आज द टेलीग्राफ को छोड़कर सभी चार अखबारों में एक खबर कॉमन है। टाइम्स ऑफ इंडिया में यह पहले पन्ने से पहले के अधपन्ने पर लीड है, हिन्दुस्तान टाइम्स में आज अधपन्ना नहीं है और पहले पन्ने पर सिंगल कॉलम में है, इंडियन एक्सप्रेस में यह तीन कॉलम में है और द हिन्दू में भी यह तीन कॉलम में है। अब पहले पन्ने पर इस खबर को कॉलम सेंटीमीटर के हिसाब से दी गई जगह के उल्टे क्रम में चारो अखबारों के शीर्षक देख लीजिए।
- शिकायत में दम नहीं : ईसी ने टीएमसी का दावा खारिज किया (हिन्दुस्तान टाइम्स)। इस खबर के शीर्षक में या खबर में चुनाव आयोग के इस फैसले पर टीएमसी का पक्ष नहीं है।
- चुनाव आयोग ने ममता की शिकायत खारिज की : ‘तथ्यों के लिहाज से गलत …. दुराचार‘ (इंडियन एक्सप्रेस)। यहां भी इस खबर के साथ तृणमूल का पक्ष नहीं है।
- चुनाव आयोग ने नंदीग्राम के बूथ पर गड़बड़ी की ममता की शिकायत खारिज की, उपशीर्षक है, नियमों के उल्लंघन के लिए तृणमूल प्रमुख के खिलाफ कार्रवाई की चेतावनी दी (द हिन्दू)।
- चुनाव आयोग ने दीदी के दावे को खारिज किया, देख रहा है कि एक अप्रैल की घटनाएं कार्रवाई योग्य हैं या नहीं (टाइम्स ऑफ इंडिया)।
इन चार अखबारों में अकेले टाइम्स ऑफ इंडिया ने इस खबर के साथ टीएमसी का पक्ष छापा है। शीर्षक है, “टीएमसी ने चुनाव आयोग के इरादे पर सवाल उठाए; दीदी ने मोदी पर हमला किया।” बेशक तृणमूल के सवाल और आरोप में दम है। टाइम्स ऑफ इंडिया की इस खबर के अनुसार तृणमूल के प्रवक्ता डेरेक ओ ब्रायन ने कहा है, “…. चुनाव आयोग ने तृणमूल की 1460 शिकायतों में सिर्फ तीन का जवाब दिया है। हम नहीं समझते कि चुनाव आयोग को जवाब देने की जरूरत है। पहले वह सैकड़ों अन्य शिकायतों का जवाब दे।”
चुनाव आयोग की निष्पक्षता लंबे समय से संदेह के घेरे में है। मैं नहीं जानता कि आज अखबारों (या मीडिया) की जो स्थिति है उसमें वह खुद को निष्पक्ष साबित करने के लिए क्या कर सकता है पर आज की और वैसे जो खबरें छपी हैं उससे तो नहीं लगता कि चुनाव आयोग की कार्रवाई को निष्पक्ष कहा जा सकता है। बहुत पीछे नहीं जाऊं तो भाजपा विधायक की गाड़ी में ईवीएम मिलने की खबर अखबारों ने एक दिन बाद छापी। चुनाव आयोग के पक्ष या कहानी के साथ। लेकिन उसमें ऐसा कुछ नहीं था जिससे लगे कि आगे ऐसा नहीं हो उसके लिए कुछ किया गया है या कोई चिन्ता है। ऐसा कैसे होता है कि गाड़ी खराब हो जाती है, विकल्प नहीं होता है। और लिफ्ट देने वाली गाड़ी भाजपा नेता की निकलती है।
इससे पहले के एक मामले में चुनाव अधिकारी ईवीएम के साथ किसी होटल में ठहर गए थे। वहां भी उनके पास विकल्प नहीं रहा होगा। वरना गड़बड़ नहीं करनी होती तो जोखिम क्यों लेता? पर जोखिम लेने के लिए मिलने वाला होटल भाजपा नेता का होता है – यह क्या सामान्य संयोग है? आप अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई तो कर रहे हैं पर उनके पास क्या कोई विकल्प था? यह सब पहले क्यों नहीं होता था। क्या कांग्रेस नेताओं के होटल नहीं हैं, गाड़ियां नहीं हैं? एक मित्र का सुझाव है कि चुनाव आयोग को चाहिए कि पहले की ऐसी घटनाओं का हिसाब दे और बताए कि मामले बढ़े हैं, घटे हैं या उतने ही हैं। क्या चुनाव आयोग को अपनी निष्पक्षता साबित करने के लिए ऐसा नहीं करना चाहिए?
देश का चुनाव आयोग सिर्फ किसी एक चुनाव के सफल या निष्पक्ष संचालन के लिए गठित नहीं किया जाता है। यह एक संवैधानिक व्यवस्था है। यह लगातार निष्पक्ष और बेहतर हो यह हम सबकी जिम्मेदारी है। पर क्या इस दिशा में कुछ हो रहा है? कौन करेगा? पहली जिम्मेदारी तो चुनाव आयोग की ही है। पर चुनाव आयोग की हालत यह है दो दिन प्रचार का समय बचा हो उतने ही समय के लिए प्रतिबंध लगाया जाए और फिर उसे वापस ले लिया जाए – तो कैसे माना जाए कि दवाब में नहीं है? भाजपा नेता हिमंत बिश्व शर्मा के खिलाफ कार्रवाई और फिर छूट की खबर पर मेरी प्रतिक्रिया आप कल इसी कॉलम में पढ़ चुके हैं।
भाजपा नेता पर प्रतिबंध लगाने और फिर वापस लेने के पुराने मामले भी हैं। कल मैंने उनकी या दूसरे मामलों की बात नहीं की थी पर द टेलीग्राफ में खबर थी (दूसरों में पहले पन्ने पर तो नहीं थी) कि द्रमुक नेता (सत्तारूढ़ भाजपा या सहयोगी पार्टी के नहीं हैं) ए राजा को ऐसी ही सजा दी गई थी पर वह कायम रही। द टेलीग्राफ ने चुनाव आयोग के अधिकारी के हवाले से लिखा था कि दोनों मामले काफी अलग हैं। पर सजा तो माफी मांगने से कम हुई थी। और माफी दोनों मामलों में मांगी गई थी। राजा ने प्रतिबंध को हाईकोर्ट में चुनौती दी थी पर असफल रहे। मुझे लगता है कि दबाव में ही सही, हिमंत बिस्व शर्मा की सजा कम की गई तो राजा की भी कर दी जानी चाहिए थी। निष्पक्षता नजर तो आती। तुलना करने के लिए चुनाव में दो मामले बिल्कुल एक जैसे हों इसकी संभावना तो बहुत कम होती है। फैसले विवेक से ही लिए जाने होते हैं और उसमें निष्पक्षता दिखनी चाहिए पर दबाव या पक्षपात दिख रहा है। द टेलीग्राफ ने कुछ पुराने मामलों की चर्चा की है। उनसे तो लगता है कि भाजपा वाले ऐसे आरोप लगाने के आदी है और उनके खिलाफ ज्यादा सख्ती की जरूरत है पर वह दूसरा मामला है।
आज तृणमूल मामले में भी अखबारों का दायित्व था कि वे तृणमूल का पक्ष छापते। या फिर बताते कि शिकायत क्या थी और कैसे कमजोर लगी। जहां तक मैं समझ पाया हूं, आरोप यह था कि तृणमूल कार्यकर्ताओं को वोट देने से रोका गया। यहां तक कि पार्टी के पोलिंग एजेंट को मतदान केंद्र में नहीं घुसने दिया गया। मुझे लगता है कि यह ठोस शिकायत है। और इसे गलत तभी कहा जा सकता है जब यह बताया जाए कि तृणमूल का फलां कार्यकर्ता पोलिंग एजेंट था वह शुरू से आखिर तक था या स्वेच्छा से इतने बजे निकल गया था। यह भी संभव है कि तृणमूल का कोई एजेंट ही न हो और पार्टी झूठा दावा कर रही हो। इस हालत में बताया जाना चाहिए कि कोई एजेंट था ही नहीं। ऐसा किए बगैर यह कह देना कि शिकायत में दम नहीं है – मुझे संतोषजनक जवाब नहीं लगता है।
इसके बावजूद, इंडियन एक्सप्रेस जैसे तथाकथित सत्ता विरोधी अखबार जो अभी भी जर्नलिज्म ऑफ करेज का दावा करते हैं, सरकार की सेवा में बिछ से गए लगते हैं। ठीक वैसे ही जैसे इमरजेंसी में कुछ अखबारों से झुकने के लिए कहा गया तो रेंगने लगे। और यह हालत तब है जब इमरजेंसी नहीं लगी है। संविधान का क्या होगा? किससे पूछा जाए। इंडियन एक्सप्रेस में आज चुनाव आयोग वाली खबर के साथ अखबार ने संपादकीय पन्ने पर कमीशन एंड ओमिशन (आयोग और चूक) शीर्षक से एक संपादकीय होने की सूचना दी है। वैसे तो मैं संपादकीय पन्ने पर टिप्पणी नहीं करता लेकिन आज चुनाव आयोग की निष्पक्षता और अखबारों की भूमिका पर लिख रहा हूं तो कुछ सूचनाएं। संपादकीय का उपशीर्षक या इंट्रो है, चुनाव आयोग का स्वतंत्रता और निष्पक्षता का अच्छा–खासा रिकार्ड है – इसलिए इसे बहुत मामूली आरोपों का भी जवाब देना होता है।
मैं लिखता रहा हूं कि इंडियन एक्सप्रेस की नीति सरकार के समर्थन में लगती है। इसलिए आज चुनाव आयोग पर इस संपादकीय की चर्चा के साथ यह बताना भी अप्रासंगिक नहीं होगा कि आज (जाहिर है आज मतलब संयोग ही है) कि संपादकीय पन्ने पर बड़ा वाला लेख सुशील मोदी का है। इसका शीर्षक है, ईंधन की कीमत, कच्चा तथ्य। बिहार के वित्त मंत्री के रूप में वित्त मंत्री जीएसटी कमीशन के सदस्य रहे हैं और जब पेट्रोल (ईंधन) जीएसटी के तहत नहीं है तो इनका काम था कि एक देश एक टैक्स के प्रचार के तहत पेट्रोलियम पदार्थों को भी जीएसटी के तहत रखने की वकालत करते। या बताते कि क्यों नहीं रखा जाना चाहिए। या क्यों नहीं रखा जा रहा है। पर आज बीच–बीच की बातें करके अच्छे लेख की जगह खराब कर रहे हैं और पेशवर लेखकों की कमाई कम कर रहे हैं। आज के इस लेख का उपशीर्षक है, पेट्रोलियम पदार्थों को जीएसटी के तहत लाने भर से कीमत कम नहीं होगी। इसके लिए केंद्र को करों में भारी कटौती करनी होगी।
मुझे लगता है कि यह कोई जानकारी नहीं है। सुशील मोदी जैसे अनुभवी और जानकार के बताने लायक तो बिल्कुल नहीं। वे 24 मार्च को राज्य सभा में कह चुके हैं कि पेट्रोल–डीजल को जीएसटी के दायरे में लाना मुश्किल है, लगेगा 8 से 10 साल। असल में यह जीएसटी की नाकामी है पर इसे सरकार की उपलब्धि के रूप में पेश करने की अलग अदा है। दुनिया जानती है कि पेट्रोलियम पदार्थों को जीएसटी के तहत इसीलिए नहीं लाया जा रहा है और जीएसटी के तहत लाने के बाद जरूरी होगा कि इसपर टैक्स जीएसटी की अधिकतम दर के अनुसार लगे या जीएसटी का एक नया ऊंचा दर बनाया जाए। दोनों मुश्किल है और पहले कहा जा चुका है जो मोटे तौर पर यही है कि ना ज्यादा दरें होंगी ना मौजूदा दर से ऊपर कोई दर होगा। गनीमत यही है कि लेख में पेट्रोलियम पदार्थों पर लगने वाले भारी टैक्स का विवरण है और अखबार ने उसे हाईलाइट कर दिया है। फिर भी यह लेख छापना सरकारी प्रचार ही है। इंडियन एक्सप्रेस को तो जर्नलिज्म ऑफ करेज करना है। जनसत्ता के अच्छे दिनों में ऐसे सरकारी लेख नहीं छपते थे। हमारे संपादक ऐसी खबरों को पेड न्यूज मानते थे और इनके खिलाफ अभियान चलाते रहे।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार और प्रसिद्ध अनुवादक हैं।