डॉ.आंबेडकर ने राजनीति और हिंदू धर्म छोड़ने का मन बनाया !

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डॉ.आंबेडकर के आंदोलन की कहानी, अख़बारों की ज़़ुबानी – 20

पिछले दिनों एक ऑनलाइन सर्वेक्षण में डॉ.आंबेडकर को महात्मा गाँधी के बाद सबसे महान भारतीय चुना गया। भारत के लोकतंत्र को एक आधुनिक सांविधानिक स्वरूप देने में डॉ.आंबेडकर का योगदान अब एक स्थापित तथ्य है जिसे शायद ही कोई चुनौती दे सकता है। डॉ.आंबेडकर को मिले इस मुकाम के पीछे एक लंबी जद्दोजहद है। ऐसे मेंयह देखना दिलचस्प होगा कि डॉ.आंबेडकर के आंदोलन की शुरुआत में उन्हें लेकर कैसी बातें हो रही थीं। हम इस सिलसिले में हम महत्वपूर्ण  स्रोतग्रंथ  डॉ.अांबेडकर और अछूत आंदोलन  का हिंदी अनुवाद पेश कर रहे हैं। इसमें डॉ.अंबेडकर कोलेकर ख़ुफ़िया और अख़बारों की रपटों को सम्मलित किया गया है। मीडिया विजिल के लिए यह महत्वपूर्ण अनुवाद प्रख्यात लेखक और  समाजशास्त्री कँवल भारती कर रहे हैं जो इस वेबसाइट के सलाहकार मंडल के सम्मानित सदस्य भी हैं। प्रस्तुत है इस साप्ताहिक शृंखला की  बीसवीं कड़ी – सम्पादक

 

 

150.

डा. आंबेडकर का राजनीति से संन्यास का इरादा

हरिजनों को अधिकार दिलाने के बाद

राजनीति में रहने की कोई आवश्यकता नहीं

(दि बाम्बे क्राॅनिकल, 23 जुलाई 1935)

दलित वर्गों के नेता डा. बी. आर. आंबेडकर ने सक्रिय राजनीति से मुक्त होने का निश्चय किया है। जब मंगलवचार की सुबह हमारे संवाददाता ने उनसे पूछा, ‘डाक्टर साहेब, शहर में अफवाह है कि आप राजनीति से संन्यास लेने जा रहे हैं’, तो उनका उत्तर था, ‘हाॅं, यह सही है।’

डाक्टर ने कहा, उन्होंने सक्रिय राजनीति से अलग रहने का विचार किया है, किन्तु राजनीति में उनकी रुचि, खास तौर से दलित वर्गों के हित में खत्म नहीं होगी। उन्होंने कौंसिल के लिए चुनाव लड़ने का विचार नहीं किया है, क्योंकि ‘इसकी कोई आवश्यकता नहीं है।’ वे अपने पेशेवर कार्यों में व्यस्त रहने की वजह से इसके लिए समय नहीं निकाल सकते।

जब उनसे पूछा गयावे किस कारण से सक्रिय राजनीति से अलग होना चाहते हैं, तो उन्होंने बताया कि इसका एक ही कारण है कि उनके पास इसके लिए समय नहीं है। उन्होंने अपनी बात को दोहराते हुए कहा कि उन्हें राजनीति में बने रहने या चुनाव लड़ने की कोई आवश्यकता ही दिखाई नहीं दे रही है।

हमारे प्रतिनिधि ने पूछा, ‘आपने दलित वर्गों के हितों की लड़ाई लड़ी है, आप उनके चैम्पियन हैं, फिर आप ऐसा क्यों नहीं सोचते हैं कि आपको उनका बराबर नेतृत्व करते रहना चाहिए?’

उन्होंने दिया, ‘हाॅं, मैंने उनके हितों की लड़ाई लड़ी है और उन्हें उनके अधिकार दिलाए हैं। अब मेरे लिए राजनीति में बने रहने की कोई आवश्यकता नहीं है। किन्तु अगर मुझे राजनीति में आने की आवश्यकता लगी, तो मैं जरूर वापिस आऊॅंगा। डाक्टर ने आगे कहा, ‘आवश्यकता स्वयं मनुष्यों को पैदा करती है।’

उन्होंने संसद में भारत बिल की स्वीकृति के बारे में कुछ भी कहने से इन्कार कर दिया।

 

 

151.

डा. आंबेडकर के राजनीति छोड़ने में दलित वर्ग का आरोप

(दि टाइम्स आॅफ इंडिया, 25 जुलाई 193र्5)

हमारे विशेष संवाददाता द्वारा

पूना, 24 जनलाई।

डा. आंबेडकर के राजनीति छोड़ने की खबरों पर स्थानीय दलित वर्गों ने महान आश्चर्य और गहरी निराशा व्यक्त की है। वे कहते हैं कि उन्होंने उन्हें बम्बई विधान सभा में अपने प्रतिनिधि के रूप में देखने की आशा की थी, पर लगता है कि उन्होंने उनको छोड़ दिया है।

इस सम्बन्ध में जब डा. सोलंकी से, जो पूना में विधान परिषद के सत्र में भाग ले रहे हैं, उनकी राय पूछी गई, तो उन्होंने कहा कि वह डा. आंबेडकर के इस इरादे के बारे में कुछ नहीं जानते हैं। उन्होंने उन्हें कुछ लिख कर भी नहीं दिया है। अगर यह यह सच है, तो यह एक बड़े आश्चर्य की बात है।

 

 

152.

डा. आंबेडकर के राजनीति छोड़ने के पीछे क्या है?

हाईकोर्ट में जज या मन्त्रिपद, या कोई और बाध्यता

(दि बाम्बे क्रानिकल, 26 जुलाई 1935)

हमारे विशेष संवाददाता द्वारा

डा. आंबेडकर के राजनीति छोड़ने के पीछे क्या रहस्य है? इस सम्बन्ध में अनेक तरह की अफवाहें चर्चा में हैं, जिनका न तो डा. आंबेडकर ने और न ही उनकी पार्टी ने खण्डन किया है। वे मौन बने रहना चाहते हैं, सिर्फ उनकी पार्टी ने संक्षिप्त रूप से उनके राजनीति से अलग होने की खबर पर आश्चर्य और दुख व्यक्त किया है।

किन्तु, कुछ जाॅंच-पड़ताल से पता चला है कि डा. आंबेडकर के इस निर्णय के पीछे अनेक ठोस कारण हैं, जो उनके राजनीतिक जीवन से संन्यास लेने के लिए उत्तरदायी समझे जाते हैं। पहला और मुख्य कारण वह शासकीय पद है, जो उन्होंने वर्तमान में शासकीय लाॅ कालेज में प्राप्त किया है।

हाईकोर्ट में जज का अवसर

सविनय अविज्ञा आन्दोलन के बाद से सरकारी सेवाओं में जाने वाले लोगों के लिए यह लिखकर देना अनिवार्य हो गया है कि वे राजनीतिक आन्दोलनों में भाग नहीं लेंगे। अब यह सरकारी नौकरी में प्रवेश की अनिवार्य और पहली शर्त है।

अतः यह स्वाभाविक है कि डा. आंबेडकर शासकीय लाॅ कालेज के प्राचार्य के रूप में सरकारी सेवा में रहते हुए, अपने पद की नैतिकता में राजनीति में कोई सक्रिय भाग नहीं ले सकते, और इसलिए उनका राजनीति से अलग रहना अनिवार्य है।

फिर, लाॅ कालेज के प्राचार्य के रूप में उनके लिए हाईकोर्ट में जज के रूप में जाने का भी अवसर है, जहाॅं भविष्य में कभी भी हिज मैजेस्टी जज का अस्थाई रिक्त पद भरा जा सकता है। इसलिए उनके लिए यह सावधानी जरूरी है कि वे सार्वजनिक गतिविधियों से अपनी दूरी बनाकर रखें।

बम्बई के पूर्व गवर्नर सर फ्रेडरिक सिकेसके समय में, डा. आंबेडकर को बेंच में नियुक्त करने का प्रयास किया गया था, परन्तु वह प्रस्ताव पूरी तरह गिर गया था। सम्भवतः लार्ड ब्राबोर्ने अपने शासन के दौरान डा. आंबेडकर की सेवाओं से खुश होकर उनको हाईकोर्ट की बेंच में नियुक्ति दे सकते हैं। प्रायः लाॅ कालेज का प्राचार्य पद हाईकोर्ट में जाने का सोपान माना जाता है।

किन्तु यह मानते हुए भी कि डा. आंबेडकर अस्थाई रूप से सार्वजनिक जीवन से अलग होते हैं, और कुछ समय  बाद, यदि परिस्थितियाॅं बदलती हैं, तो उन्हें वे पुनः राजनीति में प्रवेश करने से नहीं रोका जायेगा। यह डा. आंबेडकर नहीं, बल्कि उनकी पार्टी के नेता हैं, जो नए सुधारों के अन्तर्गत विधान सभा में जाने के लिए उनके पक्ष में काम करेंगे, और बहुत कम समय रहने पर भी करेंगे। पर, यह सब भविष्य पर निर्भर करता है।

या मन्त्री होंगे

फिर सवाल यह पैदा होता है कि क्या डा. आंबेडकर हाईकोर्ट का जज बनना पसन्द करेंगे, या सुधारों के अन्तर्गत मन्त्री? यह इस बात पर निर्भर करता है कि घटनाएॅं स्वयं क्या मोड़ लेती हैं? यदि वे सुधारों की प्रतीक्षा नहीं करते हैं और परिस्थितियों के अनुसार योजना नहीं बनाते हैं, तो हाईकोर्ट का जज बनना पसन्द करेंगे। नए सुधारों के अन्तर्गत सवाल यह पैदा होता है कि विधानसभा पर कौन कब्जा करेगा, अर्थात काॅंग्रेस या उदारवादी (लिबरल)? निश्चित रूप से काॅंग्रेस की सम्भावना ज्यादा है। उस स्थिति में क्या डा. आंबेडकर, यदि वे विधानसभा के लिए चुने जाने हैं, काॅंग्रेस के साथ अपना समान उद्देश्य बनायेंगे? यदि नहीं, ़तो उनके मन्त्री बनने के अवसर अभी बहुत दूर हैं।

यह सवाल वर्धा में होने वाली अखिल भारतीय काॅंग्रेस वर्किंग कमेटी की बैठक के निर्णय पर निर्भर करता है। अगर वह यह निर्णय करती है कि काॅंग्रेसी सदस्य मन्त्री पद स्वीकार नहीं करेंगे, तो यह डा. आंबेडकर के लिए विधानसभा में जाने और मन्त्री बनने के लिए एक कटु अनुभव होगा।

परिषद की सदस्यता

लॉ कालेज के प्राचार्य के रूप में उनकी नियुक्ति से एक और बड़ा सवाल पैदा होता है। क्या वे एक अधिकारी के रूप मेंवर्तमान विधान परिषद के गैर-सरकारी मनोनीत सदस्य बने रह सकते हैं? सामान्य रूप से सरकार विधान परिषद में उन अधिकारियों को मनानीत करती है, जिनकी उपस्थिति कुछ निश्चित सवालों पर बहस के लिए जरूरी समझी जाती है। अब डा. आंबेडकर सरकारी अधिकारी के रूप में अपनी सीट पर तब तक नहीं बने रह सकते, जब तक कि सरकार उन्हें कुछ बिल या हरिजनों से सम्बन्धित मुद्दों पर बहस के लिए उनको नियुक्त नहीं करती है। यदि ऐसी कोई आवश्यकता नहीं पैदा होती है, तो परिषद के लिए उनकी नामजदगी ‘अधिकार से परे’ मानी जा सकती है।

 

 

153.

(दि बाम्बे सीक्रेट एबस्ट्रैक्ट, 19 अक्टूबर, 1935)

1050, (2) बाम्बे शहर, एस. बी. 9 अक्टूबर। सातारा जनपदीय महार सेवा संघ के तत्वावधान में 7 अक्टूबर को एक जनसभा वरली में सम्पन्न हुई, जिसमें लगभग 500 महारों ने भाग लिया था। इसकी अध्यक्षता डा. आंबेडकर ने की थी और इसमें नए संविधान में दलित वर्गों की स्थिति पर विचार किया गया था।

 

 

154.

हरिजन नेताओं ने डा. आंबेडकर के प्रस्ताव का खण्डन किया

धर्मपरिवर्तन कोई इलाज नहीं,

हरिजनों का जीवन सवर्ण हिन्दुओं से बॅंधा हुआ है

महात्मा गाॅंधी की डा. आंबेडकर से अपील

धर्म कपड़ों की तरह बदलने की चीज नहीं- महात्मा गाॅंधी

(दि बाम्बे क्रानिकल, 16 अक्टूबर, 1935)

वर्धा, 15 अक्टूबर।

डा. आंबेडकर के भाषण के सम्बन्ध में ऐसोसिएटेड प्रेस के प्रतिनिधि के साथ बातचीत करने हुए महात्मा गाॅंधी ने कहा, ‘डा. आंबेडकर का भाषण अविश्वसनीय प्रतीत होता है। किन्तु यदि उन्होंने इस तरह का भाषण दिया है और सम्मेलन में हिन्दूधर्म छोड़ने और किसी समतामूलक धर्म को अपनाने का प्रस्ताव पास किया गया है, तो मेरे लिए ये दोनों ही घटनाएॅं (कविठा काण्ड और धर्मपरिवर्तन) दुर्भाग्यपूर्ण हैं, विशेष रूप से जब भी कोई संज्ञान लेता है, हालाॅंकि इन पृथकतावादी घटनाओं के बावजूद अस्पृश्यता अपनी मृत्यु के करीब है।

‘मैं कविठा और कुछ अन्य गाॅंवों में हुए अत्याचारों पर डा. आंबेडकर जैसे उच्च शिक्षित और संवेदनशील व्यक्ति के गुस्से को समझ सकता हूॅं।

‘किन्तु धर्म कोई मकान या कपड़ा नहीं है, जिसे अपनी इच्छा से बदला जा सकता है। यह व्यक्ति के शरीर की अपेक्षा उसकी आत्मा का अंगभूत भाग है। धर्म वह बन्धन है, जो मनुष्य को मनुष्य के रचयिता से जोड़ता है। यह धर्म ही है, जो शरीर के नष्ट हो जाने के बाद बना रहता है।

‘अगर डा. आंबेडकर ईश्वर में कोई आस्था रखते हैं, तो मैं उनसे अपील करता हूॅं कि वे अपने क्रोध को शान्त करें और अपने कथन पर पुनर्विचार करें तथा अपने पूर्वजों के धर्म का उसके अपने गुणों के आधार पर, न कि उसके अविश्वसनीय अनुयायियों की कमजोरियों के आधार पर, परीक्षण करें।

‘अन्त में, मुझे उनके धर्मपरिवर्तन के विचार और उन पर, जिन्होंने इसका प्रस्ताव पास किया है, पूरा विश्वास है कि वे वास्तव में कोई ऐसा कदम नहीं उठायेंगेे, क्योंकि जब वे लाखों भोलेभाले अशिक्षित हरिजनों को उनके पैतृक धर्म से अलग कर देंगे, तो वे उनकी नहीं सुनेंगे, विशेष रूप से तब, जब यह मालूम होगा कि उनके जीवन के सुख-दुख उन्हीं सवर्ण हिन्दुओं से जुड़े हुए हैं।’ -ए. पी.

 

 

155.

डा. आंबेडकर धर्मान्तरण के लिए मन बनाया

(दि बाम्बे क्रानिकल, 16 अक्टूबर, 1935)

बम्बई, 15 अक्टूबर।

‘हम जो धर्म अपनायेंगे, वह अभी तय नहीं किया है; कैसे और किस तरह अपनायेंगे, यह भी हमने विचार नहीं किया है, लेकिन एक बात हमने खूब सोचसमझकर और दृढ़ विश्वास के साथ तय की है कि हिन्दूधर्म हमारे लिए अच्छा नहीं है।’ यह बात डा. आंबेडकर ने उनके नासिक भाषण पर गाॅंधी जी की टिप्पणी पर प्रतिक्रिया देते हुए ऐसोसिएटेड प्रेस के प्रतिनिधि से कही।

उन्होंने कहा, ‘असमानता इसका मूल आधार है और इसका नीति और आचार शास्त्र ऐसा है कि दलित वर्ग के लोग कभी भी अपने मनुष्यत्व को प्राप्त नहीं कर सकते। कोई भी यह नहीं सोच सकता कि मैंने यह निर्णय कविठा गाॅंव या अन्य स्थानों पर दलित वर्गों पर किए गए अत्याचारों के विरुद्ध आवेश या क्रोध में किया है। मैं गाॅंधी जी के इस मत से सहमत हूॅं कि धर्म अनिवार्य है, परन्तु मैं उनकी इस बात से सहमत नहीं हूॅं कि क्या वह तब भी मनुष्य का एक पैतृक धर्म बना रहना चाहिए, जब उसे यह पता चल जाए कि जिस धर्म को वह अपनी प्रगति तथा कल्याण के लिए प्रेरणा के स्रोत के रूप में आवश्यक समझता है, वह पैतृक धर्म उन मूल्यों के ही खिलाफ है?

एक उदाहरण बनेगा

यह पूछने पर कि क्या उनका इरादा अकेले धर्मपरिवर्तन करने का है, या उनकी जनता भी उनका अनुसरण करेगी, डा. आंबेडकर ने कहा, ‘मैंने अपना धर्म बदलने का मन बना लिया है, अगर जनता मेरे साथ नहीं आती है, तो मैं इसकी परवाह नहीं करता। यह उनको तय करना है। अगर उन्हें यह अच्छा लगता है कि वे जरूर मेरा अनुसरण करेंगे। किन्तु अगर उन्हें यह अच्छा नहीं लगता है, तो वे मेरा अनुसरण नहीं करेंगे। मेरी अपनी सलाह यह है कि गाॅंधी जी दलित वर्गों को अपने कार्यक्षेत्र को स्वयं चुनने दें। कविठा की घटना पृथकतावादी नहीं है, बल्कि यह उस मूल व्यवस्था पर आधारित है, जो हिन्दुओं के पैतृक धर्म की बुनियाद है।’

 

 

156.

डा. आंबेडकर के धर्मान्तरण को दलित वर्गों का समर्थन

(दि बाम्बे सीक्रेट एबस्ट्रेक्ट, 9 नवम्बर, 1935)

1126 (2), बम्बई शहर विशेष शाखा, 2 नवम्बर।नईगाॅंव, बम्बई के दलित वर्ग निवासियों ने 2 नवम्बर को नईगाॅंव में जनसभा का आयोजन किया, जिसमें उन्होंने डा. आंबेडकर के दलित वर्गों के लिए अन्य धर्म ग्रहण करने के नए प्रस्ताव और येवला सम्मेलन द्वारा नासिक मन्दिर प्रवेश सत्याग्रह को स्थगित करने के प्रस्ताव का समर्थन किया। इस जनसभा में 1000 लोगों ने भाग लिया था, जिसकी अध्यक्षता ‘सोशलइक्यूलिटी लीग’ के डी. वी. नाइक ने की थी।

 

 

157.

हरिजनों के लिए नया धर्म

आंबेडकर को शंकराचार्य का सन्देश

(दि बाम्बे क्रानिकल, 11 नवम्बर, 1935)

नसिक, 10 नवम्बर।

शंकराचार्य के आशीर्वाद के साथ नासिक सम्मेलन द्वारा नियुक्त हिन्दू नेताओं का प्रतिनिधि मण्डल आज बम्बई में डा. आंबेडकर से मिला और उन्हें शंकराचार्य द्वारा दिए गए सुझावों के बारे में बताया गया कि हरिजनों के लिए उनके मठ की व्यवस्था का समर्थन करने के लिए उनके द्वारा एक नया पंथ शुरु किया जाना चाहिए। -ए. पी.

 

 

158.

बचकाने आक्षेप

(दि बाम्बे क्रानिकल, 12 नवम्बर, 1935)

डा. बी.आर.आंबेडकर ने बसीन नगरपालिका द्वारा दिए गए अभिनन्दन पत्र का उत्तर देते हुए मि. गाॅधी और मि. वल्लभभाई पटेल के सम्बन्ध में उनके अस्पृश्यता-विरोधी दृष्टिकोण पर कुछ आपत्तिजनक आक्षेप लगाए। उदाहरण के लिए उन्होंने आरोप लगाया कि मि. गाॅंधी कविठा काण्ड की जाॅंच करने में इसलिए विफल हो गए हैं, क्योंकि दोषी गाॅंववाले मि. वल्लभभाई की जाति के लोग हैं, जिनके विरुद्ध कार्यवाही करने से काॅंग्रेस को मिलने वाली उनकी सहायता बन्द हो जायेगी। ये आरोप बचकाने हैं और चूॅंकि इसमें हरिजनों कि हित शामिल हैं, इसलिए मि. वल्लभभाई ने उनका (घटनाओं) खण्डन करना जरूरी समझा है। वास्तव में मि. गाॅंधी और गुजरात काॅंग्रेस कमेटी दोनों ने कविठा काण्ड की जाॅंच की है और यह काॅंग्रेस के कार्यकर्ताओं के बड़े प्रयासों का ही परिणाम है कि गाॅंव की स्थिति में काफी सुधार हुआ है। डा. आंबेडकर शायद यह मानते हैं कि लगातार उत्तेजक बोलते रहना ही हरिजनों की सेवा करने का बेहतर तरीका है।

पिछली कड़ियाँ-

19. सवर्ण हिंदुओं से चुनाव जीत सकते दलित, तो पूना पैक्ट की ज़रूरत न पड़ती-डॉ.आंबेडकर

18.जोतदार को ज़मीन से बेदख़ल करना अन्याय है- डॉ.आंबेडकर

17. मंदिर प्रवेश छोड़, राजनीति में ऊर्जा लगाएँ दलित -डॉ.आंबेडकर

16अछूतों से घृणा करने वाले सवर्ण नेताओं पर भरोसा न करें- डॉ.आंबेडकर

15न्यायपालिका को ‘ब्राह्मण न्यायपालिक’ कहने पर डॉ.आंबेडकर की निंदा !

14. मन्दिर प्रवेश पर्याप्त नहीं, जाति का उन्मूलन ज़रूरी-डॉ.आंबेडकर

13. गाँधी जी से मिलकर आश्चर्य हुआ कि हममें बहुत ज़्यादा समानता है- डॉ.आंबेडकर

 12.‘पृथक निर्वाचन मंडल’ पर गाँधीजी का अनशन और डॉ.आंबेडकर के तर्क

11. हम अंतरजातीय भोज नहीं, सरकारी नौकरियाँ चाहते हैं-डॉ.आंबेडकर

10.पृथक निर्वाचन मंडल की माँग पर डॉक्टर अांबेडकर का स्वागत और विरोध!

9. डॉ.आंबेडकर ने मुसलमानों से हाथ मिलाया!

8. जब अछूतों ने कहा- हमें आंबेडकर नहीं, गाँधी पर भरोसा!

7. दलित वर्ग का प्रतिनिधि कौन- गाँधी या अांबेडकर?

6. दलित वर्गों के लिए सांविधानिक संरक्षण ज़रूरी-डॉ.अांबेडकर

5. अंधविश्वासों के ख़िलाफ़ प्रभावी क़ानून ज़रूरी- डॉ.आंबेडकर

4. ईश्वर सवर्ण हिन्दुओं को मेरे दुख को समझने की शक्ति और सद्बुद्धि दे !

3 .डॉ.आंबेडकर ने मनुस्मृति जलाई तो भड़का रूढ़िवादी प्रेस !

2. डॉ.आंबेडकर के आंदोलन की कहानी, अख़बारों की ज़़ुबानी

1. डॉ.आंबेडकर के आंदोलन की कहानी, अख़बारों की ज़़ुबानी

 



कँवल भारती : महत्‍वपूर्ण राजनीतिक-सामाजिक चिंतक, पत्रकारिता से लेखन की शुरुआत। दलित विषयों पर तीखी टिप्‍पणियों के लिए विख्‍यात। कई पुस्‍तकें प्रकाशित। चर्चित स्तंभकार। मीडिया विजिल के सलाहकार मंडल के सदस्य।