पहला पन्ना: ममता पर हमले का मौक़ा नहीं तो TMC नेताओं के मामले में ख़बर नहीं!

संजय कुमार सिंह संजय कुमार सिंह
काॅलम Published On :


तृणमूल नेताओं की गिरफ्तारी के मामले में क्या हुआ? कल कोई खबर नहीं थी, मैंने भी चर्चा नहीं की और आज जो खबर है वह इंडियन एक्सप्रेस में सिंगल कॉलम, हिन्दुस्तान टाइम्स में पहले पन्ने पर फोल्ड के नीचे चार कॉलम, द हिन्दू और टाइम्स ऑफ इंडिया में पहले पन्ने पर नहीं है और द टेलीग्राफ में लीड है। हिन्दुस्तान टाइम्स में खबर का शीर्षक है, “जजों में मतभेद के कारण मंत्री घरों में कैद”। खबर यह नहीं है कि तृणमूल के नेता घर में कैद हैं या हाउस अरेस्ट हैं। खबर यह है कि हाईकोर्ट ने स्टेतो तुरंत कर दिया लेकिन अब फैसला नहीं कर पा रहा है। पहले अपरिहार्य कारणों सेअब साथी जज की मतभिन्नता से। वह भी जमानत के एक ऐसे मामले में जहां अभियुक्तों के भाग निकलने का डर नहीं है। यह मामला अब पांच जजों की बेंच के सामने आएगा। सीबीआई अभियुक्तों को न्यायिक हिरासत से छोड़ने का विरोध कर रही है जबकि बचाव पक्ष पूर्ण जमानत की मांग कर रहा है।

आप जानते हैं कि निचली अदालत से जमानत हो चुकी थी हाईकोर्ट ने उसे (उसी दिन) स्टे किया। उसके बाद लंबी सुनवाई चली। सीबीआई के वकील एक दिन सुनवाई टालना चाहते थे। अदालत ने नहीं माना पर अगले दिन ‘अपरिहार्य कारणों से’ सुनवाई नहीं हो पाई और अब जजों में मतभेद तथा इस कारण फैसले में देरी। मामला ऐसे लोगों को जमानत देने या नहीं देने का जो भाग नहीं सकते। ठीक है कि यह कोई नया मामला नहीं है और ऐसा होता है। लेकिन अदालती मामलों में सरकारी हस्तक्षेप के आरोपों के मद्देनजर देखें तो अर्नब गोस्वामी के मामले में जल्दबाजी याद कीजिए और इस मामले में देरी का रवैया है। पर अखबारों में खबरें तभी तक छपीं जब ममता बनर्जी या तृणमूल कांग्रेस की निन्दा करनी थी। अब इसे छोड़ दिया गया है। 

आज ही तहलका के संपादक तरुण तेजपाल को यौन हिंसा के मामले में बरी किए जाने की खबर है। चर्चा यह रही है कि भाजपा के पूर्व अध्यक्ष बंगारू लक्ष्मण को रिश्वत लेते दिखाने के मामले में उन्हें फंसाया गया था। मैं नहीं जानता कि यह सच है कि नहीं लेकिन बरी होने के बावजूद वे परेशान तो हुए ही। सरकार अभी ऊपर की अदालत में अपील कर सकती है और मामला खत्म नहीं हुआ है। लेकिन उनके खिलाफ उस समय जो खबरें छपीं थीं थीं उनकी सत्यता का क्या हुआ? अगर वे खबरें सत्य थीं तो बरी कैसे हो गए और गलत थीं तो कौन जिम्मेदार है? इस मामले में न हो तो भविष्य में किसी को ऐसे नहीं फंसाया जा सके इसकी मांग मीडिया को नहीं करनी चाहिए? मीडिया को नहीं बताना चाहिए कि उसकी खबरों के अनुसार पूरी तरह दोषी होने के बावजूद तेजपाल बरी कैसे हो गए? मीडिया दोनों ही काम करता नजर नहीं आ रहा है। मीडिया का काम सिर्फ खबरें या विज्ञप्ति छापना नहीं है। उसका काम सरकार से सवाल पूछना, नागरिकों को सही सूचना देना और समाज में जागरूकता बढ़ाना भी है। मीडिया ट्रायल एक गंभीर मामला है पर मीडिया स्वनियम की बात भी नहीं करता। बाकी तो छोड़िए अपनी आजादी की लड़ाई भी खुद नहीं लड़ता है।  

आज की खबरों में तीसरा मामला ट्वीटर और भाजपा का है। लेकिन सरकार भी उसमें कूद गई है। कांग्रेस के टूलकिट वाले फर्जी मामले पर भाजपा प्रवक्ता और नेता संबित पात्रा के ट्वीट को ट्वीटर ने ‘मैनिपुलेटेड’ (छल) करार दिया है। मुझे लगता है कि इसमें कोई बुराई नहीं है। कायदे से जब पोस्ट पूरी तरह सत्य नहीं है, जिसके बारे में है संबंधित पक्ष एतराज कर रहा है और पहली नजर में एतराज सही लग रहा है, पूरा मामला सार्वजनिक है तो ऐसी ट्वीट को रहने देने का कोई मतलब नहीं है। जिसका ट्वीट है उसे खुद हटा लेना चाहिए, सरकारी कार्रवाई का डर होता तो हटा लिया गया होता और सही ट्वीट करने पर भी एफआईआर के मामले मिल जाएंगे। लेकिन यहां सैंया भये कोतवाल वाला मामला है तो ट्वीट हटाया नहीं गया और भारत में धंधा करने वाले ट्वीटर की हिम्मत उस पर ‘मैनिपुलेटेड’ का टैग लगा दिया। वैसे तो यह भाजपा की राजनीति है और कायदे से भाजपा को विरोध करना चाहिए था। पर इंडियन एक्सप्रेस की खबर के अनुसार, भाजपा ने आधिकारिक तौर पर ट्वीटर से कोई प्रतिक्रिया नहीं जताई है। यह काम केंद्र सरकार कर रही है। यह अलग बात है कि ट्वीटर जैसे धंधेबाज के लिए इतनी बड़ी हस्ती के न हटाए जाने वाले ट्वीट पर ‘मैनिपुलेटेड’ का टैग लगाना भी कम नहीं है पर हमारी लोकप्रिय 56 ईंची सरकार ने अपने लिए क्या काम चुना है। और टाइम्स ऑफ इंडिया ने इसे लीड बनाया है। ठीक ही है कि सरकार अगर अपने स्तर का काम नहीं करे तो जो काम करे उसे ही बड़ा बना दिया जाए। आखिर जगह भी तो भरनी है। 

टीके की कमी की खबरों के बीच प्रचारक उसका कारण बता रहे हैं। दिल्ली सरकार ने कहा है कि 18-44 वर्ग के लोगों के लिए खुराक नहीं है टीका लगाने वाले केंद्र 24 मई से बंद हो जाएंगे (द हिन्दू)। इंडियन एक्सप्रेस ने पहले पन्ने पर प्रयागराज की तस्वीर लगाई है जहां टीका लगवाने वालों की लाइन सड़क पर लगी है। आपको याद होगा पिछले साल जब मरीज बहुत कम थे तब लॉकडाउन में डायलिसिस कराना मुसीबत था। थैलेसीमिया के मरीजों का ख्याल नहीं किया गया। लेकिन अब टीके के लिए सड़क पर लाइन लग रही है। जब सब बंद है तो टीका लगवाने वालों को संक्रमण नहीं होगा? कहने की जरूरत नहीं है कि ऐसी व्यवस्था की जानी चाहिए ताकि लोगों को लाइन में नहीं लगना पड़े, घर से बाहर कम से कम समय रहें पर सरकार की दूसरी प्राथमिकताएं हैं, कार्यशैली भी। जहां सब ठीक हैं वहां इतनी लंबी लाइन और खबर (फोटो) सिर्फ इंडियन एक्सप्रेस में। हालांकि, इंडियन एक्सप्रेस ने इस तस्वीर के साथ खबर छापी है, जयशंकर (विदेश मंत्री) अगले हफ्ते वैक्सीन मिशन पर विदेश जाएंगे। मतलब एक तरफ भारत में बने टीके निर्यात किए जा चुके हैं, प्रचारक उसे सही बता रहे हैं या सही बताने वाली दलीलें दे रहे हैं, दूसरी ओर यहां टीके नहीं हैं, जितने लग सकते हैं लग नहीं पा रहे हैं और विदेश मंत्री अगले हफ्ते मिशन पर जाएंगे। सब चंगा सी का इससे बेहतर उदाहरण और क्या हो सकता है।    

आज के अखबारों में खास बात यह भी है कि पहले पन्ने पर, “प्रधानमंत्री भावुक हुए” जैसी खबर नहीं है। द टेलीग्राफ की एक खबर के अनुसार प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने वाराणसी के चिकित्सकों को वर्चुअली संबोधित किया उसके बाद से ट्वीटर पर क्रोकोडाइल टीयर्स (घड़ियाली आंसू) टॉप ट्रेंड कर रहा था। अखबार ने बताया है कि आरोप लगाना ठीक नहीं है। वे भोजन कर रहे होते हैं तब आंसू निकलता है न कि दुखी होने पर। इसके लिए अखबार ने 2006 के प्रयोग का हवाला दिया है और बताया है कि दो अमेरिकी वैज्ञानिकों ने इस बारे में ‘बायोसाइंस’ में लिखा भी था। अखबार ने पाठकों से कहा है कि वे “क्रोकोडाइल टीयर्स” ट्रेन्ड करने का कारण जानना चाहें तो पेज चार देखें। टेलीग्राफ में ट्वीटर और संबित पात्रा से संबंधित खबर का शीर्षक है, “पात्रा पर संदिग्ध लेबल लगा”। जैसा मैंने पहले बताया है, इस मामले में पात्रा के ट्वीट को ट्वीटर ने ‘मैनिपुलेटेड’ करार दिया। तो खबर यह भी हो सकती थी। लेकिन आजकल अखबारों में खबर अक्सर सरकारी होती है और जैसा मैंने पहले लिखा है, इस मामले में सभी अखबारों का शीर्षक सरकारी है। हिन्दुस्तान टाइम्स ने पहले पन्ने पर सिंगल कॉलम की खबर छापी है उसमें और टाइम्स ऑफ इंडिया ने लीड बनाया है उसमें भी।  

द टेलीग्राफ में एक और खबर है, अमेरिकी दवा निर्माता फाइजर और केंद्र सरकार आमने-सामने। रायटर ने दो सूत्रों के हवाले से खबर दी है कि भारत ने अब तक किसी भी टीका कंपनी को गंभीर साइड इफेक्ट पर मुआवजा देने की जिम्मेदारी से सुरक्षा नहीं दी है। यह इस तथ्य के लिहाज से महत्वपूर्ण है कि टीके से (या टीका लगने के बाद मौत) के मामलों में हमारे यहां क्या कार्रवाई हुई? दूसरी ओर टीका निर्माता ऐसी शर्त क्यों रख रहा है। यही नहीं, कंपनी ने ब्रिटेन और अमेरिका समेत कई देशों में यह शर्त रखी है। वहां उसके टीके लगाए जा रहे हैं। ऐसे में भारत में नागरिकों की क्या स्थिति है, सरकार क्या सोच रही है यह सब बताने की बजाय खबर न छापो या जस का तस छाप दो। टेलीग्राफ ने इस खबर को पहले पन्ने पर छापा है और बताया है कि टिप्पणी नहीं मिल पाई। कहने की जरूरत नहीं है कि टीके से संबंधित यह एक गंभीर मामला है पर खबर को गंभीरता नहीं मिली है।

 

लेखक वरिष्ठ पत्रकार और प्रसिद्ध अनुवादक हैं।