जालान समिति के हाल के सुझाव भारतीय रिजर्व बैंक की बरबादी का सबब बन सकते हैं। जिनको पता न हो वे जान लें कि पूर्व आरबीआइ गवर्नर बिमल जालान के नेतृत्व वाली समिति ने आरबीआइ को यह सुझाव दिया है कि वह अपनी आकस्मिक निधि से भारत सरकार को 1,76,000 करोड़ रुपये सौंप दे। यह राशि आरबीआइ द्वारा किसी सरकार को दी गयी अब तक की सबसे बडी राशि होगी, वह भी तब, जब भारत सरकार ने मंदी को ही नहीं स्वीकारा है। आधिकारिक बयानों से भी यह साफ नहीं हो पाया है कि सरकार इतनी बड़ी रकम का क्या करेगी। इस बीच कयासों का दौर भी चल निकला है।
वित्त मंत्री के पिछले बयानों के मद्देनजर यही लगता है कि इस राशि का एक बहुत बड़ा हिस्सा बैंकों को जाएगा जिससे उनके एनपीए का बोझ कम किया जा सके। गौरतलब हो कि इस मार्फत सरकार पिछले पांच वर्षों में डूबते बैंकों को 3,19,497 करोड़ रुपये दे चुकी है। दूसरी सम्भावना यह जतायी जा रही है की सरकार अपने फिसकल डेफिसिट की भरपाई के लिए इस पैसे का इस्तेमाल करेगी। वास्तव में आरबीआइ के पैसों का इससे बेजा उपयोग हो ही नहीं सकता। एनपीए के पहाड़ के मुकाबले यह राशि राई का दाना भर भी नहीं है पर आरबीआइ के द्वारा इस राशि के सही इस्तेमाल से यह देश को आने वाले मंदी के झटके से कुछ प्रतिरोध तो दे ही सकती था।
वैश्विक स्तर पर देखा जाए तो यह घोटाला सरकार, बैंकों और कॉरपोरेट की मिलीभगत से किया गया पहला घोटाला बिलकुल नहीं है क्योंकि ठीक यही तरीका 2008 के डिप्रेशन में अमेरिका में इस्तेमाल हुआ, फिर आइसलैंड समेत अन्य कई देशों में। पश्चिमी लोग इसे पोंज़ि स्कीम कहते हैं। इस घोटाले को इस तरह समझें कि चुनिंदा कॉरपोरेट सरकार की सहायता से अत्यधिक लोन लेते हैं और अपने को दिवालिया घोषित कर देते हैं। इससे बैंक जरूरतमंद कारोबारियों को लोन देने में असमर्थ हो जाता है और मंदी आने लगती है। कॉरपोरेट द्वारा बडे कर्ज़ नहीं लौटाने पर बैंक कमज़ोर होते हैं और दिवालिया होने की कगार पर आ जाते हैं। मंदी के बीच बैंकों के ढहने से हाहाकार मच जाता है तब सरकार रक्षक बन कर बेलआउट पैकेज लाती है अर्थात अपने केंद्रीय बैंक से या बाहरी कर्ज़ ले कर बैंकों के नुकसान की भरपाई करती है और व्यवस्था फिर चल पडती है।
संक्षेप में, इस पूरी प्रक्रिया का निष्कर्ष यही है कि भ्रष्ट सरकार, बैंक और कॉरपोरेट जनता के कर का पैसा ले कर चंपत हो जाते हैं और देश कर्ज़ में डूब जाता है। उस कर्ज़ की भरपाई कभी नहीं हो पाती और व्यवस्था बरकरार रखने के लिए और कर्ज़ लिया जाता है। इससे देश सम्प्रभु नहीं रहता और उसके आर्थिक-राजनीतिक निर्णय विदेशी बैंकों द्वारा प्रभावित होने लगते हैं। यह व्यवस्था पहले ही विकसित देशों को अपने गिरफ्त में ले चुकी है।
आपको जानकर आश्चर्य होगा कि मौजूदा वैश्विक ऋण, वैश्विक जीडीपी के 250% तक पहुंच गया है। चूंकि ऋण पर ब्याज दर जीडीपी की वृद्धि दर से ज़्यादा है इसलिए इस ऋण की भरपायी असम्भव है!
मेकिंसी एंड कम्पनी के मेकिंसी ग्लोबल इंस्टीट्यूट द्वारा जारी किए गए पेपर को यहां पढा जा सकता है। इस रिपोर्ट में बढते वैश्विक ऋण और उसके असर पर विस्तार से चर्चा की गई है। दक्षिण एशिया के समग्र रुझान इस प्रवृत्ति को दर्शाते हैं कि दक्षिण एशिया के कुल बाहरी ऋण का 70% से अधिक अकेले भारत ने ले रखा है। अब ग्राफ को देखें तो भारत का विदेशी ऋण भारत की जीडीपी का 120% है!
रिपोर्ट में यह जानकारी भी मिलती है कि जिन सरकारी बांडों को बेच कर भारत ने ऋण ले रखा है वे 2019-20 में परिपक्व हो रहे हैं और उनका भुगतान मूल्य भारत की जीडीपी के 3% से ज़्यादा है। इसमें सरकारी डेफिसिट जोड़ दें तो यह आंकड़ा जीडीपी के 10% को भी पार कर जाता है। अगर जीडीपी की वृद्धि दर 4.5% के करीब भी मानें तो भारत को जीडीपी के 5.5% के बराबर राशि की किल्लत है। यह राशि बहुत बडी है और आने वाले समय की भयावह स्थिति को दर्शाने के लिए पर्याप्त।
अब अगर भारतीय कॉरपोरेट के विदेशी ऋण पर नज़र डालें तो वह भी इतनी ही बुरी स्थिति में हैं। मेकिंसी की रिपोर्ट के मुताबिक अगर ब्याज दर बढ़ा दिये जाएं तो चीन, ब्राज़ील और भारत के कॉरपोरेट अपने द्वारा जारी किये 30 से 40% बॉन्ड का भुगतान करने में असमर्थ हो जाएंगे। जहां भारत के लंबी अवधि वाले बाहरी ऋणों के भुगतानों में 70 प्रतिशत की भारी वृद्धि आयी है, वहीं अन्य दक्षिण एशियाई देशों ने 2016 में औसतन 3 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की है।
दूसरी ओर, भारत के लिए ऋण संवितरण 30% से ज़्यादा गिर गया है वहीं दक्षिण एशिया के बाकी हिस्सों में 28% प्रतिशत की वृद्धि हुई है। और तो और मालदीव जैसे दक्षिण एशिया की छोटी अर्थव्यवस्थाओं में भी 2015 के मुकाबले संवितरण में आठ गुना तक वृद्धि हुई है।
ब्याज दर कम रखने से एक ओर जहां आरबीआइ की आय कम हो रही है वहीं ऊपर दी गई जानकारी से साफ है कि इसका फायदा अवाम को नहीं मिल रहा। इसके असली लाभार्थी सीधे तौर पर कॉरपोरेट ही हैं क्योंकि वे डिफाल्ट से बच रहे हैं। यह जानकारी भी आरबीआइ की पूंजी से कॉरपोरेट वित्तपोषण की गाथा बयां कर रहा है। 2016 में मेचयोर हुए 24% कॉरपोरेट बॉन्ड “बकाया” थे, उसके बाद का डेटा उपलब्ध नहीं है। यानी ब्याज दर कम करने से मिले सीधे वित्तपोषण से उन कॉरपोरेट की क्रेडिट गुणवत्ता कुछ ठीक रहेगी और खाते भी साफ रहेंगे।
अगर आरबीआइ से मिली राशि डेफिसिट की पूर्ति के लिये इस्तेमाल की गई तो इससे सरकार अपने खातों को कुछ ठीक कर लेगी पर यह दूरगामी समाधान नहीं होगा। आर्थिक विशेषज्ञों ने बार-बार बयान जारी कर सरकार को चेताया है कि इस कठिन दौर में सरकार को उद्योगों पर निवेश कर मांग बढ़ाने की कोशिश करनी चाहिये पर सुझावों पर कोई कार्रवाई होती नहीं दिख रही। अब ज़रा समझें कि सरकार अपने खाते क्यों ठीक करना चाहती है।
इकनॉमिक टाइम्स का एक लेख जो जुलाई में इस लिंक पर प्रकाशित हुआ था, पिछले गुरुवार तक दिख रहा था पर शायद आर्थिक संकट की खबरें चर्चा में आने पर उसे हटा लिया गया है। आप उस लेख को यहाँ पढ सकते हैं। इसमें लिखा गया है कि भारत सरकार 10 बिलियन डॉलर का विदेशी ऋण लेने की योजना बना रही है जो कि 30 वर्ष के सॉवरेन (संप्रभु) बॉन्ड को विदेशी मुद्रा में बेच कर लिया जाएगा। बजट में हीं सरकार ने इस बारे में जानकारी सार्वजनिक की थी, हलांकि बाद में यह बयान भी आया है कि वैश्विक बाज़ारों की अनिश्चितता को देख कर अभी के लिए यह निर्णय टाल दिया गया है पर इस बात की पूरी सम्भावना है कि सरकार इस विषय में दोबारा प्रयत्न करेगी क्योंकि वह व्यवस्था को पूरी तरह से तबाह करने पर आमादा है।
सॉवरेन बॉन्ड सरकार द्वारा जारी किया गया एक विशिष्ट ऋण उपकरण है। इस बॉन्ड को घरेलू और विदेशी, दोनों मुद्रा में बेचा जा सकता है। अन्य बांडों की तरह यह बॉन्ड भी खरीदार को निश्चित अवधि के लिए ब्याज का भुगतान करने और परिपक्वता पर अंकित मूल्य चुकाने का वादा करते हैं। इस बॉन्ड साथ एक अनिवार्य रेटिंग भी जुड़ी होती है जो उस ऋण की योग्यता की बात करती है।
बॉन्ड की यील्ड (परिपक्व मूल्य) मुख्य रूप से तीन कारकों पर निर्भर होती है
- साख – जारी करने वाले देश की ऋण चुकाने की क्षमता। यह रेटिंग एजेंसियों से प्राप्त किया जा सकता है।
- जोखिम – अशांति और युद्ध जैसे बाहरी / आंतरिक कारक देश के ऋणों का भुगतान करने की क्षमता को खतरे में डालते हैं।
- विनिमय दर – जब बॉन्ड विदेशी मुद्रा में जारी किये जाते हैं तब विनिमय दर में आए उतार-चढ़ाव से सरकार पर भुगतान का दबाव बढ़ सकता है।
भारत के विषय में ये तीनों कारक फिलहाल विपरीत हैं। गर्त में जाती अर्थव्यवस्था को उबारने में सरकार पूरी तरह विफल रही है। स्थिति इतनी नाज़ुक है की सरकार अपना खर्च भी नहीं चला पा रही। आंकड़ों से खेलने के बावजूद स्थिति बिगड़ ही रही है। पाकिस्तान और चीन से बाहरी संकट कभी भी उत्पन्न हो सकता है, साथ ही जम्मू-कश्मीर के विभाजन और एनआरसी के क्रियान्वयन द्वारा सरकार खुद हीं आंतरिक संकट तैयार कर चुकी है। रुपये की हालत पहले ही जग-ज़ाहिर है।
केंद्रीय बैंक इन बांडों के उपयोग से अर्थव्यवस्था के भीतर धन की आपूर्ति को नियंत्रित करते हैं पर वैश्विक वित्तीय बाजारों में सॉवरेन ऋण, गैर-सॉवरेन ऋण से बहुत अलग होता है। सॉवरेन बॉन्ड एक निश्चित रिटर्न वाला उपकरण नहीं है। यह निरंतरता में मौजूद है और इसकी अंतर्निहित सम्पत्ति भी अनिश्चित है। वैश्विक वित्तीय बाजारों में गैर-निवासियों के लिए इसकी देनदारी अपने अधिकार क्षेत्र के अलावा अन्य कानूनों द्वारा भी शासित होती हैं जिससे सॉवरेन ऋण पर लेनदार द्वारा शत्रुतापूर्ण कानूनी कार्रवाई भी सम्भव है जो एक देनदार को असुरक्षित बनाती है।
सॉवरेन ऋण के संबंध में कानूनी रूप से कोई ऋण पुनर्गठन तंत्र भी नहीं है इसलिए सॉवरेन ऋण तभी तक अच्छा है जब तक अर्थव्यवस्था में अच्छा समय है। जब अर्थव्यवस्था में बुरा दौर आता है तो सॉवरेन ऋण कर्जदार देश और उसके नागरिकों के लिए बेहद दर्दनाक बन सकता है जैसा कि ग्रीस, तुर्की या अर्जेंटीना के उदाहरणों से पता चलता है। यह एक निरंकुश शासन द्वारा लिया गया राष्ट्रीय ऋण है जिसके लिये अंतर्राष्ट्रीय कानून और आई.एम.एफ, दोनों ही, सरकारों को अपने पूर्ववर्तियों द्वारा किये गये सभी ऋणों के उत्तरदायी मानती हैं।
अपने मौजूदा खर्च को पूरा करने के लिए सरकार के पास कुछ विकल्प रहते हैं, जैसे कर को बढ़ाना या बॉन्ड जारी करना। कर बढाना एक अलोकप्रिय कदम है जिसकी एक लंबी कानूनी प्रक्रिया है। सरचार्ज के नाम पर सरकार पहले हीं पैसों की उगाही कर रही है इसलिए अब सॉवरेन बॉन्ड को प्राथमिकता दी गई है। साधारण रूप में यह सीधा बाजार से ऋण लेने के समान ही हैं। सॉवरेन बॉन्ड का “यील्ड” वह ब्याज दर है जिसे सरकार बॉन्ड के परिपक्व होने पर अदा करती है। अस्थिर अर्थव्यवस्थाओं और उच्च मुद्रास्फीति वाले देशों को अपने बॉन्ड पर उच्च ब्याज रिटर्न जारी करना पड़ता है। यही कारण है कि सरकार मंदी की बात नहीं मान रही।
अपने फिसकल डेफिसिट की भरपाई कर के सरकार को कुछ महीनों की मोहलत मिल जाएगी जिसके दौरान सरकार सॉवरेन बॉन्ड जारी करने का खाका तैयार कर लेगी। जब बॉन्ड जारी कर सरकार भारत को भारी विदेशी कर्ज के अंतहीन चंगुल में फंसा चुकी होगी तब मान लेगी कि मंदी आ गई है। तीस वर्ष के बॉन्ड बेचने का मतलब साफ है कि इसे चुकाने का बोझ आने वाली किसी सरकार पर होगा और यह सरकार अभी ही साफ हो जाएगी। भारत ने 2017 में लम्बी अवधि के लिये प्राप्त ऋण पर ब्याज के रूप में 3.246 बिलियन डालर चुकाया था, बेशक इस भुगतान का बड़ा हिस्सा पिछली सरकारों के ऋणों के ब्याज पर गया।
पिछली वैश्विक मंदी 2008 में आई थी। तब से लेकर अब तक, भारत में सरकारी कर्ज़ 77% और कॉरपोरेट कर्ज़ 51% तक बढ़ गया है। बैंक पहले ही कर्ज़ के दबाव से जूझ रहे हैं, ऐसे में आरबीआइ से बचे-खुचे पैसे की उगाही या विदेशी कर्ज़ लेना कहीं से भी बुद्धिमानी नहीं है। सरकार शुरू से ही विरोधाभासी निर्णय लेती रही है। गलत निर्णय को पहले सही ठहराने की पुरजोर कोशिश होती है, बाद में उसके विपरीत परिणामों से घबरा कर सरकार पीछे हटती रही है। नीतियों में भारी उधेड़बुन है जो हमारी अर्थव्यवस्था के संचालकों की अयोग्यता बयान करती है।
इस बीच टाइम्स ऑफ इंडिया में छपी खबर के अनुसार बैंक आपके एटीएम पर लगाम लगाने की फिराक में है। बैंक इस प्रस्ताव पर विचार कर रहे हैं कि आप अपने एटीएम से दिन में एक ही बार पैसे निकाल सकें। इसके पीछे दलील यह है कि एटीएम फ्रॉड बढ़ गए हैं। अब अचानक से एटीएम फ्रॉड के वीडियो हर तरफ दिखने लगेंगे और आप किसी अच्छे नागरिक की तरह बिना सवाल किये या इसके पीछे के कारण को समझे इस निर्णय को भी मान लेंगे।
कमाल का देश है! अगले अंक में चर्चा जारी रहेगी…
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