धर्म बदलने से दलितों को मिली सुविधाएँ ख़त्म नहीं होतीं-डॉ.आंबेडकर

मीडिया विजिल मीडिया विजिल
काॅलम Published On :



डॉ.आंबेडकर के आंदोलन की कहानी, अख़बारों की ज़़ुबानी – 23

पिछले दिनों एक ऑनलाइन सर्वेक्षण में डॉ.आंबेडकर को महात्मा गाँधी के बाद सबसे महान भारतीय चुना गया। भारत के लोकतंत्र को एक आधुनिक सांविधानिक स्वरूप देने में डॉ.आंबेडकर का योगदान अब एक स्थापित तथ्य है जिसे शायद ही कोई चुनौती दे सकता है। डॉ.आंबेडकर को मिले इस मुकाम के पीछे एक लंबी जद्दोजहद है। ऐसे मेंयह देखना दिलचस्प होगा कि डॉ.आंबेडकर के आंदोलन की शुरुआत में उन्हें लेकर कैसी बातें हो रही थीं। हम इस सिलसिले में हम महत्वपूर्ण  स्रोतग्रंथ  डॉ.अांबेडकर और अछूत आंदोलन  का हिंदी अनुवाद पेश कर रहे हैं। इसमें डॉ.अंबेडकर कोलेकर ख़ुफ़िया और अख़बारों की रपटों को सम्मलित किया गया है। मीडिया विजिल के लिए यह महत्वपूर्ण अनुवाद प्रख्यात लेखक और  समाजशास्त्री कँवल भारती कर रहे हैं जो इस वेबसाइट के सलाहकार मंडल के सम्मानित सदस्य भी हैं। प्रस्तुत है इस साप्ताहिक शृंखला की  तेइसवीं कड़ी – सम्पादक

 

 

 

167

 

धर्मान्तरण से हरिजनों के अधिकार प्रभावित नहीं होंगे

डा. आंबेडकर ने काॅंग्रेस पर डराने का आरोप लगाया

( दि टाइम्स आॅफ इंडिया, 24 जुलाई1936)

हिन्दू समुदाय को छोड़ने की स्थिति में, पूना समझौते के अन्तर्गत दलित वर्गों को मिलने वाली सुविधाएॅं समाप्त हो जायेंगी, इसे डा. आंबेडकर ने चुनावों में दलित वर्गों को डराने के लिए काॅंग्रेस का उनके तथा उनकी पार्टी के विरुद्ध दुष्प्रचार बताया है।

 

टाइम्स आॅफ इंडिया को विशेष साक्षात्कार

 

‘मेरे पास इस बात का सुबूत है, जिसे मैं दिखा सकता हूॅं कि यह काॅंग्रेस का राजनीतिक स्टण्ट है, जो आने वाले चुनावों में मुझे और मेरी पार्टी को डराने के लिए किया जा रहा है, और उनका मकसद दलित वर्गों को हिन्दूधर्म में बने रहने के लिए मजबूर करना है।’

यह डा.आबेडकर की उन खबरों पर प्रतिक्रिया थी, जो शहर में येवला प्रस्ताव और बम्बई के दलित वर्ग सम्मेलन में डा. आंबेडकर के हिन्दू धर्म छोड़ने की घोषणा को लेकर सुनी जा रही हैं कि हिन्दूधर्म छोड़ने के साथ ही पूना पैक्ट के अन्तर्गत प्राप्त सुविधाएॅं भी चली जायेंगी।

डा. आंबेडकर को इस तरह की खबरों पर हॅंसी आती है, क्योंकि, उनके मतानुसार, ये खबरें संवैधानिक स्थिति की अज्ञानता और पूना पैक्ट द्वारा संशोधित कम्युनल अवार्ड (साम्प्रदायिक निर्णय) की जानकारी न होने की वजह से हैं।

दलित वर्गों के सम्बन्ध में कम्युनल अवार्ड का मूल प्राविधान यह था है कि उन्हें सामान्य निर्वाचन क्षेत्रों में वोट डालना है, परन्तु उन्हें पर्याप्त प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने के लिए विशेष सीटें प्रदान की जायेंगी। दलित वर्गों के लिए इस प्राविधान का आधार पृथक निर्वाचन था।

संक्षेप में, पूना पैक्ट इसके स्थान पर, दलित वर्गों के लिए हिन्दू समुदाय के साथ संयुक्त निर्वाचन का प्राविधान प्रस्तुत करता है। यह सुनिश्चित करने के लिए कि दलित वर्गों के प्रतिनिधियों ने उनके साथ अपने समुदाय का विश्वास प्राप्त कर लिया है, हिन्दुओं द्वारा प्राथमिक चुनाव के लिए स्वयं एक उपाय प्रस्तुत किया गया था। संयुक्त हिन्दू समुदाय का निर्वाचन दलित वर्गों की सूची में मतदाताओं के द्वारा चुने गए प्रत्येक सीट के लिए चार उम्मीदवारों के पैनल में से अपनी पसन्द का उम्मीदवार चुनने के लिए था।

 

पूना पैक्ट: हिन्दुओं का विवाद

 

अब हिन्दू समुदाय के द्वारा उठाया गया नया बिन्दु यह है कि जिन परिस्थितियों में पूना पैक्ट हुआ था, उसके पीछे कल्पना निस्सन्देह यही थी कि दलित वर्ग हिन्दू समुदाय का अंग बनकर रहेगा। मि. गाॅंधी का उपवास, जो पूना पैक्ट के लिए व्यक्तिगत रूप से जिम्मेदार था, दलित वर्गों को पृथक निर्वाचन के आबंटन से सम्भावित हिन्दू समुदाय के विघटन को रोकने के लिए किया गया था।

तब यह तर्क दिया गया था कि पूना पैक्ट के अन्तर्गत हिन्दू समुदाय ने बलिदान दिए हैं और मूल अवार्ड में आबंटित अपनी कुछ सीटैं भी छोड़ी हैं, जिसका मकसद पूरी तरह दलित वर्गों का भय दूर करना और उन्हें हिन्दू दायरे में बनाए रखना था।

हालांकि उसी समय दलित जातियों के एक वर्ग ने डा. आबेडकर के नेतृत्व में हिन्दू धर्म छोड़ने की घोषणा कर दी थी। उदाहरण के लिए, बम्बई महार सम्मेलन ने प्रस्ताव पास किया कि सम्मेलन पूरी तरह विचार करने के बाद-

(क) ‘घोषणा करता है कि महार समुदाय के लिए केवल धर्म-परिवर्तन ही समानता और स्वतन्त्रता प्राप्त करने का एकमात्र उपाय है।

(ख) डा. बी. आर. आंबेडकर को अपना सर्वमान्य नेता मानता है और उन्हें विश्वास दिलाता है कि उनका समुदाय बड़े पैमाने पर धर्म परिवर्तन करने के लिए तैयार है। और,

(ग) माॅंग करता है कि महार समुदाय धर्म परिवर्तन की दिशा में प्रारम्भिक कदम के रूप में, अब से हिन्दू देवी-देवताओं की पूजा नहीं करेगा, हिन्दुओं के त्योहार नहीं मनायेगा और हिन्दुओं के तीर्थ स्थानों पर नहीं जायेगा।’

 

रूढ़िवादी विचार

सनातनी हिन्दुओं की दृष्टि में, निस्सन्देह यह प्रस्ताव हिन्दू समुदाय के विरुद्ध महारों के इरादों को साफ कर देता है और इसलिए अगर उन्हें उन चुनावी विशेषाधिकारों को देने से मना कर दिया, जिन्हें हिन्दुओं ने उनके लिए स्वीकार किया है, तो वे हिन्दू बने रहने के लिए बाध्य नहीं कर सकते।

दूसरे शब्दों में, जैसा कि अभी काॅंग्रेस के नेता ने कहा है, ‘वे दोनों तरफ नहीं रह सकते। या तो वे हिन्दू बनकर पूना पैक्ट की सुविधाओं का लाभ लें, या फिर हिन्दू धर्म छोड़कर उन सुविधाओं को भी छोड़ें।’

‘टाइम्स आफ इंडिया’ के प्रतिनिधि के साथ एक विशेष साक्षात्कार में डा. आंबेडकर ने इस बात का खण्डन किया कि हिन्दू समुदाय ने दलित वर्गों के लिए कोई कुरबानी दी है।

उन्होंने कहा, ‘यह मानना गलत है कि सनातनी हिन्दुओं ने दलित वर्गों के पक्ष में अपनी कोई सीट छोड़ी है। वास्तव में, हिन्दू सीट या हिन्दू निर्वाचन क्षेत्र जैसी कोई चीज ही नहीं है। जो है, वह केवल सामान्य निर्वाचन क्षेत्र है।’

डा. आंबेडकर के अनुसार, संविधान में हिन्दू निर्वाचन क्षेत्र ही नहीं है, हालांकि मुसलमानों, यूरोपियों, एॅंग्लो-भारतीयों और पंजाब में सिखों के लिए पृथक निर्वाचन क्षेत्र हैं। सामान्य निर्वाचन क्षेत्र सिर्फ हिन्दुओं के लिए नहीं है, बल्कि उसमें पारसी, यहूदी, जैन, बौद्ध और अन्य समुदायों के सदस्य भी शामिल हैं। पूना पैक्ट में जो सुविधाएॅं दलित वर्गों को मिली हैं, वे सामान्य निर्वाचन क्षेत्र से मिली हैं, हिन्दू निर्वाचन क्षेत्र से नहीं, क्योंकि ऐसा कोई क्षेत्र अस्तित्व में ही नहीं है। इसका उल्लेख न तो कम्युनल अवार्ड में है, न पूना पैक्ट में, और न ही भारत सरकार के अधिनियम 1935 में है, जिसके द्वारा मताधिकार और निर्वाचन प्रक्रिया का संचालन होता है।

 

निर्वाचन क्षेत्रों का वर्गीकरण

देर से उठाया गया सवाल

 

डा. आंबेडकर ने कहा कि भारत सरकार के अधिनियम द्वारा अपनाए गए निर्वाचन क्षेत्रों का वर्गीकरण अथवा उनके औचित्य पर सवाल उठाने का समय अब निकल गया है। ‘अब तो इसका पालन ही किया जाना है। पंजाब में भी, जहाॅं मुसलमान बहुसंख्यक हैं और हिन्दू अल्पसंख्यक, मुसलमानों के लिए पृथक निर्वाचन है, जबकि हिन्दुओं के लिए सामान्य निर्वाचन है’ -उन्होंने जोड़ा।

इस प्रकार, डा. आंबेडकर यह कह कर अपनी बात पर कायम रहते हैं कि ‘हिन्दुओं का यह दावा गलत और शरारतपूर्ण है कि उन्होंने त्याग किया है, क्योंकि यह सर्व विदित है कि अनेक अन्य समुदायों ने भी, जो सामान्य निर्वाचन क्षेत्र में शामिल हैं, दलित वर्गों को तथाकथित सुविधा प्रदान की है।

डा. आंबेडकर ने दूसरा महत्वपूर्ण बिन्दु यह उठाया है कि कम्युनल अवार्ड, पूना पैक्ट और भारत सरकार के अधिनियम 1935 में विचार किए गए राजनीतिक समायोजन से धर्म का कुछ भी लेना-देना नहीं है। यूरोपीय निर्वाचन क्षेत्र में यूरोपीय लोग शामिल हैं, चाहे उनके धार्मिक विचार कुछ भी हों, और इसी तरह एंग्लो-भारतीयों के निर्वाचन क्षेत्र एंग्लो-भारतीय शामिल हैं, भले ही वे किसी भरी धर्म के हों। यह व्यवस्था केवल मुस्लिम समुदाय के बारे में है कि वहाॅं राजनीतिक वर्गीकरण धार्मिक समूह का पालन करता है। सामान्य निर्वाचन श्रेणी के लोगों के लिए भी राजनैतिक अधिकारों के उपभोग के आधार के रूप में कोई धार्मिक समानता नहीं है।

 

मताधिकार समायोजन

 

दूसरे शब्दों में, मताधिकार समायोजन किसी धार्मिक प्रोत्साहन की बजाए समुदाय की सदस्यता पर आधारित है। दलित वर्गों का मूल वर्गीकरण भी अब ‘अनुसूचित जातियाॅं हो गया है, जो केवल समुदाय की एक शाखा को बताता है, जिसे सामाजिक और आर्थिक रूप से देखा जाता है, धर्म के दृष्टिकोण से नहीं।

डा. आंबेडकर कहते हैं कि अगर यह तर्क मान भी लिया जाए कि इन वर्गीकरणों में धर्म का तत्व है, तो धर्म त्यागने, या हानि की घोषणा करने अथवा पंथ-सम्प्रदाय में आस्था न होने से राजनैतिक अधिकारों के उपभोग पर कोई असर नहीं पड़ता है।

यह एक अलग विचारणीय विषय हो सकता है कि यदि दलित वर्ग के किसी सदस्य ने हिन्दू धर्म छोड़ दिया, और इस्लाम या ईसाई धर्म अपना लिया, तो फिर क्या वह केवल इस तरह के धर्मान्तरण के बाद, उस धर्म के मानने वालों के राजनीतिक समूह में आ जायेगा, और तब क्या उसे हिन्दू समुदाय की सदस्यता से जुड़े अधिकारों को खत्म करने के लिए बाध्य किया जा सकता है?

डा. आंबेडकर पूछते हैं कि क्या होगा अगर कोई हिन्दू वेदों में आस्थावान नहीं है? आज भारत में ऐसे बहुत से हिन्दू हैं, जो केवल नाम के हिन्दू हैं और उन असंख्य धार्मिक संस्कारों और औपचारिकताओं को नहीं मानते हैं, जो उन्हें हिन्दू बनाते हैं। क्या उस आधार पर हिन्दू रह जाते हैं? और, वह मानक क्या है, जोहिन्दू धर्म में एक व्यक्ति के हिन्दू होने की आस्था की सीमा को मापता है?

 

अधिकारों पर जोर

 

वर्तमान धार्मिक प्रथाओं और अन्याय से पैदा घृणा के कारण धर्म छोड़ने का इरादा किसी को भी उसके उस धर्म से सम्बन्ध खत्म नहीं कर देता है, जिसे वह आम तौर पर विश्वास करने का दावा करने के लिए माना जाता है।

‘अवश्य ही, आज सारे ईसाई सच्चे ईसाई नहीं हैं। यूरोप में रविवार की परेड में क्या होता है? क्या वे लोग, जो ईसाईयत में विश्वास नहीं करते हैं, या निरपेक्ष हैं या बौद्धिक हैं, रविवार की सुबह चर्च के सामने प्रदर्शन करते हैं ? फिर भी वे राज्य की दृष्टि में ईसाई हैं।’

डा. आंबेडकर रे विनोदपूर्वक कहा, ‘मुझे आप कानून हिन्दू कह सकते हैं। किन्तु मैं अपने गहन धार्मिक उत्साह के बावजूद अपने राजनीतिक अधिकारों पर जोर दूॅंगा।’

डा. आंबेडकर ने अपने मत के समर्थन में पंजाब के दो उदाहरण दिए, जहाॅं दलित वर्गों के दो समूह, यह साबित होने के बावजूद कि वे हिन्दू नहीं हैं, अनुसूचित जाति वर्ग में रखे गए। ये दोनों समूह ‘आद धर्मी’ और ‘रमदसिया’ हैं। इनमें से ‘आद धर्मी’ ने औपचारिक रूप से सरकार को सूचित कर दिया था कि वे हिन्दू नहीं हैं। फिर भी उन्हें सामान्य निर्वाचन क्षेत्र में ‘अनुसूचित जाति’ के अन्तर्गत वर्गीकृत किया गया।

1931 की पंजाब की जनगणना रिपोर्ट कहती है-

‘वर्तमान जनगणना की सबसे उल्लेखनीय विशेषता यह है कि धर्म-वापिसी के दृष्टिकोण से बहुत से चमारों, शूद्रों और अन्य अछूतों ने ‘आद धर्मी’ शब्द को अपना लिया है। इस वर्ष धर्म को एक नया निर्देश दिया गया था, अर्थात, ‘आद धर्मी’ के रूप में लौटने वाले व्यक्तियों को इस तरह दर्ज किया जाना चाहिए।

‘पंजाब के आद धर्म मण्डल ने 1930 में जनगणना शुरु होने से पहले पंजाब सरकार को याचिका दी थी, जिसमें कहा गया था कि दलित वर्गों को जनगणना के समय अपने धर्म के रूप में ‘आद धर्म’ में वापिस आने की अनुमति दी जानी चाहिए, क्योंकि वे आदिवासी थे, जिनके साथ हिन्दुओं ने विशाल दूरी बनाकर रखी थी, और वे हिन्दूधर्म को नहीं मानते थे। ‘पंजाब आद धर्म मण्डल’ के अध्यक्ष को सूचित किया गया था कि जनगणना कानून में एक धारा में प्राविधान में है कि ‘आद धर्म’ के रूप में अपने धर्म में लौटने वाले व्यक्तियों को उसी रूप में दर्ज किया जायेगा। ‘आद धर्म’ का शाब्दिक अर्थ मूल अथवा प्राचीन धर्म है।’

 

एक नकारात्मक दृष्टिकोण

 

डा. आंबेडकर के अनुसार, ‘आद धर्म’ आन्दोलन पर विवाद इतना गम्भीर हो गया था कि कई लोगों की हत्याएॅं कर दी गईं थीं। फिर भी यह हुआ कि आद धर्मियों को सामान्य निर्वाचन क्षेत्र में अनुसूचित जाति में वर्गीकृत कर दिया गया, और उनकी इस स्पष्ट घोषणा का कि वे हिन्दू नहीं हैं, विरोध नहीं किया गया।

डा. आंबेडकर ने अपने और अपने अनुयायियों के मामले में ध्यान दिलाया कि हिन्दूधर्म के विषय में उनका दृष्टिकोण नकारात्मक है, पर अभी तक किसी अन्य धर्म का सकारात्मक समर्थन नहीं किया है।

इसी तरह ‘रमदसिया’ लोग धर्म से सिख है, परन्तु वे भी सामान्य निर्वाचन क्षेत्र में अनुसूचित जाति वर्ग में शामिल किए गए हैं। डा. आंबेडकर के अनुसार, इस सबसे यही साबित होता है कि चुनावी वर्गीकरण के साथ धर्म का कुछ भी लेना-देना नहीं है, वे धार्मिक समूहों के विल्कुल विपरीत हैं।

इस प्रकार, जबकि डा. आंबेडकर कहते हैं कि हिन्दुओं को पूना पैक्ट के आधार पर दलित वर्गों के विशेषाधिकारों की शिकायत करने, या चुनौती देने का कोई अधिकार नहीं बनता है, वे दावा करते हैं कि उनके समुदाय के राजनीतिक अधिकार हिन्दूधर्म छोड़ने या उसका इरादा करने से अप्रभावित हैं।

 

168

 

हिन्दू सम्प्रदाय में रहेंगे

हरिजनों के लाभ के लिए इस्लाम आंबेडकर की पहली पसन्द

राजा ने प्रस्ताव अस्वीकार किया

 

(दि बाम्बे क्रानिकल, 8 अगस्त1936)

शिमला, 5 अगस्त।

किसी एक या अन्य धर्म को अपनाने के सापेक्ष दलित वर्गों की सुविधाओं के प्रश्न पर डा. आंबेडकर के विचार, डा. आंबेडकर और डा. बी. एस. मुंजे के बीच हुए सहमति से बने फार्मूला, राव बहादुर एम. सी. राजा की उस फार्मूले से असहमति तथा महात्मा गाॅंधी, पंडित मालवीय और मि. सी. राजगोपालाचारी द्वारा मि. राजा के विचारों के समर्थन का खुलासा करने वाला पत्राचार प्रेस को जारी कर दिया गया है।

 

डा. आंबेडकर का फार्मूला

 

डा. मुंजे ने एक निम्नलिखित पत्र दिनाॅंक: नई दिल्ली, 30 जून 1936, रायबहादुर एम. सी राजा को लिखा-

‘प्रिय महोदय, बम्बई के अपने कुछ मित्रों और श्रीमान सेठ जुगल किशोर बिरला के तत्काल आग्रह पर डा. आंबेडकर की सहमति से मैं इसी 18 तारीख को बम्बई गया था। वहाॅं तीन दिन तक डा. आंबेडकर से मेरी लम्बी बातचीत हुई। अन्ततः हिन्दूधर्म के विरुद्ध उनके विद्रोह का सौहार्दपूर्ण समाधान निकालते हुए एक फार्मूला तैयार कर लिया गया है। इस फार्मूले से डा. आंबेडकर पूरी तरह सहमत हैं।

फार्मूला इस प्रकार है-

‘यदि डा. आंबेडकर यह घोषणा करते हैं कि वे और उनके अनुयायी इस्लाम और ईसाई धर्म की जगह सिख धर्म ग्रहण करने को तैयार हो जाते हैं, और वे ईमानदारी तथा संजीदगी से मुस्लिम-दायरे में दलित वर्गों को खींचने वाले मुस्लिम आन्दोलन को बेअसर करने में हिन्दुओं और सिखों का, उनकी सांस्कृतिक प्रचार करने में, सहयोग करेंगे, तो हिन्दू महासभा को, उनके हिन्दू संस्कृति में बने रहने के दृष्टिकोण से यह घोषणा करने के लिए राजी कर लिया जायेगा कि-

  1. वह दलित वर्गों के सिख धर्म अपनाने का विरोध नहीं करेगा,
  2. वह नवसिखों के अनुसूचित वर्ग में शामिल किए जाने का विरोध नहीं करेगा, तथा
  3. वह दलित वर्गों द्वारा गैर-सिख और नव सिख दलित वर्गों के बीच खुली प्रतियोगगिता में, जैसा कि पूना पैक्ट में प्राविधान है, पूना पैक्ट के राजनीतिक अधिकारों के उपभोग किए जाने का विरोध नहीं करेगा।’

बम्बई से मैं यहाॅं आज ही सुबह आया हूूँ, ताकि इस फार्मूले को हिन्दू महासभा के समक्ष विचार के लिए रखने से पूर्व इस पर मित्रों की राय ले लूॅं। मैं पंडित मालवीय जी से मिलने की कोशिश कर रहा हूॅं और यदि सम्भव हुआ तो हिज हाईनेस महाराजा पटियाला से भी मिलूॅंगा। यह बहुत ही नाजुक विषय है। इसलिए मैं आपसे प्रार्थना करता हूॅं कि आप कृपया इस विषय पर विचार करके मुझे अपने मत से अवगत करायें।जब तक हम कोई एक रास्ता तय नहीं कर लेते हैं, तब तक कृपया इस विषय को गोपनीय और अपने तक ही रखें।

आपके उत्तर की प्रतीक्षा में,

आपका विश्वसनीय

(ह.) बी. एस. मुंजे

नोट- इस पत्र के साथ मैं डा. आंबेडकर के वक्तव्य की एक प्रति भी संलग्न कर रहा हूॅं, जो उन्होंने मुझे सौंपा था। कृपया अपना प्रत्युत्तर मुझे मेरे नागपुर के पते पर भेजें।

 

आंबेडकर का वक्तव्य

 

डा. मुंजे के पत्र में डा. आंबेडकर के जिस वक्तव्य का सन्दर्भ आया है, वह इस प्रकार है-

‘हिन्दू धमान्तरण के आन्दोलन से निरपेक्ष नहीं हो सकते, जो दलित वर्गों के बीच आधार बना रहा है। हिन्दुओं के दृष्टिकोण से सबसे अच्छी बात यह होगी कि दलित वर्ग धर्मान्तरण का अपना विचार छोड़ दें। किन्तु यदि ऐसा सम्भव नहीं हुआ, तो फिर हिन्दुओं को खुद अपने अगले कदम की चिन्ता करनी होगी, जिसे दलित वर्ग अपना सके।’

वर्तमान में तीन धर्म हैं, जिनमें से किसी एक को दलित अपना सकते हैं। ये हैं- (1) इस्लाम, (2) ईसाईयत और (3) सिखधर्म। इन तीनों की तुलना में, इस्लाम दलित वर्गों को वह सब कुछ दे सकता है, जो वे चाहते हैं। आर्थिक रूप से इस्लाम के पीछे असीम संसाधन हैं। सामाजिक रूप से भी मुसलमान पूरे देश में फैले हुए हैं। हर प्रान्त में मुसलमान हैं, जो दलित वर्गों से धर्मान्तरित नवमुस्लिमों की देखभाल कर सकते हैं और उनकी हर प्रकार की सहायता कर सकते हैं। राजनीतिक रूप से भी दलित वर्ग वे सारे अधिकार प्राप्त कर लेंगे, जिनके वे मुसलमान बनने के बाद हकदार हैं। इस प्रकार के राजनीतिक अधिकारों का नुकसान इसमें शामिल नहीं किया जाता है, क्योंकि विधायिका में सेवाओं के अधिकार में विशेष प्रतिनिधित्व का अधिकार है।

 

समान आकर्षण

 

इसी तरह ईसाई धर्म आकर्षित करता है। राजनीतिक रूप से ईसाई धर्म भी उनको वही अधिकार देगा, जो इस्लाम देगा। मुसलमानों की तरह ईसाईयों को भी विधायिका और सेवाओं में कानूनन विशेष प्रतिनिधित्व दिया गया है।

ईसाई और इस्लाम धर्मों की तुलना में, सिख धर्म में कुछ कम सुविधाएॅं हैं। चालीस लाख की छोटी आबादी वाला यह समुदाय आर्थिक साधन प्रदान नहीं कर सकता। सामाजिक रूप से भी वह दलित वर्गों की ज्यादा सहायता नहीं कर सकता। वे सिर्फ पंजाब तक सीमित हैं, और दलित वर्गों के बहुमत के लिए सिख उन्हें सामाजिक समर्थन नहीं दे सकते।

राजनीतिक रूप से भी इस्लाम और ईसाईयत की तुलना में सिख धर्म से नुकसान होना है। पंजाब के बाहर, सिखों को विधायिका और सेवाओं में विशेष प्रतिनिधित्व प्राप्त नहीं है।

दूसरा सवाल यह है कि हिन्दुओं के दृष्टिकोण से इन तीनों वैकल्पिक धर्मों में कौन श्रेष्ठ है-इस्लाम, ईसाईयत या सिख धर्म? अवश्य ही सिख धर्म उनके लिए श्रेष्ठ है। अगर दलित वर्ग इस्लाम या ईसाई धर्म को अपनाते हैं, तो न केवल वे हिन्दू धर्म से बाहर हो जायेंगे, बल्कि हिन्दू संस्कृति से भी बाहर हो जायेंगे। दूसरी ओर अगर वे सिख हो जाते हैं, तो हिन्दू संस्कृति में बने रहेंगे। यह हिन्दुओं के लिए किसी भी तरह से कम फायदेमन्द नहीं है।

पूरे देश में धर्मान्तरण के क्या परिणाम होंगे, यह बात दिमाग में अच्छी तरह से रखने लायक है। इस्लाम या ईसाई धर्म में दलित वर्गों का धर्मान्तरण उनका अराष्ट्रीयकरण कर देगा। अगर वे इस्लाम में जाते हैं, तो मुसलमानों की संख्या दुगुनी हो जायेगी और मुस्लिम वर्चस्व का असली खतरा भी पैदा हो जायेंगा। अगर वे ईसाई धर्म के साथ जाते हैं, तो ईसाईयों की संख्या 5 से 6 करोड़ हो जायेगी, जो इस देश पर अंग्रेजों को अपनी ताकत बढ़ाने में मदद करेगी। दूसरी ओर यदि वे सिख धर्म अपनाते हैं, तो वे न केवल इस देश का नुकसान नहीं करेंगे, बल्कि देश के भाग्य में सहायता भी करेंगे। उनका अराष्ट्रीयकरण भी नहीं होगा।

तीसरा सवाल यह है कि अगर यह हिन्दुओं के हित में है कि दलित वर्गों को सिख धर्म अपनाना चाहिए, तो क्या हिन्दू सिख धर्म को दलित वर्गों के लिए इस्लाम या ईसाई धर्म जैसा अच्छा धर्म बनाने के लिए तैयार हैं? अगर वे तैयार हैं, तो अवश्य ही उन्हें उन कठिनाईयों को दूर करने का प्रयास करना चाहिए, जो इस्लाम और ईसाईयत की तुलना में सिख धर्म के रास्ते में हैं।

 

राजा के विचार

 

रायबहादुर एम. सी. राजा डा. मुंजे को प्रेषित अपने उत्तर में कहते हैं-

प्रिय श्री मुंजे, मुझे यह कहने के लिए क्षमा करेंगे कि डा. आंबेडकर के प्रस्ताव की दृष्टि में, दलित वर्गों की सम्पूर्ण समस्या पर आपका विचार एक साम्प्रदायिक प्रव्रजन के रूप में है, न कि एक धार्मिक समस्या के निस्तारण के रूप में। हिन्दू महासभा के अध्यक्ष से कोई भी इस पर धार्मिक समस्या के रूप में विचार करने की ही अपेक्षा करेगा, न केवल एक राजनीतिक समस्या के रूप में, यह देखे बगैर ही कि यह एक सामाजिक और आर्थिक समस्या है।यदि आप हिन्दू महासभा के अध्यक्ष के रूप में दलित वर्गों के आध्यात्मिक कल्याण को मुख्य रूप से पहले रखें,उसके बाद सामाजिक और आर्थिक कल्याण का विचार तथा अन्त में उनके राजनीतिक कारणों को प्रस्तुत करें, तो कोई भी आपकी चिन्ता को समझ सकता है।

राजनीतिक योजना में दलित वर्गों को स्थान देने के लिए आपकी उत्कण्ठा न केवल इन वर्गों के लिए आपकी चिन्ता के रुचिकर स्वभाव को दर्शाता है, बल्कि यह घोड़े से पहले ही गाड़ी को रखने जैसा भी है।

 

सही मार्ग

 

हिन्दू महासभा के अध्यक्ष के रूप में कोई भी आपसे दलित वर्गों की नागरिक और सामाजिक निर्योग्यताओं को दूर करके उनकी सामाजिक स्थिति को सुधारने की अपेक्षा करेगा, यह नहीं कि आप उनके लिए हिन्दू मन्दिरों में अन्य हिन्दुओं के साथ समान आधार पर पूजा का अधिकार सुरक्षित करने और पूरे देश में गाॅंधी जी का हरिजन आन्दोलन चलाने को कहें। इसके सिवा आप और क्या काम कर रहे हैं? आप दलित वर्गों का विच्छेदन (धर्मविहीन) कर रहे हैं, उन्हें राजनीतिक रूप से हिन्दू बनाए रखने की बजाए, आप उन्हें धार्मिक रूप से सिख बना़ रहे हैं।

मुझे यह सब दलित वर्गों के हित में सोचा हुआ विचार नहीं लगता है, बल्कि दूसरी ओर हिन्दुओं और सिखों के साम्प्रदायिक हितों में बनाई गई योजना लगती है। हमारा उद्देश्य हिन्दू समुदाय को कमजोर करना नहीं है, बल्कि इसका पुनर्निर्माण करके मजबूत बनाना  है। हम साम्प्रदायिक संघर्षों और प्रतिस्पर्धा के खेल में प्यादा बनना नहीं चाहते हैं।

हमें धर्मान्तरण या साम्प्रदायिक प्रव्रजन के प्रस्ताव के रूप में यह प्रश्न राजनीति की शतरंज पर दक्षिण भारत में ज्यादा परेशान नहीं करता है। हम कुछ अंश तक पृथक निर्वाचन के रूप में पूना पैक्ट के अन्तर्गत काम करने और कुछ अंश तक संयुक्त निर्वाचन के साथ अपना धार्मिक और राजनीतिक दोनों प्रकार का हिन्दू स्तर बनाए रखने के लिए राजी हैं। इसलिए मैं इस राजनीतिक छल-कपट का कोई समर्थन नहीं करुॅंगा, जिसका आपके पत्र में प्रस्ताव किया गया है। मैं हिन्दू महासभा से अपील करुॅंगा कि वह दलित वर्गों को कुछ दूर गन्तव्य तक ले जाने के लिए टिकट की व्यवस्था करने के बजाए उन्हें हिन्दूधर्म और हिन्दू समाज में ही बने रहने के कार्य को आसान बनाने के लिए काम करे।

आपने जो प्रश्न उठाया है, उससे बड़ी चर्चा की सम्भावना है। अवसर आने पर मैं अपना उत्तर प्रकाशित करने का अधिकार सुरक्षित रखता हूॅं।

 

राजा ने समर्थन किया

 

मि. सी. राजगोपालाचारी ने रायबहादुर राजा को लिखते हुए कहा-

‘मुझे आपका पत्र और संलग्नक मिला। मैंने पूरा पत्र पढ़ लिया है। इस शैतानी प्रस्ताव के लिए मेरी भाषा भी इससे सख्त नहीं होगी। मुझे खुशी है कि आपने इस पत्राचार को महात्मा जी को भेज दिया है। मुझे यह भी खुशी है कि आपने इस विचार को खारिज कर दिया है।’

मि. राजा को महात्मा गाॅंघी का पत्र दिनाॅंक 26 जुलाई 1936-

‘मुझे आपका पत्र डा. मुंजे को देने में कोई कठिनाई नहीं है। मुझे डा. मुंजे और डा. आंबेडकर की स्थिति बिल्कुल भी समझ में नहीं आती है। मेरे लिए अस्पृश्यता का निवारण एक पैर पर खड़े होना है। यह मेरे लिए गहन धार्मिक प्रश्न है। हमारे धर्म का मूल अस्तित्व पश्चाताप की भावना से सवर्ण हिन्दुओं द्वारा उसके स्वैच्छिक निवारण पर निर्भर करता है। मेरे लिए यह घाटे का सौदा कभी नहीं हो सकता। और मुझे खुशी है कि आपने भी लगभग उसी स्थिति को ग्रहण किया है, जो मैं चाहता हूॅं।’

पंडित मदन मोहन मालवीय द्वारा रायबहादुर एम. सी. राजा को भेजा गया टेलिग्राम दिनाॅंक 30 जुलाई 1936-

 

‘डा. मुंजे को पत्र की प्रति भेजने के लिए धन्यवाद। मैं आपसे सहमत हूॅं।’-ए. पी.

 

पिछली कड़ियाँ—

 

22. डॉ.आंबेडकर ने स्त्रियों से कहा- पहले शर्मनाक पेशा छोड़ो, फिर हमारे साथ आओ !

21. मेरी शिकायत है कि गाँधी तानाशाह क्यों नहीं हैं, भारत को चाहिए कमाल पाशा-डॉ.आंबेडकर

20. डॉ.आंबेडकर ने राजनीति और हिंदू धर्म छोड़ने का मन बनाया !

19. सवर्ण हिंदुओं से चुनाव जीत सकते दलित, तो पूना पैक्ट की ज़रूरत न पड़ती-डॉ.आंबेडकर

18.जोतदार को ज़मीन से बेदख़ल करना अन्याय है- डॉ.आंबेडकर

17. मंदिर प्रवेश छोड़, राजनीति में ऊर्जा लगाएँ दलित -डॉ.आंबेडकर

16अछूतों से घृणा करने वाले सवर्ण नेताओं पर भरोसा न करें- डॉ.आंबेडकर

15न्यायपालिका को ‘ब्राह्मण न्यायपालिक’ कहने पर डॉ.आंबेडकर की निंदा !

14. मन्दिर प्रवेश पर्याप्त नहीं, जाति का उन्मूलन ज़रूरी-डॉ.आंबेडकर

13. गाँधी जी से मिलकर आश्चर्य हुआ कि हममें बहुत ज़्यादा समानता है- डॉ.आंबेडकर

 12.‘पृथक निर्वाचन मंडल’ पर गाँधीजी का अनशन और डॉ.आंबेडकर के तर्क

11. हम अंतरजातीय भोज नहीं, सरकारी नौकरियाँ चाहते हैं-डॉ.आंबेडकर

10.पृथक निर्वाचन मंडल की माँग पर डॉक्टर अांबेडकर का स्वागत और विरोध!

9. डॉ.आंबेडकर ने मुसलमानों से हाथ मिलाया!

8. जब अछूतों ने कहा- हमें आंबेडकर नहीं, गाँधी पर भरोसा!

7. दलित वर्ग का प्रतिनिधि कौन- गाँधी या अांबेडकर?

6. दलित वर्गों के लिए सांविधानिक संरक्षण ज़रूरी-डॉ.अांबेडकर

5. अंधविश्वासों के ख़िलाफ़ प्रभावी क़ानून ज़रूरी- डॉ.आंबेडकर

4. ईश्वर सवर्ण हिन्दुओं को मेरे दुख को समझने की शक्ति और सद्बुद्धि दे !

3 .डॉ.आंबेडकर ने मनुस्मृति जलाई तो भड़का रूढ़िवादी प्रेस !

2. डॉ.आंबेडकर के आंदोलन की कहानी, अख़बारों की ज़़ुबानी

1. डॉ.आंबेडकर के आंदोलन की कहानी, अख़बारों की ज़़ुबानी

 



कँवल भारती : महत्‍वपूर्ण राजनीतिक-सामाजिक चिंतक, पत्रकारिता से लेखन की शुरुआत। दलित विषयों पर तीखी टिप्‍पणियों के लिए विख्‍यात। कई पुस्‍तकें प्रकाशित। चर्चित स्तंभकार। मीडिया विजिल के सलाहकार मंडल के सदस्य।