चुनाव चर्चा: काँग्रेस का ‘सोनिया शरण गच्छामि’ उर्फ़ नेता वही जो चुनाव जिताये

चन्‍द्रप्रकाश झा चन्‍द्रप्रकाश झा
काॅलम Published On :


भारत की सबसे पुरानी, 135 बरस की कांग्रेस ने पार्टी कार्यवाहक अध्यक्ष सोनिया गांधी की तनिक ना नुकुर के बाद इसकी बागडोर संभालने को राज़ी कर लिया. उनके पुत्र राहुल गांधी ने वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की करारी हार की नैतिक जिम्मेवारी लेकर पार्टी अध्यक्ष पद से जब इस्तीफा दे दिया तो सोनिया गांधी को ही कार्यवाहक अध्यक्ष बनाया गया था. वह, राहुल से पहले और अपने पति पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की 1991 के लोक सभा चुनाव के दौरान श्रीलंका के तमिल अलगाववादियो के तमिलनाडु मे किये आतंकी हमले मे मारे जाने के कुछ बरस बाद कांग्रेस अध्यक्ष बनी थी.

 

राजीव ने शहादत के बाद भी जीत दिलायी

राजीव गांधी 1991 के चुनाव में मर कर भी कांग्रेस को जिता ले गये. गोदी मीडिया बारीक तथ्य को नहीं उकेरती है कि उस हत्या से पहले मतदान में कांग्रेस हार रही थी. पर राजीव गांधी हत्याकांड से उत्पन्न अभूतपूर्व परिस्थिति में तत्कालीन राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा के आदेश पर माह भर के लिये स्थगित चुनाव के फिर आगे बढ्ने पर जिन सीट पर वोटिंग हुई उनमे से ज्यादातर पर कांग्रेस जीत गई.पूर्ण बहुमत नहीं मिला था। पर कांग्रेस के ही सबसे वरिष्ठ नेता पीवी नरसिह राव को प्रधानमंत्री बनने का मौका मिला. उनकी सरकार को अपने कार्यकाल के अंतिम वर्ष में झारखंड मुक्ति मोर्चा के दलबदलू संसदो की बदौलत लोकसभा में बहुमत भी हासिल हो गया था.

 

सोनिया गांधी

प्रधानमंत्री पद पर राव के कार्यकाल के दौरान ही सोनिया गांधी राजनीति में सक्रिय हो गई थी. पहले उन्होने राजीव गांधी हत्याकांड की जांच की धीमी गति को लेकर राव सरकार की तीखी आलोचना की. उन्होने 1996 का लोकसभा चुनाव आते -आते सक्रिय राजनीति शुरु कर पूर्व केंद्रीय मंत्री सीताराम केसरी को कांग्रेस अध्यक्ष बनने दिया. फिर तो उन्होने राजनीति के धुरंधर सीताराम केसरी को भी चलता कर कांग्रेस की बागडोर स्वयम् सम्भाल ली. लेकिन वह प्रधानमंत्री नहीं बन सकीं. 2004 के लोकसभा चुनाव के बाद उन्होने राष्ट्रपति से भेंट कर नई सरकार बनाने का कांग्रेस का दावा पेश किया. पर जब सरकार बनाने का अवसर मिला तो सोनिया गांधी ने राव सरकार मे वित्त मंत्री रह नई ‘उदारवादी‘ आर्थिक नीति लागू कराने में अग्रणी रहे मनमोहन सिंह को आगे कर दिया. उन्होने 2009 के लोकसभा चुनाव में मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री पद के लिये बाकायदा कांग्रेस की ओर से दावेदार पेश किया था. 2014 के लोकसभा चुनाव तक सोनिया गांधी ने ही कांग्रेस की बागडोर सम्भाल रखी थी. बाद में उन्होने राहुल गांधी के लिये कांग्रेस नेतृत्व का रास्ता खाली कर दिया .उसके बाद की कहानी बहुत पुरानी नहीं है. इसलिये उसे दोहराने की जरुरत नहीं है.

 

संयुक्त पत्र

बताया जाता है कि 7 अगस्त 2020 को 23 बड़े कांगेसी नेताओं के हस्ताक्षर से लिखे संयुक्त पत्र मे पार्टी के लिये ‘पूर्णकालिक और प्रभावी’ नेतृत्व की मांग की गई थी .पत्र मे पार्टी के ‘आत्मावलोकन’,  अधिकरो के विकेंद्रीकरण,  राज्य इकाइयों के सशक्तिकरण और संगठनात्मक चुनाव कराने की मांग की गई थी. कह्ते हैं कि राहुल गांधी इस पत्र के ‘समय‘ पर नाराज हो गये. सूत्रो के अनुसार उन्होने  कहा,  ‘ यह पत्र तब लिखा गया जब सोनिया गांधी बीमार थीं. ये इन नेताओं की भाजपा से मिलीभगत हो सकती है.’ इस पर कपिल सिब्बल और गुलाम नबी आजाद आवेश में आ गये.

जम्मु- कश्मीर के मुख्यमंत्री रह चुके आजाद ने मिलीभगत साबित होने पर इस्तीफा देने की बात कही. सिब्बल ने तंज में ट्वीट किया कि उन पर भाजपा से सांठ-गांठ का शक है. जबकि उन्होने राजस्थान में कांग्रेस के लिए जी तोड वकालत की. सिब्बल ने बाद मैं वो ट्वीट डेलीट कर कहा कि राहुल गांधी ने उन्हे निजी तौर पर भरोसा दिलाया कि उन पर भाजपा से मिलीभगत की कोई बात नहीं की।

कांग्रेस की सर्वोच नीति निर्धारक निकाय , राष्ट्रीय कार्य समिति (सीडब्ल्युसी) की मंगलवार सम्पन्न बैठक में इस बात पर आम सहमति रही कि उसके अस्तित्व की रक्षा के लिये ऐसे ‘सर्वमान्य‘ नेतृत्व की दरकार है जो देश में निराश बैठे पार्टी कार्यकर्ताओं में आशा का संचार करे और अनुभवी बुजुर्ग एवम युवा नेताओं को एकसाथ राजनीतिक एवम ” चुनावी छतरी ” भी प्रदान कर सके. किसी ने बिल्कुल ऐसा तो नहीं कहा लेकिन बैठक में भाग लेने वालो का हाव भाव यही था : नेता वही जो चुनाव जितवाये. कांग्रेस में नेह्ररु-गांधी परिवार के नेतृत्व के चुनावी मायने कम नही हैं.

राहुल गांधी और उनकी छोटी बहन प्रियांका गांधी वाड्रा ने भी नेहरू-गांधी परिवार के बाहर के किसी व्यक्ति  को नेतृत्व सौंपने का सार्वजनिक रूप से सुझाव दिया था. कई कांग्रेस नेताओं ने राहुल गांधी से फिर अध्यक्ष पद संभालने का आग्रह किया। राहुल गांधी ने लगातार दो- टूक कहा वह कांग्रेस अध्यक्ष पद नहीं संभालेंगे , बेशक मोदी सरकार के कामकाज की गड्बडियों के खिलाफ और आम जनता के हितो के सवालो को लेकर विपक्षी सांसद की भूमिका का निर्वाह करते रहेंगे.


द डायनेस्टी

कांग्रेस के उन इक्का दुक्का लोगों और मीडिया के ‘मठाधीश पत्रकारो‘ को छोड,  जो पार्टी की बागडोर केरल के अतिस्मार्ट और अंग्रेजी में लच्छेदार भाषण देने, मोटी-मोटी पुस्तके लिखने और चुटीले ट्वीट करने के लिये मशहूर शशि थरूर जैसो का नाम सुझा रहे थे, आम कांग्रेसी वही चाह्ते बताये गये जो हमेशा से चला आया है. कांग्रेस  अपने नेतृत्व के लिये भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेह्ररु के बाद से उनके ही वंशज की बाट जोह्ते रहे हैं. इस वंश को बोलचाल में ‘नेहरू-गांधी परिवार‘ का नाम दे दिया गया है. दिग्गज प्रशासनिक अफसर एवम पूर्व सूचना-प्रसारण सचिव एसएस गिल ने इस परिवार को ‘द डायनेस्टी‘  निरुपित कर बाकायदा एक आंग्ल पुस्तक लिख डाली है.

कांग्रेस की कार्यवाहक अथवा अंतरिम अध्यक्ष के बतौर सोनिया गांधी ने पार्टी को न सिर्फ संभाले रखा बल्कि विपरीत हालात मे झारखंड और महाराष्ट्र में चुनाव से निकले विखंडित जनादेश का ‘अपहरण“ कर केंद्रीय सत्ता और धनबल से अपनी अल्पमत सरकार बनाने की भारतीय जनता पार्टी की तिकडम को गठबंधन की राजनीति के नये चरण का सूत्रपात कर धता बता दिया. कोई सोच भी नहीं सकता था कि कांग्रेस महाराश्ट्र मे ‘ उग्र हिंदुत्व ‘ समर्थक शिव सेना से हाथ मिला लेगी जो भाजपा की ‘आदि सहयोगी‘ थी.

कांग्रेस ने श्रीमती गांधी के कार्यवाहक नेतृत्व में ही  हरियाणा चुनाव में भी बेहतर प्रदर्शन किया. लेकिन वह भाजपा के उस सियासी “सूक्ष्म प्रबंधन “ के कारण सरकार बनाने से चूक गई जिसमें वह त्रिपुरा में पह्ले एक भी विधायक न होने के बावजूद नये चुनाव बाद सरकार बनाने का करिश्मा कर चुकी है. भाजपा ने पार्टी के पूर्व द डायनेस्टी अध्यक्ष एव मौजूदा केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह द्वारा विकसित इस सूक्ष्म प्रबंधन से ही केंद्रीय सत्ता एवम धनबल से मध्यप्रदेश में कांग्रेस की पिछ्ले चुनाव मैं निर्वाचित कमलनाथ सरकार को गिरा कर अपनी सरकार फिर बना ली और राजस्थान में असल जीवन में जादुगर रह चुके मुख्य मंत्री अशोक गह्लौत के अनुभव के कारण सत्ता हथियाने से रह गई. बिहार चुनाव के पहले सोनिया गांधी ने कांग्रेस की बागडोर फिर अपने हाथ में ले ली है. वक्त आसान नहीं बहुत कठिन है, भारत,  भारत की सरकार, हम भारत के लोग, कांग्रेस, कांग्रेस के कार्यकर्ताओ और उसकी फिर अध्यक्ष चुनी गयीं 70 बरस से अधिक की सोनिया गांधी के लिये.  कहवत ही सही और भले कांटो का हो, ताज तो ताज ही होता है .



वरिष्ठ पत्रकार चंद्र प्रकाश झा का मंगलवारी साप्ताहिक स्तम्भ ‘चुनाव चर्चा’ लगभग साल भर पहले, लोकसभा चुनाव के बाद स्थगित हो गया था। कुछ हफ़्ते पहले यह फिर शुरू हो गया। मीडिया हल्कों में सी.पी. के नाम से मशहूर चंद्र प्रकाश झा 40 बरस से पत्रकारिता में हैं और 12 राज्यों से चुनावी खबरें, रिपोर्ट, विश्लेषण के साथ-साथ महत्वपूर्ण तस्वीरें भी जनता के सामने लाने का अनुभव रखते हैं। सी.पी. आजकल बिहार में अपने गांव में हैं और बिहार में बढ़ती चुनावी आहट और राजनीतिक सरगर्मियों को हम तक पहुँचाने के लिए उनसे बेहतर कौन हो सकता था। वैसे उनकी नज़र हर तरफ़ है। बीच-बीच में ग्लोब के चक्कर लगाते रहते हैं। रूस, अमेरिका, चीन,बेलारूस की राजनीति पर नज़र डालने के बाद भारत वापसी हुई तो देश की सबसे पुरानी पार्टी में संकट खड़ा हो गया। तो इतिहास-पुराण इसका भी बाँच डाला।