अनिल यादव
आखिर हम कब तक सदमें में रहेंगे! यह ख्याल अमेरिका के चीफ जस्टिस ऑलिवर वैन्डेल होल्मस जूनियर (1841-1935) का एक मुशाहिदा देखते हुए आया जो कुछ इस तरह है- “किसी नए अनुभव को पा चुका मन फिर कभी पुरानी हालत में नहीं जा सकता.”
दादरी में अखलाक को मारा, अलवर में पहलू खान को मारा, वल्लभगढ़ में कमसिन जुनैद को मारा…पिछले चार साल में गाय काटने और बच्चा चुराने के बहाने पंद्रह राज्यों में इतने आदमियों को सरेआम मारा गया कि दुनिया थू थू करने लगी क्योंकि पुलिस को निष्क्रिय करने के बाद वाट्सएप्प के जरिए नफरत फैलाकर भीड़ को गोलबंद कर, हत्या के लिए जरूरी साजोसामान और हौसला देकर मुसलमानों और दीगर कमजोर लोगों का शिकार करने का पुख्ता नेटवर्क बनाया जा चुका है. दिलचस्प यह है कि समझदार नागरिक हर बार सदमे में रहते हैं जबकि पानी काफी ऊपर जा चुका है.
अब हार्वर्ड बिजनेस स्कूल से पढ़कर आया एक केंद्रीय मंत्री, जयंत सिन्हा हत्यारी भीड़ के सजायाफ्ता नेतृत्वकर्ताओं को माला पहना रहा है. यह आजकल भारत का राजपाट चला रहे महानुभावों के गर्व की अभिव्यक्ति है जिसकी तस्दीक मालाओं से सजे चेहरों से की जा सकती है जिनपर वही बांकपन है जो पद्मविभूषण पाने वाले कलाकारों और परमवीर चक्र पाने वाले जनरलों के चेहरों पर हुआ करता है.
सदमा महात्मा गांधी की हत्या से भी पुरानी भावना ठहरी. हम अपने महफूज होने की खामख्याली पाले, मॉब लिन्चिंग को देश के परदे पर देखने और उसके बारे में एक नकली भाषा में बात करने के आदी हो चुके हैं. हमारी सारी वाकफियत टीवी, कंप्यूटर, मोबाइल परदे से आती है इसलिए देश को परदे में बदलने में कोई दिक्कत नहीं होती… लेकिन मोदी राज के इन्हीं चार सालों में कुछ ऐसा हो गया है कि सांप्रदायिक घृणा की लगातार टाइट की जा रही चूड़ी मिस हो गई है. अब अफवाहों और हत्याओं की राजनीति ज्यादा दिन चल नहीं सकती. हत्यारों के राजकीय अभिनंदन के समतुल्य स्वांग में संकेत छिपे हैं कि सत्ता पाने का यह तरीका फेल हो चुका है. प्रपंच के कलंदरों को कुछ और सोचना होगा.
फर्ज कीजिए, किसी आईएएस, चैनल के संपादक, सरकारी वैज्ञानिक, कारपोरेट के सीईओ, विश्वविद्यालय के कुलपति को सक्षम अथॉरिटी से हुक्म मिलता तो क्या वह माला नहीं पहनाता! कोई विरला ही मना करता वरना औसतन ऐसा बिना किसी अपराधबोध के मजे से किया जाता. यशवंत सिन्हा की मानें तो यही हुआ है. पहले बेटे से, मोदी के खिलाफ लिखे अपने पिता के लेख का जवाब दिलवाया गया, अब मंत्री की नौकरी बचाने की शर्त पर माल्यार्पण करवाया गया है. नौकरी का नुक्ता अरुण जेटली से उधार लिया हुआ है, जिन्होंने कहा था कि यशवंत सिन्हा अस्सी की उम्र में भी जॉब एप्लीकेंट थे, नहीं मिली तो बागी हो गए.
कान दीजिए, आप पाएंगे कि भीड़ द्वारा की जा रही इन हत्याओं के आसपास अजीब सी शांति है. न तो प्रतिक्रिया में दंगे हो रहे हैं न भाजपा के आजमूदा शोलाबयान नेता अपनी जीभों पर माचिस की तीली घिस रहे हैं. मुसलमानों से निपटने के लिए दस बच्चे पैदा करने की टेर लगाने वाले साक्षी महाराज, बाबर की हड्डियों को अफगानिस्तान भेजने वाली उमा भारती, हरामजादों से रामजादों का सत्संग कराने वाली साध्वी निरंजन ज्योति सब हवा का रुख भांपकर सनाका खा गए हैं. बीच के अच्छे दिनों में गिरिराज सिंह से लेकर ज्ञानदेव आहूजा तक में होड़ लगी थी जो सत्ताशीर्ष से कृपा की आशा में ऐसे ही बयान दागा करते थे. सभी चुप हैं क्योंकि इच्छित असर नहीं हुआ. पब्लिक इतने बड़े पैमाने पर सांप्रदायिक गृहयुद्ध में शामिल होने को तैयार नहीं है कि ध्रुवीकरण के चरम पर आम चुनाव हो सकें. उद्योग, शेयर, सट्टा, व्यापार सब नकार में मुंडी हिला रहे हैं.
हिंदुत्व के नाम पर अफवाह-हत्या-दंगे की राजनीति और उससे सत्ता हासिल कर आग लगाने वाले प्यादों को भूल जाने की राजनीति इतनी पुरानी है कि उसे ललित कला में बदला जा चुका है. आरएसएस-भाजपा की कमजोरी यह है कि वे सीना ठोंक कर नहीं कह सकते कि वे ही इस राजनीति के वास्तुकार और स्वप्नदृष्टा हैं. किसी में इतनी हिम्मत नहीं है कि कह सके कि हां, हमने बाबरी मस्जिद गिराई थी, हमने गुजरात में लाशें बिछाईं, हम संविधान को कूड़े में फेंक कर हिंदू राष्ट्र बनाना चाहते हैं, हमने गांधी की हत्या की और हमीं भीड़ से ये हत्याएं करा रहे हैं. कई मुंहों से बोलने वाले अपने अंतर्विरोधों से पस्त हो चुके हैं. भीड़ यही सुनना चाहती थी लेकिन अब निराश, रिमोट कंट्रोल से संचालित हिंदुत्व से बोर होकर कर वापस लौट रही है.
सरकार कह रही है कि इन हत्याओं के लिए वाट्सएप्प यानि तकनीक जिम्मेदार है. इस कदर मासूमियत तो एक बच्चे में ही पायी जाती है जो लाश के बगल में खड़े होकर कह सके कि आदमी को आदमी नहीं बंदूक मारती है. मासूमियत जरा देर के लिए लुभाती है लेकिन कोई देश उसके सम्मोहन में अपना इतिहास भूलकर, बच्चे के हाथ अपना भविष्य नहीं सौंप देता.