संसद चर्चा: सोचिये अगर महात्मा गाँधी की जगह अंग्रेज़ हुक्मरान ही अनशन पर होते तो…?

मीडिया विजिल मीडिया विजिल
काॅलम Published On :


रविशंकर प्रसाद ने बजट सत्र के ज़ाया होने की ऐतिहासिकता का जो बखान किया है, वह एक वाचाल मंत्री की एकाकी भूल नहीं थी, बल्कि परधान जी सहित पूरा मंत्रिपरिषद और पूरा कुनबा ‘व्यवस्थित विस्मरण के इस सामूहिक अभियान’ में शामिल था

 

राजेश कुमार

कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने अभी दो दिन पहले कहा कि ‘संसद एक महीने नहीं चली और इसमें कांग्रेस की मुख्य भूमिका थी। भारत के इतिहास में पहली बार हुआ कि एक महीने संसद को चलने नहीं दिया गया।’ वह पटना में उपवास पर थे और सत्याग्रही पर असत्य-वचन की तोहमत क्या लगाना सो कहना चाहिये कि शायद भूल गये थे कि यूपीए-2 के कार्यकाल में दूसरी पीढ़ी के स्पेक्ट्रम आवंटन में राजकोष को लाखों करोड़ रुपये का चूना लगाने के मामले पर संयुक्त संसदीय समिति के गठन और कोयला ब्लाकों के आवंटन के मामले में प्रधानमंत्री के इस्तीफे की मांग को लेकर संसद ठप कर देने का भाजपा का रिकार्ड भी कुछ कम तो नहीं है।

नवम्बर 2010 में जे.पी.सी. पर भाजपा का इसरार तब था, जब एन्फोर्समेंट डायरेक्टोरेट, सुप्रीम कोर्ट की देखरेख में सी.बी.आई और खुद भाजपा के तब के शीर्ष नेता मुरली मनोहर जोषी की अध्यक्षता वाली संसद की लोकलेखा समिति, स्पेक्ट्रम मामले की जांच कर रही थी और तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह इस समिति के समक्ष पेश होने तक की पेशकश कर चुके थे। बहरहाल, संसद का वह शीतकालीन सत्र भाजपा के हंगामे की भेंट चढ गया था और 2012 के मानसून सत्र में भी लोकसभा 19 दिन में केवल छह दिन कामकाज कर सकी थी। इतना और ध्यान दिला दूं कि तब कामकाज ठप रहने के दिनों के वेतन-भत्ते छोड़ने की शहीदी मुद्रा तो दूर, लोकसभा में विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज और उनकी पार्टी ने बहस और चर्चा का हर प्रस्ताव खारिज करते हुये स्‍पष्‍ट कहा था कि सरकार का विरोध करने के कई तरीके हो सकते हैं और उनमें से एक तरीका संसद को ठप करना भी है, जबकि कोयला आवंटन पर संसद नहीं चलने देने को जायज ठहराते हुये अरुण जेटली ने इसे देश की अंतरात्मा को झकझोरने-जगाने का उपक्रम कहा था।

ध्यान रहे कि रविशंकर प्रसाद ने बजट सत्र के ज़ाया होने की ऐतिहासिकता का जो बखान किया है, वह एक वाचाल मंत्री की एकाकी भूल नहीं थी, बल्कि परधान जी सहित पूरा मंत्रिपरिषद और पूरा कुनबा ‘व्यवस्थित विस्मरण के इस सामूहिक अभियान’ में शामिल था। प्रधान सेवक उपवास का अपना दिन रक्षा मंत्री निर्मला सीतारमण के साथ चेन्नई में 10वें ‘डिफेंस एक्सपो’ का, श्रीपेरूम्बदूर में अडयार कैंसर इंस्टीट्यूट के रजत जयंती भवन का, उसके डे-केयर सेंटर और नर्सेज क्वार्टर का उद्घाटन करते बिता रहे थे, पार्टी अध्यक्ष अमित शाह कर्नाटक में उपवास पर थे और ‘मधुमेह के पीडि़तों को छोड़’ अन्य मंत्री-सांसद अपने-अपने निर्वाचन क्षेत्रों में।

इस अभियान की पीठिका लोकसभा टी.वी. के जरिये घर-घर पहुंचती स्पीकर की भाव-भंगिमाओं, सदन में उठते शोर, आसन के समक्ष आम तौर पर केन्द्रीय सत्ता से उपकृत, सत्तारूढ़ गठबंधन के करीबी दलों के सदस्यों के रूटीन जमघट और ‘ट्रेजरी बेंचेज’ के सदस्यों की शांतिप्रियता की छवियां पहले ही तैयार कर चुकी थी। छह अप्रैल की दोपहर 12 बजे के आसपास दोनों सदनों की कार्यवाही अनिश्चित काल के लिये स्थगित होते ही भाजपा-राजग के सदस्य संसद भवन परिसर में नाराज़ और हताश भंगिमा में बैठे गांधी के समक्ष धरना-प्रदर्शन के लिये जुट गये थे, सबके हाथ में तख्तियां थीं- ‘जनादेश के खिलाफ/नहीं चलेगा कांग्रेस का षडयंत्र’, ‘कांग्रेस होश में आओ, लोकतंत्र के साथ खिलवाड़ न करो’, ‘कांग्रेस ने किया/संसद का समय बर्बाद’, ‘संसद को रोकना/लोकतंत्र को रोकना’, ‘कांग्रेस का हाथ/ भ्रष्‍टाचार के साथ’, ‘सेव डेमोक्रेसी, अलाउ पार्लियामेंट टू फंक्‍शन’ जैसे नारों से लैस तख्तियां। बीच-बीच में नारे भी थे- कांग्रेस को आरोपित करते नारे।

कांग्रेस पर आरोप लोकसभा के भीतर भी थे, लोकसभा की कार्यवाही नहीं चलने देने के आरोप, लेकिन अकेले उस पर नहीं थे। ये आरोप, सदन में जो कुछ हो रहा था, उसके मेल में भी नहीं थे। अकेले संसदीय कार्यमंत्री अनंत कुमार जरूर मेहुल भाई और उनके भांजे नीरव मोदी के पंजाब नेशनल बैंक को 11,500 करोड़ रुपये का चूना लगाकर विदेश भाग निकलने के प्रकरण पर उत्तेजित विपक्ष के शोर के बीच 6 मार्च को तृणमूल कांग्रेस, टी.आर.एस. और शि‍वसेना के साथ कांग्रेस को भी अपनी सीटों पर लौट जाने की नसीहत देते सुने गये थे। उन्होंने बाद में भी कुछेक मौकों पर सदन नहीं चलने देने के लिये कांग्रेस को सीधे या परोक्ष तौर पर जिम्मेदार बताया, लेकिन कम-से-कम बजट सत्र के दूसरे चरण में 5 मार्च से 6 अप्रैल तक शायद ही कभी कांग्रेस के सदस्य, अध्यक्ष के आसन के सामने जमे या अपनी सीटों के पास खड़े होकर शोर षोर करते देखे गये हों। अमूमन और कम-से-कम 12-13 मार्च से तो हर रोज अध्यक्ष के आसन के सामने, कावेरी विवाद और आंध्रप्रदेश को विशेष दर्जा देने जैसी कुछ मांगों को लेकर कुछ प्रादेशिक दलों के सदस्यों का जमाव और धीरे-धीरे अनिच्छुक सी होती गयी नारेबाजी थी, जो सदन में ‘आर्डर के विध्वंस’ के लिये काफी थी। हर रोज कागजात सदन के पटल पर रखे जाने के बाद स्पीकर ने दो-चार मिनट में ही घंटे-दो घंटे के लिये नहीं, एकबारगी दिन भर के लिये सदन की कार्यवाही स्थगित भले कर दी हो और मंत्रिपरिषद में अविश्‍वास के छह-छह नोटिस सदन में व्यवस्था नहीं होने की भेंट भले चढ गये हों, इसके लिये स्पीकर ने शायद ही कभी कांग्रेस की ओर इंगित किया हो। अकारण नहीं था कि सीधे कांग्रेस को निशाने पर लेने और धरने-प्रदर्शन-उपवास के लिये प्रधान सेवक और उनकी पार्टी ने बजट सत्र समाप्त होने का इंतजार किया- पहले, सुबह अनंत कुमार ने धरनास्थल पर प्रेस से बातचीत में और फिर प्रधान सेवक ने मुम्बई में पार्टी के 38वें स्थापना दिवस को संबोधित करते हुए। और दोनों का लब्बोलुआब यह था कि ‘‘जनादेश को, एक गरीब मां के बेटे के प्रधानमंत्री बन जाने को, पिछडे वर्ग के लोगों के देश के शीर्ष पदों पर पहुंच जाने को और भाजपा की बढ़ती ताकत को कांग्रेस और उसका शीर्ष नेतृत्व पचा नहीं पा रहा है, दोनों सदनों को वह इसीलिये काम नहीं करने दे रहा है।’

बजट सत्र के दूसरे चरण में करीबन हर रोज कागजात सभापटल पर रखे जाने के बाद चंद क्षणों में लोकसभा की कार्यवाही दिन भर के लिये और 6 और 15 मार्च के दो अपवादों को छोड़ राज्यसभा की कार्यवाही पहले अपराह्न दो बजे तक और फिर दिन भर के लिये स्थगित करने के पत्रकार अनिल चमडिया द्वारा इंगित पैटर्न को भूल भी जायें तो स्पीकर ने तो नज़ीर होने के बावजूद क्षेत्र विशेष के मुद्दे पर प्रदेशिक दलों के सदस्यों को हफ्ते-पांच दिन के लिये सदन से निलंबित कर अविश्‍वास प्रस्ताव की नोटिसों तक पर फैसला नहीं करके केन्द्र से लेकर राज्यों तक में भविष्‍य की किसी भी सरकार के अल्पमत में आ जाने पर भी अविश्‍वास प्रस्तावों से बचने का एक विधायी हथियार नहीं दे दिया है। क्या स्पीकर की ही तरह, प्रधान सेवक और उनकी पार्टी के पास भी सचमुच कोई और विकल्प नहीं था। क्या प्रधान सेवक और उनकी सरकार आसन के सामने आ जमने वाले दलों के सरोकारें पर उनसे चर्चा नहीं कर सकते थे। क्या सदन नहीं चलने की स्थिति में सदस्यों के वेतन-भत्तों-सुविधाओं में कटौती के कदम नहीं उठाये जा सकते थे या कम-से-कम सत्रावसान न करने और सत्र की अवधि आगे बढाकर, जाया हुये दिनों की भरपायी की मल्लिकार्जुन खडगे और आनंद शर्मा की अपील स्वीकार नहीं की जा सकती थी।

शायद किया यह सब जा सकता था, इसके अतिरिक्त भी बहुत कुछ, लेकिन हुआ यह कि नीरव मोदी प्रकरण पर और अविश्‍वास प्रस्ताव के नोटिसों पर धूल डाल दी गयी और इससे फायदा किसी का हुआ हो, विपक्ष और खासकर कांग्रेस को जवाबदेह बता दिया गया। करना नहीं, दिखना-दिखाना हमारे समय की राजनीति का नया मुहावरा है, सो धरने के अगले चरण के तौर पर, 12 अप्रैल को सांसदों के दिन भर के अखिल भारतीय उपवास की घोशणा तो 6 अप्रैल को ही कर दी गयी थी, इस उपवास में प्रधान सेवक की भागीदारी की पुष्टि 11 अप्रैल को की गयी। शायद छवि-आग्रही परधान जी को याद आ गया हो कि उपवास की भी अगुवाई तो आखिर उन्हें ही करना चाहिये या फिर शायद गांधी की यह बात कि सत्याग्रह के लिये कोई योजना गैर-जरूरी है।

महात्मा गांधी उपवास और अनशन को सत्याग्रह का एक अत्यंत प्रभावी हथियार मानते थे। निष्कलंक उपवास की उनकी अवधारणा में स्वार्थपरता, रोष, अनास्था और असहिष्‍णुता के लिये कोई जगह नहीं थी। उन्होंने बीसेक बार उपवास किया होगा। अक्सर अस्‍पृश्‍यता या किसी हिंसक घटना या किसी दमन के विरोध में या कौमी एकता की खातिर। अक्सर किसी सत्य पर आग्रह या किसी अपराध के प्रायश्चित के तौर पर, अपने नहीं, बल्कि बहुत अपने समाज की किसी भूल, किसी अपराध पर, जैसे असहयोग आंदोलन के बीच जब चौरी-चौरा में सामूहिक हिंसा भड़क उठने पर। अक्सर औचक और व्यक्तिगत उपवास, किसी विज्ञापन या ऐसे वाचाल दावे के बगैर कि उपवास के साथ वह काम भी करते रहेंगे।

इत्तफाक कि अभी पिछले ही महीने भारत में उनके प्रथम उपवास की सदी पूरी हुई है, मजदूरों के वेतन में बढोतरी से इंकार और मिल बंद करने की मालिकों की धमकी पर मार्च 1918 में अहमदाबाद में उनके तीन दिन के उपवास के 100 वर्ष। कैसी स्थिति होती अगर महात्मा नहीं मिल मालिक ही अनशन कर देता या अंग्रेजी हुक्मरान और वह भी किसी प्रायश्चित के लिये नहीं?


लेखक वरिष्‍ठ पत्रकार हैं। यूनीवार्ता के लिए वर्षों इन्‍होंने संसद को कवर किया है।