हम अंतरजातीय भोज नहीं, सरकारी नौकरियाँ चाहते हैं-डॉ.आंबेडकर

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डॉ.आंबेडकर के आंदोलन की कहानी, अख़बारों की ज़़ुबानी – 11

 पिछले दिनों एक ऑनलाइन सर्वेक्षण में डॉ.आंबेडकर को महात्मा गाँधी के बाद सबसे महान भारतीय चुना गया। भारत के लोकतंत्र को एक आधुनिक सांविधानिक स्वरूप देने में डॉ.आंबेडकर का योगदान अब एक स्थापित तथ्य है जिसे शायद ही कोई चुनौती दे सकता है। डॉ.आंबेडकर को मिले इस मुकाम के पीछे एक लंबी जद्दोजहद है। ऐसे मेंयह देखना दिलचस्प होगा कि डॉ.आंबेडकर के आंदोलन की शुरुआत में उन्हें लेकर कैसी बातें हो रही थीं। हम इस सिलसिले में हम महत्वपूर्ण  स्रोतग्रंथ  डॉ.अांबेडकर और अछूत आंदोलन  का हिंदी अनुवाद पेश कर रहे हैं। इसमें डॉ.अंबेडकर को लेकर ख़ुफ़िया और अख़बारों की रपटों को सम्मलित किया गया है। मीडिया विजिल के लिए यह महत्वपूर्ण अनुवाद प्रख्यात लेखक और समाजशास्त्री कँवल भारती कर रहे हैं जो इस वेबसाइट के सलाहकार मंडल के सम्मानित सदस्य भी हैं। प्रस्तुत है इस साप्ताहिक शृंखला की ग्यारहवीं कड़ी – सम्पादक

 

 

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पृथक निर्वाचन के लिए डा. आंबेडकर का विरोध शुरु

विरोध के लिए बम्बई के प्रतिनिधि काम्पटी रवाना

(दि बाम्बे क्रानिकल, 7 मई 1932)़

डा. आंबेडकर द्वारा बुलाई गई अखिल भारतीय दलित वर्ग काॅंग्रेस आज (शनिवार) काम्टी में हुई। लगभग 40 प्रतिनिधियों का दल बम्बई से शुक्रवार की रात में ही काॅंग्रेस में भाग लेने के लिए यहाॅं आ गया था। बम्बई के प्रतिनिधि दल में सर्वश्री शंकरराव पाटिल, छबीलदास कोसम्बी, लखालाल वाघला, खीमजी राठोड़ और 30 अन्य प्रतिनिधि शामिल हैं। ये प्रतिनिधि पूरी तरह संयुक्त निर्वाचन के पक्ष में हैं और राजा-मुंजे संधि का समर्थन किया है। यह काॅंग्रेस लन्दन अल्पसंख्यक संधि के अन्तर्गत डा. आंबेडकर के पृथक निर्वाचन के कारणों को मजबूती देने के लिए बुलाई गई थी।

 

 

101.

डा. आंबेडकर पूना में

काम्पटी गुण्डागर्दी के विरुद्ध राजभोज का प्रतिरोध

(दि बाम्बे क्रानिकल, 23 मई 1932)़

डा. आंबेडकर ने कल पूना का दौरा किया। अवसर था स्थानीय दलित वर्गों और आॅल इंडिया अनटचेबिलिटी लीग के द्वारा किया गया उनका स्वागत समारोह। एक विशाल में दलित वर्गों के लोगों ने उनका गर्मजोशी से स्वागत किया। उन्हें छावनी में एक जुलूस की शक्ल में मुख्य सड़कों से मिशन के मुख्यालय तक ले जाया गया, जहाॅं उनके सम्मान में भाषण पढ़े गए।

 

डाक्टर क्या चाहते हैं

डा. आंबेडकर ने अपने स्वागत का उत्तर देते हुए कहा कि वे मन्दिर, कुएॅं या अन्तरजातीय भोज नहीं चाहते हैं, बल्कि सरकारी नौकरियाॅं, रोटी, कपड़ा, पढ़ाई,लिखाई और अन्य सुविधाएॅं चाहते हैं।

जातिव्यवस्था के अतिरिक्त भी बहुत से भेद हैं जैसे शिक्षा के लिए ‘गुण भेद’ है, जिसे राजनीतिक सुधारों से दूर करने की जरूरत है। इसी वजह से उन्होंने अपना विचार बदला है और अब वे यह मानते हैं कि सामाजिक सुधार से पहले राजनीतिक सुधार होने चाहिए।

उन्होंने वर्तमान समय में दलित समुदाय के लिए पृथक निर्वाचन की ही आवश्यकता पर जोर दिया, जबकि राव बहादुर राजा और गवई जैसे नेता अब संयुक्त निर्वाचन का समर्थन कर रहे हैं।

 

काम्टी गुण्डागर्दी के विरुद्ध प्रदर्शन

दूसरी ओर विरोधी गुट के नेता मि. पी. एन. भोज, जिन्हें जिला मजिस्ट्रेट द्वारा डा. आंबेडकर की पार्टी के कार्यों में हस्तक्षेप न करने के लिए नोटिस दिया गया है, ने एक विरोध सभा रखी, जिसमें राजा-मुंजे संधि का समर्थन करते हुए काम्टी में राजभोज और अन्यों पर हुए हमले की निदा का प्रस्ताव पास किया। -ए. पी.

 

 

102.

डा. आंबेडकर के सम्मान में भाषण

(दि टाइम्स आॅफ इंडिया, 26 मई 1932)़

बेलगाम, 24 मई।

दक्षिण मण्डल के बहुत से भागों से आए दलित वर्ग के लोगों ने डा. आंबेडकर को संयुक्त सम्मान-पत्र भेंट किया। इसकी अध्यक्षता करते हुए दीवान बहादुर लटठे ने उनका परिचय एक महान राष्ट्रवादी नेता के रूप में दिया। मानपत्र में दलित वर्गों के हित में डा. आंबेडकर की सेवाओं की प्रशंसा की गई। मानपत्र के साथ डा. आंबेडकर को 500 रुपयों की थैली भी भेंट की गई।

डा. आंबेडकर ने अपने सम्मान के उत्तर में कहा कि सामाजिक सुधारों से पहले राजनीतिक सुधारों की आवश्यकता है। दलित वर्गों के लोग राजनीतिक शक्ति प्राप्त किए बिना अपनी स्थिति को नहीं सुधार सकते। हालांकि दलित वर्गों के हित के लिए उनके प्रयास को स्वार्थ माना जा सकता है, फिर भी अब तक उन पर राष्ट्र द्वारा किए गए महान अन्याय को देखते हुए यह न्यायसंगत होगा।

डा. आंबेडकर उसके बाद रात में ही शोलापुर के लिए रवाना हो गए।

 

 

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डा. बी. आर. आंबेडकर

(दि बी. एस. एबेस्ट्रेक्ट, 25 मई 1932)़

1110 पूर्वी खण्देश, 14 मई- बम्बई के डा. बी. आर. आंबेडकर 10 मई को चालिसगाॅंव पहुॅंचे और वहाॅं से कार से दिल्ली के लिए रवाना हो गए। उनके रेल से कार तक आने की प्रतीक्षा करते हुए चालिसगाॅं के लगभग 100 महारों ने उनसे भेंट की। 21 मई को उन्होंने पूना का दौरा किया और वहाॅं से अगले दिन कार से निपानी गए।

 

 

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डा. आंबेडकर लन्दन रवाना

प्रधानमन्त्री और केबिनेट सदस्यों से वार्ता के लिए इंग्लैण्ड प्रस्थान

(दि बाम्बे क्रानिकल, 31 मई 1932)़

(क्रानिकल विशेष)

बम्बई के दलित वर्ग नेता डा. बी. आर. आंबेडकर पिछले वृहस्पतिवार को इटैलियन स्टीमर ‘एस. एस. काॅन्टे रोस्सो’ से लन्दन रवाना हो गए हैं।

कहा जाता है कि डा. आंबेडकर की लन्दन यात्रा अप्रत्याशित थी, जो एक महत्वपूर्ण राजनीतिक मिशन से जुड़ी है, और इसे उन्होंने गुप्त रखा है। उनके कुछ भरोसेमन्द साथियों के सिवा इस बारे में कोई कुछ भी नहीं जानता है और जो जानते भी हैं, तो उन्हें भी इस भेद को किसी को भी न बताने को कहा गया है।

किन्तु ‘क्रानिकल’ का प्रतिनिधि डा. आंबेडकर के भरोसेमन्द मित्रों के दायरे से बाहर से इस मिशन का पता लगाने में सफल हो गया है।

 

परदा प्रकरण

यह यात्रा गोलमेज सम्मेलन के दो सत्रों के अवसर पर की गई उनकी पिछली लन्दन यात्राओं से भिन्न थी, क्योंकि उनकी पिछली यात्राएॅं धूमधाम से हुई थीं और दलित वर्ग के सैकड़ों स्वयंसेवक उन्हें विदाई देने के लिए बन्दरगाह पर इकटठे हुए थे। इस बार की यात्रा परदा करके हुई है। केवल एक ही व्यक्ति दलित वर्ग के नेता को विदाई देने बन्दरगाह पर पहुॅंचा था, जो उनके निजी सचिव थे।

डा. आंबेडकर ने प्रथम श्रेणी में यात्रा की है और अपने साथ बहुत कम सामान लेकर गए हैं, क्योंकि इस बार की उनकी यात्रा बहुत कम समय के लिए मालूम पड़ती है और वे अगस्त के अन्त तक भारत वापिस आ जायेंगे। उनके प्रस्थान को गुप्त रखना ही शायद इस यात्रा का उद्देश्य रहा है। सिर्फ कुछ सप्ताह पूर्व ही डा. आंबेडकर ने काम्टी काॅंग्रेस में भाग लिया था और सत्र के बाद पूना, शोलापुर और निपानी जैसे स्थानों पर जाकर अपने अनुयायियों को सम्बोधित किया था। पर कहीं भी उन्होंने यह उल्लेख नहीं किया था कि वे शीघ्र ही लन्दन जाने वाले हैं।

 

क्या वे प्रधानमन्त्री से मिलेंगे?

फिर भी यह अनुमान लगाया जाता है कि इस यात्रा का उद्देश्य प्रधानमन्त्री और केबिनेट के अन्य सदस्यों से भेंट करना और उन पर पृथक निर्वाचन के समर्थकों के दृष्टिकोण का दबाव बनाना है। ब्रिटिश केबिनेट का साम्प्रदायिक निर्णय जून के मध्य में आने की आशा की है और जिस कारण से डाक्टर जल्दी में लन्दन गए हैं, वह इस विषय पर घोषणा होने से पहले प्रधानमन्त्री से मिलने की उनकी चिन्ता है।

यह उल्लेखनीय होगा कि डा. आंबेडकर ने गोलमेज सममेलन के दोनों सत्रों में भाग लिया था और सममेलन की लोथियन कमेटी के साथ काम भी किया था। जैसाकि यह अच्छी तरह विदित है कि उन्होंने दलित वर्गों के लिए पृथक निर्वाचन की दृढ़ता से वकालत की थी, और अल्पसंख्यकों के साथ समझौते में भी वे एक पक्षकार थे।

 

बदलती स्थिति

किन्तु स्थिति में एक महत्वपूर्ण परिवर्तन गोलमेज सम्मेलन के अन्तिम सत्र से उनके वापिस आने के बाद हुआ, जब दलित वर्गों के एक अन्य नेता राव बहादुर एम. सी. राजा ने, जो भारतीय केन्द्रीय समिति के सदस्य के रूप में लन्दन गए थे, और पृथक निर्वाचन के कटटर समर्थक थे, निर्वाचन के विषय पर अपना विचार बदल दिया था और दिल्ली में हिन्दू महासभा के अध्यक्ष डा. मुंजे के साथ संयुक्त निर्वाचन के पक्ष में समझौता कर लिया था। यह समझौता ‘राजा-मुंजे-पैक्ट’ के रूप में जाना गया, जिसे देशभर में दलित वर्गों का इतना भारी समर्थन प्राप्त हुआ कि उससे पृथक निर्वाचन की वकालत करने वालों को एक बड़ा झटका लगा।

 

स्थिति कमजोर हुई

खबरों की दुनिया में यह माना जा रहा है कि डा. आंबेडकर मि. राजा के दृष्ठिकोण में अचानक परिवर्तन आने के कारण अपनी स्थिति काफी कमजोर महसूस कर रहे हैं। इसके परिणामस्वरूप उन्होंने दलित वर्गों के लिए जो उच्च उम्मीदें पृथक निर्वाचन से पाल रखीं थीं, वे धराशायी हो गईं थीं। इसलिए उनकी इस शीघ्र यात्रा का उद्देश्य अपने दृष्टिकोण से प्रधानमन्त्री और ब्रिटिश केबिनेट को प्रभावित करना है। अब देखने की बात यह है कि वे अपने इस अन्तिम प्रयास में कितना सफल होते हैं।

किन्तु संकेत अच्छे नहीं हैं, हालाॅंकि वे भारत से चले गए हैं और अपनी ‘स्थिति’ को बचाने के प्रयासों में लग गए हैं, जिसे वे शायद भारत में अपने उन राजनीतिक विरोधियों के अधिकार से बाहर महसूस करते हैं, जो दलित वर्गों के बड़े हिस्से का प्रतिनिधित्व करने का दावा करने के लिए प्रत्येक दिन शक्ति प्राप्त कर रहे हैं।

उनकी शक्ति का नवीनतम प्रदर्शन बम्बई में होगा, जब वहाॅं 12 जून को अखिल भारतीय दलित वर्ग सम्मेलन का वार्षिक अधिवेशन होगा। मि. एम. सी. राजा इस अधिवेशन में अध्यक्षीय भाषण देने के लिए सहमत हो गए हैं और इस अधिवेशन में सम्पूर्ण भारत से दलित वर्गों की विशाल संख्या के भाग लेने की आशा है। सम्मेलन को सफल बनाने के लिए महान तैयारियाॅं की जा रही हैं।

 

विचित्र संयोग

यह एक विचित्र संयोग है कि साम्प्रदायिक निर्णय की घोषणा के अवसर पर डा. आंबेडकर प्रधानमन्त्री और उनके केबिनेट सहयोगियों से पृथक निर्वाचन के पक्ष में वार्ता करने में व्यस्त होंगे और भारत के प्रमुख नगर बम्बई में सम्मेलन के अधिवेशन में दलित वर्गों के सैकड़ों लोग अपने वर्ग की भावनाओं को प्रकट कर रहे होंगे। देखने की बात यह है कि मि. मेक डोनाल्ड और उनके सहयोगियों के लिए डा. आंबेडकर की अकेली आवाज महत्व रखती है या दलित वर्गों की सुविचारित राय।

 

 

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डा. आंबेडकर इतने उत्सुक क्यों?

(दि बाम्बे क्रानिकल, 6 जून 1932)़

हमें विशेष रूप से यह जानना चाहते हैं कि डा. आंबेडकर से यह पूछा जाए कि वे यह देखते हुए भी कि 150 वर्षों में अंग्रेजों ने ब्राह्मणवादी दमन से दलित वर्गों की मुक्ति के लिए एक उॅंगली तक नहीं उठाई है, तो वे अब उनकी मुक्ति के लिए अंग्रेजों पर निर्भर रहने के लिए इतने उत्सुक क्यों हैं?

 

 

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डा. आंबेडकर का मामूली दावा

(दि बाम्बे क्रानिकल, 15 अगस्त 1932)

डा. आंबेडकर शीघ्र ही व्याख्यान टूर पर अमेरिका जा रहे हैं। उन्होंने विशेष रूप से व्याख्यान ब्यूरो को, जिसने उनके अधिकारी को पत्र जारी किया है, लिख दिया है कि गोलमेज सम्मेलन में उनकी उपस्थिति ने भारत की समस्याओं के समाधान में वास्तविक योगदान दिया है और ब्रिटिश निष्ठा में भारतीय जनता के विश्वास को स्थापित किया है। वे मानते हैं कि पिछले सम्मेलन ने सुरक्षा उपायों के साथ सम्प्रभुत्व (डोमिनियन) के अपने उद्देश्य को प्राप्त किया था, और यह अभी भी एक बड़ी सफलता होती, यदि महात्मा गाॅंधी, जिन पर वे पाखण्ड का आरोप लगाते हैं, वहाॅं नहीं होते। वे  स्वयं को अछूतों का नेता कहते हैं, परन्तु, यदि वे पिछले जून में बम्बई में होते, तो उन्हें पता चल जाता कि उनका दावा सही नहीं है। जब से उन्होंने दलित वर्गों के लिए दोहरे मत का अधिकार प्राप्त किया है, वे आज एक घमण्डी व्यक्ति हो गए हैं, जिन्होंने भारतीय राजनीति में बुरे और भ्रामक विचार भर दिए हैं।

 

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डा. आंबेडकर को झटका

दलित वर्गों की माॅंगों के साथ अन्याय

(दि फ्री प्रेस जर्नल, 24 अगस्त 1932)

बम्बई, मंगलवार।

डा. आंबेडकर ने साम्प्रदायिक निर्णय पर निम्नलिखित वक्तव्य जारी किया है-

‘किसी ने नहीं सोचा था कि साम्प्रदायिक निर्णय हरेक के लिए सब कुछ होगा। दलित वर्गों की ओर से गोलमेज सम्मेलन में मेरे और मेरे सहयोगी राव बहादुर श्रीनिवासन द्वारा रखे गए प्रस्तावों में कुछ बदलावों के लिए मैं स्वयं तैयार नहीं था। किन्तु साम्प्रदायिक निर्णय ने बेरहमी से प्रान्तीय विधायिकाओं में उनके प्रतिनिधित्व को काफी कम कर दिया है। परिणाम यह है कि साम्प्रदायिक निर्णय उनको उचित प्रतिनिधित्व देने से इन्कार करके उनके साथ अन्याय करता है।

‘मुझे इस अनर्थ के लिए कोई औचित्य नजर नहीं आता है। फिर भी मुझे सबसे ज्यादा सदमा इस चीज ने पहुॅंचाया है कि पंजाब के दलित वर्गों के प्रतिनिधित्व के अधिकार को नकार दिया है। उस प्रान्त में दलित वर्गों की स्थिति को देखते हुए मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि तुलनात्मक रूप से उनकी सामाजिक स्थिति उत्तर भारत के अन्य प्रान्तों के दलित वर्गों से ज्यादा खराब है। इसलिए पर्याप्त प्रतिनिधित्व का उनका मामला बहुत मजबूत था।

किन कारणों से हिज मेजेस्टी की सरकार ने इस सबसे योग्य वर्ग को उनकी सीटों से वंचित किया है, मैं इसे तब तक समझने में असमर्थ हूॅं, जब तक कि वह उस प्रान्त में सबसे अशान्त और मुखर भागों के दावों को पूरा नहीं कर देती है। यह अन्याय जब और भी ज्यादा निन्दनीय हो जाता है, जब यह पता चलता है कि भारतीय ईसाईयों को दो सीटें और आॅंग्ल-भारतीय समुदायों को एक सीट प्रदान की गई है, जबकि उनकी आबादी दलित वर्गों की आबादी का दशमांश भी नहीं है, और न वे किसी सामाजिक उत्पीड़न के शिकार हैं। मुझे डर है कि ये अन्याय आॅल इंडिया डिप्रेस्ड क्लासेज फेडरेशन को इस निर्णय के विरुद्ध कर देंगे।’

 

108.

डा. आंबेडकर ने गवर्नर से भेंट की

कहा, बातचीत निजी मामलों पर हुई

(दि बाम्बे क्रानिकल, 11 सितम्बर 1932)़

पृथक निर्वाचन के चेम्पियन डा. आंबेडकर ने शीघ्र ही बम्बई से रविवार की सुबह बम्बई के गवर्नर से भेंट करने के लिए पूना के लिए प्रस्थान किया। आज बम्बई में दलित वर्गों के प्रतिनिधियों को पृथक निर्वाचन की योजना को छोड़ने के लिए राजी करने और महात्मा गाॅंधी का जीवन बचाने के मकसद से आयोजित सम्मेलन की पूर्व संध्या पर नगर में उनकी यात्रा को लेकर काफी अटकलें लगाई गई हैं।

डा. आंबेडकर आज सुबह पूना गए और गवर्नर के साथ एक लम्बी बातचीत करने के बाद शाम को बम्बई वापिस आ गए हैं। यह अफवाह बनी हुई है कि उनकी इस यात्रा का उद्देश्य महात्मा गाॅंधी का आमरण अनशन है, जिसने राजनीतिक क्षेत्र में अन्य सभी विषयों को हाशिए पर ढकेल दिया है।

जब ‘क्रानिकल’ के प्रतिनिधित्व ने पूना से डा. आंबेडकर के वापिस आने पर उनसे भेंटवार्ता की, तो वे बात करने की स्थिति में नहीं थे। फिर भी उन्होंने कहा कि पूना-यात्रा का कारण राजनीतिक नहीं था। गवर्नर से उन्होंने वार्ता निजी मामलों पर की थी। उन्होंने जोर देकर कहा कि उनकी बातचीत का विषय महात्मा गाॅंधी का अनशन नहीं था।

फिर भी चतुर लोग सोचते हैं कि डा. आंबेडकर शायद ही गवर्नर से निजी मामलों पर या मौसम पर बात करने पूना गए होंगे। इस यात्रा का कोई छोटा राजनीतिक महत्व हो ही नहीं सकता।

प्रतिनिधि ने पूछा, ‘क्या आप कल सममेलन में भाग लेंगे?’

इस प्रश्न के उत्तर में डा. आंबेडकर ने बताया कि एक तार-सन्देश के सिवा, जो उन्हें पंडित मालवीय से प्राप्त हुआ था, उन्हें अभी तक सम्मेलन का कोई भी औपचारिक निमन्त्रण प्राप्त नहीं हुआ है। किन्तु यदि उन्हें निमन्त्रण मिलता है, तो वे जरूर सम्मेलन में भाग लेंगे।

डा. आंबेडकर ने अपने वक्तव्य में, जो उन्होंने रविवार शाम को जारी किया था, यह बार-बार दुहराया है कि पृथक निर्वाचन ही दलित वर्गों के हित में है। उन्होंने फिर कहा कि पहले महात्मा गाॅंधी को अपने प्रस्तावों को रखना चाहिए, उसके बाद ही आंबेडकर अपना निजी कार्ड खेल सकेंगे।

 

पिछली कड़ियाँ

 

10.पृथक निर्वाचन मंडल की माँग पर डॉक्टर अांबेडकर का स्वागत और विरोध!

9. डॉ.आंबेडकर ने मुसलमानों से हाथ मिलाया!

 



कँवल भारती : महत्‍वपूर्ण राजनीतिक-सामाजिक चिंतक, पत्रकारिता से लेखन की शुरुआत। दलित विषयों पर तीखी टिप्‍पणियों के लिए विख्‍यात। कई पुस्‍तकें प्रकाशित। चर्चित स्तंभकार। मीडिया विजिल के सलाहकार मंडल के सदस्य।