पाठकों को याद होगा, अभी दो-तीन दिन पहले महाराष्ट्र के राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी राज्य के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे को पत्र लिखकर उनके सेकुलर होने पर तंज कसने के चक्कर में किस तरह जानबूझकर भूल गये थे कि उन्होंने अपना पदभार ग्रहण करते वक्त जिस संविधान में सच्ची निष्ठा व श्रद्धा रखने की कसम खाई थी, सेकुलरिज्म उसके पवित्रतम मूल्यों में से एक है। निस्संदेह, उन्हें इसकी प्रेरणा अपनी नियोक्ता नरेन्द्र मोदी सरकार के समर्थकों द्वारा स्थापित की जा रही उस नई परम्परा से मिली होगी, जिसमें ‘सेकुलर’ शब्द को अपशब्द की तरह इस्तेमाल किया जाता है।
कई लोग इसे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के सपनों का ‘नया’ और साफ कहें तो ‘हिन्दू’ भारत बनाने के लिए उसका बहुलतावादी स्वरूप बदलने की तैयारियों से भी जोड़ते हैं और उनका मानना है कि चूंकि ‘हम भारत के लोग’ इन तैयारियों को चुपचाप देखते जा रहे हैं, इसलिए उनमें लगे और उनसे अभिभूत लोगों का मंसूबा इतना बढ़ गया है कि वे सेकुलरिज्म को संविधान की पोथियों तो क्या उन विज्ञापनों तक में बरदाश्त करने को तैयार नहीं हैं, जिन्हें व्यावसायिक कम्पनियां अपने स्वार्थों के तहत तैयार कराती हैं-किसी भी तरह के वैचारिक हस्तक्षेप की आकोक्षा के बगैर, महज अपने उत्पादों की बिक्री बढ़ाने के लिए।
इसका ताजा उदाहरण है टाटा संस की कम्पनी तनिष्क ज्वेलरी के एक ‘सेकुलर’ विज्ञापन को लेकर सायास खड़ा किया गया वितंडा, जिसके बाद कम्पनी ने उसे वापस ले लिया। जिनकी भावनाओं को ठेस पहुंची, उनसे खेद जताते और यह कहते हुए कि वह विज्ञापन तो उसके ‘एकत्वम कैंपेन’ का हिस्सा था, जिसके पीछे विभिन्न क्षेत्रों के लोगों का एक साथ आकर जश्न मनाने का आइडिया है। लेकिन अपने कर्मचारियों, पार्टनरों और स्टोर स्टाफ की भलाई को ध्यान में रखते हुए वह विज्ञापन को वापस ले ले रही है।
विज्ञापन में एक मुस्लिम परिवार में गोदभराई की रस्म दिखाई गई थी, जिसमें हिन्दू बहू ने भावुक होते हुए अपनी मुस्लिम सास से पूछा कि’ मां, यह रस्म तो आपके घर पर होती भी नहीं है ना?’ सास का जवाब था’ लेकिन बिटिया को खुश रखने की रस्म तो हर घर में होती है। सास-बहू और साजिश मार्का टीवी धारावाहिकों के विपरीत इसमें किसी सास द्वारा बहू के लिए बेटी जैसे प्यार का प्रदर्शन एक सुखद अहसास देता था। लेकिन ‘नये’ भारत के नाम पर देश और देशवासियों को हजारों साल पीछे ले जाने के फेर में लगे तथाकथित हिन्दुत्ववादियों की आंखों ने इस अहसास के पीछे भी वह ‘लव जेहाद’ ढूंढ़ निकाला, जिसकी बाबत गत फरवरी में उनकी मोदी सरकार ने लोकसभा को बताया था कि न ऐसा कोई शब्द कानून में परिभाषित है और न ऐसा कोई मामला उसकी एजेंसियों के संज्ञान में ही आया है।
फिर तो इन विघ्नसंतोषियों ने न सिर्फ सोशल मीडिया पर तनिष्क के बहिष्कार की मुहिम चलाई बल्कि गुजरात के कच्छ जिले में उसके स्टोरों पर हमले कर वहां के मैनेजर से जबरन माफीनामा लिखवाया। यह कि ‘हम सेकुलर ऐड दिखाकर हिंदुओं की भावनाओं को आहत करने के लिए कच्छ जिले को लोगों से माफी मांगते हैं।’ अब कोई इस माफीनामे को टाटा संस के चेयरमैन रतन टाटा की कमजोरी बताये या उसे लेकर संवैधानिक मूल्यों के दुर्दिन का स्यापा करें, साजिशन ऐसे हालात बनाने वालों की मुहिमों को कोई फर्क नहीं पड़ने वाला क्योंकि फिलहाल, उनके सैंया कोतवाल हैं और उनके रहते उन्हें किसी का डर नहीं है।
हां, यहां याद कर सकते हैं कि अभी कुछ महीनों पहले रतन टाटा ने एक कार्यक्रम में कहा था कि हमारे प्रधानमंत्री और गृहमंत्री के पास देश के लिए एक विजन है और उन्होंने कई दूरदर्शी कदम उठाए हैं। उन्होंने उद्योगपति समुदाय से यह भी कहा था कि उन्हें ऐसी दूरदर्शी सरकार पर गर्व करना और उसका सहयोग करना चाहिए। ऐसे में क्या पता, औरों से सहयोग की अपील करते-करते उन्होंने खुद सेकुलर विज्ञापन की मार्फत ‘हिन्दुओं की भावनाओं को आहतकर’ अपनी कम्पनी के गहने बेचने की राह क्यों चुनी?
फिलहाल, दो ही कारण समझ में आते हैं। पहला यह कि ग्राहक अभी भी इस सरकार के नये हिन्दू भारत के मुकाबले बहुलवादी भारत के मूल्यों को ज्यादा स्वीकार करते हैं और दूसरा यह कि रतन कहें कुछ भी, उनके लिए सबसे पहले अपना मुनाफा ही है। इतना ही नहीं, उसके लिए उन्हें सुविधानुसार सेकुलर और साम्प्रदायिक कुछ भी होना मंजूर है। ऐसा नहीं होता तो वे तनिष्क के विज्ञापन के पक्ष में इतना तो कहते ही कि उसमें न किसी तरह की हिंसा दिखाई गई है, न यह दावा किया गया है कि वह सारे भारत का प्रतिनिधित्व करता है, न देश में अंतरधार्मिक विवाहों पर कोई पाबंदी है और न उनसे किसी की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचती है।
उन्होंने नहीं कहा, फिर भी उक्त विज्ञापन को लेकर मचा हड़बांग यह साबित करने में पीछे नहीं रहा कि आजकल भीतर से दरकते बताये जा रहे भारत में भी तथाकथित हिन्दुत्ववादियों का सबसे बड़ा डर यही है कि कहीं बहुलवादी भारत के विचार से पोषित हिंदू-मुस्लिम एकता उनके विभाजक एजेंडे पर भारी न पड़ जाए।
पिछले साल इसी डर के कारण होली के अवसर पर आये सर्फ एक्सेल के एक विज्ञापन के साथ भी उन्होंने ऐसा ही सलूक किया था, जिसकी टैगलाइन थी : अपनेपन के रंग से औरों को रंगने में दाग लग जायें तो दाग अच्छे हैं। अच्छी बात है कि पूंजी को ब्रह्म और मुनाफे को मोक्ष बनाने वाली व्यव्वस्था में भी हड़बोंग मचाने वालों का यह डर खत्म होने को नहीं आ रहा और न वे पूरे कुएं में भांग डाल पा रहे हैं।
अगर उनसे हारकर पांव पीछे खींच लेने वाली सर्फ एक्सेल और तनिष्क जैसी कम्पनियां हैं, तो पारले जी और बजाज जैसी भी हैं ही, जो अपने मूल्यों के लिए नफरत फैलाने वाले चैनलों पर विज्ञापन देने से इंकार की हिम्मत दिखा सकती हैं। गौरतलब है कि महात्मा गांधी के ट्रस्टीशिप के सिद्धांत का तकिया ऐसे ही उद्योगपतियों पर था, जो अंधाधुंध मुनाफे की हवस के शिकार नहीं होते और उसके लिए अपने व्यवसाय के नैतिक मूल्यों से समझौता नहीं करते।
यहां फूड डिलीवरी ऐप जोमैटो को भूल जाना भी वाजिब नहीं होगा, जिसने पिछले साल अपने एक ग्राहक द्वारा मुस्लिम डिलीवरी ब्वॉय से खाने की डिलीवरी न लेकर सोशल मीडिया पर अपनी बीमार श्रेष्ठता ग्रंथियों और अहं को तुष्टकर प्रचार पाने में लगे ग्राहक को बुरी तरह झिड़क दिया था। उसने ऐसे वक्त में भी, जब कहा जाता है कि उपभोक्ता अथवा ग्राहक की बादशाहत चल रही है, ऐसे मतांधों की ग्राहकी के दबाव में आने से इनकार कर दिया था। उक्त ग्राहक हिन्दू डिलीवरी ब्वाय की मांग करता रह गया था, लेकिन जोमैटो अपने इस रुख पर कायम रहा था कि ऐसे ग्राहक उसे छोड़कर चले भी जाते हैं, तो चले जायें। वह उनकी परवाह नहीं करने वाला क्योंकि उसे भारतीयता और अपने ग्राहकों व पार्टनरों की विविधता पर गर्व है। इससे उत्साहित सोशलमीडिया ने भी उक्त ग्राहक महोदय की भरपूर खबर ली थी। पूछा था कि अगर पायलट हिन्दू न हुआ तो हवाई जहाज़ से कूद जाओगे क्या?
लेकिन देश में लगातार बढ़ाये जा रहे अंधेरे कोनों में उजाले की ऐसी छिटपुट किरणें तभी तक कभी न कभी उजालों के व्यापक होने की उम्मीदें कायम सकेंगी, जब अभी बहुलतावाद के खिलाफ रचे जा रहे सारे षडयंत्रों को उदासीन भाव से देख रहे ‘हम भारत के लोग’ अपने भारत के पक्ष में अपनी पर आयेंगे। इस अपनी पर आने का फिलहाल कोई विकल्प नहीं है।
कृष्ण प्रताप सिंह लेखक और वरिष्ठ पत्रकार हैं। अयोध्या से निकलने वाले अख़बार जनमोर्चा के संपादक हैं।