चुनाव पर चर्चा से पहले दो खौफ़नाक कथन :
1- “ मोदी नाम की सुनामी है.देश में जागृति आई है.मुझे लगता है कि इस चुनाव के बाद 2024 में चुनाव नहीं होगा.केवल यही चुनाव है.इस देश के लिए प्रत्याशित जीत दिलवाने का काम करेंगे.मोदी है तो देश है. मैं संन्यासी हूँ, भविष्य देख सकता हूँ.देश में यह आखरी चुनाव है.” ( भाजपा सांसद साक्षी महाराज;14 मार्च,2019; उन्नाव )
2 – “आप लिख कर लीजिये 5-7 साल बाद आप कहीं कराची,लाहौर ,रावलपिंडी ,सियालकोट में मकान खरीदेंगे और बिज़नस करने का मोक़ा मिलेगा.अखंड भारत के समर्थक भारत ,पाकिस्तान और बाग्लादेश के साथ भूटान,नेपाल ,अफगानिस्तान और बर्मा का भी एकीकरण चाहते हैं.” ( राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के वरिष्ठ नेता इन्द्रेश कुमार ,16 मार्च, 2019, मुम्बई.)
साक्षी महाराज उत्तर प्रदेश के उन्नाव निवार्चन क्षेत्र से चार बार निर्वाचित हो चुके हैं. अपने विवादास्पद बयानों के लिए वे सुर्ख़ियों में रहते आये हैं. इन्द्रेश कुमार के कथन भी भावना भड़काऊ रहते रहे हैं. अखंड भारत, संघ का पुराना स्वप्न है,लक्ष्य भी है.उग्र राष्ट्रवाद और युद्धोन्माद के लिए ऐसे कथन बारूद की भूमिका निभाते हैं.दोनों नेताओं के बयान उनकी राजनैतिक शैली के मुताबिक़ हैं,इनमें नया कुछ नहीं है.लेकिन, 17 वीं लोकसभा की चुनाव पृष्ठभूमि में शासक दल के नेताओं के इन वक्तव्यों को हलके में खारिज़ नहीं किया जा सकता. मौजूदा दौर में दोनों टिप्पणियों को गंभीरता से लेना चाहिए क्योंकि इनमें संघ व उसके राजनीतिक शस्त्र भाजपा के असली एजेंडा ,मज़िल और धमकी की बास आ रही है. चुनाव में चंद दिन ही शेष हैं, संविधान की रक्षा की शपथ लेने वाले सांसद का ऐसा बयान देशवासियों के लिए भय,चेतावनी और धमकी से भरा हो सकता है.
‘मोदी है तो देश है’ जैसा वाक्य 1975 में कांग्रेस अध्यक्ष देवकांत बरुआ की इंदिरा चापलूसी की याद ताज़ा कर देता है. उन्होंने ऐलान किया था “ इंदिरा भारत है, भारत इंदिरा है ‘ (इंडिया इज़ इंदिरा, इंदिरा इज़ इंडिया )ऐसे कथन लोकतंत्र में तानाशाही का रास्ता साफ़ कर देते हैं जब व्यक्ति या नेता को देश व राष्ट्र का पर्याय बना दिया जाता है.क्या इंदिरा के निधन के पश्चात भारत नहीं है ? यदि मोदी नहीं होंगे तो भारत नहीं बचेगा? कितनी भयावह सोच है! चुनावी माहौल में अखंड भारत का एजेंडा उछाल कर संघ परोक्ष रूप से मतदाताओं के ध्रुवीकरण की ही कोशिश कर रहा है. यह मुद्दा मूलतः भावनात्मक,आस्थात्मक और राजनीतिक के साथ साथ सामरिक भी है.इसमें हिन्दू राष्ट्र की राजनीतिक आर्थिकी भी छिपी हुई है; दक्षिण एशिया में एक विशाल बाज़ार दिखाई दे रहा है.उसके लिए भारतीय मानस तैयार किया जा रहा है. चुनाव के वातावरण में ऐसे कथन निश्चित ही लोकतंत्र व गणतंत्र के लिए अधिनायकवादी आशंकाओं से भरे प्रतीत होंगे.भाजपा नेतृत्व ऐसे बयानों को लेकर ख़ामोश है,यह चिंता की बात है.
इसी क्रम में समझोता एक्सप्रेस के सभी चारों आरोपियों को पर्याप्त सुबूतों के अभाव में बरी कर देना भी एक महत्वपूर्ण घटना है.20 मार्च को हरियाणा की पंचकुला अदालत ने प्रमुख आरोपी असीमानंद सहित तीन अन्य आरोपियों -लोकेश शर्मा,कमल चौहान और राजिंदर चौधरी को समझोता एक्सप्रेस में विस्फोट के षडयंत्र के आरोपों से बरी कर दिया था. याद रहे, हरियाणा के पानीपत क्षेत्र में 19 फरवरी,2007 में पाकिस्तान जा रही समझौता एक्सप्रेस में विस्फोट हुआ था जिसमें 68 व्यक्तियों की जानें गयी थीं. मृतकों में ज्यादतर पाक नागरिक थे. चुनाव के वातावरण में यह फैसला भी मतदाताओं के ध्रुवीकरण में परोक्ष भूमिका निभा सकता है क्योंकि उस समय ‘ हिन्दू आतंकवाद ‘ का फिकरा उछला था. अब इस फैसले को आधार बना कर कतिपय हिन्दुत्त्ववादी ‘ हिन्दू आतंकवाद ‘ का नारा उछालनेवालों की पराजय घोषित कर रहे हैं. मुस्लिम समुदाय पर भी इसकी प्रतिक्रिया होना स्वाभाविक है.
वास्तव में, चुनाव के मामले में 1984 को छोड़ कर देश में जन-निर्णय कभी भी समरूपी नहीं रहा है. 84 के असाधारण चुनाव परिणाम ‘सहानभूति -लहर ‘ पर सवार थे. 31 अक्टूबर ,1984 को दिल्ली में तत्कालीन प्रधानमंत्री .इंदिरा जी की हत्या ने लगभग सम्पूर्ण राष्ट्र को प्रभावित किया था.उनके युवा पुत्र राजीव गाँधी को अप्रत्याशित बहुमत मिला था.लोकसभा में 400 से ज्यादा स्थान कांग्रेस ने जीते थे. लोगों की भावना इंन्दिरा जी से जुड़ी थीं. जन-निर्णय ‘भावना प्रधान‘ था, न कि ‘विवेक प्रधान’.लोकतंत्र के संचालन के लिए भावना व आस्था से अधिक ज़रूरी हैं विवेक व विवेचना. सत्तारूढ़ रहने के लिए अक्सर नेतृत्त्व भावना व आस्था के दोहन का सहारा लेता है; चरम राष्ट्रवाद,देशभक्ति ,धर्म सेन्यवाद, युद्धोन्माद, नायकवाद , ,अवतारवाद,सुपर मैन , व्यक्तिपूजा सांस्कृतिक राष्टवाद,नस्लवाद,जातिवाद जैसे विषयों का नैरेटिव उछालता है. जनता को मिथकीय वृतांतों से भ्रमित करता है. सत्य व अर्द्ध सत्यों की केमिस्ट्री तैयार करता है. प्रचार माध्यमों से इसका वितरण किया जाता है. सारांश में, सत्य का असत्य में,असत्य का सत्य में अवसरानुकूल रूपांतरण (पोस्ट ट्रुथ मीडिया व पोस्ट ट्रुथ पॉलिटिक्स) के काल में 17वीं लोकसभा के चुनाव होने जा रहे हैं.इसलिए सात चरणों में होनेवाले चुनाव भारतीय लोकतंत्र व गणतंत्र के लिए बेहद निर्णायक रहेंगे. इस परिप्रेक्ष्य में सांसद की भविष्यवाणी को देखा-समझा चाहिए.
चुनाव -इतिहास बतलाता है कि 19 77 में आपातकाल के बाद हुए चुनावों में उत्तर भारत में कांग्रेस का लगभग सफाया हो गया था. इंदिरा गाँधी और उनके छोटे पुत्र संजय गाँधी, दोनों ही चुनाव क्रमश रायबरेली और अमेठी से हार गए थे. लेकिन, दक्षिण भारत में कांग्रेस के पक्ष में जन-निर्णय रहा, जबकि जनतापार्टी को सीटें कम मिली थीं. 1980 के चुनावों में कांग्रेस ने उत्तर और दक्षिण में अपनी समरूपी विजय प्राप्त की.इंदिरा गाँधी स्वयं उत्तर भारत ( रायबरेली ) और दक्षिण भारत ( तेलंगाना के मेढक जिले ) में दो स्थानों से जीती थीं. इसके बाद 1989 के चुनावों में दक्षिण भारत से कांग्रेस को अच्छी सीटें मिली थीं जबकि विश्वनाथ प्रताप सिंह,चन्द्र शेखर , देवीलाल और रामाराव (एन.टी.) के गठबंधन को पूर्ण बहुमत नहीं मिल सका . भाजपा के समर्थन से सरकार चलानी पड़ी.
सारांश में, 1991 ,1996,1998,1999, 2004 और 2009 के चुनाव नतीजों से स्पष्ट है कि उत्तर भारत और दक्षिण भारत के चुनाव निर्णय समान नहीं रहे हैं.कर्णाटक को छोड़ भाजपा को आज भी उत्तर भारत की पार्टी के रूप में देखा जाता है. लेकिन स्वतंत्र भारत में ,2014 की ‘मोदी -लहर ‘ ने भाजपा को पहली दफा स्पष्ट बहुमत 280 + सीटें दिलवायीं और परम्परागत शासक दल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को मात्र 44 सीटों से सब्र करना पड़ा. इस दफा दक्षिण भारत के मतदाताओं ने भी कांग्रेस को नकार दिया. इसका अर्थ यह भी नहीं है कि तमिलनाडु, केरल, आंध्र प्रदेश और तेलंगाना की राजनीति ने भाजपा को स्वीकार कर लिया. अलबत्ता, कर्णाटक के मतदाताओं ने भाजपा का साथ ज़रूर दिया. लेकिन मोदी लहर ने सत्ता आकाश में भाजपा और संघ को एक नए ‘ एकछत्र सत्ताध्रुव ‘ ( 282 सीटें ) के रूप में ज़रूर स्थापित किया.यही जीत 19 96 ,19 98 ,1999 और 2004 के मध्यावधि चुनावों व आम चुनावों में अटल-अडवानी जोड़ी दिलाने में नाकाम रही थी.गठबंधन के सहयोग से,यह पार्टी केंद्र में सत्तारूढ़ ( 1998 व 99 ) तो ज़रूर हुई लेकिन अकेले अपने दम पर नहीं.करीब 24 दलों के महागठबंधन ( नेशनल डेमोक्रेटिक अलायन्स ) के नेतृत्व के साथ शासक दल बनी थी.
इससे पहले भाजपा को अकेले स्पष्ट बहुमत (272 ) कभी नहीं मिला था.लेकिन 2014 के चुनावों में असाधारण विजय के बाद से ही संघ व भाजपा में ‘मोदी कल्ट’ शुरू हो गया. गुजरात की कॉर्पोरेट पूँजी ( अम्बानी ,अडानी आदि ) ने इसके प्रचार-प्रसार में विशेष भूमिका निभायी .17वीं लोकसभा के चुनावों में भी यह पूँजी खासी सक्रिय मानी जाती है.इस पूँजी से नियंत्रित मीडिया द्वारा मोदी कल्ट के रूप में प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी को ‘अजेय‘ के रूप में चित्रित किया जा रहा है. मोदी सुनामी का रूपक गढ़ा जा रहा है.क्या ऐसा है ? इस सवाल को समझने की ज़रूरत है. हम लोग पूर्व पुलवामा और उत्तर पुलवामा पर नजर डालें.14 फरवरी को पुलवामा क्षेत्र में सेंट्रल रिजर्व्ड पुलिस फाॅर्स पर आत्मघाती आतंवादी हमला किया जाता है जिसमें 40 से अधिक जवानों की जानें जाती हैं. यह घटना सम्पूर्ण राष्ट्र, विशेष रूप से उत्तर भारत, को गहरे तक प्रभावित करती है. पाकिस्तान के साथ निर्णायक युद्ध के नारे लगते हैं.उग्रराष्ट्रवाद अपने चरम पर दिखाई देता है. लगता है युद्ध कभी भी छिड़ सकता है. पुलवामा ट्रेजेडी पर सवाल उठानेवालों को देश विरोधी और पाक समर्थक कहा जाता है..याद रखें, पाकिस्तान के साथ युद्ध या क्रिकेट या हॉकी का मैच किसी देश के सैनिकों या खिलाडियों के साथ नहीं होता है. हम एक मज़हब को पराजित करने के लिए लड़ते या खेलते हैं.पाकिस्तान भी यही करता है.मज़हबी ज़ज्बात तासीर रहते हैं.
सारांश में, नितांत नया आख्यान चुनावी आसमान पर छा जाता है. हिन्दुत्वमय वातावरण का निर्माण किया जाता है. इसके साथ ही नए चुनावी अनुमान सामने आने लगते हैं. कर्णाटक में भाजपा के वरिष्ठ नेता व पूर्व मुख्यमत्री येदुरप्पा तो खुलेआम घोषणा करते हैं कि पुलवामा में आतंकवादी आक्रमण और इसके बाद पाकिस्तान में आतंकी ठिकानों पर भारतीय वायूसेना की कार्रवाई से उनके यहाँ चुनाव में लोकसभा की सीटें बढ़ जायेंगी. पार्टी को 22 से अधिक सीटें प्राप्त होंगी . इसका अर्थ है, यदि पुलवामा घटना नहीं होती तो कर्णाटक में भाजपा को कम सीटें मिलनेवाली थीं. 2014 के चुनावों में कर्णाटक की 28 सीटों में से इस पार्टी ने 17 सीटें जीतीं थीं. चूंकि इस समय राज्य में कांग्रेस और जनता दल ( सेक्युलर ) गठबंधन की सरकार है.भाजपा की स्थिति को बहुत आशाजनक नहीं माना जाता है. दस-बारह सीटों का अनुमान लगाया गया था. लेकिन, ताज़ा घटनाक्रम से उत्साहित हो कर येदुरप्पा 22 से अधिक का स्वप्न देख रहे हैं. भाजपा का यह राष्ट्रव्यापी स्वप्न है. इसे प्रोजेक्ट भी कहा जा सकता है. यदि पुलवामा- आतंकवादी आक्रमण और वायु सेना की स्ट्राइक नहीं होतीं तो भाजपा के लिए स्थिति निराशाजनक मानी जा रही थी. पार्टी 150 से अधिक स्थान नहीं जीत सकती, चुनाव परिणामों पर पैनी नजर रखनेवालों का यह आम अनुमान था क्योंकि उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी + बहुजन समाज पार्टी या अखिलेश यादव और मायावती के गठबंधन ने भाजपा के तमाम अनुमानों पर पानी फेर दिया था. बीस से अधिक सीटों की उसे उम्मीद नहीं थी. केंद्र और प्रदेश का शासक दल बुरी तरह से भयभीत था. आज स्थिति में गुणात्मक परिवर्तन आया है. पुलवामा ने उसके अनुमानों को अब ‘पर ‘ लगा दिया हैं; भारतीय सेना के यशोगान,शहीदों के महिमामंडन , उग्रराष्ट्रवाद और देश भक्ति की मोनोपोली के आक्रामक नरेटिव पर सवार हो कर उसे दो सौ के आस -पास सीटें मिल सकती हैं; गठबंधन ढाई सौ के पार ले जा सकता है.लेकिन, मोदी के नेतृत्व में बने 2014 के इतिहास की पुनरावृति नहीं होगी, इस पर सब एकमत हैं. पुनरावृति तभी संभव है जब पुलवामा जैसी किसी असाधारण स्थिति की पुनरावृति घट जाए!
आम धारण या मीडिया प्रचार है कि 2014 के लोकसभा चुनावों में गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी की ज़बरदस्त लहर ‘ मोदी वेव ‘ के कारण भाजपा को 280+ सीट मिल सकी थीं.यह भी माना जाता है कि उत्तर और पश्चिमी भारत के 9 राज्यों ( उत्तरप्रदेश,उत्तरखंड,बिहार,झारखंड ,मध्यप्रदेश,राजस्थान,छत्तीसगढ़ ,गुजरात और महाराष्ट्र ) में अप्रत्याशित सफलता के कारण भाजपा का पूर्ण बहुमत मिल सका. इनमें दो राज्य और शामिल किये जा सकते हैं :हरयाणा, हिमाचल प्रदेश. और दिल्ली को भी शामिल किया जा सकता हैं. इन राज्यों की करीब ३०० सीटें हैं.भाजपा ने इन राज्यों में करीब 90 प्रतिशत सीटें पर जीत दर्ज की थी. क्या भाजपा इस जीत को दोहरा सकेगी क्योंकि कई राज्यों में तो वह अपने चरम पर है. उदहारण के लिए दिल्ली,राजस्थान ,उत्तरखंड और ,गुजरात, की सभी सीटें उसने जीती थीं. इसीप्रकार भाजपा ने , मध्यप्रदेश में 29 में से 27;छत्तीसगढ़ की 11 में से 10;उत्तर प्रदेश की 80 में से 71; बिहार में 40 में से 22; हरयाणा की 10 से 7;महाराष्ट्र की 48 में से 23;और झारखंड में 14 में से 12 सीटों पर कब्ज़ा किया था.उत्तर पूर्व भारत के असम प्रदेश की 14 में से 7 सीटें उसने जीती थीं.क्या इन सीटों पर मोदी-लहर का जादू चल सकेगा ? यह बड़ा सवाल है.
निसंदेह भाजपा के तारणहार नरेन्द्र मोदी देश में सबसे अधिक लोकप्रिय नेता हैं.उनकी भाषण कला प्रभावशाली है. लेकिन, यह समझना होगा कि लहर और लोकप्रियता में अंतर होता है. स्वतंत्र भारत के प्रथम चुनाव के नायक जवाहरलाल नेहरु से लेकर 2014 के नरेन्द्र मोदी तक तीन बार लहरें रहीं हैं : नेहरु लहर ( 1952,57 ); इंदिरा लहर (1971 ,1980); सहानभूति लहर ( 1984 ) और मोदी लहर (2014). 1989 में राजीव गाँधी लोकप्रिय नेता थे लेकिन कांग्रेस को 200 से कम सीटें मिली थीं. भाजपा के वरिष्ठतम नेता अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण अडवानी काफी लोकप्रिय थे. इस जोड़ी की राष्ट्रव्यापी लोकप्रियता के बावजूद भाजपा को कभी भी बहुमत नहीं मिल सका. यहाँ तक कि 1992 के बाबरी मस्जिद -ध्वंस और 1990 की सोमनाथ-अयोध्या रथ यात्रा से अपार लोकप्रियता बटोरने के बावजूद भाजपा को कामचलाऊ बहुमत तक नहीं मिल सका था. 2004 और 2009 की चुनावी कमान तो अडवाणी के ही पास थी. वे अपनी लोकप्रियता के शिखर पर थे. फिर भी कामयाबी उनके हाथों से फिसलती रही.1977 के चुनावों में सम्पूर्ण क्रांति और दूसरी आज़ादी के तथाकथित योद्धा ( मोराजी देसाई ,चरण सिंह ,चन्द्र शेखर,जोर्ज फर्नांडिज़, मधु लिमये, कृष्णकांत, मोहनधारिया, राजनारायण ,कर्पूरी ठाकुर लालू यादव,नीतीशकुमार,भैरों सिंह शेखावत, अटल-अडवाणी ,नानाजी देशमुख आदि )भी दक्षिण भारत में जनता पार्टी की धाक नहीं जमा सके थे. ये सभी नेता अपने अपने क्षेत्रों के साथ साथ देश में भी लोकप्रिय थे. बावजूद इसके, जनता पार्टी अपनी लोकप्रियता को लहर में तब्दील नहीं कर सकी थी.
निश्चित ही लहर व्यक्ति केन्द्रित होती है, न कि पार्टी केन्द्रित. सिर्फ वामपंथी पार्टियाँ ही अपने उम्मीदवारों के चयन व चुनाव में निर्णायक भूमिका निभाती हैं क्योंकि वे व्यक्ति या लहर केन्द्रित नहीं होती हैं. अपने सिद्धांतों के लिए प्रधानमंत्री पद भ त्यागती रही हैं जिसकी मिसाल हैं 1996 में ज्योति बसु. जिन्होनें पार्टी के आदेश पर प्रधानमन्त्री बनाना स्वीकार नहीं किया था जबकि भाजपा के अटल बिहारी वाजपेयी तो 13 दिनों के लिए ही प्रधानमन्त्री बन गए थे. लेकिन, गैर -वामपंथी दलों के लिए लहर और लोकप्रियता बेहद ज़रूरी है. इसके बगैर वे अपनी राजनीति को जिंदा नहीं रख सकते हैं. सो, मोदी के बगैर भाजपा ‘बाँझ ‘ है.यद्यपि उसकी जननी राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ उसके पीछे हमेशा खड़ी रहती है. पर वह हमेशा उसे जीत नहीं दिला सकी है जिसके उदाहरण है विगत के चुनाव। तब क्या मोदी या मोदी-अमित जोड़ी भाजपा की पुनर्सत्ता प्राप्ति की गारंटी? यदि ऐसा होता तो सिर्फ विकास का नारा चलता, पाकिस्तान, पुलवामा, राष्ट्रवाद, सैन्य महिमा मंडन का नहीं. दरअसल, 2014 में मोदी की सफलता मनमोहन सिंह -सरकार की असफलता में छुपी हुई है; 10 वर्ष का शासन व घोटालों की गूँज;कमज़ोर संगठन और निर्णय क्षमता का अभाव; कृषि संकट; अन्ना आन्दोलन और मनमोहन सिंह का मोदी के उभार के सामने कमज़ोर पड़ना; कॉर्पोरेट पूँजी का हरजाईपन और भाजपा व मोदी के साथ वफ़ा; मीडिया का बदला चरित्र ;कमज़ोर विपक्ष व सर्वमान्य नेता का अभाव तथा वोटों का विभाजन।
यह धारणा भी गलत है कि मोदी के भाषणों का जादूई असर होता है. यदि ऐसा रहता तो 2015 के दिल्ली विधानसभा चुनावों में नवस्थापित आम आदमी पार्टी को 70 में से 67, भाजपा को 3 सीटें कैसे मिलतीं? जबकि मोदीजी ने दिल्ली में 5 चुनाव सभाओं को संबोधित किया था. इसी वर्ष बिहार के चुनावों में मोदी और उनके लंगोटिया यार अमित शाह को फिर हार का सामना करना पड़ा था जबकि दोनों ने दर्जनों चुनाव सभाओं की थीं. इसी प्रकार गोवा,मणिपुर में भी भाजपा को बहुमत नहीं मिल सका था. जोड़-तोड़ कर सरकार बनाई। इसके बाद आते हैं गुजरात जोकि मोदी-शाह जोड़ी का गृहराज्य है. विश्व की सबसे बड़ी पार्टी के अध्यक्ष अमित शाह ने दावा किया था कि उनका दल 182 में से 150 सीटें जीतेगा. इसके लिए प्रधानमन्त्री मोदी ने तमाम प्रकार की प्रचार नाटकीयता का प्रदर्शन किया .परिणाम क्या निकला ? भाजपा को सिर्फ 99 सीटें ही मिल सकीं जबकि पिछली विधानसभा में उसने 115 सीटें जीती थीं. यही हाल कर्णाटक के चुनावों में हुआ. येदुरप्पा के दावों और बडबोलेपन के बावजूद साधारण बहुमत तक प्राप्त नहीं कर सकी भाजपा. यहाँ भी इस गुजराती जोड़ी ने ज़मकर चुनावी कलाबाजी की थी. मोदी का जादू बेअसर रहा. मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के बावजूद येदुरप्पा बहुमत नहीं जुटा सके और पद से त्यागपत्र देना पड़ा! कहाँ गया जादू ?
अब अंत में आते हैं उत्तरप्रदेश व त्रिपुरा. उत्तर प्रदेश में 2017 तक समाजवादी पार्टी और बहुजन पार्टी की बारी बारी से सरकारें रहीं. संक्षेप में,’मुलायम -मायावती सिंड्रोम‘ प्रदेश की राजनीति पर छाया रहा है. इस सिंड्रोम से बनते -बिगड़ते रहे हैं सामाजिक समीकरण या सोशल इंजीनियरिंग एक ..तरह से इस सिंड्रोम के प्रति ‘ ऊब, घृणा,असंतोष और छुटकारा ‘ के भाव जनता में रहे हैं. इस स्थिति का फायदा मिला नरेन्द्र मोदी व भाजपा को. शाह का बूथ प्रबंधन बजोड़ था. संसाधनों से लैस. मोदी के स्थान पर कोई भी अच्छा वक्ता होता उसे सफलता मिल सकती थी. फिर समाजवादी पार्टी खुद आत्मसंघर्ष के दौर में थी और मायावती लोकसभा के चुनावों में मिली शर्मनाक पराजय से उभर नहीं पायी थी. जहाँ तक त्रिपुरा का सवाल है, लगभग साढ़े तीन दशक से वहां वामपंथी-सरकार थी. यद्यपि, पूर्व मुख्यमंत्री मानिक सरकार अपने शासन-प्रशासन -चरित्र में अद्वितीय थे. लेकिन, भाजपा के विपुल संसाधनों और अभेद्य बूथ प्रबंधन के सामने वे निरुपाय सिद्ध हुई. फिर लम्बे शासन से जनता में जन्मी उकताहट भी बड़ा कारण रहा.
याद रखें, यही मोदी और यही गुजराती जोड़ी 2018 में हिंदी पट्टी के ही तीन प्रदेशों- राजस्थान,मध्यप्रदेश और छतीसगढ़ के विधान सभा चुनावों में पिटे हैं, पार्टी को जीत नहीं दिलवा सके.आदिवासी बाहुल्य छतीसगढ़ में तो इस पार्टी की दयनीय हार हुई है, 90 में से सिर्फ 15 सीट पर ही सिमट गयी है. मोदी ने यहाँ भी सभाओं को संबोधित किया था. क्या परिणाम निकला ? इसलिए मोदी का जादू ‘ मीडिया मिथ और जुमला‘ है.
मोदी का नारा है कि विपक्ष का गठबंधन ‘महामिलावट गठबंधन‘ है.गौरतलब यह है कि एक तरफ भाजपा व गोदी मीडिया, मोदी-लहर, मोदी सुनामी और मोदी जादू का राग अलापते हैं, वहीँ यह दल राष्ट्रीय,प्रादेशिक,क्षेत्रीय और जिला स्तर के दलों के साथ भी गठजोड़ कर रहा है. करीब दो दर्जन से अधिक छोटे -मोटे दलों के साथ झुक कर समझौता किया है. बिहार में तो अपनी प्रतिष्ठा खो कर कम सीटों ( 17) पर समझौता किया है. इसका एक ही अर्थ है कि खुद में ‘आत्मविश्वास‘ की कमी और मोदी- जादू पर ‘ना-भरोसा ’ है. मोदी की अखिल भारतीय अपील ठंडी पड़ती दिखाई दे रही है. दूसरी बात यह है कि पुलवामा -राग उग्रराष्ट्रवाद, पाक विरोधी राग, अयोध्या -राग और सबका साथ-सब का विकास राग में बेसुरापन भी लगने लगा है. किसी भी चीज़ की ‘ओवरडूइंग’ भी धीरे धीरे नकारात्मक प्रभाव पैदा करने लगती है. तीसरी महत्वपूर्ण बात यह भी है कि 2014 की तुलना में कांग्रेस और अन्य विपक्षी दल अधिक मज़बूत व संगठित हैं.इस बार वोटों का विभाजन कम होगा. भाजपा और मोदी-शाह जोड़ी की सबसे बड़ी चिंता यही है.
राजनीति व चुनाव सम्भावना और धारणा ( परसेप्शन ) के खेल हैं. पिछले संसदीय चुनावों में नरेन्द्र मोदी की जो जन -धारणा बनी थी, इन चुनावों में तिड़की हुई है. वे अती आत्ममोहित, अति महत्वाकांक्षी, अहंकारी,अधिनायकवादी जैसी प्रवृतियों के प्रतीक दिखाई देते हैं. उत्तर सत्य राजनीति में निष्णात! अंतिम दौर में इस परसेप्शन को बदलना ‘ मुमकिन से नामुमकिन ‘ है.
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।