अनिल यादव
नारे आधुनिक मंत्र होते हैं जो हमारे समाज के बारे में बहुत कुछ कहते हैं. उनमें नमी पाते ही अंकुरित हो जाने वाले विचारों के बीज छिपे होते हैं. कुछ दिन पहले, हिंदी पट्टी के विश्वविद्यालयों में छात्र संगठनों के बीच नारों का जवाबी मुकाबला हुआ करता था. आरएसएस से जुड़े छात्र संगठन के लिए वामपंथी एक नारा लगाते थे- “हाफ पैंट खोल के बोलो वंदे मातरम!” कुछ ऐसा था जो हाफ पैंट के खुलने या नंगे होने से संबंधित था लेकिन साथ ही वह भारतमाता यानि एक स्त्री की वंदना के भाव पर आश्चर्य प्रकट करता था. जवाब में आरएसएस के लड़के चीखते थे- “लाल गुलामी छोड़ के बोलो वंदे मातरम!” इसमें स्पष्ट तौर पर कम्युनिस्ट रूस और चीन की मानसिक गुलामी छोड़ कर राष्ट्रवादी होने की अपील थी. एक और नारा पिछले पांच साल से हवा में टिका हुआ है- म्ओदी! म्औदी!!… सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और विराट हिंदुत्व की विचारधारा की नदी सिर्फ एक व्यक्तित्व में सिमट गई है. ध्यान जाए बिना नहीं रहता कि कल को यह व्यक्ति न होगा तो उस विचारधारा का क्या होगा?
आरएसएस के लड़के सही जगह चोट करते थे. कम्युनिस्ट राष्ट्रवादी नहीं अंतर्राष्ट्रीयतावादी थे. उनके सम्मेलनों में एक इंटरनेशनल गीत, ‘उठ, जाग, ओ भूखे बंदी अब खींच लाल तलवार’ गाया जाता था. उनके बहत्तर कुनबों में बंटने के पीछे झगड़ा भी यही था कि कौन रूसवादी है और कौन चीनवादी, भारतीय परिस्थितियों में मार्क्सवाद को लागू करने के लिए किसकी पार्टी लाइन सही है. कुछ लकीर के फकीरों की लाल गुलामी भी थी जिसके लिए वे खुद एक दूसरे को ताना मारते थे, बारिश मास्को में होती है तो छाता मुंबई में खोला जाता है. वामपंथी एक तिलमिला देने वाले मार्मिक प्रसंग की ओर इशारा करते हुए आश्चर्य प्रकट करते थे… तिस पर भी एक स्त्री, भारत माता की वंदना?
उन दिनों आरएसएस के प्रचारकों को विवाह करने की अनुमति नहीं थी और संगठन के भीतर समलैंगिकता प्रचलित होने के आरोप बहुत आम थे. प्रतिक्रिया स्वाभाविक थी, किसी को समलैंगिक कहना आज भी बहुत बड़ी गाली है.
हमारे समाज में बिरले ही कोई ऐसा होगा जिसे किशोरावस्था में समलैंगिक प्रवृत्तियों से दो-चार न होना पड़ा हो लेकिन इन अनुभवों को अपने भीतर ही ताजिंदगी दफन रखा जाता है. कोई स्वीकार नहीं करता क्योंकि ऐसा करते ही उसकी मर्दानगी के विलुप्त हो जाने का खतरा होता है. प्रचलित मर्दानगी का सार सिर्फ किसी औरत पर की जाने वाली यौन-हिंसा में है, हमारी दोहरी-तिहरी नैतिकता के कारण इससे अलग कोई यौन गतिविधि (हस्तमैथुन समेत) छिपाई जाती है. ओनली बॉयज स्कूलों से लेकर सेना और पुलिस तक, जहां भी सिर्फ पुरुषों की भरमार होती है समलैंगिकता की कहानियां रिस-रिस कर बाहर आती रहती हैं. इन कहानियों में कितनी ताकत होती है इसका अंदाजा इससे लगा सकते हैं कि आरएसएस ने कुछ दिन पहले अपना गणवेश बदल दिया. नौ-दस महीने गर्मी वाले देश में कोई औचित्य न होते हुए भी हाफ पैंट की जगह फुल पैंट का प्रावधान किया गया. बीच के सालों में शाखाओं में आने वाले युवाओं की संख्या में भारी गिरावट दर्ज की गई थी, उन्हें अपने घरों में बरमूडा या जांघिया पहनने में कोई एतराज नहीं था लेकिन शाखा में हाफ पैंट खटकती थी. खासतौर से आरएसएस का जिक्र इसलिए किया गया है कि यह मर्दों का सबसे विशाल एनजीओ है और इस नाते सर्वाधिक देसी पुरुषों की सोच का प्रतिनिधित्व करता है.
इस बात का यह मतलब बिल्कुल नहीं निकाला जाना चाहिए कि ज्यादातर भारतीय पुरुष समलैंगिक हैं बल्कि बिडंबना कहीं ज्यादा बड़ी है. हमारे समाज में लड़के-लड़कियों के बीच सहज संवाद की स्थिति न होने, अपना सेक्स-पार्टनर चुनने की आजादी न होने के कारण लैंगिक अकाल (सेक्सुअल स्टार्वेशन) की हालत है जिसकी हिंसक प्रतिक्रिया छेड़-छाड़, बलात्कार, सभी प्रकार के अप्राकृतिक यौन अपराधों के रूप में दिखाई देती है. दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में आज भी बच्चों को यौन शिक्षा देने का जिम्मा आवारा कुत्तों, गधों, गायों और घरों के आसपास पाए जाने वाले पक्षियों के ऊपर है. राज्य के नियंत्रण से आजाद इंटरनेट के रास्ते शिक्षक के भेष में एक नया युरोपियन व्यापारी ‘पोर्न वीडियो’ के रूप में सामने आया है जो बच्चों को विकृति और बलात्कार सिखा रहा है. धर्म, अर्थ और मोक्ष के साथ कभी काम को भी एक शास्त्र की तरह बरतने वाला देश सेक्स से पलायन करता रहा और घुटते नागरिक यौन अपराधी बनते रहे.
नतीजा यह है कि भारत अब पोर्न की दुनिया में सबसे बड़ा ग्राहक है, इस तथ्य के मद्देनजर पता करना कि यह पलायन की नैतिकता किसने थोपी और सुनिश्चित करना कि स्त्री-पुरुष के बीच सहज संबंध कैसे बनें, किसी भी राष्ट्रवादी सरकार का यह प्रमुख काम होना चाहिए.
समलैंगिकता को कानूनी ठहराने और एलजीबीटी के अधिकारों को मान्यता देने वाले सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद समाज में एक बेचैनी भरी चुप्पी है. इसका कारण यह है कि हम अपने जीवन में समलैंगिकता के कारणों और उसकी उपस्थिति को ही स्वीकार नहीं करते इसलिए यह फैसला हमारे लिए नहीं उनके बारे में है जिनका भेद खुल चुका है. उनके बारे में जिनका हम मजाक उड़ाते हुए खुद को नैतिक रूप से श्रेष्ठ साबित करते में रस लेते हैं.
इस फैसले में एक बहुत काम की बात कही गई है कि देश सामाजिक नैतिकता से नहीं संवैधानिक नैतिकता से संचालित होगा क्योंकि यहां परस्पर विरोधी समाजों की मनमानी नैतिकताओं का ऐसा जाल फैला है कि वह आदमी को किसी एक रास्ते पर नहीं जाने देता. इस फैसले के बाद अब समाज में इतना तो किया ही जा सकता है जो समलैंगिक नहीं ‘खालिस मर्द’ हैं, वे युवा जोड़ों को वैलेंटाइन डे और सामान्य दिनों में प्रताड़ित न करें, संविधान की भावना के अनुरूप उन्हें सहज रूप से एक दूसरे को जानने-समझने दें. इतने से ही हमारे पगलाए देश का मानसिक स्वास्थ्य बहुत बेहतर हो जाएगा.