बनारस दुनिया के किसी भी शहर से अधिक अपना इसलिए लगता है कि मैंने जवान होते समय इसकी गलियों में अकेले भटकते हुए अपनी जड़ों की प्राचीनता, मृत्यु को उत्सव की तरह देखने वाली परंपरा और मौसम में बदलाव के साथ नया खेल रचने वाले जीवन के रहस्यों को धुंधला-धुंधला महसूस किया था. लेकिन एक संदेह हमेशा बना रहा कि आंख में सूरमा डाले, लाठी लिए, नाव से उल्टीधार रामलीला देखने रामनगर जाते बनारसी अपने शहर के बारे में बतियाते हुए किस बात पर इतना ऐंठ जाते हैं. आजकल काशी की वह महानता और मस्ती कहां से आती है?
छूत की यह बीमारी मेरे विश्वविद्यालय के छात्रों को भी लगी थी जो खुद को फूलपत्ती और बीएचयू को महामना की बगिया कहने लगे थे. बचपन में मेरे मौसा बताते थे, आधी रात के बाद शंकर भगवान दुकानों से सब कचौड़ी-मिठाई खरीद ले जाते हैं इसलिए काशी में कोई भूखा नहीं सोता. लेकिन मैं तो अपनी आंखों से लोगों को मठों में, घाटों पर, अन्नक्षेत्रों में, जुलाहों और मल्लाहों की बस्तियों में भूख, कलह और सामंती अपमान से मरते देख रहा था… और इन सबकी मृत्यु भी उत्सव थी और उनका मोक्ष को प्राप्त होना पक्का था.
काशी की महानता सहनीय इसलिए थी कि सुबह सबेरे गंगा नहाकर अपने सुग्गों और ठाकुर जी की डोलची के साथ लौटती अनजान औरतें पान रचे दांतो से हंसती हुई हाथ पर तुलसी दल और गुड़ का प्रसाद रख देती थीं. मोहल्लों की अड़ियों पर कुछ अधेड़ छात्रनेता और अनपढ़ समाजसुधारक थे जिन्हें कभी न नौकरी मिली न टिकट लेकिन प्रशासन के खिलाफ ताल ठोंकने के लिए तैयार रहते थे. उन्हें देखकर नीला चांद (शिवप्रसाद सिंह के उपन्यास) में मिले बलदेव ओझा का ख्याल आता था जिन्होंने दशाश्वमेध घाट पर शूद्रों को संस्कृत पढ़ाने के लिए पीठ पर चौदह प्रतोद खाए थे.
शिवरात्रि पर गगरा लेकर विश्वनाथ गली में दौड़ते, ढोलक जैसी जांघों वाले पहलवानों की भीड़ में साफा बांधे भंगड़ भिक्षुक और नन्हकू सिंह दिखाई दे जाते थे जो वॉरेन हेस्टिंग्स की फौज से लड़े थे. देर रात गए केदार घाट पर गांजे के धुएं में किसी जटाधारी को गालियों से धर्म समझाता कोई बूढ़ा मल्लाह उस तत्वज्ञानी डोम की याद दिलाता था जिसने शंकराचार्य को शास्त्रार्थ की चुनौती दी होगी… लेकिन ये सब खुद को छलने के लिए रचे गए भ्रम थे क्योंकि बनारस का मुख्य कारोबार तो देवसंपत्ति और कमजोर लोगों के मकानों पर कब्जा करना हो चला था और स्मार्ट लोग टाइम बचाने के लिए पान के बजाय रजनीगंधा खाने लगे थे.
मेरे प्रिय शहर का कैरेक्टर ढीला हो चुका था और आत्मा बदचलन. वीपी सिंह को राजर्षि की उपाधि देने वाले विद्वान आरक्षण के दौर में लड़कों से दीवारों पर लिखवा रहे थे- ‘राजा नहीं फकीर है देश का बवासीर है’. विश्वनाथ मंदिर के बाहर छोटा सा पत्थर लगा था जिस पर लिखा था ”शूद्रों का प्रवेश वर्जित है” और अंदर पंडों की चोरी रोकने के लिए प्रशासन को अनब्रेकेबल प्लास्टिक की पारदर्शी दानपेटिका लगवानी पड़ी थी. पहले भी जगजीवन राम के संपूर्णानंद को माला पहनाने के बाद उनकी मूर्ति धोयी गयी थी.
यह चरित्र शायद निर्णायक रूप से उस दिन बदला होगा जब होली पर, अस्सी चौराहे पर होने वाला वर्जनाहीन गालियों वाला कवि सम्मेलन जेठ की दोपहरी में कलकत्ते के मारवाड़ी सेठों के लिए गंगा में एक बजरे पर आयोजित किया गया और कवियों को चेक के साथ पुलिस की लाठियां भी मिली थीं. या उस दिन जब अस्सी पर पप्पू की दुकान पर बैठने वाले बुद्धिजीवी नकली रुद्राक्ष की माला, गमछे, त्रिपुंड, भस्म और जलाने के लिए पुतले लेकर चलने वाले इलेक्ट्रानिक चैनलों के चालू फत्तरकारों के कहने पर बहस उर्फ कुकुरहांव के शो मंचित करने लगे.
या उस दिन जब संकटमोचन मंदिर बम विस्फोट में बीस से ज्यादा लोगों के मारे जाने के बाद कुछ यशःप्रार्थी चैनलों के सामने नाव पर मटक कर काशी की मस्ती का प्रमाण दे रहे थे. या उस दिन जब लेबर चौराहे से लाए मजदूरों को जनेऊ पहना कर, लाउडस्पीकर पर निर्देश देकर देहात से आयी भीड़ के पितरों का श्राद्ध कराया जाने लगा. या उस दिन जब पानी की कलकल और तारों के आलोक में होने वाली गंगा आरती को हैलोजन लाइटों की चौंध और विशाल डमरुओं के कानफाड़ू से शोर में एक कमाऊ तमाशे में बदल दिया गया.
या उस दिन जब पिछले चुनाव में कुछ महाढीठ चापलूसों ने ‘हर हर मोदी-घर घर मोदी’ के पोस्टरों से शहर को पाट दिया था और किसी को एतराज नहीं हुआ था. यह महादेव का विशिष्ट लयबद्ध उद्घोष था जिसमें गंगा के अवतरण की हरहर ध्वनि थी जिसका प्रयोग किसी और देवता या भगवान के लिए नहीं किया जाता. काशी के जन सुख-दुख-क्रोध-असहायता सभी अवस्थाओं में इस उद्घोष को अवलंब की तरह सदियों से गुंजाते, फुसफुसाते आए हैं. काशी नरेश का बहुत मान हुआ करता था. लक्खी मेले में वह भी हर हर महादेव के उद्घोष के समय दोनों हाथ उठाकर ऊपर देखते थे लेकिन यहां एक सांसद प्रत्याशी था जो इसे अपनी लोकप्रियता का मानदंड मानकर मुदित होता था.
बनारस में बहुतेरे ऐसे लोग हैं जो ढलती सांझ में बाबा के विग्रह के आगे बैठकर कहते हैं- ”देखत हउआ, कइसन जमाना आयल हौ!” ऐसे बतियाते हैं जैसे किसी बालसखा से सुखदुख कर रहे हों, उन्होंने भी कुछ नहीं कहा. अस्सी चौराहे पर सिर्फ एक पानवाले ने ऑन कैमरा अपनी वास्तविक प्रतिक्रिया दी थी- “हर हर मोदी घर घर **” जो अब चरितार्थ हो रही है. हो न हो, काशी को बाबा के उद्घोष के दुरुपयोग का दोख लग गया और उनके उजड़ने की शुरुआत हुई है.
बहुत लिखा देखा कि बनारस गलियों का शहर है लेकिन किसी भाषा में यह नहीं पाया कि बनारस गलियों में बसने वाले लोगों का शहर है. इस फर्क में ही वह जालिम बात छिपी थी कि एक दिन बिना बनारसियों के भी इस शहर का अस्तित्व बना रहेगा. या इसे कभी फिर से ऐसे बनाया जाएगा कि खुद को बनारसी समझने वाले ही बनारस के लायक नहीं रह जाएंगे… खैर सैकड़ों घरों में बसने वाले हजारों लोगों को उजाड़ कर, मलबे पर विश्वनाथ धाम का उद्घाटन प्रधानमंत्री मोदी के करकमलों द्वारा किया जा चुका है. ये लोग समझते थे कि उनके घर बाबा के त्रिशूल पर टिके हुए हैं लेकिन अब सरकार ने बुल्डोजर चलाकर वहां बाबाधाम बना दिया है ताकि गंगाजी की ठंडी हवा बेरोकटोक डॉलर भंजाने चौक से गोदौलिया आते टूरिस्ट को लगे.
मौका तो ऐसा है कि शहर को प्रेमयोगिनी नाटक में उस परदेशी के गीत- ‘देखी तुमरी कासी लोगों, देखी तुमरी कासी’ के पोस्टरों से पाट देना चाहिए जो भारतेंदु हरिश्चंद्र ने 1874 में लिखा था. लेकिन ऐसा कुछ नहीं होगा. मेरे शहर की आत्मा पैसा हो चुकी है. यह हो सकता है कि कल को बनारस क्योटो या कम से कम चंडीगढ़ जैसा एकरंगा हो जाए और लोग एक दूसरे को ‘छिनरौ के’ बजाय ‘सन आफ ए बिच’ कह कर छेड़ने लगें.