लालबहादुर सिंह
किसान संगठनों के एक धड़े द्वारा आहूत गाँव बन्द आंदोलन का कल आखिरी दिन था। सरकार ने किसानों से कोई वार्ता नहीं की, किसानों ने जगह जगह चक्काजाम के बीच मोदी जी के पुतले जलाकर आंदोलन के इस चरण की समाप्ति की घोषणा की ।
इसे लेकर विभिन्न किसान संगठनो के बीच जो भी मत-मतान्तर रहे हों और इस कारण इस का दायरा और Impact जितना भी रहा हो, यह साफ़ है कि किसान आंदोलन की हर अगली लहर के साथ मोदी जी के शासन करने का नैतिक प्राधिकार तथा सामाजिक आधार थोड़ा और छीज जा रहा है।
यह साफ़ है कि किसान एक सचेत वर्ग (class for itself) के बतौर भारतीय राजनीति के रंगमंच पर दस्तक देने की ओर बढ़ रहे हैं । GDP में घटते हिस्से के कारण, कारपोरेट-परस्त सत्ता प्रतिष्ठान कृषि की चाहे जितनी उपेक्षा करे, सच्चाई यह है कि आज भी यह हमारे देश की लाइफ लाइन है । स्वामीनाथन आयोग ने आगाह किया था, ” Even if agricultural share of GDP has dipped, it’s centrality to life is such that every sector does badly if agriculture does badly.”
मोदीजी द्वारा भंग किये जाने के पहले योजना आयोग ने भी इसी की पुष्टि की थी, ” For overall GDP to grow by 9%, agriculture must grow atleast by 4%, which is now only 1%.”
जाहिर है किसान बढ़ेंगे तभी देश बढ़ेगा !
यह तय है कि भारत के खेत खलिहान ही मोदी राज के लिए वाटरलू बनेंगे । यह किसानों का मोर्चा है जिसने अंततः अश्वमेघ के घोड़े की लगाम थाम ली है और अब निकलने का कोई Escape route नहीं बचा है।
दरअसल, आज जो सवाल किसानों की देश व्यापी लड़ाई की केंद्रीय मांग बन कर उभर रहा है – उपज लागत का ड्योढ़ा दाम–उसे राष्ट्रीय मुद्दा स्वयं मोदी जी ने अपनी 2014 की चुनावी रैलियों में बनाया था।
लेकिन सत्ता में आते ही मोदी सरकार ने एक सौ अस्सी डिग्री का यू टर्न लेते हुए सर्वोच्च न्यायालय में बाकायदा ऐफिडेविट दाखिल कर इस मांग को अव्यवहारिक करार दे दिया, “It will distort market prices.”
अफ़सोस ! किसान अन्य जुमलों की तरह इसे भूल न पाए । अस्तित्व संकट से जूझते किसानों ने इसे अपनी जंग के परचम का सर्वप्रमुख नारा/मांग बना दिया-“स्वामीनाथन आयोग के अनुरूप उपज का ड्योढ़ा दाम दो, वरना गद्दी छोड़ दो।”
किसान अब इस विश्वासघात का बदला लेने पर उतारू है, भाजपा को सत्ता से बेदखल कर!
इस यू टर्न के बाद भोले भाले किसानों की आँख में धूल झोंकने के लिए उनके साथ एक भद्दा मजाक किया गया । प्रधानमंत्री जी ने एक शिगूफा छोड़ दिया कि किसानों की आय दोगुनी की जायेगी ! रैली- दर- रैली, स्वयं मोदी जी और उनके सारे मंत्री इसका जाप करते रहे । बहरहाल, आज नतीजा यह है कि 4 साल में किसानों की आमदनी 1.6 प्रतिशत बढ़ी है ! इस रफ़्तार से आय दोगुना होने में बस 250 साल लगेंगे !
किसान कंगाल होते रहे, फसल बीमा के नाम पर बीमा कंपनियां मालामाल होती रहीं !
जिस देश में 20 साल में 3.5 लाख किसान आत्महत्या कर चुके हैं, हर घंटे 2 किसान अपनी जान दे रहे हैं , वहां मोदी जी के कृषि मंत्री यह बयान देते हैं, वह भी संसद के पटल पर, कि “किसान दहेज, प्रेम प्रसंग तथा नपुंसकता आदि के कारण ऐसा कर रहे हैं।” अभी हाल में किसानों के जले पर नमक छिड़कते हुए उन्होंने कहा कि “किसान आंदोलन प्रचार के लिए स्टंटबाजी है” ।
और ऐसे मंत्री के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं होती ! यह किसानों का अपमान है और दिखाता है कि सरकार किसानों की पीड़ा के प्रति कितनी क्रूर और संवेदनहीन है !
व्यापार की बेहद विपरीत शर्तों –बढ़ती लागत, घटते उपज मूल्य–के कारण क़र्ज़ के जाल में फंस चुके , खुदकशी को मजबूर असहाय किसानों की एकमुश्त कर्जमाफी की मांग , कारपोरेट घरानों का लाखों करोड़ माफ़ करने वाले मोदी जी के वित्तमंत्री जेटली जी ने अपनी अभिजात्य हिकारत और बेरुखी के साथ ठुकरा दी ।
किसानों के इस देश में , उनके साथ धोखाधड़ी करके कोई राज नहीं कर सकता । आज किसानों के आक्रोश की ज्वाला में मोदी राज का अंत दीवाल पर लिखी हुई इबारत है !
जहां तक कर्जमाफी की मांग का सवाल है, वह तो उपज के उचित मूल्य की मांग की corollary है । फसल का जायज दाम मिल जाय तो किसान कर्ज के जाल में फसेंगे ही नहीं, न कर्जमाफी का सवाल उठेगा ! इसीलिए स्वामीनाथन आयोग ने किसानो की कुल लागत-जिसमें जमीन का मूल्य आधारित Rental, परिवार के श्रम का मूल्य तथा सभी लागत सामग्रियों की कीमत शामिल हो- का डेढ़ गुना दाम और सुनिश्चित बाजार मुहैया कराने तथा कृषि में सार्वजनिक निवेश बढ़ाने पर सर्वाधिक जोर दिया ताकि किसान कर्ज के जाल से उबर सकें और उनकी जिंदगी में खुशहाली आये ! उन्होंने 2 हेक्टेयर से कम जोत वाले गरीब और सीमांत किसानों, जिनकी आबादी 90 प्रतिशत है, की ज़िन्दगी में बेहतरी को सबसे बड़ी चुनौती माना था ।
बहरहाल मौजूदा सत्ताधारियों का , इस सबसे कुछ लेना देना नहीं है ।
इस सन्दर्भ में 6 जून को मंदसौर में राहुल गांधी का भाषण सुनकर बहुतो को निराशा हुई होगी । उन्होंने अपने पूरे भाषण में उपज का ड्योढ़ा दाम देने के सवाल पर कोई commitment तो दूर , उसकी कोई चर्चा तक नहीं की !
याद रखा जाना चाहिए, सिद्धरमैया कर्जमाफी और अपनी स्मार्ट पॉलिटिक्स के बावजूद वापसी नहीं कर पाए तो उसके मूल में आत्महत्या को मजबूर कर्नाटक के किसानों का गुस्सा ही था और मोदी के खिलाफ इसी गुस्से ने सारे धनबल-छल-प्रपंच के बावजूद भाजपा को सत्ता तक नहीं पहुंचने दिया ।
जाहिर है किसानों की लड़ाई मोदीराज के भी पार जायेगी ! इसके लिए उन्हें अपनी एकता को फौलादी बनाना होगा तथा अन्य मेहनतकशों के साथ मिलकर स्वतंत्र, सामाजिक-राजनैतिक शक्ति के बतौर खड़ा होना होगा !
(इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के लोकप्रिय अध्यक्ष रहे लालबहादुर सिंह इन दिनों तमाम सामाजिक-राजनीतिक आंदोलनों का सक्रिय चेहरा हैं।)