राजेश कुमार
लोकसभा की वेबसाइट कल 25 मई 2018 तक सदन में भाजपा के सदस्यों की संख्या 274 बता रही थी और खाली सीटों की संख्या पांच। यानि उत्तर प्रदेश में कैराना, महाराष्ट्र में पालघर तथा भंडारा गोंदिया और नगालैंड की एकमात्र सीट के अलावा केवल जम्मू-कश्मर की अनंतनाग सीट खाली है। राज्य में पीडीपी-भाजपा गठबंधन सरकार की कमान संभालने के बाद लोकसभा से पिछले साल पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी की नेता महबूबा मुफ्ती के इस्तीफे से यह सीट खाली हुई थी और अगर कानून एवं व्यवस्था की बिगड़ती दशा के कारण वहां उपचुनाव स्थगित नहीं कर दिया गया होता तो कल वहां मतदान हो चुका होता।
बहरहाल, खाली सीटों में कर्नाटक की शिमोगा, बेल्लारी और मांड्या सीटें शामिल नहीं हैं। यह तब है, जब शिकारपुर और मोलाकलमुरू से कर्नाटक विधानसभा के लिये चुने जाने और 19 मई को सदन की सदस्यता ग्रहण करने से कुछ पहले ही भाजपा के बी.एस. येदुरप्पा और बी. श्रीरामुलु ने लोकसभा की अपनी-अपनी सीटों से इस्तीफा दे दिया था। इस्तीफा तो मेलुकोट से विधानसभा में पहुंचने के बाद मांड्या के जनता दल-एस सांसद सी.एस. पुट्टराजू ने भी दे दिया है, लेकिन 19 मई को लोकसभा सचिवालय के बुलेटिन, भाग-2, संख्या 6885-6886 में इन्हीं दोनों के इस्तीफे दर्ज हैं। 21 मई को दोनों के इस्तीफे मंजूर किये जाने की खबरें हैं, पी.टी.आई. ने तो आधिकारिक सूत्रों के हवाले से यह खबर दी थी। फिर वेबसाइट पर रिक्तियों की संख्या में 2 का इजाफा होता है और सदस्यों की पार्टीवार स्थिति में भाजपा की सदस्य संख्या में 2 की कमी। लेकिन 19 को विश्वास मत जुटाना असंभव पाकर येदुरप्पा मुख्यमंत्री पद छोडने की घोषणा करते हैं, राज्यपाल वजुभाई वाला जद-एस-कांग्रेस गठबंधन को सरकार बनाने का न्यौता देते हैं, 21 मई को कुमारस्वामी का शपथग्रहण प्रस्तावित किया जाता है और 22 मई से लोकसभा की वेबसाइट फिर रिक्त सीटों की संख्या 5 और सदन में भाजपा के सदस्यों की संख्या 274 बताने लगती है। यह स्थिति कल यह लेख लिखे जाने तक बरकरार थी, सोशल मीडिया और कुछ अखबारों, पोर्टलों पर इस बारे में तमाम विवादों के बावजूद।
तो येदुरप्पा और श्रीरामुलु फिलवक्त विधानसभा के भी सदस्य हैं और लोकसभा के भी। वैसे ही, जैसे अभी हाल में योगी आदित्यनाथ और केशव प्रसाद मौर्य भी करीब छह महीने लोकसभा सदस्य होने के साथ-साथ मुख्यमंत्री और उपमुख्यमंत्री की दोहरी भूमिकाओं में रह चुके हैं। दोनों ने 18 मार्च 2017 को प्रदेश सरकार की कमान संभाली थी, पूरे छह महीने बाद 18 सितम्बर 2017 को प्रदेश विधान परिषद के सदस्य के तौर पर शपथ ग्रहण किया और इसके 2-3 दिन बाद लोकसभा की सदस्यता से इस्तीफा दिया था। संविधान के अनुच्छेद 164/4 में व्यवस्था है कि कोई व्यक्ति राज्य विधानमंडल के किसी सदन का सदस्य हुये बिना उस राज्य में 6 महीने तक मंत्री बना रह सकता है।
हुआ तो यह गिरिधर गमांग प्रकरण में भी था, बल्कि वह तो शायद एक राजनेता की ऐसी दुहरी उपस्थितियों की चरम परिणति था। उड़ीसा में ऊपरी सदन है नहीं और राज्य के मुख्यमंत्री के पद पर गिरिधर गमांग की नियुक्ति के दो महीने बीत चुकने पर भी वह चुनकर विधानसभा में पहुंचे नहीं थे, सो एक साथ दो सदनों का सदस्य बने रहने पर अनुच्छेद 101/2 की निषेधाज्ञा और किसी दूसरे सदन का सदस्य निर्वाचित होने पर 14 दिन के भीतर किसी एक की सदस्यता छोड़ देने का उसका प्रावधान वहां प्रत्यक्षतः लागू होता नहीं था। बात 17 अप्रैल 1999 की है। मुख्यमंत्री गमांग लोकसभा में पहुंचे थे और उन्होंने अन्नाद्रमुक के समर्थन वापस ले लेने के बाद पेश वाजपेयी सरकार के विश्वास प्रस्ताव के खिलाफ मतदान किया था। ‘टाई’ होने की स्थिति में स्पीकर जी.एम.सी. बालयोगी ‘कास्टिंग वोट’ देकर सरकार को बचा सकते थे। स्पीकर को इसका अधिकार होता है, इसीलिये एक बार स्पीकर बन जाने के बाद उन्हें पार्टी की सदस्य संख्या में गिना नहीं जाता। लेकिन विश्वास प्रस्ताव 269 के मुकाबले 270 मतों से पराजित हो गया था और वाजपेयी सरकार एक वोट से गिर गयी थी, केवल 13 महीने में। सदन में शक्ति परीक्षणों के इतिहास में शायद यह हमेशा अल्पतम अंतर की पराजय के तौर पर दर्ज रहेगा। यह और बात है कि मुख्यमंत्री के अलावा, 1972 से नौ बार कोरापुट से कांग्रेस के सांसद रहे गिरिधर गमांग को जून 2015 में भाजपा में शामिल कर पार्टी ने साफ कर दिया कि उसने वाजपेयी सरकार के पतन में भूमिका के लिये उन्हें माफ कर दिया है, लेकिन जाने-माने मानवाधिकारकर्मी और दिल्ली उच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश जस्टिस राजेन्दर सच्चर की मानें तो माफी उन्हें स्पीकर से मांगनी चाहिये थी।
शतायु के निकट अपने निधन से कुछ ही महीने पहले जस्टिस सच्चर ने ‘सेमीनार’ के अपने एक लेख में कहा था कि किसी प्रदेश के विधायक ही नहीं, मंत्री, मुख्यमंत्री के भी लोकसभा सदस्य बने रहने या इससे उलट स्थिति को जायज बताना एक ही व्यक्ति के एक साथ किसी राज्य का मुख्यमंत्री और भारत का प्रधानमंत्री होने को तर्कसंगत ठहराना है और यह संविधान का भयावह मजाक है। संविधान इसकी इजाजत नहीं देता। लिहाजा स्पष्ट निषेधात्मक प्रावधान नहीं होने पर भी मानना चाहिये कि अनुच्छेद 165/5 का आशय बाकायदा निर्वाचन के लिये प्रदत्त 6 महीने तक की अवधि में मंत्री-मुख्यमंत्री को वस्तुतः प्रदेश की विधायिका का सदस्य मानने से है।
जस्टिस सच्चर का यह लेख मुख्यमंत्री योगी के संदर्भ में था और उनकी राय थी कि मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के साथ संसद की उनकी सदस्यता अपने-आप समाप्त मान ली जानी चाहिये। और ऐसे में मुख्यमंत्री होते हुये लोकसभा की कार्यवाही में भाग लेने के लिये उन्हें स्पीकर से क्षमायाचना करनी चाहिये। अलबत्ता स्पीकर फटकार लगाकर इस मामले को समाप्त कर सकते हैं।
लेकिन येदुरप्पा-श्रीरामुलु प्रकरण में क्या हो? क्या 22 मई से रिक्तियों का 5 पर लौट जाना और सदन में सदस्यों की पार्टीवार स्थिति में भाजपा की सदस्य संख्या वापस 274 पर पहुंच जाना बस कोई भूल है? क्या इस्तीफे औपचारिक तौर पर स्वीकार किये जाने से पहले ही वेबसाइट में रिक्तियां बढाकर 7 कर दी गयी थीं? क्या लोकसभा सचिवालय ऐसे ही काम करता है या कि कर्नाटक के झटके के बाद यह कोई पुनर्विचार है, किसी भूल-सुधार की, निचले सदन में अकेले दम बहुमत बनाये रखने की कोई जुगत? आखिर राज्य की सत्ता जाने के बाद और स्पीकर द्वारा इस्तीफे औपचारिक तौर पर स्वीकार नहीं होने की मौजूदा संभावना में लोकसभा या विधानसभा की अपनी सीटों में से 14 दिन के भीतर एक को चुन लेने का विकल्प तो वापस सदस्य के पास चला जायेगा।
येदुरप्पा और श्रीरामुलु लोकसभा में न भी लौटें और पार्टी विरोधी गतिविधियों के कारण निलम्बित कीर्ति आजाद तथा लगातार विद्रोही तेवर अपनाए शत्रुघ्न सिन्हा को भी भाजपा की सदस्य संख्या में शामिल रखें तो भी इसे सरकार का आस्तित्विक संकट नहीं कह सकते। पिछले आम चुनावों में 282 सीटों की रिकार्ड संख्या के साथ लोकसभा में पहुंची और कुल 336 सदस्यों के समर्थन से सरकार बनाने वाली भाजपानीत एनडीए से 16 सदस्यों वाली टीडीपी किनारा कर चुकी है, 18 सदस्यों वाली शिवसेना न केवल उसे आंखें दिखा रही है और 2019 के चुनाव में अलग लड़ने की घोषणा कर चुकी है, बल्कि सी. वांगा के निधन से खाली हुई महाराष्ट्र के पालघर सीट के उपचुनाव में तो भाजपा को शिवसेना से कड़ी चुनौती का सामना भी करना पड़ रहा है। फिर भी 538/536 की प्रभावी संख्या वाले सदन में समर्थक दलों के साथ अब भी उसके पास 310 सदस्य हैं। लेकिन अस्तित्व का संकट और सरकार गिरने का खतरा तो पिछले बजट सत्र में भी नहीं था, जब लोकसभा में रोज-ब-रोज सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पेश किये जाते रहे और स्पीकर ने ‘वेल’ में जमावड़े, रस्मी शोरगुल और नारेबाजी में मुब्तिला चंद सदस्यों को निलम्बित करने के बजाय ‘सदन में आर्डर नहीं होने’ की बिना पर सत्र समाप्त होने तक हर दिन मिनट-दो मिनट में कार्यवाही स्थगित करने का रास्ता अपनाया था।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं जिन्हें संसद की रिपोर्टिंग करने का लम्बा अनुभव है