नया हिन्दुस्तानी सिनेमा : हमारे समय की कहानियाँ

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सिनेमा-सिनेमा की दूसरी कड़ी :

 

इस कोरोंटाइन समय में आपको दुनिया की बेहतरीन फ़िल्मों से परिचय संजय जोशी करवा रहे हैं. यह मीडिया विजिल के लिए लिखे जा रहे उनके साप्ताहिक स्तम्भ सिनेमा-सिनेमा की दूसरी कड़ी है। मक़सद यह है कि हिन्दुस्तानी सिनेमा के साथ–साथ पूरी दुनिया के सिनेमा जगत की पड़ताल हो सके और इसी बहाने हम दूसरे समाजों को भी ठीक से समझ सकें. यह स्तम्भ हर सोमवार को प्रकाशित होगा।

पिछले पांचेक वर्षो में तकनीक में तेजी से शोध हुए और इस वजह से उसका विस्तार भी हुआ है. इसका फायदा सिनेमा विधा को भी मिला है. अब सिनेमा बनाना और दिखाना तीस साल पहले से एक दम उलट है. आज दस हजार की पूँजी से लेकर 300 करोड़ तक में सिनेमा बन रहा है और 300 करोड़ वाले सिनेमा के साथ–साथ दस हजार वाला भी देखा जा रहा है. बल्कि यह भी हो रहा है कि कई बार 300 करोड़ वाला कम प्रभावी साबित हो रहा है. इसलिए ‘अच्छा सिनेमा बनाने के लिए ज्यादा पूँजी ही चाहिए’ के सिद्धांत को अब थोड़ा शंका के साथ समझा–परखा जा रहा है. 

1990 तक जब सिनेमा सेलुलाइड के महंगे माध्यम पर बनता था सिनेमा का फाइनेंसर और वितरक सिनेमा के निर्माण के महत्वपूर्ण संस्थान होते थे. वे न सिर्फ़ पूँजी और दर्शक उपलब्ध करवाकर पहले सिनेमा के निर्माण की गारंटी करते फिर उसके प्रदर्शन की. ऐसा करते हुए वो पूँजी के वापस आने या ज्यादा लाभ कमाने के मकसद से कई बार फ़िल्म की कथा को तोड़ मरोड़ भी देते थे. हिंदी फ़िल्मकार तिग्मांशु धूलिया की पहली फ़िल्म ‘हासिल’ में अनावश्यक रूप से चिपकाई गयी कव्वाली के लिए क्या हम कोई तर्क बना सकते हैं? ऐसी स्थिति में फिल्म का निर्माता और निर्देशक फ़िल्म के असली रचयिता न होकर किसी मुलाजिम की तरह मांग को पूरा करते दिखाई देते. शायद यही वजह रही होगी कि इतनी विभिन्न राष्ट्रीयताओं वाले देश में कितनी सीमित व्याख्याओं वाला सिनेमा बनता रहा और विश्व सिनेमा में हम कई छोटे देशों से पिछड़ते रहे.   

आज के समय में वितरण के क्षेत्र में इंटरनेट की दुनिया के प्रवेश की वजह से बाजार में क्वालिटी और वैरायटी एक जरुरी गुण की तरह स्थापित हुए हैं. अब वितरण का इलाक़ा कुछ भाषाई प्रान्तों से आगे बढ़कर सारी दुनिया को मुट्ठी में करने के लिए आतुर है. इसलिए अब फाइनेंसर भी बहुत सी नई कहानियों को तवज्जो दे रहे हैं. इस नई तवज्जो से हिन्दुस्तानी सिनेमा में नई लहर बह रही है जो बहुत ख़ास है. 

पिछले साल यानि 2019 में तीन कथा फ़िल्में बनीं. किसलय निर्देशित ‘ऐसे ही’, प्रतीक वत्स की ‘ईब आले ऊ’ और फ़हीम इरशद की ‘आनी-मानी’. इन तीन फ़िल्मों में से पहली दो के निर्माता एक युवा फ़िल्मकार हैं और तीसरी के निर्माता पहली दफ़ा बने फ़िल्म निर्माता. तीनों फ़िल्मों के निर्माण में 2 करोड़ तक खर्च हुए होंगे जो एक आम मुम्बईया फ़िल्म का पब्लिसिटी बजट भी नहीं है. तीनों ही के निर्देशक एकदम युवा हैं. पहले दो ने इससे पहले एक-एक छोटी फिल्म बनायी और तीसरे की यह पहली फिल्म है. तीनों ही फ़िल्मों में कोई नामचीन अभिनेता या अभिनेत्री नहीं हैं. सफल होने के एक भी संयोग न होने के बावजूद ये तीनों फ़िल्में आज की तारीख़ में देश–विदेश के फेस्टिवलों में नए हिन्दुस्तानी सिनेमा को सबसे ज्यादा पहचान दे रही हैं. इनकी ख़ासियत इनकी नयी कहानी है जिसके निर्वाह का पूरा मौका इसके निर्देशकों को इनके निर्माताओं ने मुहैया करवाया। क्योंकि पूँजी छोटी थी इस कारण उसपर किसी तरह का दबाव नहीं था कि फ़िल्म को हर हाल में सफल ही होना है. अभी तीनों फ़िल्मों को बेचने की कोशिश कई मंचों पर चल रही है. अगर कहीं भी ये फ़िल्में बिक जाती हैं तो फिर से कुछ नयी कहानियों का सिलसिला चल निकलेगा. ये बिकेंगी कि नहीं, कितना पैसा वसूल पाएंगी, कितना नहीं इन सब कयासों पर लेख के आखिरी में बात करेंगे. फिलहाल यह जानने की कोशिश करते हैं कि इन फ़िल्मों में नया क्या है और ये क्यों ख़ास हैं.

किसलय निर्देशित कथा फ़िल्म ‘ऐसे ही’ एक शहर के एक समय के बदलने की कहानी है. किसलय फ़िल्म संस्थान पुणे से सम्पादन के कोर्स के स्नातक हैं और वहां के छात्र आन्दोलन का सफल नेतृत्व भी कर चुके हैं. अपने समय को फ़िल्मों का विषय बनाना उन्हें प्रिय रहा है. इस बड़ी फ़िल्म से तीन साल पहले उन्होंने 35 मिनट की लघु फ़िल्म ‘हमारे घर’ बनायीं थी जो मध्यवर्गीय उत्तर भारतीय परिवार में आदिवासी लोगों के साथ किये जा रहे व्यवहार के बहाने भारतीय समाजों पर तीख़ी टिप्पणी करती है. ‘ऐसे ही’ से पहले वे विस्थापन की थीम पर एक फ़िल्म की योजना पर काम शुरू कर चुके थे तभी उनके अपने बचपन के शहर इलाहाबाद ने तेजी से बदलना शुरू किया. इलाहाबाद में 2018 में अर्ध-कुम्भ को फ़र्जी तरह से ‘पूर्ण-कुम्भ’ घोषित किया गया और पूरी सरकारी मशीनरी बेशर्मी से पूरे शहर को सनातन हिन्दू शहर बनाने में जुट गयी. करोड़ों के ठेके देकर रातोरात शहर की दीवारों को हिन्दू मिथकों से पोत दिया गया. ऐसे बदलते हुए शहर को महसूसते हुए किसलय ने इस फ़िल्म पर काम किया और अपनी तरह से एक शहर के बदलने की कथा बुनी.                          

‘ऐसे ही’ की कथा एक प्रौढ़ विधवा मिसेज शर्मा (मोहिनी शर्मा) की कथा है जो अपनी तरह जीवन जीना चाहती है. लेकिन सिर्फ़ इतना ही कथा में नहीं है. फ़िल्म की शुरुआत मिसेज शर्मा के पति की मृत्यु के बाद होने वाले शांति पाठ जैसे किसी अनुष्ठान से शुरू होती है. कथा के बढ़ने पर हमें पता चलता है कि उनका आंशिक बेरोजगार लड़का है जो रेडियो में उद्घोषक है उसकी पत्नी और एक बेटा–बेटी भी हैं. उनके पास एक मध्यवर्गीय हैसियत वाला मकान है लेकिन उसको चमकाने या चमकाकर रखने के लिए नियमित अच्छी आय नहीं. प्रौढ़ा के पोते–पोती नए जमाने के हैं. उन्हें सबकुछ उपभोग करना है. घर में माँ को मिलने वाली नियमित पेंशन एक सचाई है जिसकी वजह से बेटा माँ को बर्दाश्त करता है. 

प्रतीक वत्स की फ़िल्म ‘ईब आले ऊ’ का नायक अंजनी बिहार से दिल्ली आया एक बेरोजगार युवक है जिसे रेल की पटरी से सटे स्लम में पहले से बुरी स्थिति में रह रही अपनी बड़ी बहन और जीजा के पास सर छुपाने की जगह मिलती है. पहली वाली फ़िल्म के आंशिक बेरोजगार की तरह उसका अपना मकान नहीं. युवक को कोई नौकरी नहीं मिलती तो बड़ी मुश्किल से उसका जीजा बन्दर भगाने का काम दिलवा देता है. ‘ईब आले ऊ’ बंदर को भगाने के लिए निकाले जाने वाली आवाज है. 

फ़हीम इरशद निर्देशित तीसरी फ़िल्म ‘आनी –मानी’  कहानी एक आम मुस्लिम परिवार की है जिनके पास एक घर है, आँगन भी और कुछ सपने भी. घर का बेटा भुट्टो, कबाब और पराठे बेचने का काम करता है. उसकी शादी नयी है. माँ है ज़माने की चिडचिडी क्योंकि घर में तलाकशुदा बेटी और नतिनी भी रहती है और उसका शौहर शायर मिजाज़ निखट्टू किस्म का इंसान है जिसे बीच–बीच में शहर में होने वाले ‘अनाउंसमेंट’ को लिखकर रिकार्ड करने का काम मिलता रहता है. घर के बड़े मियाँ घर में बने अपने जुगाडू स्टूडियो में यह छोटे–मोटे अनाउंसमेंट रिकार्ड करते हुए बड़ी क्रिएटिविटी का वहम पाल लेते हैं और हमेशा अपनी शायराना धज में तैयार दीखते हैं. भुट्टो, आम मुस्लिम लड़कों की तरह से बेवजह जेल में सात–आठ साल गुजारकर आया है इसीलिए उसे कोई ढंग की नौकरी न मिली और थक हारकर उसने कबाब –पराठे का धंधा कर लिया जो ठीक चल निकला है. 

पहली दो फ़िल्मों के छायाकार एक ही हैं इसलिए बहुत बार दोनों दो अलग –लग कहानी न लगकर एक ही कहानी का विस्तार लगती हैं. मुम्बईया फ़िल्मों के चमकीले दृश्यों की बजाय दोनों फ़िल्में अपने आस-पड़ोस में घटती हुई कहानियां लगती हैं. तीसरी फ़िल्म भी पश्चिमी उतर प्रदेश के एक कस्बे में लोकेशन में ही फ़िल्मायी गई है इसलिए यह भी अपनी ही कहानी लगती है.    

‘ऐसे ही’ की मिसेज शर्मा सिलाई सीखने का काम अपने मोहल्ले के मुस्लिम दरजी से सीखना शुरू करती है. सिलाई करने में उसे मजा आता था. वह विधवा होकर शोक में नहीं है बल्कि अपने खूसट पति से मुक्त हुई है इसलिए अपने मन के काम अब करना चाहती है. बेटे को माँ का इस तरह बीच बाजार में बैठकर सिलाई करना अच्छा नहीं लगता. कोई जब मिसेज शर्मा से सवाल करता है तो वह कहती है-ऐसे ही. ‘ऐसे ही’- फ़िल्म की टेक है जो बार–बार अलग अलग दृश्यों और घटनाओं के जरिये हमारे दिमाग में बजती रहती है.‘ईब आले ऊ’ का नवयुवक अपनी बन्दर भगाने वाली नौकरी भी ठीक से नहीं कर पा रहा है क्योंकि अपने दूसरे साथियों की तरह वह बन्दर को डराने के लिए बन्दरों जैसी आवाज ‘ईब आले ऊ’ नहीं निकाल पाता. अभी वह बन्दर नहीं बन पाया है हालाँकि उसके जीजा को जरुर सिक्यूरिटी एजेंसी के इंचार्ज ने गधा बना दिया है. नए आदेश के तहत जीजा को अपनी नाईट ड्यूटी की बन्दूक को अपने साथ घर ले जाने का आदेश दे दिया है जिस वजह से जीजा की दिन की नींद भी हराम है वहीं उसकी दीदी का मसाले भरने का काम मुश्किल में पड़ता जा रहा है. तीसरी कहानी में कबाब की अच्छी बिक्री से घर में आई थोड़ी बहुत ख़ुशी एक झटके में ख़त्म हो जाती है जब सरकार बड़े जानवर के वध पर पाबंदी लगा देती है. अब घर के आँगन में आनी –मानी का खेल खेलती शरारती नतिनी भी चुप है.

जो लोग सिनेमा माध्यम के बारे में थोड़ी भी जानकारी रखते हैं वे ये जरुर जानते हैं कि स्टूडियो के सेट से बाहर निकलकर वास्तविक लोकेशन में फ़िल्म शूट करना कितना मुश्किल होता है. एक तो आप दस्तावेज़ी फिल्म नहीं बना रहे होते हैं जिसमें जो जैसा है वैसा ही रिकार्ड कर एक कहानी या तर्क गढ़ना दस्तावेज़ी फिल्म विधा के लिए आदर्श होता है. इसके उलट कथा फ़िल्म में आप एक कथा गढ़ रहे होते हैं और उसमे सबकुछ को अपने हिसाब से कर लेना और फ़िल्म की कथा के तार को जोड़े रखना बहुत बड़ा कौशल होता है. क्योंकि यह जुड़ाव सिर्फ़ कथा का नहीं बल्कि पिछले ‘ विज़ुअल सीक्वेंस’ की रोशनी और ध्वनि की निरंतरता को बनाये रखने का भी होता है. अगर आप यह कर ले जाते हैं तो आपकी फ़िल्म को जो बॉडी मिलती है वह बहुत मार्के की होती है और शायद सभी फिल्मकारों का सपना भी. यह आप तभी कर पाते हैं जब आप बड़ी बजट के फ़िल्मों के बहुत से नियमों को ताक़ पर रखकर अपने नए नियम बना रहे हों और किसी के नियम से संचालित न हों. दावे के साथ कह सकता हूँ यह बात इन तीनों फ़िल्म के निर्देशक और निर्माता हासिल करने में सफल रहे हैं इसलिए सारी दुनिया में ये  फ़िल्में विशेष आग्रह के साथ देखी भी जा रही हैं। इन फ़िल्मों में महंगे सेट नहीं बल्कि एक ‘समय’ अपनी जगह के साथ दीखता है. 

‘ऐसे ही’ की मिसेज शर्मा को सिलाई में मजा आने के साथ–साथ उसकी दोस्ती एक युवा लड़की के साथ बढ़ती है, कह सकते हैं कुछ–कुछ समलैंगिक संबंधों जैसा परवान चढ़ा प्यार. इधर उनके दर्ज़ी दोस्त पर मुसलमान होने के कारण मोहल्ले के दक्षिणपंथी युवा लड़के हमला करते हैं. मिसेज शर्मा का बेटा अपनी बेरोजगारी और घर के खर्च पूरे न होने की किचकिच से परेशान है वहीं अपनी माँ पर अपने पिता की तरह शासन न कर पाने की खीज भी उसमे बढ़ती जा रही है. और इधर मिसेज शर्मा की युवा लड़की से दोस्ती उसके ब्यूटी सैलून से आगे निकलकर नदी के किनारे यूं ही बैठने में निकलने लगी है. ‘ईब आले ऊ’ के जीजा को दिन में बन्दूक को बगल में रखकर सोना भारी उलझन में डालता है वहीं शाम को ड्यूटी पर जाते हुए कभी साइकिल कभी बन्दूक और कभी कुपोषण से उपजी अपनी तोंद और उसपर चढ़ी बेल्ट को सभालना हम सबको आम लोगों के जीवन में हर रोज घटने वाली  जैसी ट्रेजडी सरीखा दिखता है. ‘आनी–मानी’ का बेरोजगार हुआ कबाब वाला किसी तरह से अपनी गाड़ी को पटरी पर लाने के लिए अवैध तरीके से मांस खरीदने की आख़री कोशिश करता है. 

तीनों ही फ़िल्मों में कोई गाना नहीं है सिवाय ‘आनी-मानी’ में घटे इसी नाम के खेल के जो कभी –कभी घर की बच्ची अपने मामा के साथ खेलती है. गानों की बजाय फ़िल्म की कहानी के साथ–साथ वो जगह ठीक से दिखाई देती है जहां कहानी घट रही होती है. ‘ऐसे ही’ में मोहल्ले का चित्रण, ‘ईब आले ऊ’ में सरकारी बिल्डिंगों के आसपास घूमता हमारा नायक और रेल की पटरी पार कर अपनी गन्दी बस्ती को जाता जीजा और ‘आनी –मानी’ में मुस्लिम घर की चहारदीवारी के अन्दर की घुटन हमें आम भारतीय फ़िल्मों में बहुत खोजने पर भी नहीं मिलती. इन तीनों फ़िल्मों को देखते हुए हमें हीरो –हीरोइन नहीं बल्कि अपने आसपास के लोग याद आते हैं.    

तीनों का अंत भी एक दूसरे से जुड़ा लगता है. पहली फ़िल्म की मिसेज शर्मा अचानक गायब हो जाती है पता चलता है वो एकांत के लिए ऋषिकेश जैसी किसी जगह पर चली गयीं है , ‘ईब आले ऊ’ का नायक बन्दर वाली आवाज निकालने में काबिल हो गया खुद अपने को बन्दर में तब्दील होता पाता है और ‘आनी –मानी’ का युवा  व्यवसायी उग्रपंथियों द्वारा मार दिया जाता है. अगर हम इन तीनों फ़िल्मों को एक साथ रखकर देखेंगे तो इसी निष्कर्ष पर पहुचंगे कि हमारे नए समय में कोई गायब हो जाएगा या विस्मृत कर दिया जाएगा, कोई मनुष्य ही नहीं रहेगा और कोई एकदम से हलाक़, अपने वजूद से ही ख़त्म. 

इसीलिए इन फ़िल्मों को मैं हमारे समय का नया हिन्दुस्तानी सिनेमा कहता हूँ. आप जब इस लेख को पढ़कर इन्हें खोजने की कोशिश करेंगे तो इनमे से कोई भी आपको उपलब्ध नहीं होंगी क्योंकि इनके नए निर्माता इन्हें बेचने की जुगत में लगे हैं. मुझे उम्मीद है कि जल्द ही ये नेटफ्लिक्स, हॉट स्टार या अमेज़न प्राइम जैसे माध्यमों द्वारा खरीद ली जायेंगी और हम सबको देखने के लिए मिलेंगी. अगर ऐसा हुआ और इनके निर्माताओं का पैसा वसूल हुआ तब जरुर ही हमें ज्यादा भरोसे का सिनेमा देखने को मिलेगा जैसा बहुत से दूसरे देशों में बन रहा है. 

हम सबकी दुआएँ इन्हें लगें . 


इस शृंखला में वर्णित अधिकाँश फ़िल्में यू ट्यूब पर उपलब्ध हैं और जो आसानी से नहीं मिलेंगी उनका इंतज़ाम संजय आपके लिए करेंगे. दुनियाभर के जरुरी सिनेमा को आम लोगों तक पहुचाने का काम संजय जोशी पिछले 15 वर्षो से लगातार ‘प्रतिरोध का सिनेमा’ अभियान के जरिये कर रहे हैं. उनसे thegroup.jsm@gmail.com या 9811577426 पर संपर्क किया जा सकता है .-संपादक

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