संसद चर्चा: सदन से बाहर राष्ट्रीय चरागाहों में जुबानी जुगाली करता हुआ एक आत्मलीन नायक

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काॅलम Published On :


राजेश कुमार 

”मुझे याद नहीं कि इससे पूर्व किसी प्रधानमंत्री ने लालकिले से इस तरह की बात कही हो, अगर कहा हो तो मैं उन्हें नमन करूंगा। मैंने यह कहा था कि इस देश में जितनी सरकारें बनी हैं, उन सभी सरकारों ने, जितने भी प्रधानमंत्री बने हैं, उन सब प्रधानमंत्रियों के योगदान से यह देश आगे बढ़ा है। मैंने यह बात लालकिले से कही थी, मैंने इस सदन में भी इस बात को कहा था और मैं आज दोबारा कहता हूं कि यह देश कई लोगों की तपस्या से आगे बढ़ा है, सभी सरकारों के योगदान से आगे बढ़ा है। हां, शिकायत यह होती है कि अपेक्षा से कहीं कम हुआ है और लोकतंत्र में शिकायत करने का हक सभी का होता है, लेकिन कोई यह नहीं कह सकता है कि पुरानी सरकारों ने कुछ नहीं किया है।’’

प्रधान सेवक ने बाबासाहेब भीमराव आम्बेडकर की 125वीं जयंती के मौके पर भारत के संविधान के प्रति वचनबद्धता पर चर्चा में भाग लेते हुए 27 नवम्बर 2015 को लोकसभा में यह कहा था। यह डेढ़ साल की सत्ता के क्रम में मिला कोई दिव्यज्ञान नहीं था। आप इससे पहले और इसके बाद भी उन्हें इससे ठीक उलट बातें कहते सुन सकते हैं। केवल संसद के बाहर नहीं और केवल चुनावी गर्मी में नहीं, जहाँ सभ्य विमर्श की हानि लगभग आम हो चली है, बल्कि संसद के भीतर भी।

आखिर कांग्रेस को देश के विभाजन का कसूरवार और प्रगति की धीमी रफ्तार के लिये नेहरू-इंदिरा-राजीव की सरकारों की गलत दिशा और दोषपूर्ण नीतियों को जिम्मेदार तो प्रधान सेवक ने अभी संसद में ही ठहराया। दोनों सदनों की संयुक्त बैठक में राष्‍ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव पर चर्चा के प्रधान सेवक के डेढ घंटे के लम्बे उत्तर में अभी 7 फरवरी को हद तो यह हुई कि उन्होंने कहा कि नेहरू की जगह सरदार वल्लभभाई पटेल देश के प्रथम प्रधानमंत्री होते तो पूरा कश्‍मीर भारत का होता, मल्लिकार्जुन खड़गे पर तंज कसा कि देश की बजाय एक परिवार की भक्ति से आपकी जगह बनी रहेगी, राहुल गांधी पर व्यंग्य किया कि ‘देश जब डोकलाम में लड़ रहा था तब आप चीन से बात कर रहे थे। पिछले साल ऐसे ही मौके पर उन्होंने लोकसभा में राहुल गांधी का उपहास करते हुए कह दिया था कि ‘स्कैम’ की जगह ‘सेवा’ शब्द के उनके इस्तेमाल पर प्रकृति का ऐसा कोप हुआ कि उत्तर भारत में भूकम्प आ गया और राज्यसभा में पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को निशाने पर लेते हुए कहा कि ‘इतने घोटालों के बाद भी बेदाग! बरसाती पहनकर नहाने की कला तो केवल डाक्टर साहब जानते हैं।’

यह संसद को सड़क के कैरीकेचर में बदलना था। सड़क पर और हर जनसभा, हर रैली, हर रोड शो में आप देश को मुख्य विपक्षी पार्टी से पूर्ण मुक्ति दिलाने की शपथ ले सकते हैं, विपक्षी नेताओं पर मर्मांतक प्रहारों की झोंक में तमाम मर्यादाओं को बला-ए-ताक रखकर पूर्व प्रधानमंत्री पर पाकिस्तान के साथ मिलकर साजिश करने तक के आरोप लगा सकते हैं, बता दे सकते हैं कि तक्षशिला दरअसल बिहार में ही था और कि प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने शिमला समझौता जुल्फीकार अली भुट्टो के साथ किया था, बेनजीर भुट्टो के साथ नहीं और प्रश्‍न की शक्‍ल में एक चालाक झूठ भी उछाल सकते हैं- ‘‘अगर आपमें से किसी को यह जानकारी है तो जरूर बताना, मुझे नहीं है, मैंने जितना इतिहास पढ़ा है, मेरे ध्यान में नहीं आया। लेकिन फिर भी अगर आपमें किसी को जानकारी हो तो मैं मेरी बात में सुधार करने के लिये तैयार हूं। आप मुझे बताइये, देश के लिये मर-मिटने वाले, आजादी के जंग के अंदर जान खपाने वाले, वीर शहीद भगत सिंह जब जेल में थे, मुकदमा चल रहा था, क्या कोई कांग्रेसी परिवार का व्यक्ति शहीद वीर भगत सिंह को मिलने गया था?’’

भीड़ इसकी इजाजत देती है, बशर्ते भीड़ अपनी हो और उसे अनुशासित रखने वाले कारकून भी। और लोगों से संवाद कायम कर लेने, उन्हें अपने शब्दों से बांध लेने, चमत्कृत कर देने, उनकी भावनाएं जगाने और उन्हें बहा ले जाने के प्रधान सेवक के फन, वक्तृता की उनकी सहजात क्षमता से इंकार किसे है?

वह तो नायक हैं- मोद्दीह-मोद्दीह-मोद्दीह वाले नायक। और ऐसे नारे गुंजाती भीड़ कुछ भी सुनती है- इतिहास के एक मनगढ़ंत पाठ से लेकर विपक्ष और विपक्षी नेताओं का उपहास-परिहास-मजाक तक, सब कुछ। कुछ हद तक यह सुविधा पत्रकारों से पूर्वनियोजित-प्रायोजित साक्षात्कारों में भी उपलब्ध हो सकती है। वैसे भले ही वे सातों दिन, चैबीसों घंटे असहमत पैनलिस्टों की अहर्निश धुलाई में व्यस्त दिखते हों, वैसे भले वे ‘मोहे रंग दे तू रंग दे बसन्ती’ की हुंकार भर रहे हों और ‘सवालों की उंगली/जवाबों की मुट्ठी/संग लेकर खून चला’ की भी, मानो क्रांति से कम कुछ भी स्वीकार न हो, सत्ता का सामना होते ही ‘मोद्दीह-मोद्दीह’ का नया संस्करण रचने लगते हैं। अभी जनवरी में जब दो पत्रकारों और अप्रैल में एक गीतकार को भी प्रधानसेवक ने साक्षात्कार लेने का श्रेय बख्शा, तो उन सब का स्वर और ध्वनि कुछ ऐसी थी कि आप इतने महान कैसे हैं, आपके इतने ऊर्जावान, इतने सक्रिय होने का स्रोत क्या है?

संसद का स्वर अलहदा होता है। वहां बोलना लगभग समतुल्यों से संवाद के जोखिम से दो-चार होना है- दूसरों की मान्यताओं, उनकी धारणाओं, उनके विश्‍वासों, संकल्पों पर कान देने, ठहरने और कम-से-कम उन पर सोचने की चुनौती से दो-चार होना, शासितों को, तमाम तरह की सत्ताओं से चुंधियाए अस्तित्वों को लक्षित एकालाप में यह जोखिम, यह चुनौती नहीं होती। संसद में बोलने में संयम, सिद्धांतपरकता और सलीके की दरकार होती है, सवाल सहने और उनके जवाब तलाशने की मंशा और सलाहियत की दरकार होती है। वहां बोलेंगे तो विपक्ष फैसलों-कदमों को प्रश्‍नांकित करेगा, सवाल करेगा, तथ्य रखेगा, आपत्ति उठाएगा, तर्क करेगा, नायकत्व जिसकी गुंजाइश कम ही छोड़ता है।

संभव है कि संसद में आप भगत सिंह-बटुकेश्‍वर दत्त-नेहरू का चालाक आख्यान रचने लगें तो कोई प्रतिवाद कर दे कि नेहरू 4 जुलाई 1929 को जेल में भूख हड़ताल कर रहे भगत सिंह, बटुकेश्‍वर दत्त और यतीन्द्रनाथ दास से मिले थे, इस बारे में अगले दिन उन्होंने एक टिप्पणी भी लिखी थी, जो उनकी रचनाओं में संकलित है और ‘ट्रिब्यून’ अखबार ने इसकी खबर भी छापी थी।

याद कीजिये, प्रधान सेवक ने पिछले आम चुनावों के प्रचार अभियान के दौरान ‘मौन मोहन सिंह’ कहकर तत्कालीन प्रधानमंत्री पर करारा हमला किया था। मुद्रा और मर्यादा के सवाल छोड़ दें तो इस हमले को निराधार भी नहीं कह सकते। भाजपानीत विपक्ष ने महत्वपूर्ण मामलों पर चुप्पी के लिए कई बार उनकी आलोचना की थी, अगस्त 2013 में रुपये के मूल्य में भारी गिरावट और एक अमरीकी डॉलर की कीमत 66 रुपये तक पहुंच जाने के बाद विपक्ष ने उन्हें संसद में बयान देने पर मजबूर किया था और 2009 के शीतसत्र में कई दिनों तक सदनों से उनकी अनुपस्थिति को राज्यसभा में विपक्ष के नेता अरूण जेटली ने संसद के प्रति सरकार की जवाबदेही के सिद्धांत पर गंभीर आघात तक बताया था। मनमोहन सिंह संसद के भीतर ही नहीं, आम तौर पर बाहर भी कम ही बोलते थे और कई बार चुनावी प्रचार तक से दूर रहना पसंद करते थे। यह नहीं कि चार साल में संसद में बोले 19 बार और बाहर सभाओं, रैलियों, रोड शो में 800 बार। हर 14वें दिन रेडियो पर ‘मन की बात’ अलग से।

आम आदमी पार्टी के राज्यसभा सदस्य संजय सिंह ने अभी पिछले सप्ताह दिल्ली उच्च न्यायालय में दायर एक जनहित याचिका में कहा है कि प्रधान सेवक एक बार सरकारी विधेयक पर बोले, दो बार विशेष बहसों में भाग लेते हुए, पांच बार संसद से अपने मंत्रियों का परिचय कराते हुए और छह बार राष्‍ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव पर चर्चा का उत्तर देने की परम्परागत मजबूरी के चलते। इकनॉमिक टाइम्स ने पिछले अक्टूबर में बताया था कि प्रधान सेवक ने इनमें से करीब 170 भाषण विदेश में दिए। संसद में तो वह नोटबंदी के बाद 16 नवम्बर 2016 को शुरू हुए शीतकालीन सत्र में विपक्ष की भारी मांग के बाद भी करीब सप्ताह भर तक सदनों में नहीं पहुंचे, उनकी सरकार ने उनकी अनुपस्थिति में ही जी.एस.टी. विधेयक पर संसद में बहस कराई और उसकी मंजूरी हासिल की, वह दलितों पर अत्याचार और 2015 के अंतिम महीनों में अरूणाचल प्रदेश सरकार और 2016 के मध्य में उत्तराखंड की कांग्रेस सरकार की बर्खास्तगी जैसे महत्वपूर्ण मुद्दे पर भी चर्चा के वक्त संसद से अनुपस्थित रहे।

यह अनुपस्थिति प्रधान सेवक की इस प्रतीति, इस समझ के बावजूद थी कि ‘संवाद के लिये संसद के सदनों से बडा कोई मंच नहीं हो सकता। बहस, विवाद और संवाद संसद की आत्मा है।’ अलबत्ता प्रधानसेवक ने यह बात भी सदनों से बाहर कही थी, 2015 में शीतकालीन सत्र के पहले दिन 26 नवम्बर को संवाददाताओं से बात करते हुए, जिसमें इतना और जोडा था कि ‘दूसरी चीजों के लिए तो पूरा देश है ही।’ शायद नायकत्व की आभा और पहनने, ओढ़ने, सोचने, चलने और अपनी आवाज तक के जादू में लीन व्यक्ति की संवाद में दिलचस्पी इतनी कम होती है और एकालाप का अभ्यास इतना अधिक कि उसे सदनों से बाहर पूरे देश की चरागाहों का ही आसरा होता है।