छद्म राष्ट्रवाद के शोर में गुम होते बहुजनों के मुददे

संजय श्रमण
काॅलम Published On :


पंद्रह जून की रात लद्दाख के निकट गलवान घाटी मे भारतीय और चीनी सेना के बीच गंभीर मुठभेड़ हुई है। भारत मे एक कर्नल रैंक के सेना अधिकारी और 20 सैनिकों के शहीद होने की पुष्टि की जा चुकी है। चीन के ग्लोबल टाइम्स अखबार मे भी इस झड़प की पुष्टि की गयी है। एएनआई ने बताया है चीन के एक कमांडिंग ऑफिसर सहित 43 सैनिक भी इसमे मारे गए हैं। अभी अभी आ रही खबरों के मुताबिक अरुणाचल की सीमा पर भी तनाव बढ़ रहा है। कांग्रेस की तरफ से राहुल गांधी ने प्रधानमंत्री पर सीधा हमला करते हुए आरोप लगाया है कि बीजेपी सरकार इस मुद्दे पर देश को अंधेरे मे रख रही है और जरूरी कदम नहीं उठा रही है। 

इधर राष्ट्रप्रेम की भावना से ओतप्रेत भारतीय जनता ने सोशल मीडिया पर जंग छेड़ दी है और चीन के सामानों का बहिष्कार सहित चीनी मोबाइल एप्स के विरोधों का माहौल बनाना शुरू कर दिया है। भारत के प्रधानमंत्री ने घटना के 36 घंटे बाद राष्ट्र को संबोधित करते हुए इस मुद्दे पर पहली बार कोई वक्तव्य दिया है। प्रधानमंत्री ने घोषणा की है कि भारत के जवानों का बलिदान बेकार नहीं जाएगा लेकिन उन्होंने यह भी कह दिया कि एक इंच चीन भी किसी के कब्जे में नहीं है, जबकि सारे तथ्य चीख-चीखकर कह रहे हैं कि गालवान घाटी पर कब्जा कर लिया है चीन ने जो भारत की है। यहाँ गौर कीजिए, बयान देने मे अभी भी कोई कसर नहीं उठा रखी है लेकिन जिस स्तर पर सीमा विवाद हाल करने की जरूरत है उस कूटनीतिक एवं राजनीतिक मुद्दे पर कोई गंभीर पहल नहीं की जा रही है। इतना ही नहीं देश की इस सीमा विवाद और संघर्ष के बारे मे ठीक से जानकारी भी नहीं दी जा रही है। 

आज जो बीजेपी सरकार केंद्र में बैठी है इसके राष्ट्रवाद की आज की यह तस्वीर अपने ही एक साल पुराने अवतार से मेल नहीं खा रही है। यही सरकार पाकिस्तान से होने वाली एक छोटी सी झड़प को, पुलवामा और बलकोट के हवाले से राष्ट्रवाद के रंग मे रंगकर उसे हफ्तों तक भुनाती रही है। किसी न किसी तरीके से पाकिस्तान और उससे एक संभावित युद्ध की बात को बार बार चर्चा मे घसीटकर देश के गरीबों वंचितों के मुद्दे को भटकाने का एक कारगर तरीका इन्होंने खोज लिया था।

आज जब चीन से मुकाबले की संभावना बन रही है तो इस राष्ट्रवाद के चैंपियन ये सारे बयानवीर चुप हैं। हर टीवी चैनल पर एक के बदले दस सर लाने का दावा करने वाले नेता अचानक कहीं जा छुपे हैं। कैमरे के सामने मूँछों पर ताव देकर दहाड़ने वाले रक्षा विशेषज्ञ आजकल नजर नहीं आ रहे यहीं। वो सभी टीवी चैनल जो सेना के पराक्रम को प्रधानमंत्री का पराक्रम बताकर चापलूसी की हद पार रहे थे वे भी आज बदल गए हैं। अभी एक टीवी एंकर ने तो यहाँ तक कह डाला है कि सीमा पर पेट्रोलिंग का काम सेना का है इसलिए इस घटना के लिए सरकार से सवाल नहीं पूछे जाने चाहिए। 

अगर हम इस झड़प मे शहीद हुए जवानों के नाम देखें तो हम पाते हैं कि इनमे सर्वाधिक लोग बहुजन समाज से हैं। बिहार रेजीमेंट के जिन शहीदों के नाम आए हैं उनके कुछ नाम इस प्रकार हैं: सिपाही कुंदन कुमार, सिपाही अमन कुमार, दीपक कुमार, सिपाही चंदन कुमार, सिपाही गणेश कुंजाम, सिपाही गणेश राम, सिपाही के के ओझा, राजेश ओरांव, सिपाही सी के प्रधान, नायब सूबेदार नंदूराम, हवलदार सुनील कुमार, कर्नल बी. संतोष बाबू। इनमे से अधिकांश नाम ओबीसी अनुसूचित जाति और जनजाति के नाम हैं।

इन नामों को और इनके गांवों और शहरों के नाम देखें तो ये बिहार मध्यप्रदेश छत्तीसगढ़ झारखंड और पश्चिम बंगाल से आते हैं। यहाँ हम समझ सकते हैं कि बहुजन समाज के सिपाही और बहुजन समाज की बड़ी जनसंख्या को स्थान देने वाले इलाकों ने इस देश के लिए सर्वाधिक कुर्बानी दी है। लेकिन राष्ट्रवाद के विमर्श में न उनकी चर्चा होती है और न उनके दुखदर्द की। उल्टा राष्ट्रवाद के नाम पर जिस स्वर्णित अतीत का गौरवगान होता है वह इन बहुजनों के लिए विपदा ही रहा है।

यह स्थिति हम पूरे भारत मे देख सकते हैं। भारत के स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान पंजाब मे जो जलियाँवाला कांड हुआ था उसके शहीदों की लिस्ट मे भी अधिकांश बहुजन समाज के लोग नजर आते हैं। स्वतंत्र भारत मे पाकिस्तान और चीन के खिलाफ युद्धों मे शहीद हुए सैनिकों मे भी बड़ी संख्या भारत के सिखों और मुसलमानों की है। अब इस बात पर गौर करने की जरूरत है। भारत के सिखों, मुसलमानों और अनुसूचित जाति जनजाति के समुदायों के प्रति ही राष्ट्रवाद और धर्म की राजनीति करने वाले लोगों ने घृणा के अभियान चलाए हैं। सन 1984 का सिख विरोधी दंगा हो या 1992 के बाद राम मंदिर आंदोलन के बाद से मुसलमानों के खिलाफ आज तक चल रहा प्रति घृणा का देशव्यापी अभियान हो, दोनों मे एक ही सूत्र काम करता नजर आता है। इसी दौर मे मण्डल कमीशन ने भारत के ओबीसी युवाओं के लिए प्रतिनिधित्व की गारंटी देने का प्रयास किया था। बीजेपी ने जो मण्डल बनाम कमंडल की चाल चली उसने पूरे देश के ओबीसी समाज को शिक्षा रोजगार और विकास की यात्रा मे सदियों पीछे धकेल दिया। 

सन 2006 मे जारी हुई सच्चर कमिटी की रिपोर्ट बताती है कि भारत के एससीएसटी ओबीसी और मुस्लिम समुदाय के लोग एक जैसे पिछड़े हुए हैं। इनके पिछड़ेपन का बड़ा कारण भेदभाव और घृणा से भरी हुई सामाजिक संरचना मे छुपा हुआ है। अब अगर इस बहुजन समाज की उपलब्धियों को देखिए। पिछले साल की एक खबर के मुताबिक भारत की 49 सेंट्रल यूनिवर्सिटिज़ मे ओबीसी का एक भी असोसिएट प्रोफेसर या प्रोफेसर नहीं है। यूजीसी द्वारा विश्वविद्यालयों में विभागवार आरक्षण का नया और विचित्र फार्मूला लागू करने के बाद बहुजन समाज के लिए सीटों की संख्या में भारी कमी आई है।

उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय में बहुजन समाज के जजों और महिलाओं का प्रवेश लगभग असंभव बना दिया गया है। इधर न्यापालिका द्वारा बहुजन समुदायों के लिए शिक्षा और शासकीय सेवाओं मे प्रमोशन पर जैसे फैसले आए हैं वे बहुजन समाज के सामाजिक शैक्षणिक और आर्थिक प्रतिनिधित्व के लिए घातक साबित हो रहे हैं। जाहिर है, राष्ट्रवाद के शोर में इन मुद्दों को दबा दिया गया है। कथित मुख्यधारा मीडिया भूलकर भी इन पर चर्चा नहीं करता।

अभी कोरोना महामारी के बीच हमने देखा है कि बिहार, झारखंड, मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश के लाखों मजदूरों को सड़कों पर कई सप्ताह भूखे प्यासे पैदल चलना पड़ा है। इन मजदूरों के शहरों से घर लौटने के लिए जो सुविधाएं देनी थीं उनका कहीं कोई इंतेजाम नहीं हुआ। इसके विपरीत इन्हीं इलाकों में बहुत बेशर्मी से बीजेपी सरकार ने अपनी वर्चुअल रैली पर जो अरबों रुपये खर्च किए हैं। इससे पता चलता है कि केंद्र और राज्य सरकारों को बहुजनों की कितनी चिंता है। यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है, इस देश के लिए सीमा पर जान देने की बात हो या फिर शहरों मे औद्योगिक प्रक्रियाओं को अपने खून पसीने से सींचने की बात हो भारत के ओबीसी एससी और एसटी समाज ने सर्वाधिक कुर्बानियाँ दी हैं। इसके बावजूद इस छद्म राष्ट्रवाद की राजनीति ने इन्हे जमीनी स्तर पर उपेक्षित बना रखा है। इस समाज के शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार के मुद्दों को व्यर्थ के मुद्दों मे भटकाया जा रहा है।  

अब इस सबको कैसे देखा और समझा जाए? बीजेपी की यही सरकार और यही मीडिया पाकिस्तान के मामले मे छोटी सी भी खबर आए तो उसे महीनों तक चलाते हैं। इस सबका मतलब क्या है? इसका मतलब है कि आम जन से जुड़े मुद्दों को भटकाने के लिए जिस राष्ट्रवाद की इबारत बनाई गयी है वह सिलेक्टिव ढंग से काम करती है। सिलेक्टिव होने की मजबूरी असल मे जनता को गुमराह करके अपना छुपा हुआ एजेंडा लागू करने की हवस से पैदा होती है।

छद्म राष्ट्रवाद और इसे जिंदा रखने के लिए युद्ध का माहौल बनाए रखा जाता है। यह असल मे शासन और जनता के आपस के ईमानदार रिश्तों को कमजोर करने का काम है। इसके जरिए सरकारें जनता के प्रति अपने उत्तरदायित्व से बचने का चोर दरवाजा बनाए रखती हैं। कुल मिलाकर आज की राजनीति का राज यही है कि गरीब वंचित जनता को कुछ ऐसे झुनझुने पकड़ा दिए जाएँ जो कि व्यक्त जरूरत सरकारों के लिए अचानक बजने लगें। जनता खुद ही सोच नहीं पाती कि उसके जीवन से जुड़े मुद्दों मे वह किस चीज को प्राथमिकता पर रखे और सरकारों से कैसे सवाल पूछे? यही इस छद्म राष्ट्रवाद की आक्रामक राजनीति का असल मकसद है। 



संजय श्रमण जोठे स्वतन्त्र लेखक एवं शोधकर्ता हैं। मूलतः मध्यप्रदेश के रहने वाले हैं। इंग्लैंड की ससेक्स यूनिवर्सिटी से अंतर्राष्ट्रीय विकास अध्ययन मे स्नातकोत्तर करने के बाद ये भारत के टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंस से पीएचडी कर रहे हैं। बीते 15 वर्षों मे विभिन्न शासकीयगैर शासकीय संस्थाओंविश्वविद्यालयों एवं कंसल्टेंसी एजेंसियों के माध्यम से सामाजिक विकास के मुद्दों पर कार्य करते रहे हैं। इसी के साथ भारत मे ओबीसीअनुसूचित जाति और जनजातियों के धार्मिकसामाजिक और राजनीतिक अधिकार के मुद्दों पर रिसर्च आधारित लेखन मे सक्रिय हैं। ज्योतिबा फुले पर इनकी एक किताब वर्ष 2015 मे प्रकाशित हुई है और आजकल विभिन्न पत्र पत्रिकाओं मे नवयान बौद्ध धर्म सहित बहुजन समाज की मुक्ति से जुड़े अन्य मुद्दों पर निरंतर लिख रहे हैं। बहुजन दृष्टि उनके कॉलम का नाम है जो हर शनिवार मीडिया विजिल में प्रकाशित हो रहा है। यह इस स्तम्भ की  दसवीं कड़ी है।

पिछली कड़ियां—

बहुजन दृष्टि-9– वामपंथ, समाजवाद और आंबेडकरवाद से विश्वासघात है बीजेपी की शक्ति का स्रोत !

बहुजन दृष्टि-8- अमेरिका के नस्लवाद विरोधी आंदोलन के बरक्स भारत की सभ्यता और नैतिकता!

बहुजन दृष्टि-7- मी लॉर्ड’ होते बहुजन तो क्या मज़दूरों के दर्द पर बेदर्द रह पाती सरकार?

बहुजन दृष्टि-6– बहुजनों की अभूतपूर्व बर्बादी और बहुजन नेताओं की चुप्पी यह !

बहुजन दृष्टि-5- आर्थिक पैकेज और ‘शोषणकारी’ गाँवों में लौट रहे बहुजनों का भविष्य

बहुजन दृष्टि-4– मज़दूरों के प्रति इस आपराधिक उपेक्षा की जड़ ‘धर्मसम्मत’ वर्णव्यवस्था में है !

बहुजन दृष्टि-3– इरफ़ान की ‘असफलताओं’ में फ़िल्मी दुनिया के सामाजिक सरोकार देखिये

बहुजन दृष्टि-2हिंदू-मुस्लिम समस्या बहुजनों को छद्म-युद्ध में उलझाने की साज़िश!

बहुजन दृष्टि-1— ‘सामाजिक दूरी’ पर आधारित समाज में सोशल डिस्टेंसिंग !