डॉ.आंबेडकर के आंदोलन की कहानी, अख़बारों की ज़़ुबानी – 5
पिछले दिनों एक ऑनलाइन सर्वेक्षण में डॉ.आंबेडकर को महात्मा गाँधी के बाद सबसे महान भारतीय चुना गया। भारत के लोकतंत्र को एक आधुनिक सांविधानिक स्वरूप देने में डॉ.आंबेडकर का योगदान अब एक स्थापित तथ्य है जिसे शायद ही कोई चुनौती दे सकता है। डॉ.आंबेडकर को मिले इस मुकाम के पीछे एक लंबी जद्दोजहद है। ऐसे में, यह देखना दिलचस्प होगा कि डॉ.आंबेडकर के आंदोलन की शुरुआत में उन्हें लेकर कैसी बातें हो रही थीं। हम इस सिलसिले में हम महत्वपूर्ण स्रोतग्रंथ ‘डॉ.अांबेडकर और अछूत आंदोलन ‘ का हिंदी अनुवाद पेश कर रहे हैं। इसमें डॉ.अंबेडकर को लेकर ख़ुफ़िया और अख़बारों की रपटों को सम्मलित किया गया है। मीडिया विजिल के लिए यह महत्वपूर्ण अनुवाद प्रख्यात लेखक और समाजशास्त्री कँवल भारती कर रहे हैं जो इस वेबसाइट के सलाहकार मंडल के सम्मानित सदस्य भी हैं। प्रस्तुत है इस साप्ताहिक शृंखला की पाँचवीं कड़ी – सम्पादक
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सब-जज के निर्णय पर रोक
(बाम्बे सीक्रेट एबस्ट्रेक्ट, 31 मार्च 1928, पैरा 428)
488, पैरा 52, कोलाबा, 24 मार्च- चावदार तालाब के सम्बन्ध में महाद के सब-जज के आदेश के विरुद्ध जनपद थाना न्यायालय ने आदेश पास किया है कि उनके समक्ष दायर अपील में अन्तिम निर्णय होने तक अछूतों द्वारा विवादित तालाब से पानी लेने पर रोक रहेगी।
{निम्नलिखित ‘डा.बाबासाहेब आंबेडकर राइटिंग्स एण्ड स्पीचेस’, वा. 17 पार्ट-1से साभार अनूदित है}
जनपद न्यायालय, थाना में लगभग चार साल तक हिन्दुओं की अपील पर सुनवाई के बाद 30 जनवरी 1933 को द्वितीय सहायक जज माननीय एस. एम. कोकनी ने मुकदमे का निस्तारण प्रतिवादी डा. बी. आर. आंबेडकर तथा अन्य के पक्ष में किया। सवर्ण हिन्दुओं ने इस फैसले को भी नहीं माना और उसके विरुद्ध बम्बई हाईकोर्ट में अपील की। यहाॅं भी यह केस चार साल तक चला। अन्ततः 17 मार्च 1937 को बम्बई हाईकोर्ट के मा. न्यायाधीश ब्रूमफील्ड और न्यायाधीश वाडिया ने हिन्दुओं की अपील को खारिज कर दिया तथा डा. आंबेडकर तथा अन्य के पक्ष में फैसला सुनाया, जो निम्नवत है-
बम्बई हाईकोर्ट का निर्णय
अपील सं. 462/1933
नरहरि दामोदर वैद्य तथा अन्य, वादी
बनाम
डा. भीमराव रामजी आंबेडकर, सदस्य, संयुक्त संसदीय समिति, लन्दन तथा अन्य, प्रतिवादी
द्वितीय अपील विरुद्ध श्रीमान एस. एम. कोकनी, द्वितीय सहायक जज, जनपद थाना, अपील सं. 32/1931
अधिवक्ता वादी: श्री वी. बी. वीरकर
अधिवक्ता प्रकितवादी: एस. वी. गुप्ते, सहायक श्री बी. जी. मोदक
17 मार्च 1937
कोरम: ब्रूमफील्ड एन. जे. तथा वाडिया जे. जे.
मौखिक निर्णय द्वारा ब्रूमफील्ड एन. जे.:-
महाद कस्बे के सवर्ण हिन्दुओं की ओर से अपीलकर्ताओं ने प्रतिवादी गण के विरुद्ध, जो तथाकथित ‘अछूतों’ का प्रतिनिधित्व करते हैं, दावा किया है कि चावदार तालाब उनका अपना है और उनको ही उसका उपयोग करने का अधिकार है, जबकि प्रतिवादी गण को उसके उपयोग का अधिकार नहीं है, इसलिए उन्हें उसका उपयोग करने से रोकने की निषेधाज्ञा जारी की गई थी। पर अब तालाब के स्वामित्व का दावा सही नहीं है और जैसा कि ट्रायल कोर्ट ने पाया है, तालाब भू राजस्व नियमावली के भाग 37 के प्राविधानों के अन्तर्गत सरकारी सम्पत्ति साबित हुई है और अब यह जिला नगरपालिका अधिनियम के भाग 50 के अन्तर्गत महाद की नगरपालिका में निहित है। यह भी संज्ञान में आया है कि सवर्ण हिन्दू ही तालाब का उपयोग करने वाले सारे संसार में एकमात्र अधिकारी नहीं हैं, क्योंकि मुसलमान भी उसका उपयोग करते हैं। फिर भी अगर यह दलील दी जाती है कि स्वयं वादीगण को ही उसके उपयोग करने का अधिकार है, अछूतों को नहीं है, तो ऐसा सिर्फ प्राचीन प्रथानुसार है।
अवर (ट्रायल) जज ने यह पाया था कि वादीगण ने अछूतों द्वारा तालाब से पानी न लेने की पुरानी प्रथा का प्रमाण दिया है, (उन्होंने उसे चिरकालीन नहीं कहा है)। किन्तु उनका मानना है कि इस पुरानी प्रथा से वादीगण का तालाब पर कानूनी अधिकार सिद्ध नहीं हो जाता है, क्योंकि महज एक वर्ग द्वारा तालाब का उपयोग करने और दूसरे वर्ग द्वारा न करने से, उपयोग करने वाले वर्ग को उसके स्वामित्व का कानूनी अधिकार नहीं मिल जाता है। अपील में सहायक जज ने सुनिश्चित किया है कि सवर्ण हिन्दुओं ने यह साबित नहीं किया है कि उन्हें अछूतों को तालाब से वर्जित रखने का कोई कानूनी अधिकार प्राप्त है। उन्होंने सर सदाशिव अय्यर बनाम वैथिलिंगा वाद के निर्णय की नजीर की ओर ध्यान खींचा है, पर उसका मुख्य कारण यह प्रतीत होता है कि वह प्रथा बहुत प्राचीन दिखाई नहीं देती है।
चावदार तालाब एक छोटी झील या एक बड़ा कुण्ड या पोखर है; जो कस्बे के बाहरी अंचल में चार या पाॅंच एकड़ क्षेत्र में सीमित है। इसके चारों ओर नगरपालिका की सड़कें हैं, और उनके पार सवर्ण हिन्दुओं ने (और कुछ मुसलमानों ने भी ) अपने मकान बना लिए हैं; इन मकानों के मालिकों ने तालाब के किनारे की जमीन पर पानी लेने के लिए घाट या सीढ़ियाॅं बना ली हैं। उसके आसपास अछूतों का कोई भी घर नहीं है। तालाब कितना पुराना है, यह भी मालूम नहीं है, हालांकि यह माना जाता है कि यह 250 साल से कम पुराना नहीं है। पर, यह जानने के लिए कि यह कब बना, कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है। यह भी स्पष्ट नहीं है कि वह किसी के द्वारा बनाया गया था। अवर जज ने इसे पृथ्वी के तल पर ‘एक प्राकृतिक उत्खनन बताया है, जिसका जीर्णोद्धार और पुनर्निमाण मानवीय साधनों से होता रहा है।’ यदि ऐसा है- और हमारे समक्ष बहस में भी इस पर विवाद नहीं है- तो यह अनेक शताब्दियों पुराना हो सकता है। इसमें पानी की आपूर्ति वर्षा और कुछ प्राकृतिक जल-स्रोतों से होती रही है। महाद कस्बे की जनसंख्या सात और आठ हजार के बीच है, जिसमें अछूतों की संख्या 400 से भी कम है। नगरपालिका 1865 में स्थापित हुई थी, पर इस कस्बे का इतिहास क्या है और किस काल में तालाब के आसपास आवादी बनी, इस बात का कोई साक्ष्य दावे के रिकार्ड में उपलब्ध नहीं है।
वादीगण के गवाहों में अधिकांश पुराने निवासी हैं, जिनकी गवाहियाॅं बताती हैं कि जब से वे वहाॅं रह रहे हैं, उन्होंने सवर्ण हिन्दुओं और कुछ मुसलमानों को ही तालाब का उपयोग करते हुए देखा है, और कभी भी अछूतों को उसका उपयोग करते हुए नहीं देखा है। वस्तुतः यह स्वीकार किया गया है कि अछूतों ने 1927 से पहले, जब प्रतिवादी संख्या-1 के द्वारा अस्पृश्यता के खिलाफ आन्दोलन आरम्भ किया गया था और कुछ अछूतों ने प्रतिरोध के रूप में वहाॅं जाकर पानी लिया था, उसका कभी उपयोग नहीं किया था। सवर्ण हिन्दुओं ने उनको मारा-पीटा और अपमानित किया था, जिसके कारण वर्तमान आपराधिक मामला बना। चूॅकि इससे पूर्व अछूतों द्वारा पानी लेने के किसी प्रयास का कोई रिकार्ड प्राप्त नहीं है, इसलिए अछूतों के बहिष्कार का भी कोई वास्तविक साक्ष्य उपलब्ध नहीं है। जो भी उपलब्ध कराया गया है, वह तालाब का उपयोग करने वाले एक पक्ष ने ही उपलब्ध कराया है। यह निस्सन्देह अस्पृश्यता के सिद्धान्त को मानने के कारण ही था, जिसे हाल के वर्षों तक खुली चुनौती नहीं मिली थी।
विद्वान सहायक जज ने ठीक ही टिप्पणी की है कि पूर्व-ब्रिटिश काल में अछूतों के बहिष्कार का कोई प्रमाण नहीं मिलता है, और न यह पता चलता है कि मराठा शासन या मुस्लिम शासन काल में उन्हें तालाब से पानी लेने से बलपूर्वक बहिष्कृत किया गया था। अवश्य ही जीवित लोगों की स्मृति से परे अतीत के साक्ष्य प्रस्तुत करना हमेशा आवश्यक नहीं है। एक समय तक उनके उपयोग का सुबूत, न मिलने पर भी, अदालतों ने, इसके विपरीत कि यह प्रथा चिरकाल से अस्तित्व में रही है, साक्ष्य के अभाव में, लगातार प्रतिवादी के पक्ष को न्यायसंगत अनुभव किया है। इस तरह के मामले में एक पक्ष का दूसरे पक्ष द्वारा किए गए बहिष्कार की प्रत्यक्ष कार्यवाही का साक्ष्य जरूरी भी नहीं है। सवर्ण हिन्दुओं के उपयोग को चुनौती देने वाला कोई साक्ष्य तब तक हो भी नहीं सकता, जब तक कि अस्पृश्यता के प्रचलित और स्वीकृत सिद्धान्त को चुनौती नहीं दी जायगी। लेकिन इस बात से कि जीवित लोगों के अनुभव अछूतों के बहिष्कार की प्रथा को प्रमाणित करते हैं, केवल यह माना जा सकता है कि यह प्रथा कानून बनने से पहले से अस्तित्व में है, और इस मामले में प्रतिबन्धों को स्थाई और स्थिर मान लिया गया है, ताकि यह परिलक्षित हो कि अछूतों का बहिष्कार चिरकाल से होता रहा है। यही वह बिन्दु है, जहाॅं वादीगण का दावा, हमारे विचार में, ध्वस्त हो जाता है। ये प्रतिबन्ध तब भी इसी तरह थे, जब तालाब के चारों ओर सवर्ण हिन्दुओं के मकान बने, (तालाब का बहुत लम्बा होना जरूरी नहीं है, क्योंकि वह कस्बे के बाहर स्थित है और उसके पासपास की जमीन पर आबादी के विस्तार पर विचार के बाद ही कब्जा किया गया हो सकता है) तब यह आसानी से माना जा सकता है कि अछूतों के बहिष्कार की प्रथा वैसी ही थी, जैसी वह आज है। फिर भी यह मानना ठीक नहीं होगा कि कथित प्रथा स्थापित होने से पहले से ही ये प्रतिबन्ध इसी तरह थे। कोनकन के पास, आधुनिक काल की तुलना में, रंगबिरंगा इतिहास है, और यह समझने के लिए कि सवर्ण हिन्दू इस विशाल प्राकृतिक तालाब पर खास नियन्त्रण को अन्जाम देने की स्थिति में रहे हैं, और अज्ञात काल से यह यथावत है, एक बुद्धिसंगत सम्भावना के विपरीत होगा।
इस सम्बन्ध में ‘मरिअप्पा बनाम वैथीलिंगा’ मामले में श्री सर सदाशिव अय्यर की टिप्पणी अत्यन्त शिक्षाप्रद है। वह मनु का एक उद्धरण देते हैं- ‘जलस्रोत तब तक पवित्र हैं, जब तक गाय वहाॅं अपनी प्यास बुझाने आती है और उनका रंग, स्वाद और सुगन्ध अच्छा रहता है, इस पर वह यह शास्त्रवचन उद्धरित करते हैं कि ‘नदियों, तालाबों और अन्य पात्र के बीच पृथकता बनाकर रखें, जो आसानी से दूषित हो जाते हैं और जहाॅं समय से शुद्धीकरण ज्यादा मुश्किल होता है। विद्वान जज कहते हैं कि हिन्दूधर्म के निर्देश एक बड़े खुले तालाब में पानी के शुद्धीकरण के विरुद्ध किसी विस्तृत सतर्कता की माॅंग नहीं करते हैं और महाद के चावदार तालाब पर तव बिल्कुल भी नहीं, जो गाॅंव का छोटा तालाब है। इसलिए अस्पृश्यता का सिद्धान्त वादीगण के केस में बहुत अधिक सहायक प्रतीत नहीं होता है कि इस बिना पर तालाब पर हिन्दुओं का विशेष हक मान लिया जाय कि उसके चारों ओर उनके मकान बने हुए हैं।
हमारे समक्ष यह एकमात्र केस है, जिसमें अछूतों को तालाब से पानी लेने से रोकने का दावा किया गया है। इसके आगे मन्दिर-प्रवेश के केस आनन्दराव एन शंकर, 1983, आईएलआर, 7, 323, तथा शंकरलिंगा बनाम राजेश्वर, 1908, आईएलआर, 31, 236, पीसी भी वास्तव में बचकाने हैं। ऐसे केस में अन्य जातियों तथा समुदायों द्वारा मौन रहकर स्वीकार की गई अस्पृश्यता की लम्बी प्रथा ने स्वाभाविक रूप से उच्च जातियों के विशेषाधिकार के विरुद्ध विद्रोह पैदा कर दिया है।
अतः हम, विद्वान सहायक जज से सहमत हैं कि इस अतिप्राचीन प्रथा को वादीगण ने स्थापित नहीं किया है, यदि वे इस बिन्दु पर सफल भी हो जाते, तो भी वह प्रथा अनुचित, असंगत तथा लोकनीति के विरुद्ध होती। इस पर निचली अदालत में भी बहस नहीं हुई थी। अवश्य ही चावदार तालाब के नगरपालिका में निहित होने के वैधानिक प्रभाव पर विचार करना समीचीन होगा, इसलिए सवाल है कि क्या वादीगण को इस केस में कोई राहत दी जा सकती है, या नहीं, जिसमें वह कानूनी मालिक नहीं है। किन्तु चूॅंकि जो बिन्दु हमने इस केस में लिए हैं, उनके मद्देनजर इन सवालों पर विचार करना जरूरी नहीं है, और चूॅंकि उनके तर्क प्रभावशाली नहीं हैं, इसलिए हमें कोई मत व्यक्त नहीं करना है।
अपील मून्य पर खारिज की जाती है।
कोर्ट के आदेश से
ह./आर. एस. बावडेकर
रजिस्ट्रार
डा. आंबेडकर के ये शब्द कि ‘अधिकार कभी माॅंगने से नहीं मिलते हैं, और न अपीलों से मिलते हैं, बल्कि निरन्तर संघर्ष करने से ही अधिकार मिलते है’, महाद-सत्याग्रह से सही साबित हो गए।
42.
अछूतों का जनेऊ संस्कार
(बाम्बे सीक्रेट एबस्ट्रेक्ट, 7 अप्रेल, 1928, पैरा)
497, बम्बई सिटी विशेष शाखा, 23 मार्च- सामाजिक समानता के लिए कार्य करने वाली संस्था ‘समाज समता संघ’ ने 22 मार्च को दामोदर हाल में अछूतों के जनेऊ संस्कार का कार्यक्रम आयोजित किया, जिसमें पण्डित पाल्या शास्त्री ने 500 महारों का जनेऊ संस्कार किया। डा. बी. आर. आंबेडकर, जी. एन. सहस्रबुद्धे, डा. डी. वी. नायक और सीताराम एन. शिवतारकर इस अवसर पर उपस्थित थे।
43.
डा. आंबेडकर और शोलापुर नगरपालिका
(दि इण्डियन नेशनल हेराल्ड, 10 दिसम्बर 1928)
डा. आंबेडकर ने अपना लम्बा वक्तव्य हमें भेजा है, जिसके कुछ महत्वपूर्ण बिन्दुओं को यहाॅं प्रकाशित किया जा रहा है-
मैं आपके 6 दिसम्बर के अंक में प्रकाशित उस वक्तव्य पर कुछ कहना चाहता हूँ, जिसमें शोलापुर नगरपालिका के अध्यक्ष ने मेरे साक्ष्य के खण्डन में प्रस्ताव पारित किया है कि नगरपालिका ने हिन्दू-मुस्लिम दंगों के अप्रत्यक्ष प्रभाव के कारण शोलापुर में दलित छात्रावास की आर्थिक सहायता रोक दी है।
मेरे विरुद्ध शिकायत इस कल्पना पर आधारित है कि, साईमन कमीशन के समक्ष मैंने साक्ष्य में, यह कहा था कि शोलापुर में दलित छात्रावास को मिलने वाला अनुदान नगरपालिका ने इसलिए रोक दिया है, क्योंकि शोलापुर के दलित वर्गों ने 1925 में हुए हिन्दू-मुस्लिम दंगों के दौरान उच्च हिन्दुओं की सहायता करने से इन्कार कर दिया था, किन्तु नगरपालिका का यह झूठा वक्तव्य है।
नगरपालिका के लिए मेरा जवाब यह है कि मेरे विरुद्ध उसकी शिकायत पूरी तरह निराधार है और उसकी शिकायत मेरे साक्ष्य की गलत समझ पर आधारित है।
मुझे विश्वास है कि कोई भी निष्पक्ष व्यक्ति मेरी इस बात से सहमत होगा कि मैंने अपने साक्ष्य में यह कदाचित नहीं कहा है कि आर्थिक सहायता इसलिए रोकी गई है कि दलित वर्गों ने हिन्दू-मुस्लिम दंगों में हिन्दुओं की सहायता करने से मना कर दिया था। इसके विपरीत मैंने यह कहा था कि मैं नहीं जानता कि सहायता रोकने का क्या कारण था? अतः गलतफहमी के लिए नगरपालिका अपनी मुझे बदनाम करना बन्द करे। अब सवाल यह है कि फिर दलित छात्रावास की आर्थिक सहायता रोकने का असली कारण क्या है? वक्तव्य में कहा गया है कि ‘अध्यक्ष को किताबों के मद में गम्भीर अनियमितताएँ मिली थी, जिसे देखने के लिए एकाउण्ट बुक माॅंगी थी, पर समिति द्वारा एकाउण्ट बुक दिखाने से इन्कार करने के बाद ग्राण्ट रोक दी गई थी।’ मुझे कठोर भाषा प्रयोग करने के लिए दुख है, परन्तु मुझे बताना होगा कि उनका यह कथन झूठ का पुलिन्दा है, जिसका कोई आधार नहीं है। सच्चाई क्या है? वह यह है-
शोलापुर में 1925 में छात्रावास खोला गया था। नगरपालिका ने आरम्भ से ही छात्रावास को अनुदान दिया था, जो बिना किसी बाधा के दो वर्षों-1925 और 1926 तक मिलता रहा था। इन दो वर्षों में संस्था का न कोई निरीक्षण किया गया और न लेखाभिलेखों का परीक्षण किया गया। नगरपालिका संस्था के आॅडिट कराए गए एकाउण्ट से ही सन्तुष्ट थी। किन्तु 1927 के चुनावों के बाद, और विशेषकर डा. वी. वी. मुले के अध्यक्ष बनने के बाद नगरपालिका का व्यवहार पूरी तरह बदल गया। यहाॅं तक कि स्कूल परिषद के अध्यक्ष ने वर्ष 1927 के आरम्भ में संस्था का आकस्मिक निरीक्षण किया और इस क्रम में उन्होंने छात्रावास को देखने के साथ अनुदान-व्यय के अभिलेख भी देखे। जैसा कि रिवाज है, उन्होंने निरीक्षण-पुस्तिका में अपनी टिप्पणी में लिखा कि अनुदान-व्यय का विवरण बहुत ही अच्छी तरह रखा गया है। अधीक्षक द्वारा इस टिप्पणी की प्रतिलिपि नगरपालिका के अध्यक्ष को अग्रसारित कर दी गई थी।
किन्तु उन महोदय ने, खुश होने के बजाए, अपने पूर्वाग्रही व्यवहार से यह प्रदर्शित किया, मानो स्कूल परिषद के अध्यक्ष की प्रशंसात्मक टिप्पणी ने उनकी योजना को विफल कर दिया हो। क्योंकि, इसके तुरन्त बाद उन्होंने अपने पत्र 19 मार्च 1928 को अधीक्षक को पत्र लिखकर संस्था के 1925 और 1926 के अभिलेख प्रस्तुत करने को कहा। इस पत्र के जवाब में अधीक्षक ने लिखा कि पुराने अभिलेख बम्बई में मुख्यालय भेज दिए गए हैं और वर्ष की समाप्ति पर उनको नष्ट कर दिया गया है, पर चालू वर्ष के अभिलेख परीक्षण के लिए उपलब्ध है।
इसी बीच नगरपालिका ने संस्था के अभिलेखों के परीक्षण के लिए दो सदस्यों वाली एक उप-समिति का गठन किया, जिसमें स्कूल परिषद के उपाध्यक्ष श्री बुवालाल वकील तथा सदस्य श्री शिवलाल अप्पा देशमुख को नियुक्त किया गया था। ये दोनों सदस्य नगरपालिका अध्यक्ष के आदमी थे, जो संस्था को सुव्यस्थित किए जाने के विरुद्ध थे, पर इस समिति ने संस्था के अभिलेखों का परीक्षण करने के बाद 2 मई 1927 को अपनी रिपोर्ट भेजी कि सभी अभिलेख सुव्यवस्थित हैं और वे छात्रावास के विरुद्ध कुछ नहीं कह सकते। यह रिपोर्ट नगरपालिका को प्रस्तुत कर दी गई।
एक ऐसी संस्था के बारे में, जिसे वह नापसन्द करते थे, उनके अपने आदमियों की प्रशंसात्मक टिप्पणी को देखकर अध्यक्ष अपने व्यवहार में परिवर्तन लाने के बजाए इतना ज्यादा भड़क गए कि इस पर भी उन्होंने पिछले दो वर्षों 1925 और 1926 के अभिलेखों को प्रस्तुत करने पर ही जोर दिया। पर, मुख्यालय से उन्हें केवल यह जवाब दिया गया कि परीक्षकों द्वारा संस्था के पुराने अभिलेखों का सत्यापन कर लिया गया है, जिन्हें स्वीकार किया जाना चाहिए। चालू वर्ष के अभिलेख उपलब्ध हैं, जिनका निरीक्षण नगरपालिका किसी भी समय कर सकती है। इसके बाद नगरपालिका के प्रशासनिक अधिकारी ने अभिलेखों का परीक्षण कर प्रमाणित किया कि उनमें कुछ भी गलत नहीं है। इससे शायद अध्यक्ष ने शर्म महसूस की हो, क्योंकि, उसके बाद उन्होंने पुराने अभिलेखों को प्रस्तुत करने की माॅंग छोड़ दी और अधीक्षक को सूचित किया कि यदि चालू वर्ष के अभिलेख उनके समक्ष प्रस्तुत कर देंगे, तो वह सन्तुष्ट हो जाएॅंगे। अधीक्षक ने उन्हें चालू वर्ष के अभिलेख प्रस्तुत किए और यह कहते हुए मुझे खुशी है कि उनमें उन्हें संस्था के खिलाफ कुछ नहीं मिला। अनियमित्ताओं के आधार पर संस्था को अयोग्य साबित करने का उनका हर प्रयास विफल हो जाने के बाद भी अध्यक्ष ने नगरपालिका की पिछली बजट बैठक में संस्था का अनुदान रोकने का प्रस्ताव पेश कर दिया। किन्तु उन्हें पता था कि जो आरोप उन्होंने संस्था के खिलाफ लगाए थे, वे झूठे और द्वेषपूर्ण हैं, इसलिए एक सभासद को छोड़कर बाकी सभी सभासद संस्था को अनुदान दिए जाने के पक्ष में एकजुट थे। इस प्रकार देखा जाए तो यह अनुदान रोकने के विरुद्ध था। नगरपालिका वस्तुतः अपने बजट में अनुदान को स्वीकृति दे चुकी थी, पर अपने अध्यक्ष के गलत आरोपों के दबाव में उसे रोक दिया था। असल बात यह थी कि अध्यक्ष ने अनुदान स्वीकृत करने के बाद उसे इस आधार पर देने से इन्कार कर दिया था कि अभिलेखों को दिखाने के सम्बन्ध में संस्था का जवाब सन्तोषजनक नहीं है।
अब मैं नहीं समझ पा रहा हॅंू कि संस्था का जवाब किस तरह से असन्तोषजनक हो सकता है। संस्था चालू वर्ष के अभिलेख दिखाने के लिए हमेशा तैयार है। यहाॅं तक पिछले वर्षों के अभिलेखों को दिखाने का सवाल है, तो संस्था का जवाब अब भी वही है, जो दिया जा चुका है। पिछले वर्ष के अभिलेखों की माॅंग न केवल मूर्खतापूर्ण है, बल्कि दुराग्रहपूर्ण भी है और उन्हें कोई संस्था नहीं दिखा सकती। इन तथ्यों से खुले दिमाग का कोई भी आदमी देख सकेगा कि किस तरह नगरपालिका और उसके अध्यक्ष के झूठ का पर्दाफाश हो गया है। अब वे झूठ न बोलें, क्योंकि उनका अन्तर्निहित झूठ अब किसी भी स्थिति में चलने वाला नहीं है।
दामोदर हाल -बी. आर. आंबेडकर
परेल, 8 दिसम्बर
44.
पुराहित-विरोधी संघ की आवश्यकता
डा. आंबेडकर, एम.ए., पीएच. डी. एससी. बार-एट-लाॅ, एम. एल. सी.
(दि बाम्बे क्राॅनिकल, 10 नवम्बर 1929)
मैंने बेलगाॅंव में सुना है कि बम्बई में कुछ पारसी लोग जाति के रूप में पुरोहिताई को खत्म करने का आन्दोलन चला रहे हैं। ऐसी संस्था का मकसद भारत के शिक्षित युवकों के विशाल बहुमत के लिए सिर्फ यह बताना है कि वह इसे तत्परता से स्वीकार करे। मैं पारसी मोबेडों के तीरकों पर बहस आमन्त्रित करना नहीं चाहता। पर, मेरे पारसी मित्र इस बात से आश्वस्त हो सकते हैं कि हिन्दू पुरोहित वर्ग भी पारसी पुरोहितों की तरह ही नैतिक और शैक्षिक रूप से औसत औसत दर्जे का ही है।
विकास में बाधा
आनुवंशिक हिन्दू पुरोहित के विरुद्ध बहुत सारे गम्भीर आरोप हैं। यह हमारी सभ्यता की गति में बाधक है। आदमी जन्म लेता है, विवाह करता है, परिवार का मुखिया होता है और उसके बाद समय आने पर मर जाता है। इस पूरे जीवन-चक्र में पुरोहित एक दुष्ट आत्मा की परछाॅंई की तरह उसके साथ बना रहता है। उसके अपने ही बनाए हुए शास्त्रों और स्मृतियों में वर्णित दण्ड-विधान आतंकपूर्ण हैं, और 100 में 99 प्रतिशत लोग उनका विरोध करने में असमर्थ होते हैं, क्योंकि ऐसस करने पर उन्हें समाज और जाति से बहिष्कृत होने का डर बना रहता है, यही आतंक पुरोहित का मुख्य हथियार और बल है। मेरा मानना है कि अनुष्ठान-कर्म कराने वाला ब्राह्मण इस मानवीयतामें एक अनोखा प्राणी है। वह उस अनुष्ठान को, जिसे वह कराता है और जिसे हम करते हैं, सही मानता है। वह अदृश्य शक्तियों और असहाय व्यक्ति के बीच बिचैलिया बनने के शर्मनाक काम पर ही जीवित रहता है। क्या दार्शनिक लोग इस वर्ग को पापी मानेंगे? इस सवाल का जवाब चाहे जो आए, किन्तु इस परजीवी को विशाल समाज का अन्न खाने की और इजाजत नहीं मिलनी चाहिए। भारत में अंग्रेजों के सुधार के बाद हमें धर्म तथा पुरोहिती दोनों पर उचित नियन्त्रण रखना होगा और उसकी पदवी और बेलगाम वृद्धि को रोकना होगा।
ओजस्वी कार्य
जनता में प्रचलित अंधविश्वासों के विरुद्ध, एक प्रभावी कानून बनाने की सख्त जरूरत है, क्योंकि उनको समर्थन पुरोहितों से ही मिलता है। देवी-देवताओं को खर्चीले चढ़ावे, देर तक चलने वाले मातम, जन्म, मृत्यु और विवाह के संस्कार-समारोह एवं मूर्खतापूर्ण जातीय भोज आदि निरर्थक अंधविश्वास के ऐसे आचरण हैं, जिनमें पुरोहित को आनन्द आता है। अवसर चाहे शादी की खुशी का हो या मृत्यु के दुख का, उससे पुरोहित को कोई फर्क नहीं पड़ता है, वह सबका बराबर लाभ उठाता है, जिनमें बहुत से तो लोगों को लूटते हैं, जैसे पारसी सहसम्बनधी करते हैं, अपने शिकारों को लूटने के लिए अपनी काबलियत का बढ़िया प्रदर्शन करते हैं। मैं कहता हूॅं कि पुरोहिती के कुकर्मों की पूरी सूची ही भयानक है। इसका पूर्ण खात्मा ही एक आदर्श विचार को बनाए रख सकता है, पर हम इस धार्मिक अभियान को एक महीने से भी कम में आरम्भ नहीं कर सकते। मैं कुछ प्रमुख पुरोहितों द्वारा प्रस्तावित उपायों का स्वागत करता हूॅं। यह सचमुच आश्चर्यजनक है कि पारसी समुदाय कितना ज्यादा पुरोहितों के वशीभूत है। कुछ पारसी मित्रों ने इसका आकलन किया है कि अपनी मृत्यु के एक वर्ष तक एक मृतक पारसी, जीवित पारसी की अपेक्षा, गरीब परिवार पर आर्थिक रूप से ज्यादा भारी बोझ होंता है। एक पारसी अखबार ने अभी हाल में एक व्यक्ति की कहानी छापी है, जो इतना गरीब था कि अल्मूनियम का गिलास भी मुश्किल से खरीद सकता था। पर जब वह मरा, तो पुरोहित ने उसके अन्तिम संस्कार में चाॅंदी का बरतन खरीदका लाने पर जोर दिया। मैंने इसे यह दिखाने के लिए उद्धरित किया है कि पारसी लोगों ने अपने प्रखर विवेक से धूर्त पुरोहितों की दुष्टताओं से भारत को मुक्त कराने के लिए आरम्भ में ही काफी समुचित उपाय किए हैं और मुझे कोई सन्देह नहीं है कि सारे प्रबुद्ध हिन्दू, मुसलमान और ईसाई भी पुरोहितों की शुद्धि के लिए इस ओजस्वी तथा प्रभावशाली कार्य को अपनाएंगे, जिसका भार निश्चय ही पारसी भाईयों की अपेक्षा उन पर कम नहीं है।
45.
गवर्नर हाउस से प्राप्त दूरभाष सन्देश,
जिसे 11 जुलाई 1930 को सायं 5.5 बजे
प्राप्त किया गया।
प्रेषक,
सहायक निजी सचिव
महामहिम गवर्नर
गवर्नमेंट हाउस
गनेश खिन्द, पूना।
सेवा में,
पुलिस आयुक्त
बम्बई।
कृपया डा. आंबेडकर, एम. एल. सी. का एक फोटो यथा सम्भव शीघ्र भेजने की कृपा करें।
दूरभाष प्राप्तकर्ता
ह…/11 जुलाई 1930
दलाल द्वारा उपलब्ध
ह…/ई. वी. ट्रोटमेन
12 जुलाई
संख्या. 3623/एच, पुलिस मुख्यालय, बम्बई
18 जुलाई 1930
प्रिय ट्रोटमेन,
मैं आपको डा. आंबेडकर का फोटो संलग्न कर भेज रहा हूॅं। यही एक फोटो है, जो मुझे मिल पाया है।
भवदीय,
ह0../ हीले
ई. डब्लू. ट्रोटमेनर्, आइ.सी.एस.
सहायक निजी सचिव,
महामहिम गवर्नर
गवर्नमेंट हाउस, गनेश खिन्द, पूना।
संख्या- 3675/एच
गवर्नर हाउस, गनेश खिन्द,
21 जुलाई 1930
प्रिय हीले,
आपके अर्द्ध शासकीय पत्र संख्या 3623/एच, दिनाॅंक 18 जुलाई 1930 के लिए धन्यवाद, जिसके द्वारा आपने डा. आंबेडकर का फोटो भिजवाया है।
भवदीय,
ह0../ ई. डब्लू. ट्रोटमेन
डा. हीले,
सहायक पुलिस आयुक्त,
बम्बई।
46.
दलित वर्ग द्वारा डोमिनियन स्टेट्स की माॅंग
आरक्षित सीटों के साथ संयुक्त निर्वाचन
दलित वर्ग काॅंग्रेस के प्रस्ताव
(दि बाम्बे क्राॅनिकल, दिनाॅंक 18 अगस्त 1930)
‘अखिल भारतीय डीप्रेस्ड क्लासेस काॅंग्रेस का पहला अधिवेशन 8 अगस्त 1930 को नागपुर में डा. आंबेडकर, एमए, पीएचडी, डीएससी, बार-एट-लाॅ, एमएलसी, बम्बई की अध्यक्षता में सम्पन्न हुआ, जिसमें निम्नलिखित प्रस्ताव पारित किए गए-
1- यह काॅंग्रेस स्पष्ट घोषणा करती है कि भारतीय राष्ट्रीय काॅंग्रेस द्वारा घोषित स्वाधीनता का विचार भारत के हितों के लिए अनर्थकारी और हानिकारक है, इसलिए इस विचार से वह अपने को अलग रखती है। इस काॅंगे्रस की दृष्टि में भारत की परिस्थितियों के लिए ‘डोमिनियन स्टेटस’ ही बेहतर है।
तुरन्त डोमिनियन स्टेटस
2- डोमिनियन स्टेटस के लक्ष्य को तत्काल प्राप्त करने के सम्बन्ध में इस काॅंग्रेस को सभी मामलों में कार्यपालिका की जिम्मेदारी हस्तान्तरित करने के लिए कोई आपत्ति नहीं है, सिवाए उन मामलों को छोड़कर, जिनमें सत्ता का हस्तान्तरण प्रशासनिक कारणों से अव्यावहारिक है, बशर्ते दलित वर्गों के हितों की सुरक्षा के लिए भारत के संविधान में निम्नलिखित संरक्षण रखे जाएॅं-
(1) देश की केन्द्रीय और प्रान्तीय दोनों विधायिकाओं में पर्याप्त प्रतिनिधित्व;
(2) देश की सार्वजनिक सेवाओं में समुचित अनुपात में प्रतिनिधित्व।
3- दलित वर्गों के शैक्षिक, स्थानीय स्व-शासन तथा अन्य अधिकारों और हितों के मामलों की उपेक्षा किए जाने पर भारत राज्य के सचिव को अपील करने का अधिकार हो तथा राज्य सचिव को ऐसी किसी भी अपील पर विचार करने और बजट में कोई भी प्राविधान या अधिनियम, जिसे वे आवश्यक और पर्याप्त समझते हों, बनाने का अधिकार हो, एवं उनके निर्णय को भारत की केन्द्रीय तथा प्रान्तीय कार्यपालिका मानने के लिए बाध्य होगी।
अमानवीय व्यवहार
4- चूॅंकि रूढ़िवादी वर्ग अपने अमानवीय व्यवहार से दलित वर्गों का विश्वास पाने में फेल हो गया है, इसलिए वह भारत के भावी संविधान में दलित वर्गों के वैधानिक अधिकारों का समर्थन करने को राजी नहीं है, और इसलिए दलित वर्गों को भारत का कोई भी राजनीतिक संविधान स्वीकार नहीं होगा, अगर वह देश की सामाजिक स्थितियों को नजरअन्दाज करके बनाया जाता है और उसमें परस्पर सहमति के तरीके को छोड़कर जरूरी समन्वय नहीं किया जाता है, और चूॅंकि नागरिक अवज्ञा आन्दोलन भगदड़ मचाने का तरीका है, जो शान्तिपूर्ण बातचीत के लिए उपयुक्त तरीका नहीं है, इसलिए यह काॅंग्रेस नागरिक अवज्ञा आन्दोलन का समर्थन नहीं कर सकती और दलित वर्गों को भी उसमें भाग न लेने की सलाह देती है।
गोलमेज सम्मेलन मान्य
5- यह काॅंग्रेस मानती है कि वर्तमान संवैधानिक संकट को हल करने के लिए गोलमेज सम्मेलन ही बेहतर तरीका है, इसलिए वह दलित वर्गों को उसमें भाग लेने की सलाह देती है। काॅंग्रेस भी सरकार पर प्रभाव डालने के लिए गोलमेज सम्मेलन की ही आश्यकता को चहती है, पर वह तब तक सफल नहीं होगा, जब तक कि उसमें समुचित अनुपात में दलित वर्गों सहित सभी पार्टियों को नहीं बुलाया जाएगा।
6- यह काॅंग्रेस देश की विधायिका में दलित वर्गों को नामांकन से प्रतिनिधित्व देने का विरोध करती है। उसकी माॅंग है कि उनका प्रतिनिधित्व उनके अपने सदस्यों के द्वारा निवार्चित होना चाहिए, इसलिए वह साइमन कमीशन की उस रिपोर्ट को अस्वीकार करती है, जिसमें दलित वर्गों का प्रतिनिधित्व अन्य समुदायों के सदस्यों के नामांकन तथा गवर्नर के अनुमोदन से दिए जाने की सिफारिश की गई है।
संयुक्त निर्वाचन
7- यद्यपि यह काॅंग्रेस पृथक निर्वाचन में विश्वास करती है, परन्तु वह संयुक्त निर्वाचन और दलित वर्गों के प्रतिनिधित्व के लिए आरक्षित सीटों के सिद्धान्त को भी स्वीकार करने के लिए तैयार है, अगर इसके व्यस्क मताधिकार दिया जाए।
8- यह काॅंग्रेस साइमन कमीशन द्वारा दलितों के प्रतिनिधित्व और दावों का अवमूल्यन किए जाने और उन अन्य अल्पसंख्यक समुदायों के दावों को ज्यादा महत्व दिए जाने पर अपना दुख व्यक्त करती है, जबकि जिन कष्टों और निर्योग्यताओं के के बीच दलितों को रहना पड़ता है, उनके आगे अन्य अल्पसंख्यक समुदायों के कष्ट और निर्योग्यताएॅं कुछ भी नहीं हैं। यह काॅंग्रेस सभी अल्पसंख्यकों के साथ समान व्यवहार चाहती है और दलित वर्गों की जनसंख्या के अनुपात से उनके लिए पर्याप्त प्रतिनिधित्व की माॅंग करती है।
अप्रत्यक्ष प्रतिनिधित्व
10- यह काँग्रेस असेम्बली और राज्य की परिषद में दलित वर्गों के द्वारा दलित वर्गों के प्रतिनिधित्व के लिए अप्रत्यक्ष निर्वाचन पद्धति को स्वीकार करती है, किन्तु यह माॅंग करती है कि उसमें दलित वर्गों के पर्याप्त प्रतिनिधित्व के लिए उनके अधिकार को मान्यता दी जाए।
11- असेम्बली के पुननिर्माण के लिए साइमन कमीशन द्वारा प्रस्तावित ढाॅंचे के लाभ को देखते हुए इस काॅंग्रेस का मत है कि यह ढाॅंचा असेम्बली से ज्यादा राज्य की परिषद के लिए उपयुक्त है। इस विचार से और राज्य की परिषद के संविधान के सुधार की आवश्यकता की दृष्टि से इसे और ज्यादा लोकतान्त्रिक संस्था बनाने के लिए इस सम्मेलन का मत है कि असेम्बली के लिए साइमन कमीशन का प्रस्तावित ढाॅंचा राज्य की परिषद पर लागू होना चाहिए और असेम्बली का गठन प्रत्यक्ष चुनाव के आधार पर होना चाहिए।
साइमन रिपोर्ट का खण्डन
12- यह काॅंग्रेस भारत में मिलिटरी के विषय में साइमन कमीशन के प्रस्तावों का समर्थन नहीं करती है। इस काॅंग्रेस का मत है कि सेना आरक्षित विषय होने पर भी उसे भारत सरकार की कार्यपालिका के नियन्त्रण से अलग नहीं किया जाना चाहिए।
13- यह काॅंग्रेस भारत के दलित वर्गों के लिए एक केन्द्रीय अखिल भारतीय संगठन बनाए जाने की आवश्यकता पर जोर देती है। इस दृष्टि से काॅंग्रेस ने समिति गठित की है।
(1) इस अखिल भारतीय संगठन के संविधान का मसौदा काॅंग्रेस के अगले सत्र में प्रस्तुत किया जाएगा।
(2) दलित वर्गों से जुड़े मामलों और देश में उत्पन्न राजनीतिक हालातों पर विचार करने के लिए काॅंग्रेस की यह कार्यकारिणी समिति अगले वर्ष से कार्य करेगी।
47.
दलित वर्गों को डा. आंबेडकर की सलाह
आन्दोलन जरूरी है
(दि टाइम्स आफ इण्डिया, 29 सितम्बर 1930)
(हमारे निजी संवाददाता द्वारा, पूना, 27 सितम्बर)
दलित वर्गों की आध्यात्मिक संस्था ‘सन्त समाज संघ’ का 36वाॅं वार्षिकोत्सव पिछले गुरुवार को डा. बी. आर. आंबेडकर की अनुपस्थिति में, जो अपने निजी कार्य से बाहर थे, शिवाजी मराठा हाईस्कूल के प्रधानाचार्य श्री बी. जी. जगताप की अध्यक्षता में सम्पन्न हुआ। सभा में दलित वर्ग मिशन सोसाइटी, पूना के सेक्रेटरी श्री के. जी. पाटदे ने संघ के संक्षिप्त इतिहास और उसकी मुख्य विशेषताओं पर प्रकाश डालते हुए कहा कि ‘सन्त समाज संघ’ दलित वर्गों में समानता स्थापित करने तथा उन्हें संगठित करने का काम करता है। इसके बाद उन्होंने डा. आंबेडकर और सूबेदार घाटगे के योगदान की प्रशंसा करने हुए कहा कि दलित वर्गों की ओर से बम्बई विधान परिषद के लिए उनका नामांकन पत्र दाखिल करना दलित समाज के हित में होगा।
इसी समय डा. आंबेडकर भी वहाॅं पहुॅंच गए थे। उनका करतल ध्वनि से स्वागत किया गया। उन्होंने अपने भाषण में कहा कि दलित वर्गों के दुखों के निवारण के लिए किए जाने वाले उनके प्रयास पर्याप्त नहीं हैं, इसके लिए दलित वर्गों को और ज्यादा संगठित होकर संघर्ष करना होगा। उन्होंने बताया कि वह गोल मेज सम्मेलन में जाकर ब्रिटिश सरकार को दलित वर्गों के दुखों से अवगत कराएंगे, और उनके अधिकारों को सुरक्षित कराने के लिए हर सम्भव प्रयास करेंगे।
48.
डा. आंबेडकर और गोलमेज सम्मेलन
दलित वर्गों के प्रति काॅंग्रेसी रवैया
(दि बाम्बे क्राॅनिकल, 2 अक्टूबर 1930)
दामोदर ठाकरसे हाल में उनके अनुयायियों को सम्बोधित भाषण में, जो डा. आंबेडकर का भण्डाफोड़ करने के लिए स्थानीय दलित वर्गों की जबरन बुलाई गई बैठक थी, काॅंग्रेस के हमले में डा.आंबेडकर के बौद्धिक और सामाजिक स्तर पर गैरजिम्मेदाराना और निरर्थक टिप्पणियाॅं की गई थीं।
उत्तेजित भाषण
वास्तव में उपरोकत तथ्यों से कोई भी यह अर्थ निकाल सकता है कि जिन भीड़-तत्वों ने डा. आंबेडकर के अनुयायियों और गोल मेज सम्मेलन के उत्साहियों का रूप धारण किया था, वे श्रोता स्पीकर से कुछ भी माॅंग सकते थे, हास्यास्पद है, (सब जानते थे कि इस तरह का व्यवहार करने वाले लोग पूरी तरह शराबी किस्म के थे); तब कोई मुश्किल से ही डाक्टर पर अपने लाभ के लिए उन्हें शराब पिलाने का इल्जाम लगा सकता है। मित्र पत्रकारों ने भी अपनी पेंसिलें न चलाने में बढ़िया तरीके से काम किया, जबकि डाक्टर ने अपने उत्तेजित जनभाषण में कई जगह झाग उगला: कोई भी सम्मानित सम्पादक, मुझे पक्का विश्वास है, अपनी नीली पेंसिल चलाए बिना नहीं रह सकता, यदि भाषण की शब्दशः रिपोर्ट उसे दे दी जाए। फिर भी उनके भाषण के जो अंश प्रकाशित किए गए हैं, उनमें प्रत्येक टिप्पणी चुनौती देने वाली है।
उपेक्षित विद्वान
इस प्रकार, जब डाक्टर ने भद्रता और शिष्टाचार का भी लिहाज न करके, जिसकी एक सम्मानित व्यक्ति से अपेक्षा की जाती है, यह कह कर विदा ली कि काॅंग्रेस में कुछ ऐसे ज्ञान-शून्य नेता हैं, जिन्हें उनके पैरों में बैठकर राजनीति सीखनी चाहिए, तो इससे उनका भौंडा बड़बोलापन ही उजागर हुआ है। क्या डा. आंबेडकर यह मानते हैं कि काॅंग्रेस राजनीतिक परजीवियों और स्वार्थजीवियों से बनी है, और उनका नेतृत्व का दावा करना अकादमिक अल्पज्ञान और काल्पनिक अधिकार से निर्मित है? मेरी मंशा उनके दम्भ की निन्दा करके इस सम्पूर्ण अफवाह से जरा भी लाभ उठाने की नहीं है, पर मुझे यह कहने दें, कि वह, डा. आंबेडकर, अपने वक्तव्य मात्र से कुछ काॅंग्रेसी नेताओं पर संवैधानिक कानून से स्वयं को उच्च समझते हैं। हमारी जानकारी में ऐसे बहुत से विख्यात नाम हैं, जो हमारे सम्मान के योग्य हैं और ज्ञान के क्षेत्र में दुनिया भर में सम्मान पाते हैं। मुझे कोई सन्देह नहीं है कि हमारे डा. आंबेडकर की इच्छा भी बहुत शीघ्र इस सूची में जुड़ जाने की है। घोषित गोलमेज सम्मेलन में ब्रिटिश साम्राज्य भी विद्वान डाक्टर के यशस्वी समर्थक आमंत्रितों के लिए जगह बना सकती है और वह सम्पूर्ण विशिष्ट मण्डली, निःसन्देह डा. आंबेडकर की उच्चता-बोध की चापलूसी करेगी।
यदि इस अवसर पर डा. आंबेडकर काॅंग्रेस का मिथ्या निरूपण करने के दोषी थे, तो शायद ही वह उसका खण्डन करेंगे। सरकार द्वारा की गई उनकी नामजदगी विश्व हित में नहीं हो सकती। काॅंग्रेस को बदनाम किए बिना जैसा कि उनके वर्ग के अन्य सदस्य डा. आंबेडकर का यह कथन कह रहे हैं कि काॅंग्रेस ने हिन्दू रूढ़िवादियों के विरुद्ध दलित वर्गों को ऊपर उठाने में उनकी कोई मदद नहीं की है, जो पक्षपातपूर्ण भी है और मिथ्या भी है। काॅंग्रेस का उद्देश्य प्रत्येक तानाशाही से लड़ना है, चाहे वह वर्गीय हितों की हो या साम्प्रदायिक हितों की हो।
उसने किसी भी तरह की साम्प्रदायिकता का कभी समर्थन नहीं किया है और न कभी कटटरवादी रवैया अपनाया है। राजनीतिक स्वतन्त्रता में एक नागरिक व्यवस्था होती है, जो शोषकों से नफरत करती है और भारतीय राष्ट्रवाद के शत्रुओं को असम्भव बनाती है और काॅंग्रेस इसी व्यवस्था को स्थापित करने के लिए बनी है।
काॅंग्रेस और परजीवी
भारत में ‘दलित’ और अन्य वर्गों की विशाल संख्या है, जिनके अस्तित्व ने परजीवियों की संख्या में बढ़ोतरी की है। यह देखना काॅंग्रेस की जिम्मेदारी है कि भारतीय मानवता के इस विशाल जनसमूह के राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक स्तर को एक स्वतन्त्र समुदाय के बराबर वह कैसे उठाती है। पर, डा. आंबेडकर का प्रहार, इतना घृणित और अनुचित, है कि वह भारतीय स्वतन्त्रता के शत्रुओं द्वारा किए जाने वाले शोषण का ही समर्थन है। भारतीय दलित-शोषितों के हित में काॅंग्रेस का कार्य उल्लेखनीय है और ये हमले उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकते। जो लोग आज काॅंग्रेस के विचार को आगे बढ़ा रहे हैं, वे उसके अपूर्व प्रभाव और शक्ति को समझते हैं।
49.
गैर-ब्राह्मण पार्टी को संयुक्त कार्य करने की जरूरत है
(दि टाइम्स आॅफ इण्डिया, के सम्पादक को पत्र)
(दि टाइम्स आॅफ इण्डिया, 3 अक्टूबर 1930)
महोदय,
आपके सम्मानित संवाददाता ‘कुनबी’ की बहुमुखी प्रतिभा ने महाराष्ट्र में गैर-ब्राह्मण पार्टी की कमजोरी पर उचित ही प्रकाश डाला है। साइमन रिपोर्ट का यह मानना कि – ‘गैर-ब्राह्मण मद्रास में जितने संगठित और सफल हैं, उतना वे बम्बई में कभी नहीं हो सकते, (साइमन रिपोर्ट, पृ. 37, खण्ड 1), ‘कुनबी’ की आलोचना से सही साबित होता है, जो अत्यन्त सराहनीय है। इस तर्क के लिए पर्याप्त प्रमाण हैं कि अभी समय है, जब मराठों और गैर-मराठों के बीच बेकार के भेद, जो पार्टी को विभाजित करते हैं और बहुत सी कलह के भी कारण हैं, पार्टी के हित में खत्म होने चाहिए। पार्टी जनता के हितों और आकांक्षाओं से खड़ी होती है। उसके नेता जनता के बीच से ही आते हैं। जनता का हित इसमें है कि पार्टी दूसरी संगठित पार्टियों के विरुद्ध, जो जनता का प्रतिनिधित्व करने का ढोंग करती हैं, तथा उनका प्रतिनिधित्व न करके उच्च जातीय हिन्दुओं और शोषण करने वाले पूॅंजीपति वर्गों का प्रतिनिधित्व करती हैं, सही तरीके से संगठित होनी चाहिए। एक अनुशासित संगठन के लिए एक निस्वार्थ, आत्मत्यागी, भरोसेमन्द एवं आस्थावान लोगों का सशक्त नेतृत्व चाहिए, तभी वह महाराष्ट्र की जनता की एकमात्र प्रवक्ता होगी। आज के कानून-भंजन के कठिन दौर में ऐसे सुव्यवस्थित संगठन की सख्त आवश्यकता है, जो मौजूदा राजनीतिक स्थिति की समीक्षा करके जनता को सही तथ्यों से अवगत कराए।
आज जनता के उद्देश्य इसीलिए पूरे नहीं हो रहे हैं, क्योंकि मेहनतकश जनता में एक सशक्त पार्टी संगठन का अभाव है। यह अभाव पूरा हो सकता है, अगर गैर-ब्राह्मणों के नेता उनसे विचारविमर्श करें, और अपने संगठन में समाज की सेवा करने वाले ऊर्जावान और उत्साही युवाओं को लेकर व्यापक दृष्टिकोण अपनाएॅं। ‘कुनबी’ ने जो बातें बातें लिखी हैं, उसमें यह पढ़कर दुख हुआ कि काॅंग्रेस संगठन जनता के हितों को नुकसान पहुॅंचाने के लिए अपने मिथ्या प्रचार कर रहे हैं।
किन्तु, इन पंक्तियों का लेखक कुनबी के एक बिन्दु पर सहमत नहीं हो सकता। वर्तमान कृषि मन्त्री की कमजोरी चाहे जो हो, पर गैर-ब्राह्मणों को, उनकी उन सेवाओं को नहीं भूलना चाहिए, जो उन्होंने महाराष्ट्र में पिछड़े वर्गों में जागृति लाने के लिए की हैं। वह उनके उदार प्रयासों के कारण आंशिक है, पर क्या हम यह नहीं जानते हैं कि वह मराठों और गैर मराठों के बहुत छोटे समूह से थे, जिन्होंने महाराजा कोल्हापुर के योग्य नेतृत्व में जनता में पूज्य जोतिबा फुले के विचारों की जागृति की ज्योति जलाई थी? उन्होंने गैर-ब्राह्मण वर्गों में आत्म-सम्मान और आत्म-रक्षा का भाव जगाया था। क्या गैर-ब्राह्मण मराठे और गैर-मराठे हमारे राष्ट्रीय इतिहास के इस कठिन समय में एक साथ आकर पार्टी को मजबूत करेंगे, ताकि वह विधान परिषद और स्थानीय निकायों में एक संगठित आवाज बन सके?
एन. बी. कुदालकर,
एडवोकेट, हाईकोर्ट, बांद्रा,
29 सितम्बर
50.
डा. आंबेडकर को इंग्लैण्ड जाने पर दलित वर्गों ने विदाई दी
(दि टाइम्स आॅफ इंडिया, 3 अक्टूबर 1930)
दलित वर्गों के लगभग दस हजार स्त्री-पुरुषों ने बृहस्पतिवार की सन्ध्या को परेल, बम्बई में दामोदर ठाकरसे हाल के बाहर डा. बी. आर. आंबेडकर को विदाई देने के लिए, जो शनिवार को दलित वर्गों के प्रतिनिधि के रूप में गोलमेज सम्मेलन में भाग लेने के लिए इंग्लेण्ड रवाना हो रहे हैं, एक सभा का आयोजन किया, जिसकी अध्यक्षता डा. पी. जी. सोलंकी ने की।
अध्यक्ष ने आरम्भ में डा. आंबेडकर द्वारा दलित वर्गों के हित में किए गए कार्यों का उल्लेख किया और लोगों को आश्वस्त किया कि यदि कोई सर्वाधिक योग्य व्यक्ति है, जो गोलमेज सम्मेलन में उनका प्रतिनिधित्व कर सकता है, तो वे डा.आंबेडकर ही हैं।
इसके बाद श्री शिवतारकर ने लोगों के बधाई और शुभकामनाएॅं सन्देश पढ़कर सुनाए।
काॅंग्रेस में आस्था
इस विशाल सभा को डा. आंबेडकर ने सम्बोधित करते हुए दलित वर्गों में उनके राजनीतिक और सामाजिक कल्याण के मामलों में उनके हितों को जिन्दा रखने के लिए उनके बीच प्रचार की आवश्यकता पर बल दिया। उन्होंने सभा को बताया कि दलित वर्गों के नेताओं ने पुराने ‘जनता’ अखबार को फिर से निकालने का निश्चय किया है।
डा. आंबेडकर ने अपनी इंग्लैण्ड यात्रा का जिक्र करते हुए कहा कि काॅंग्रेस के लोग उनसे कह रहे हैं कि गोल मेज सम्मेलन में जाने से कोई लाभ नहीं है। लेकिन वह सोचते हैं कि सम्मेलन में जाने से कुछ अच्छा ही परिणाम आयेगा, और दलित वर्गों को उससेे जरूर लाभ होगा। वह स्वयं उन तरीकों को नहीं अपना सकते, जो काॅंग्रेस ने बम्बई में अपनाए हैं, क्योंकि उन्होंने देश का कुछ भी भला नहीं किया और हजारों कामगार लोगों को बेरोजगार कर दिया।
अल्पसंख्यकों के अधिकार
उन्होंने आगे कहा कि वह अभी यही कहना चाहेंगे कि दलित वर्ग भी स्वराज के उतने ही आकांक्षी हैं, जितने काॅंग्रेस के लोग हैं, लेकिन उन्होंने जो कहा, वह यह था कि नए संविधान में दलित और देश के अन्य अल्पसंख्यक वर्गों की भी न्यायोचित भागीदारी होनी चाहिए। यदि, जैसा कि काॅंग्रेस चाहती है, अंग्रेज नए संविधान के अन्तर्गत प्रशासन की मौजूदा व्यवस्था को ज्यों का त्यों छोड़कर प्रस्थान कर जायेंगे, तो इसका परिणाम यह होगा कि हिन्दू शासक वर्ग सत्ता में आ जायेगा और अल्पसंख्यकों पर राज करेगा। दलित वर्ग इसका विरोध करेंगे। उन्होंने घोषणा की कि अगर हिन्दू शासक वर्ग के इस रवैए के कारण गोलमेज सम्मेलन विफल होता है, तो इस विफलता के लिए सिर्फ काॅंग्रेस और उच्च हिन्दू वर्ग दोषी होगें। उन्हें आशा है कि गोलमेज सम्मेलन में भाग लेने वाले हिन्दू प्रतिनिधि अगर सम्मेलन की सफलता चाहते हैं, तो उन्हें अल्पसंख्यकों के दावों को ध्यान में रखना होगा।
प्रचार योजना
डा. आंबेडकर ने आगे बोलते हुए कहा कि उनकी इच्छा इंग्लैण्ड में एक अन्य उद्देश्य से कुछ दिन और रुकने की है। उन्होंने कहा कि दलित वर्गों की दो मुख्य समस्याएॅं हैं और वे ये हैं कि पुलिस और सेना में उनकी भर्ती पर रोक लगा दी गई है। उनका विचार उनकी इस समस्या को युद्ध कार्यालय और ब्रिटिश कैबिनेट के संज्ञान में लाना है, ताकि वे भर्ती पर लगी इस रोक को हटाने के लिए कार्यवाही कर सकें। इसके बाद वे दलित वर्गों की ओर से प्रचार के लिए रूस, जर्मनी, अमेरिका और जापान भी जायेंगे। वे जानते हैं कि काॅंग्रेस उन देशों में इंग्लैण्ड के विरुद्ध प्रचार कर चुकी है। इसलिए उनका विचार है कि उन देशों के लोगों को दलित वर्गों के दयनीय हालात से परिचित कराके उनकी सहानुभूति प्राप्त करना पूरी तरह से न्यायसंगत होगा।
इसके पश्चात श्री केलुस्कर और श्री नाइक ने भाषण दिए।
पिछली कड़ियाँ
4. ईश्वर सवर्ण हिन्दुओं को मेरे दुख को समझने की शक्ति और सद्बुद्धि दे !
3 .डॉ.आंबेडकर ने मनुस्मृति जलाई तो भड़का रूढ़िवादी प्रेस !
2. डॉ.आंबेडकर के आंदोलन की कहानी, अख़बारों की ज़़ुबानी
1. डॉ.आंबेडकर के आंदोलन की कहानी, अख़बारों की ज़़ुबानी
कँवल भारती : महत्वपूर्ण राजनीतिक-सामाजिक चिंतक, पत्रकारिता से लेखन की शुरुआत, दलित विषयों पर तीखी टिप्पणियों के लिए ख्यात, कई पुस्तकें प्रकाशित। चर्चित स्तंभकार। मीडिया विजिल के सलाहकार मंडल के सदस्य।