अख़बारनामा: पार्क में नमाज़ रोकने के आदेश पर ‘हिन्दू’ हो गए अख़बार

मीडिया विजिल मीडिया विजिल
काॅलम Published On :




पुलिस इंस्पेक्टर की चिट्ठी और ईज़ ऑफ बिज़नेस का धुंआ निकल गया


संजय कुमार सिंह


आज के अखबारों में यह खबर प्रमुखता से छपी है कि नोएडा के एक पार्क में नमाज पढ़ने वालों को ऐसा करने से मना कर दिया गया है। और इस संबंध में इलाके की कंपनियों को चिट्ठी भेजकर अपेक्षा की गई है कि वे अपने कर्मचारियों को इस बाबत सूचना दें और यह कंपनियों की व्यक्तिगत जिम्मेदारी है। कोई भी कंपनी अपने कर्मचारियों की धार्मिक गतिविधियों के साथ कार्य समय के बाद की गतिविधियों के लिए जिम्मेदार ठहराई जाए, एक खास धर्म के कर्मचारियों को चुनकर एक खास धार्मिक गतिविधि में शामिल न होने के लिए कहा जाए यह, कंपनियों से गलत अपेक्षा है। ऐसे मामलों में हिन्दी अखबारों से तो कोई अपेक्षा नहीं ही रहती है। अंग्रेजी अखबारों ने भी सरकारी बयान ही छापा है। वो भी अंदर के पन्नों पर।

हिन्दी अखबारों में यह खबर – नोएडा में सार्वजनिक स्थानों पर नमाज पर लगाई पाबंदी (नवोदय टाइम्स), नोएडा में खुले में नमाज पर रोक, 22 कंपनियों को नोटिस (अमर उजाला), नोएडा में बिना इजाजत पार्क में नमाज पढ़ने पर लगी रोक (और अंदर के पन्ने पर) लोगों की सहूलियत के लिए पुलिस ने उठाया कदम (दैनिक जागरण), नोएडा के पार्क में पुलिस ने रोकी नमाज तो विवाद (लीड, नवभारत टाइम्स), नोएडा के पार्क में नमाज पढ़ने पर पाबदी लगी (हिन्दुस्तान) और नोएडा पुलिस ने खुले में नमाज अदा करने पर रोक लगाई (दैनिक भास्कर) शीर्षक से पहले पन्ने पर है। अंग्रेजी के जो अखबार मैं देखता हूं उनमें किसी में यह खबर पहले पेज पर नहीं है।

नमाज पढ़ना धार्मिक आस्था का मामला है। समय पर पढ़ा जाता है। उसके अपने कायदे हैं और उसके लिए अनुमति लेने की शर्त तथा नहीं मिलने की समस्या धार्मिक लिहाज से कितनी गंभीर है, इसका अनुमान लगाया जा सकता है। अगर आप नहीं समझ पा रहें हैं तो कल्पना कीजिए कि आपको होली मनाने के लिए या कावंड़ ले जाने के लिए अनुमति लेनी हो और यह पक्का नहीं हो कि अनुमति मिलेगी कि नहीं। आपकी धार्मिक आस्था का क्या होगा? आपकी मानसिक स्थिति क्या होगी? नमाज पढ़ने के लिए अनुमति लेने के लिए कहना और कांवड़ यात्रा के लिए जरूरी नहीं होना भेदभाव नहीं तो क्या है? यही नहीं, अनुमति नहीं मिली है आज मंगलवार को बता दिया जा रहा है कि आप शुक्रवार को नमाज नहीं पढ़ेंगे या पढ़ सकते हैं – कहने की बजाय यह सुनिश्चित क्यों नहीं किया जाए कि अनुमति मिल जाए।

वैसे तो पुलिस की ओर से भी यह एक धर्म विशेष के खिलाफ की गई कार्रवाई ही है पर अभी उसमें नहीं जाकर मैं इसे ईज ऑफ बिजनेस के दावों से जोड़कर देखता हूं। आजकल इसका काफी शोर है और सुना है इसमें भारत की रैकिंग बेहतर हुई है। पता नहीं, जिन कंपनियों को कल कई अशुद्धियों वाली यह सूचना हिन्दी में भेजी गई उनमें कोई विदेशी हैं कि नहीं पर कल्पना कीजिए कि किसी कंपनी से कहना कि वह अपने धर्म विशेष के कर्मचारियों को स्थानीय प्रशासन की विशेष सूचना पहुंचाए – ईज ऑफ बिजनेस का कैसे आनंद देगा। कोई कर्मचारी कार्य समय के बाद पार्क में न जाए यह आदेश कोई नियोक्ता कैसे दे?

यही नहीं, कोई नियोक्ता यह भी क्यों और कैसे कहे कि वे नमाज न पढ़ें या पढ़ सकते हैं। उसका यह अधिकार सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी क्या नियोक्ता की नहीं है? मुझे नहीं लगता कि कार्य समय के दौरान दफ्तर में अलग अलग या सामूहिक रूप से नमाज पढ़ने से दूसरे कर्मचारी को कोई समस्या होगी और अगर किसी संस्थान में यह चल रहा हो तो रोकने का कोई कारण है। इसी तरह, किसी पार्क में देश और समाज के कुछ लोग अगर नमाज पढ़ते रहे हैं तो उसे अचानक रोकना या अनुमति लेने के लिए कहना क्यों जरूरी है। और अनुमति क्यों नहीं मिलनी चाहिए या देर क्यों होनी चाहिए।

यह सब तब जब कांवड़ यात्रा के लिए सड़कें खाली कराई जाती हैं, यातायात बाधित होने के कारण लोगों को समस्या होती है, स्कूल बंद कराए जाते हैं या करने पड़ते हैं और कांवड़ियों के उत्पात पर कोई नियंत्रण नहीं होता है। इसका आतंक अपनी जगह है ही। दूसरी ओर मार्ग की मांस की दुकानें बंद करा दी जाती हैं। सड़कों पर उनके आराम के लिए व्यवस्था की जाती है। तेज शोर वाला डीजे बजता चलता है आदि आदि। मुझे नहीं पता इसकी अनुमति होती है या नहीं और होती है तो क्यों? अगर यह सब करने के लिए अनुमति मिल सकती है तो नमाज पढ़ने के लिए क्यों नहीं मिली?

यही नहीं, इस बार तो इसी उत्तर प्रदेश के एक पुलिस अधिकारी ने कांवड़ियों पर फूल भी बरसाए। जाहिर है, वह भी सरकारी खर्चे पर सरकारी नौकरी थी। बात यहीं खत्म नहीं होती है। नवरात्र के दौरान यह मांग भी होती है और इसका पालन भी होता रहा है कि इस दौरान मांस न बिके जबकि नवरात्र में मांस खाने वाले हिन्दुओं की कमी नहीं है और हिन्दू अपनी धार्मिक जबरदस्ती दूसरों पर ही नहीं हिन्दुओं पर भी थोप रहे हैं। दूसरी ओर अगर कंपनियों से कहा जाएगा कि उनके कर्मचारी इलाके के (कर्मचारी कंपनी के पास ही रहेंगे भी) पार्क में नमाज नहीं पढ़ सकते तो कंपनी इसकी भी व्यवस्था करे? यह ईज ऑफ बिजनेस होगा?

सरकार और पुलिस प्रशासन तो धार्मिक आधार पर भेदभाव कर सकते हैं, कर रहे हैं पर भारत में काम करने के लिए न्योता देकर बुलाई गई विदेशी कंपनियां क्या मुस्लिम कर्मचारी रखें तो नमाज पढ़ने की व्यवस्था भी करें और करें तो नवरात्र से लेकर करवाचौथ और कांवड़ यात्रा तक का इंतजाम उन्हें बिना किसी भेदभाव के करना होगा और भारतीय संविधान का पालन करना होगा। यह ईज ऑफ बिजनेस को कहां ले जाएगा। यह सब तब जब उदारीकरण के दौर में तमाम श्रम कानूनों को ठेंगा दिखाया जा चुका है और लोग ठेके पर काम करने को मजबूर हैं। भारत सरकार भी करवाती है।

धार्मिक कट्टरता और मुस्लिम विरोध या हिन्दू का समर्थन राजनीति के लिए तो ठीक हो सकता है पर ईज ऑफ बिजनेस के दावों के लिए ठीक नहीं है और जब नौकरियां नहीं हैं तो ये उल्टा असर करेगा पर अखबार भी धार्मिक आधार पर रिपोर्ट करेंगे तो कैसे चलेगा। मुसलिम कामगारों के मजदूर अधिकार और धार्मिक अधिकारों की बात क्या सिर्फ उर्दू के अखबार करेंगे? यह धार्मिक आधार पर बंटवारा नहीं है? एक पाठक के रूप में आप देखिए आपके अखबार ने ‘हिन्दू’ अखबार के रूप में यह रिपोर्ट की है या मुस्लिम पाठकों की समस्याओं के बारे में भी कुछ सोचा है? दुख की बात यह है कि प्रशानिक अधिकारी भी हिन्दू की तरह बात करते हैं मुस्लिम नागरिकों का भी ख्याल रखने वाले अधिकारी की तरह नहीं।

आप जानते हैं कि, नोएडा के एक थानाप्रभारी ने इलाके की कंपनियों को चिट्ठी लिखकर कहा कि सेक्टर 58 स्थित नोएडा अथॉरिटी के पार्क में किसी भी तरह की धार्मिक गतिविधि जिसमें शुक्रवार को पढ़े जाने वाले नमाज की अनुमति नहीं है। प्रायः देखने में आया है कि आपकी कंपनी के मुस्लिम कर्मचारी पार्क में एकत्रित होकर नमाज पढ़ने के लिए आते हैं जिनको पार्क में सामूहिक रूप से मुझे एसएचओ द्वारा मना किया गया है एवं इनके द्वारा दिए गए नगर मजिस्ट्रेट महोदय के प्रार्थना पत्र पर किसी भी प्रकार की कोई अनुमति नहीं दी गई है। अतः आपसे अपेक्षा की जाती है कि आप अपने स्तर से अपने समस्त मुस्लिम कर्मचारियों को अवगत कराएं कि वो नमाज पढ़ने के लिए पार्क में न जाएं। यदि आपकी कंपनी के कर्मचारी पार्क में आते हैं तो ये समझा जाएगा कि आपने उनको अवगत नहीं कराया है। ये व्यक्तिगत कंपनी की जिम्मेदारी होगी।

अंग्रेजी अखबारों में हिन्दुस्तान टाइम्स के शीर्षक का अनुवाद होगा, “नमाज विवाद : नोएडा के अधिकारियों ने कहा, कोई गलत इरादा नहीं”। इंडियन एक्सप्रेस में शीर्षक है, “खुले में नमाज के खिलाफ नोएडा पुलिस का नोटिस सिर्फ सेक्टर 58 पार्क के लिए :प्रशासन”। टाइम्स ऑफ इंडिया में शीर्षक है, “नमाज पर नोटिस से नोएडा शर्माया कहा, कर्मचारी की आस्था के लिए फर्म जिम्मेदार नहीं ठहराए जा सके”। सिर्फ कोलकाता के टेलीग्राफ में यह खबर सिंगल कॉलम में पहले पन्ने पर है। शीर्षक का अनुवाद होगा, नोएडा नमाज नोटिस। विस्तार से खबर अंदर है जिसका शीर्षक है, “नमाज पर फर्मों को चेतावनी”।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। जनसत्ता में रहते हुए लंबे समय तक सबकी ख़बर लेते रहे और सबको ख़बर देते रहे। )