चुनाव चर्चा : नरेंद्र मोदी के असत्य के चुनावी प्रयोग!

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चन्द्र प्रकाश झा 

असत्य के प्रयोगकर्ता का कोई समकालीन सर्वश्रेष्ठ भारतीय सर्वनाम हो तो संभवतः नरेंद्र दामोदरदास मोदी ही होगा। उन्होंने अपने पैदा होने के बाद असत्य का चुनावी और अथवा राजनीतिक प्रयोग सबसे पहले कब किया यह उनके सिवा शायद ही किसी और को पता हो। हाँ, यह बात भली -भांति बहुतों को पता हैं कि उन्होंने इसका सबसे बड़ा प्रयोग राष्टीय स्वयंसेवक संघ के साथ किया।
उन्होंने असत्य का यह प्रयोग अपने को अविवाहित बता आरएसएस का प्रचारक बनने के लिए किया। कोई अविवाहित ही आरएसएस के प्रचारक बन सकता है। कोई  विवाहित, राष्टीय स्वयंसेवक संघ का ” सर्वश्रेष्ठ ” प्रचारक तो नहीं बन सकता है। मोदी जी का असत्य का यह प्रयोग लोकसभा के 2014 में हुए चुनाव में तब पूरी तरह पकड़ा गया जब उन्हें प्रत्याशी बतौर दाखिल नामांकन पर्चा के साथ अपनी और अपनी पत्नी जसोदा बेन की भी सम्पत्ति आदि के बारे में न्यायिक शपथपत्र निर्वाचन विभाग को देना पड़ा .
गुजरात का मुख्यमंत्री बनने से पहले वह भारतीय जनता पार्टी के शीर्षस्थ नेता लालकृष्ण आडवाणी की सोमनाथ से अयोध्या तक की ” रथयात्रा के सारथी” बने थे, जिससे उनका असत्य का प्रयोग और बढ़ता ही गया।  उनके गुजरात के मुख्य्मंत्री बन जाने के बाद असत्य के प्रयोग की पींगे बहुत ही  बढ़ गई। उन्होंने ‘गोधरा काण्ड’ के तुरंत बाद राज्य में नया चुनाव कराने की अपनी ख्वाहिश में रोड़ा बने तब के मुख्य निर्वाचन आयुक्त लिंगदोह को सार्वजनिक सभा में , कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया की तरह क्रिश्चियन (जेम्स माइकल लिंगदोह) बोल कर धार्मिक ध्रुवीकरण का चक्के को गति दी थी।  लिंगदोह साहब ने अगले दिन सिर्फ इतना कहा कि जो नहीं जानते कि वह नास्तिक हैं, उनसे उनको कुछ नहीं कहना। फिर तब के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की सख्त हिदायत के बाद मोदी जी ने असत्य के अपने उस प्रयोग के लिए सार्वजनिक माफी मांग ली।
मगर उन्होंने  गोधरा काण्ड बाद गुजरात में नया चुनाव तत्काल कराने की अपनी ख्वाहिश पर लिंगदोह साहब की रोकथाम के खिलाफ अपनी राज्य सरकार के माध्यम से सुप्रीम कोर्ट में फ़रियाद कर डाली। सुप्रीम कोर्ट ने उनकी एक ना सुनी और लिंगदोह साहब की इस बात को सही टहराया कि गोधरा काण्ड के तुरंत बाद राज्य में नया चुनाव , स्वतंत्र और निष्पक्ष रूप से नहीं कराया जा सकता है। मोदी जी के असत्य के चुनावी प्रयोग की सुप्रीम कोर्ट में वह पहली हार थी। पर वह कहाँ मानने वाले थे असत्य के अपने प्रयोग से.
जब सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया कि चुनाव के हर प्रत्याशी को अपनी ही नहीं अपनी पत्नी तक की आय, सम्पति के विवरण के किसी भी बिंदू को निरुत्तर नहीं रखना होगा तो मोदी जी ने पहली बार 2014 के लोकसभा चुनाव में अपने नामांकन -पत्र के साथ दाखिल शपथ -पत्र में अपनी पत्नी के बतौर यशोदा बेन का नाम भरा। दुनिया चौंक गयी, पर मोदी जी तो मोदी जी, कत्तई नहीं सम्भले। असत्य के प्रयोग करते गए। उन्होंने उस शपथ पत्र में अपनी पत्नी की आय आदि के कई कॉलम भरे ही नहीं। उन्होंने अपनी अर्जित शिक्षा के बारे में भी असत्य के प्रयोग किए जिस पर अदालती विवाद पूर्णरूपेण अनिर्णीत ही है। (दिल्ली विश्वविद्यालय ने मोदी जी की डिग्री पर अपनी रहस्यमयी चुप्पी के लिए कई हास्यास्पद तर्क़ दिए हैं-संपादक)
निर्वाचन आयोग से मोदी जी का पंगा पुराना है। लोकसभा के पिछले चुनाव में ही वह गुजरात मे अपने मतदान केंद्र पर वोट डालने जाते समय अपने अधकटे कुर्ता पर अपनी पार्टी का चुनाव चिन्ह ‘कमल’ का बैज टांगे हुए थे। यह निर्वाचन आयोग की अनिवार्य आदर्श चुनाव आचार संहिता का दिन दहाड़े उल्लंघन था। फिर भी वह बच गए, क्योंकि वह मोदी जी हैं और अपने असत्य के प्रयोग को सत्य का प्रयोग सिद्ध करने की कला और विज्ञान में सिद्धहस्त हैं।
चुनावी दुमछल्ला  : 
निर्वाचन आयोग की सूची में नैनीताल लोकसभा सीट पर 1996 के चुनाव में तब कांग्रेस के विजयी उम्मीदवार नारायण दत्त तिवारी के खिलाफ बसपा की प्रत्याशी नैना बलसावर को महिला के बजाय पुरुष बताया गया जबकि वह ‘ मिस इंडिया ‘ रह चुकी हैं। यह अपने आप बहुत कुछ बयां कर देता है हमारी चुनाव व्यवस्था की गड़बड़ियों के बारे में। अगर निर्वाचन विभाग ईवीएम -से -पहले के ज़माने में किसी भी कारण से, चाहे वह तकनीकी हो या फिर मानवीय चूक ही हो  क्यों न हो, लोकसभा चुनाव के प्रत्याशियों की ऑफिसियल लिस्ट में किसी भी पूर्व मिस इंडिया को बिन उसके वैज्ञानिक लैंगिग परिवर्तन कराए ‘ मर्द ‘ बना सकता है तो “ईवीएम और वीवीपीएटी” जैसी मशीनों के ज़माने में कुछ भी कर सकता है।  किन्नर में भी तब्दील कर सकता है , कागज पर ही सही ।
 (मुख्य तस्वीर की जगह जो कार्टून दिख रहा है उसे राज ठाकरे ने बनाकर 2017 की गाँधी जयंती पर प्रकाशित किया था।)


मीडियाविजिल के लिए यह विशेष श्रृंखला वरिष्ठ पत्रकार चंद्र प्रकाश झा लिख रहे हैं, जिन्हें मीडिया हल्कों में सिर्फ ‘सी.पी’ कहते हैं। सीपी को 12 राज्यों से चुनावी खबरें, रिपोर्ट, विश्लेषण, फोटो आदि देने का 40 बरस का लम्बा अनुभव है।