सार्वजनिक मामलों के प्रति उदासीनता की कीमत है दुष्ट पुरुषों द्वारा शासित किया जाना
-प्लेटो
किस बात की शुभकामना देना उचित है यह भी विचारणीय हो चला है। आज़ादी पर शुभकामना देना तो अब दकियानूसी बात ही है। जहां लोग अन्याय के खिलाफ सिर्फ आवाज़ उठाने पर कैद कर लिए जाएं, तो यह कैसे मानें कि वह मुल्क आज़ाद लोगों का है? कौन आज़ाद है यहां? क्या आप आज़ाद हैं?
कहने की ज़रूरत नहीं कि हालात बुरे हैं। काफी समय से बुरे हैं। महंगाई, बेरोज़गारी, अशिक्षा, गरीबी, सूखा, बाढ़, प्रदूषण, अपराध। जिस किसी संस्थान पर नज़र जाती है, वह अपने निर्धारित कर्तव्यों से ठीक उलट कार्य कर रहा है। जैसे किसी ने पूरी व्यवस्था को सिर के बल खड़ा कर दिया हो। लोग भी यह जानने-समझने लगे हैं यह व्यवस्था उनके साथ क्या-क्या कर सकती है। जब देश की 40 प्रतिशत अवाम को दो वक्त भोजन न मिलता हो तो उसके लिए आज़ादी के मायने क्या होंगे? क्या होने चाहिए?
यहां केवल अपराधी ही आज़ाद हैं। पहलू खान के आरोपी, उन्नाव का बलात्कारी, कठुआ के जघन्य अपराधी, ईमानदार व्यक्तियों को मुक़दमों में फंसाने वाले, जनता की गाढ़ी कमाई गबन करने वाले, सत्ता के इशारे पर कठपुतलियों की तरह अनुपालन करने वाले अधिकारी। खाकी, सफेद और काले वस्त्र वाले, भगवा और हरे वस्त्र वाले, हर तरह के अपराधी यहां आज़ाद हैं।
आज़ादी के पर्व को लेकर लगभग सबके मन में एक पूर्व निर्धारित छवि है। निजी रूप से मुझे स्वतंत्रता दिवस के दिन सबसे ज़्यादा निराशा महसूस होती है। देश भर में विशिष्ट अतिथियों को सुरक्षित और तेज़ प्रवास देने के लिए ट्रैफिक रोक दिये गये होंगे और कड़ी सुरक्षा के बीच सभी गणमान्य अक्षमों की भीड़ अपनी धुली हुई, सफेद सरकारी गाडि़यों पर सवार होकर समारोहों में पहुंची होगी। गाडियों के चालक, अपनी सवारी की उत्कृष्टता का भान खुद में करते, किसी कुशल सारथी की तरह गाडियों को यथासम्भव तेज़ी के हाँक रहे होंगे। ऐसा ही एक काफिला दिल्ली में प्रधान सेवक को लेकर लाल किला भी पहुंचा।
सार्वजनिक दीर्घा पर न कैमरे की नज़र गई न विशिष्टों की, पर मायूस भारत तो वहीं से नई आज़ादी के रंग-ढंग देख रहा था। जब “मेरे प्यारे देशवासियों..” जैसे अप्रतिम अभिवादन के साथ तालियों की गड़गड़ाहट सुनाई दे तो, मूढ़ों को भी समय के तकाज़े का अहसास हो जाना चाहिए। आह! क्या दृश्य। लहरदार कतारों में खड़े बाल दल को कहां अहसास है कि वह अंधेरी गुफा के मुहाने पर खड़ा होकर देशभक्ति के गीत गा रहा है। उन्हें एक उज्ज्वल भविष्य की परिकल्पना से बहुत इत्मीनान है। हो भी क्यों न? जब समूचा देश एक नए, महान भारत के सपने तले सम्मोहित है, वे तो फिर भी अबोध हैं।
केवल माहौल में दिख रही निश्चिंतता को ही उसके अनिश्चित होने का बोध हो, ऐसा नहीं है। लाल किले के आसपास अमूमन जो तेज़ हवा बहती है, वह भी उस दिन कुछ अनमने ढंग से बह रही थी। इतनी जीर्ण होकर कि तिरंगे को हमेशा की तरह नहीं लहरा पा रही। तिरंगा अब पहले से थोड़ा वज़नी भी तो हो गया है!
लड़कपन से युवावस्था तक आते-आते अंतःकरण में स्वतंत्रता के मायने बदल गए हैं। उम्र बढ़ने के साथ आज़ादी की पुरानी परिभाषा धूमिल होती दिखती है। इसमें एक स्वाभाविक तत्व वे निजी ज़िम्मेदारियां हैं जो इंसान को बांधती हैं, पर हर व्यक्ति इस बंधन को स्वीकार करते हुए कर्तव्यनिष्ठा के साथ उनका निर्वहन करना चाहता है। मन में सफलता की आकांक्षा लिए आज का युवा घर से निकलता है तो वह किंकर्तव्यविमूढ़ होता है। उसकी शिक्षा बेहद मामूली है और उस जैसे करोड़ों के पास है और जो शायद उससे बौद्धिक स्तर पर बेहतर भी हैं। पैतृक सम्पत्ति के नाम पर शायद उसे एक छत मिली जिसके नीचे वह फिलहाल सर छुपा सकता है। इस स्थिति में वह किसकी ओर देखे? उस सरकार की ओर जिसके नुमाइंदे शीशे के पीछे से भी अवाम से आंखें नहीं मिला पाते?
वह युवा अपने मन में विद्यालय में दी गई देशभक्ति की परिभाषा को टटोलता है और उसे खोखला पाता है। देशभक्ति के जिस नए आयाम से उसका सामना हो रहा है उससे पहले की छवियां जाती रही हैं। वह अपने आप को संशय में पाता है। सोचता है कि अब मुसलमानों के प्रति दुर्भावना ही देशभक्ति है? या एक पार्टी विशेष का झंडा बुलंद करना? देश के मुखिया पर आंख बंद कर के विश्वास करना देशभक्ति है या सरकार के विरुद्ध उठे किसी भी स्वर को कुचल देना?
व्यवस्था के प्रति आम असहमति है, फिर भी किसी का आवाज़ न उठा पाना एक अजीब सी निराशा पैदा करता है। तरह-तरह की खबरें घूम रही हैं, और एक मानचित्र भी! उन्मादी लोग यह सोच ही नहीं पा रहे कि जब हमारे नेता भ्रष्टाचार में स्नातक कर रहे थे, तब चीन विकास कर रहा था। हमारे आंकड़ों की तरह चीन के आंकड़ों पर विश्व भर में संदेह भी नहीं है क्योंकि चीन का विकास ज़मीनी हकीकत है। जहां एक ओर भारत की अस्थिर नीतियों की वजह से नेपाल जैसा हिंदू बहुल देश भी हमसे दूर जा रहा है, वहीं लोग पाक-अधिकृत कश्मीर को भारत में विलय होता देखना चाहते हैं।
यह कटु सत्य है कि पाकिस्तान को अमरीका और चीन ने शह दी है। चाय पर बात कर के अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर बात करना आसान है पर उससे आप पहली तह को खरोंच भर सकते हैं। तो उस मानचित्र से बहुत से लोगों ने बहुत से विचार गढ़ लिये। ज़ाहिर है कि भारत को, किसी भूभाग को अपने में सम्मिलित करने के लिए संघर्ष करना होगा। किसी आइडियोलॉजी से पोषित होकर आप सोच सकते हैं कि भारत ने पूरे उपमहाद्वीप पर कब्ज़ा कर लिया है, पर सत्य यही है कि हमारे संसाधन हमारी ज़रूरतों के लिये ही अपर्याप्त हैं। युद्ध में उन बहुमूल्य संसाधनों की तेज़ खपत होगी जो देश पर पहले से गहरे होते आर्थिक संकट को और विकराल बना देगी। संघर्ष में सैनिकों और आम लोगों के जान-माल को जो नुकसान होगा सो अलग।
अब तो लगता है कि सरकार अगर बोल दे कि सारे बैंक डूब गए हैं तो भी कहीं कोई आवाज़ न उठेगी। ऐसी अटकलें हैं कि सरकार सेवानिवृत्त कर्मचारियों को पेंशन और पीएफ का भुगतान करने में भी असमर्थ हो चुकी है। डीयू में तो यह खुले तौर पर सामने आ चुका है। रेलवे को निजी स्वामित्व में सौंपने की पूरी तैयारी हो चुकी है जिसके विरुद्ध देश भर के रेलवे स्टेशनों पर प्रदर्शन हो रहे हैं। भारतीय डाक निजी कम्पनियों को रियायती दरों पर अपनी लॉजिस्टिक सेवा दे रहा है। कई सरकारी उपक्रम भारी घाटे में हैं, कई अपने कर्मचारियों को तनख्वाह देने तक में असमर्थ हो चुके हैं। देश के एक अभिन्न अंग का संपर्क देश से काट दिया गया है। डेढ़ करोड़ लोग अपनी ही सरकार के बंधक हैं। एक ऐसी सरकार के बंधक, जिसके नीति-निर्णय अब हर संशय को पार कर मुखर रूप से जन-विरोधी हैं।
यह सरकार जन-विरोधी है और अत्याचार करने पर आमादा। भले ही कुछ लोग अभी इस बात से इनकार करें पर इस बात की प्रामाणिकता भविष्य में सामने आ ही जाएगी। पर तब आप कुछ भी कर पाने में असमर्थ हो चुके होंगे।
मित्र, जो अब भी निर्बाध पढ़, लिख, बोल ले रहे हैं, उनकी स्वतंत्रता बनी रहे। इस स्वतंत्रता दिवस बस यही कामना है।