। इसमें भी अनस्किल्ड मज़दूरों पर सबसे ज़्यादा असर हुआ है।

मजदूरी दर – कम कुशल मजदूर


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विदेशी कर्ज़ लगातार बढ रहा है।


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एनपीए से लदे हुए सरकारी बैंकों ने- जो सबसे ज़्यादा लोगों को सेवाएं देते हैं- लोन देना कम कर दिया है। कुछ को तो आरबीआइ ने ही लोन न देने के आदेश दिए हैं। पूरा एनपीए प्रकरण अपने आप में एक घोटाला है जिस पर मेरा विस्‍तृत लेख यहां पढ़ा जा सकता है।

ऋण वृद्धि


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बैलेंस आफ ट्रेड वह आंकड़ा होता है जो किसी देश के आयात और निर्यात के अनुपात को दिखलाता है। चूंकि औद्योगिक उत्पादन में भारी कमी आयी है इसलिए निर्यात भी घटा है जिसका प्रमाण घटते बैलेंस आफ ट्रेड में दिख रहा है।

व्यापार संतुलन


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भारत के उत्पादों की लागत लगातार बढ़ी है जिस वजह से देश अब भारत से आगे निकल चुके हैं। मिसाल के तौर पर टेक्‍सटाइल उद्योग में भारत का निर्यात इस वर्ष 30 फीसदी तक कम हुआ है, वहीं वियतनाम और बांग्लादेश जैसे कई छोटे देशों का निर्यात लगातार बढ़ रहा है।

औद्योगिक उत्पादन


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सरकार के लाख दावों के बावजूद एफडीआई में लगातार आ रही गिरावट अब भी जारी है। ध्यान देने वाली बात यह है की एफडीआई के डेटा में वे लोन भी शामिल हैं जो विदेशी कम्पनियों ने देश के बैंकों से लिये थे।

एफडीआई (Inflow) – जीडीपी के प्रतिशत में

इन सब आंकड़ों के साथ घरेलू खर्च भी कम हो रहा है। हालिया रिपोर्ट के मुताबिक भारतीय पुरुषों नें अंतःवस्त्र खरीदना कम कर दिया है। भले ही इस खबर को हंसी-मज़ाक में लिया गया हो पर सभी को पता है कि अंतःवस्त्र मूल आवश्यकताओं जैसे ही हैं। उनकी बिक्री में कमी आना गम्भीर वित्‍तीय संकट की ओर इशारा करता है। इससे यह भी साफ होता है की घरेलू खर्च में कमी आयी है और लोग सिर्फ बेहद ज़रूरी चीज़ों पर ही खर्च कर रहे हैं। यही हाल सरकारी खर्च का भी है। सरकारी खर्च और जीडीपी के अनुपात में भारी कमी आयी है।

सरकारी खर्च – जीडीपी के प्रतिशत में


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रिसेशन की वजह से ज़्यादातर उद्योगों का काम ठप हो जाता है। अगर कोई औद्योगिक इकाई बंद न हो तो उस उपक्रम को संसाधनों का पुन: आवंटन करना पड़ता है । इसमें प्रोडक्शन कम करना, कर्मचारियों की छंटनी करना, तनख्वाह या इंसेंटिव न देना आदि प्रमुख हैं। व्यापारिक त्रुटियों का एक साथ महसूस किया जाना और उन्हें कैसे टाला जा सकता है, इस पर अर्थशास्त्रियों ने कई अलग-अलग सिद्धांतों की पेशकश की है। ये आर्थिक सिद्धांत यह समझाने का प्रयास करते हैं कि अर्थव्यवस्था क्यों और कैसे अपने विकास की प्रवृत्ति को छोड़, अस्थायी तौर पर, मंदी में आ सकती है। इन सिद्धांतों को मोटे तौर पर आर्थिक कारकों, वित्तीय कारकों या मनोवैज्ञानिक कारकों के आधार पर वर्गीकृत किया जा सकता है।

उदाहरण के लिए, किसी भू-राजनीतिक संकट के कारण कच्चे तेल की कीमतों में अचानक आया उछाल एक साथ कई उद्योगों में लागत बढ़ा सकता है या फिर एक क्रांतिकारी नई तकनीक तेजी से किसी उद्योग को अप्रचलित कर सकती है। ये दोनों घटनाएं व्यापक रिसेशन को ट्रिगर कर सकती हैं। “रियल बिज़्नेस साइकिल थियरी” इन सिद्धांतों का सबसे अच्छा और आधुनिक उदाहरण है।

मुद्रास्फीति


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रिसेशन के अन्य प्रमुख कारणों में से एक है तेज़ी से बढ़ती महंगाई दर, जिसे मुद्रास्फीति या इनफ्लेशन कहा जाता है। मुद्रास्फीति का तात्पर्य किसी समय अवधि में वस्तुओं और सेवाओं की कीमतों में आयी वृद्धि से है। मुद्रास्फीति की दर जितनी अधिक होगी, हम पहले की तुलना में उतनी ही कम वस्तुओं और सेवाओं को खरीद पाएंगे। बढ़ती मुद्रास्फीति के माहौल में लोग खर्च में कटौती करते हैं और अधिक बचत करने लगते हैं। जीडीपी में गिरावट आती है और बेरोजगारी की दर बढ़ जाती है क्योंकि कंपनियां लागत कम करने के लिए श्रमिकों को काम देना बंद कर देती हैं (मुद्रास्फीति के आकलन के कई तरीके हैं पर सभी एक ही तरह का बदलाव दिखाते हैं)।

इसे समग्र रूप से समझने के लिये रेपो रेट के साथ महंगाई दर को भी देखना ज़रूरी है। जहां कम होती महंगाई दर को आम जनता के द्वारा सराहा जाता है वहीं मुद्रास्फीति का एक निश्चित स्तर के ऊपर रहना स्वस्थ आर्थिक व्यवस्था का सूचक है। यह संकेत होता है कि बाज़ार में माल की खपत आपूर्ति से ज्यादा है और ऊपरी तौर पर यह इस ओर भी इशारा करता है कि लोगों के पास खर्च करने के लिये पर्याप्त लिक्विडिटी है।

अब यह भी समझें कि भारत की मुद्रास्फीति लगातार कम हो रही है। शुरुआत में तो सरकार ने महंगाई कम करने के लिए खूब तालियां बटोरीं पर धीरे-धीरे यह साफ हो रहा है की महंगाई दर में आयी कमी दरअसल गहराते रिसेशन और कम होती मांग की वजह से है।

रिसेशन के कई अन्य कारण हो सकते हैं और यह भी सम्भव है कि बहुत सारे कारण एक साथ मौजूद हों। रिसेशन के कई प्रकारों में से एक, साइक्लिकल रिसेशन या चक्रीय मंदी है जिसकी वजह से लगभग हर दस साल में एक बार वैश्विक अर्थव्यवस्था बुरी तरह चरमरा जाती है। साइक्लिकल रिसेशन का असर सबसे ज्यादा विकसित अर्थव्यवस्थाओं पर दिखता है, पर बाकी देशों पर भी इसकी आंच तो आती ही है। ध्यान देने वाली बात यह कि इस बार की मंदी में ऐसा कोई कारण प्रत्यक्ष नहीं है। इसके विपरीत भारतीय रिजर्व बैंक चार बार लगातार रेपो रेट कम कर चुका है। इसके पीछे तर्क यह दिया जा रहा है कि अर्थव्यवस्था में तेज़ी आएगी पर रेपो रेट अत्यधिक कम करने से मुद्रास्फीति अचानक बढ़ भी सकती है। ओइसीडी के डेटा में ऐसा ही दिख रहा है।

मुद्रास्फीति बढने की दर – सीपीआइ

भारत की अर्थव्यवस्था में आये रिसेशन की वजह मुख्य तौर से सरकार की नीतियां हैं जिनसे सम्पूर्ण उद्योग जगत त्रस्त है। फिर चाहे वह जीएसटी का हड़बड़ी में लागू किया जाना हो या उसे लागू करने के बाद उसमें एक-एक कर किये गये सैकड़ों बदलाव। अभी देश नोटबंदी से उबरने के कगार पर ही था कि जीएसटी लागू कर दिया गया। इस बेतुके निर्णय से उपजे परिणाम को अब पूरा देश भुगत रहा है। दिये गये डेटा से यह साफ होता है कि जटिल प्रक्रियाओं के कारण कई लोग अपना जीएसटी सरेंडर कर चुके है और कई इस प्रक्रिया में हैं। दो साल पहले जमा किए गये बिलों की जांच नहीं हो पायी है जिससे धांधली और धोखाधड़ी की सम्भावना तो है ही, साथ ही सरकार का अब यह प्रयास है कि इनकम टैक्स विभाग के अधिकारियों को और अधिकार दिए जाएं। यह एक नए प्रकार के संकट, टैक्स टेररिज़म, की ओर इशारा करता है।

सरकार कई प्रमुख विषयों पर गौण दिखाई देती है, वहीं दूसरे विषयों पर दो खास उद्योगपतियों की पैरोकार के रूप में कार्य करती हुई दिखती है। ऐसे में उद्योग जगत में हाहाकार मचा हुआ है। लगभग 2000 करोड़पति पिछले पांच वर्षों में भारत से पलायन कर चुके हैं और सैकड़ों अन्‍य उसी राह पर दिख रहे है।

रिसेशन के जाने-माने उदाहरणों में संयुक्त राज्य अमेरिका का 2008 में उत्पन्न वित्तीय संकट है और 1930 का ग्रेट डिप्रेशन (महामंदी) है। इन दोनों मंदियों की वजह से वैश्विक रिसेशन के हालात उत्पन्न हो गए थे पर 1930 का रिसेशन 2008 वाले से कहीं बड़ा था। डिप्रेशन एक गहरा और लंबे समय तक चलने वाला रिसेशन है, हालांकि डिप्रेशन घोषित करने के लिए कोई विशिष्ट मानदंड मौजूद नहीं है पर ग्रेट डिप्रेशन की अनूठी विशेषताओं में जीडीपी में आई 10 फीसदी से अधिक की गिरावट और 25 फीसदी तक पहुंची बेरोजगारी की दर शामिल हैं।

विश्व भर में ये कयास लगाये जा रहे हैं कि इस बार की मंदी न केवल वैश्विक है बल्कि उससे उत्पन्न हालात 1930 के ग्रेट डिप्रेशन से भी खतरनाक होंगे। इसलिए इस बार की मंदी रिसेशन नहीं असल डिप्रेशन है! ऐसा क्यों कहा जा रहा है, इसे समझने के लिए हम अगले अंक में मौजूदा मंदी को और विस्तार से देखेंगे।


(जारी)