कांग्रेस के लिए बड़ी खबर है कि 2019 लोकसभा चुनाव में ‘पप्पू’ पास हो गया, लेकिन फिलहाल भाजपा के अन्दरखाते भी नहीं पता कि उनका ‘फेंकू’ झोला उठा कर जायेगा या नहीं। इसके लिए उन्हें भी 23 मई को आने जा रहे चुनावी नतीजों की प्रतीक्षा करनी होगी। 2014 चुनाव में मोदी के नेतृत्व में मिले पूर्ण बहुमत के आत्मविश्वास से छलकती पार्टी आज मोदी को लेकर भी असमंजस में दिखती है।
चुनाव का भविष्य अभी दावों और प्रतिदावों में उलझा हुआ है, लेकिन यह तय है कि नरेंद्र मोदी यदि विदा लेंगे तो ‘सबका साथ सबका विकास’ की स्वयं निर्धारित कसौटी पर एक असफल प्रधानमन्त्री के रूप में जबकि राहुल गांधी यदि प्रधानमन्त्री बने तो वे अपने पिता स्वर्गीय राजीव गांधी के मुकाबले कई गुणा सफल प्रधानमन्त्री होने की राह पर चलने को स्वतंत्र होंगे।
‘भारतीय राष्ट्र’ बनाम ‘हिन्दू राष्ट्र’ के छाया-युद्ध ने भी मोदी और राहुल को चुनावी रणनीति के दो विपरीत ध्रुवों पर खड़ा करने में योगदान दिया है; ‘संकुचित’ मोदी के मुकाबले में ‘व्यापक’ राहुल को नेतृत्वकारी भूमिका प्रदान की है, हालांकि जहां आज मोदी का तरकश चले हुए तीरों से भरा हुआ है, किसान और मध्यवर्ग के लिए इन बेहद महत्वपूर्ण चुनावी नतीजों की पूर्व-बेला पर, राहुल गांधी के संभावित प्रधानमंत्रित्व को परिभाषित कर सकने वाले तीन प्रस्थान बिंदु चिह्नित किये जा सकते हैं।
मनमोहन सिंह शासन में दस वर्ष की बैकसीट ड्राइविंग राहुल को वह राजनीतिक आत्मविश्वास नहीं दे सकी थी जो गत वर्ष तीन विधानसभाओं (मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़) में भाजपा को हराने के बाद से उनके हाव-भाव में आना शुरू हुआ। नेपथ्य में बने रहने के उस लम्बे दौर के अंत में एक क्षण ऐसा भी आया जो राहुल में छिपे इस नैसर्गिक लक्षण के अनावरण जैसा था। सर्वोच्च न्यायलय ने सजा पाए विधायकों-सांसदों की विधानसभा-लोकसभा की सदस्यता समाप्त करने का निर्णय सुनाया ही था कि मनमोहन सरकार, राजनीतिक आधार पर जन प्रतिनिधित्व कानून में संशोधन का अध्यादेश ले कर सामने आ गयी। राहुल गांधी ने नाटकीय अंदाज में कांग्रेस पार्टी की प्रेस कांफ्रेंस में प्रवेश किया और घोषणा की कि अध्यादेश को फाड़ कर फेंक दिया जाना चाहिए। अध्यादेश का यही हश्र हुआ और एक स्वच्छ राजनीति के पक्ष में खड़े दिखते पुरोधा का उदय भी।
अगले प्रस्थान बिंदु के रूप में उनके आरएसएस पर महात्मा गांधी की हत्या का माहौल बनाने के सीधे आरोप को लिया जाएगा। आरएसएस की तमाम भभकियों और कोर्ट में घसीटे जाने के बावजूद राहुल ने आरोप वापस नहीं लिए। अतिवादी साम्प्रदायिक राजनीति की मौजूदा परिस्थितियों में भारतीय राष्ट्र की एक सेक्युलर नुमाइन्दगी का बेलौस प्रमाणपत्र सरीखा परिदृश्य!
तीसरा प्रस्थान बिंदु था जब, तब तक ईमानदारी के अवतार के रूप में स्थापित किये जा चुके नरेंद्र मोदी को, राफेल खरीद के सन्दर्भ में राहुल ने ‘चौकीदार चोर है’ के जुमले के साथ घेरा। अब तो यह जुमला सर्वव्यापी हो चुका है और नरेंद्र मोदी के शेष राजनीतिक कैरियर में उनका पीछा इससे छूटने वाला भी नहीं। राहुल की अपनी ईमानदार छवि का इससे अच्छा राजनीतिक बोनस और क्या हो सकता है। अगर आपको राम दिखना है तो एक अदद रावण तो चाहिए!
नेहरू, इंदिरा, राजीव के बतौर प्रधानमन्त्री शुरू के वर्षों को याद कीजिये। किसी प्रशासनिक अनुभव के अभाव में वे अपनी स्थितियों के मास्टर नहीं, उनके हाथों में खेलते ज्यादा नजर आते हैं। स्वयं नरेंद्र मोदी, अचानक गुजरात का मुख्यमंत्री बन जाने पर मुख्यतः प्रशासनिक अनुभवहीनता के ही चलते गोधरा ट्रेन काण्ड और गुजरात नरसंहार के आयामों के सामने एक बेबस प्रशासक से अधिक कुछ नहीं सिद्ध हो सके थे। इनके विपरीत, नरसिंह राव और मनमोहन सिंह जब प्रधानमन्त्री बने तो उनके पीछे प्रशासनिक अनुभव के कई दशक थे। इसीलिए उनकी राजनीतिक दिशा से मतभेद रखने वालों में भी उनमें शुरू से ही प्रशासनिक संशय नहीं दिखेगा।
इस परिप्रेक्ष्य में राहुल गांधी को देखें तो उनके कई गुणा सफल प्रधानमन्त्री होने में विश्वास बनता है। उन्होंने न सिर्फ मनमोहन दौर में दस वर्ष प्रधानमन्त्री पद की बैकसीट ड्राइविंग के अनुभव में हिस्सा लिया है, बल्कि मोदी के प्रधानमंत्रित्व के पांच वर्षों में अपनी पार्टी और अपने परिवार के सर्वाधिक बुरे दौर में सामने से नेतृत्व भी प्रदान किया है। यहां तक कि दशकों बाद वे किसान, कामगार और मध्यवर्ग के हित में विश्वास से बोल सकने वाले एक स्वीकार्य कांग्रेसी नेता के रूप में सामने आये हैं। एक वाक्य में कहें, यदि उन्हें प्रधानमन्त्री बनने का मौका मिला तो वे पूरी तरह तैयार लगते हैं।
लेखक भारतीय पुलिस सेवा के अवकाश प्राप्त अधिकारी हैं