बाँग्लादेश का मुक्ति संग्राम : आँखों देखा हाल -2

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रामशरण जोशी, वरिष्‍ठ पत्रकार, लेखक और टिप्पणीकार हैं।  उन्होंने राजनीतिक-सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में भी लंबा वक़्त बिताया है। वे केंद्रीय हिंदी संस्‍थान के अध्यक्ष रहे और कई अन्य संस्‍थानों से भी जुड़ाव रहा। मीडिया विजिल के संपादकीय मंडल के सम्मानित सदस्य हैं और पत्रकारिता पर कई महत्वपूर्ण पुस्तकें लिख चुके हैं। जोशी जी ने 1971 में बांग्लादेश युद्ध को कवर किया था जिसका उनकी हालिया प्रकाशित आत्मकथा ‘मैं बोनसाई अपने समय का’, में विस्तार से ज़िक्र है।  मीडिया विजिल पर इसी प्रसंग के साथ उनका स्तम्भ शुरू  हुआ है जिसकी यह दूसरी किस्त है। पत्रकारिता के विद्यार्थी इससे निश्चित ही लाभ उठा सकेंगे- संपादक

 

रामशरण जोशी

 

 

बाग्लादेश : दो    

                    ( पहली क़िस्त में आपने देखा किस प्रकार त्रिपुरा मोर्चे से  भारत-पाक सीमा के संघर्ष और बंगला देश मुक्ति वाहिनी की भूमिका की ख़बरें  दिल्ली भेजता रहा.इसके अतिरिक्त विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लिखना जारी भी रखा. अगरतला पड़ाव में ‘थैंक यू, मिस्टर ग्लैड ‘ के चर्चित नाटककार अनिल बर्वे और  समाजवादी समाज सुधारक हमीद दलवाई से मुलाक़ातें महत्वपूर्ण रहीं.सक्रिय राजनीतिक जीवन के दौरान इनका सहयोग मिलता। रहा.

    त्रिपुरा से दिल्ली  लौटने के बाद कुछ महीने तक  मुक्ति वाहिनी और छापामार युद्ध,उसकी सैधान्तिकी ,दक्षिण अमेरिका की छापामार लडाई आदि पर लिखा. आकाशवाणी और दूरदर्शन पर कार्यक्रम दिए.कुछ सम्मान-पुरस्कार भी बटोरे। उन दिनों फोटोग्राफी का शोक़ था. चित्रों का भरपूर उपयोग किया. मेरा मानना है, एक युद्ध रिपोर्टर को लिखने के साथ साथ फोटोग्राफी भी आनी चाहिए. इसके साथ साथ ,युद्ध क्यों होते हैं,इससे किसे लाभ-हानी होती है, राज्य की  राजनीतिक आर्थिकी से युद्ध का क्या रिश्ता है जैसे सवालों के उत्तर ज़रूर आने चाहिए. क्योंकि युद्ध शून्य में नहीं लड़े जाते हैं. इनका ठोस भोतिक आधार रहता है.इन आधारों को जानने की ज़रूरत है. इन सब के बाद अच्छी रिपोर्टिंग हो सकती है.

         दूसरी क़िस्त पश्चिम बंगाल के सीमाओं से है. तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान के प्रमुख शहर जैसोर और खुलना के जंग-ए-मैदान को कवर किया है.विदेशी पत्रकार भी साथ थे.इसमें ऐसे भी पत्रकार  साथ रहे जिन्हें वियतनाम युद्ध की रिपोर्टिंग का लंबा अनुभव था. वहां उन्होंने अमेरिकी बमबारी और हो ची मिंह के छापामारों का सामना किया था.उनके लिए भारत -पाक युद्ध एक सामान्य घटना थी.

      बेशक, युद्ध कवरेज  का अच्छा अनुभव पत्रकार को होना चाहिए. मेरे समय में  रक्षा मन्रालय द्वारा दो महीने का ‘डिफेन्स रिपोर्टिंग ‘ का कोर्स आयोजित किया जाता रहा है.अब इसे  एक महीने का कर दिया गया है.यह काफी उपयोगी होता है. इसे पत्रकारिता के कोर्से में शामिल किया जाना चाहिए. मैं इस मत का रहा हूँ. दुर्भाग्य से, हिंदी के पत्रकार ‘डिफेन्स जर्नलिज्म ‘ के प्रति उदासीन हैं. इस उदासीनता से मुक्ति लेने चाहिए.)

 

 

 

 

 

 

चंद कतरनें–

 

 

 

 

 

बाँग्लादेश का मुक्ति संग्राम : आँखों देखा हाल -1