संसद-चर्चा
राजेश कुमार
झूठ को झूठ की तरह पहचानना असंसदीय है, इसलिये कहना होगा कि यह सरकार का एक और असत्य था- असत्य के कई प्रयोगों में से एक। यह असत्य था और संसद में बोला गया था। दिलचस्प यह भी है कि जो सूचना और प्रसारण राज्यमंत्री है, खेल भी उन्हीं के जिम्मे है। सो सूचना और प्रसारण राज्यमंत्री कर्नल राज्यवर्धन राठौर ने अपनी जिम्मेदारी का निर्वाह किया और कहा, ‘‘जिस चैनल की ये बात कर रहे हैं, उसकी टी.आर.पी. लगातार गिर रही है, क्योंकि लोग उसको देखना नहीं चाहते। अब उसका जिम्मा ये सरकार के उपर डाल रहे हैं। ये वही चैनल है जो पूरे देश में अपोजीशन फैलाने की कोशिश कर रहा है।’’
वह ए.बी.पी. चैनल से पुण्य प्रसून वाजपेयी सहित दो ऐंकरो और एक सीनियर पत्रकार की औचक विदाई पर पिछले 3 अगस्त को लोकसभा में कांग्रेस के नेता मल्लिकार्जुन खडगे की टिप्पणियों पर प्रतिक्रिया व्यक्त कर रहे थे।
राज्यवर्धन की पूरी बात असत्य भी नहीं थी। अगर सत्ता से सवाल करने, उसे प्रश्नांकित करने के मीडिया-कर्म को अपोजीशन मान लिया जाये तो यह सच ही था कि साष्टांगों, गोदी और एम्बेडेड मीडिया संस्थानों की भीड में ‘ये वही चैनल है, जो पूरे देश में अपोजीशन फैलाने की कोशिश कर रहा है’, खासकर अभिसार शर्मा का कार्यक्रम और पुण्य प्रसून का ‘मास्टर स्ट्रोक’। मंत्री जी ने तो ‘अपोजीशन फैलाने’ का विरोध 9 जुलाई को भी किया था, जब ‘मास्टर स्ट्रोक’ में छत्तीसगढ की चंद्रमणि कौशिक से बातचीत के आधार पर दावा किया गया था कि उसने प्रधान सेवक से वीडियो कांफ्रेंसिंग में खेती से अपनी आय दोगुनी होने की बात कही थी, क्योकि ‘राज्य में कांकेर जिले से आये अधिकारियों ने उसे ऐसा ही कहने की ट्रेनिंग दी थी’। फिर पुण्य प्रसून का अपराध इतना भर ही नहीं था। उनका ‘मास्टर स्ट्रोक’ ऐसा मुसलसल अपराध था कि जुलाई के करीब दूसरे हफ्ते से रात 9 बजते ही चैनल पर ‘पुअर सिग्नल/ नो सिग्नल’ का खेल शुरू हो जाता था और यह रात 10 बजे तक चलता था, जबकि उसी अवधि में दूसरे चैनलों का प्रसारण निर्बाध आता था। 2 अगस्त को आखिरकार ए.बी.पी. से इस्तीफा देने के बाद खुद पुण्य प्रसून ने ‘द वायर’ में इस खेल का भी खुलासा किया है। उसे दुहराना बेमानी होगा। इरादा उस पूरे प्रकरण पर फिर से सब कुछ कहने का भी नहीं है।
प्रसंग केवल इतना कि 3 अगस्त को दोपहर बाद लोकसभा में कांग्रेस के नेता मल्लिकार्जुन खडगे ने जब सरकार के दबाव में दो सीनियर पत्रकारों को ए.बी.पी. से बाहर का रास्ता दिखाने का मसला उठाया और आरोप लगाया कि ‘इस सरकार के पिछले कुछ वर्षों में मीडिया पर पाबंदी लगाने के कई किस्से हो चुके हैं। जब भी मीडिया में सरकार के विचार के खिलाफ या रियलिटी चेक जैसी चीजें आती हैं, तब उसको डराने-धमकाने और उसका मुंह बंद करने’ का प्रयास षुरू हो जाता है। तब सूचना और प्रसारण राज्यमंत्री ने -‘वह एक प्राइवेट चैनल है’, ‘यह प्राइवेट चैनल का प्राइवेट डिसीजन है’ – की अध्यक्षीय टिप्पणियों के बीच इस प्राइवेट डिसीजन का व्यावसयिक तर्क पेश किया था कि उसकी तो टी.आर.पी. गिर रही थी, क्योंकि लोग उस कार्यक्रम को देखना नहीं चाहते थे।
पर टी.आर.पी. के बारे में संसद में मंत्री के इस दावे का सच क्या था?
इत्तफाकन, चैनल के चीफ आॅपरेटिंग आॅफिसर अविनाश पांडेय ने भी प्रकारांतर से इसे ‘रियलिटी चेक’ बताया था और कहा था कि ‘मास्टर स्ट्रोक एक और प्राइम टाइम न्यूज शो भर नहीं है, यह हमारी ओर से लोगों को देश के बारे में, उनके समाज के बारे में सच बताने और उन्हें सुविज्ञ फैसले की क्षमता से लैस करने का गंभीर प्रयास है।’ रिपोर्टें बताती हैं कि इस प्रयास को सराहा भी गया। अप्रैल के पहले सप्ताह में ‘मास्टर स्ट्रोक’ शुरू होने से पहले उसी टाइम स्लाॅट में कार्यक्रम आता था- ‘जन-मन’ और कार्यक्रम की औसत टी.आर.पी. थी- 7, लेकिन ‘मास्टर स्ट्रोक’ का प्रसारण शुरू होने के बाद इसमें लगातार सुधार हुआ और 5 और 12 जुलाई को आई साप्ताहिक टी.आर.पी. रिपोर्ट के अनुसार उस कार्यक्रम की औसत टी.आर.पी. 12 थी। बल्कि झारख्रड के गोड्डा में गौतम अडानी समूह के थर्मल पावर प्रोजेक्ट पर खास रिपोर्ट के दिन तो यह 17 तक पहुंच गयी। लेकिन मंत्री का सच इन रिपोर्टों से स्वायत्त था और इसे असंसदीय भाषा में झूठ कह देने की मनाही है।
एक और घटना की ओर चलें। बात तो रक्षा मंत्री निर्मला सीतारमन की भी असत्य नहीं थी, जब गत 20 जुलाई को अविश्वास प्रस्ताव पर चर्चा के दौरान उन्होंने कहा था कि ‘भारत और फ्रांस के बीच गोपनीयता का एक करार है, 25 जनवरी 2008 को तत्कालीन रक्षा मंत्री ए.के. एंटनी ने इस करार पर हस्ताक्षर किये थे और दोनों देशों की सरकारों के बीच हुये राफेल सौदे के ‘तहत विनिमय की गयी सामग्री और वर्गीकृत सूचनायें गोपनीयता करार के अनुच्छेद 10 के तहत संरक्षित’ हैं। आखिर कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुअल मैक्रोन के साथ अपनी एक निजी मुलाकात और बातचीत के हवाले से यही तो कहा था, ‘‘फ्रांस के राश्ट्रपति ने मुझे बताया कि ऐसा कोई पैक्ट हिन्दुस्तान की सरकार और फ्रांस की सरकार के बीच में नहीं है।’’ पैक्ट तो है, भले ‘ऐसा’ न हो जिससे कीमत बताने में बाधा हो और निर्मला सीतारमन ने जिसकी प्रति सदन के पटल पर भी रखी।
राहुल गांधी ने चर्चा में सीतारमन पर भले आरोप लगाया हो कि देश को इस लडाकू विमान के दाम बताने के सार्वजनिक आश्वासन के बाद ‘डीफेंस मिनिस्टर ने क्लीयरली बोला कि मैं यह आंकडा नहीं दे सकती हूं, क्योंकि फ्रांस की सरकार और हिन्दुस्तान की सरकार के बीच में एक सीक्रेसी पैक्ट है।’ लेकिन कीमत की गोपनीयता इस पैक्ट से संरक्षित होने का दावा स्वयं रक्षा मंत्री ने सदन में उस दिन अपने हस्तक्षेप में भी नहीं किया। इसके लिये तो उन्होने इंडिया टुडे टी.वी. का नाम लिये बिना एक चैनल के साथ फ्रांस के राश्ट्रपति के इंटरव्यू का हवाला दिया था। रक्षा मंत्री ने कहा था, ‘‘राफेल सौदे का व्यापारिक ब्यौरा उद्घाटित करने के बारे में जब एक प्रश्न राष्ट्रपति से पूछा गया तो मेरे साथियों ने मुझे बताया है कि राष्ट्रपति का जवाब था कि प्रतिस्पर्धी तो और भी हैं और हम उन्हे सौदे का ब्यौरा जानने की इजाजत नहीं दे सकते।’’
दिलचस्प यह कि उसी इंटरव्यू में मैक्रोन ने तो यह कहा ही था कि ‘यह भारत सरकार को तय करना है कि वह विपक्ष और संसद से राफेल सौदे के कौन से ब्यौरे साझा करना चाहती है’, व्यापारिक प्रतिस्पर्धियों की परवाह किये बिना 16 फरवरी 2017 को रिलायंस डीफेंस लिमिटेड और 8 मार्च 2017 को राफेल की निर्माता कंपनी ‘डसाॅल्ट एवीयेशन’ प्रेस विज्ञप्ति जारी कर विमान की कीमत का खुलासा कर रही थी। और इस खुलासे में सबसे आगे थी स्वयं भारत सरकार, जिसने 18 नवम्बर 2016 को ही लोक सभा में प्रश्न संख्या 533 के लिखित उत्तर में कीमत बता दी थी। ये और बात है कि कीमतों के तीनों खुलासे में एकरूपता नहीं थी।
रक्षा मंत्री ने तो यह तक कहा था कि फ्रांस में अपै्रल 2015 में 36 रफाल खरीदने के सौदे पर सहमति की प्रधानमंत्री की घोषणा से पहले रक्षा मामलों की कैबिनेट कमेटी की मंजूरी लेने की वांछित प्रक्रिया पूरी कर ली गयी थी। भला हो कि उन्होंने यह बात संसद में नही, बल्कि 17 नवम्बर 2017 को रक्षा सचिव संजय मित्रा और भारतीय वायुसेना के खरीद प्रमुख एयर मार्शल रथुनाथ नाम्बियार के साथ यहां एक प्रेस कांफ्रेंस में कही थी, वरना रक्षा राज्य मंत्री सुभाष भामरे 12 मार्च को कांग्रेस के विवेक तन्खा के प्रश्नों के लिखित उत्तर में राज्यसभा में उद्घाटित कर चुके हैं कि रक्षा मामलों की कैबिनेट कमेटी ने 24 अगस्त 2016 को इस सौदे को मंजूरी दी, यानि पेरिस में प्रधानमंत्री की घोषणा के 16 महीने बाद।
पिछले बजट सत्र के आखिरी 23 दिनों में रोज-रोज वाई.एस.आर. कांग्रेस, टी.डी.पी., कांग्रेस द्वारा अविश्वास प्रस्तावों की नोटिस दिये जाने, वेल में सरकार के प्रच्छन्न सहयोगी अन्नाद्रमुक के सदस्यों के दैनिक जमाव और चंद मिनटों में कार्यवाही स्थगित करने की कथा सर्वज्ञात होने के बावजूद लोक सभा में गतिरोध के लिये केन्द्रीय मंत्रियों ने सोनिया गांधी, राहुल गांधी को जिम्मेदार भी संसद के बाहर बताया, यद्यपि संसद भवन परिसर में, गांधी की प्रतिमा के सामने। पर जरा दो साल पीछे लौटें। हैदराबाद विश्वविद्यालय में 17 जनवरी 2016 को दलित शोधार्थी रोहित वेमुला की आत्महत्या और यहां उसी के आसपास जे.एन.यू. में देश-विरोधी नारों को लेकर उस समय के राष्ट्रवादी पुलिस प्रमुख से लेकर वकीलों की एक बडी जमात उबल रही थी। दो साल बाद हम जानते हैं कि उस प्रकरण में तब जिन छात्र नेताओं को गोदी चैनलों से लेकर सडक तक पर निबटा देने का जुनून, उनके खिलाफ चार्जशीट भी नहीं फाइल की जा सकी है। तो 24 फरवरी 2016 को अपराह्न 3 बजे के करीब लोकसभा में चर्चा उसी माहौल में शुरू हुई थी और विपक्ष के हमलों के बीच तब की मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति ईरानी ने कहा था, ‘‘पुलिस जब शाम के 7.20 पर रोहित के हाॅस्टल पहुंची तो उन्होंने उसका कमरा खुला पाया। उसका शव टेबल पर रखा था।…. किसी ने डाक्टर को उस बच्चे के पास जाने, उसकी जान बचाने का प्रयास नहीं करने दिया। उसके शव का राजनीतिक इस्तेमाल करने की दिलचस्पी ज्यादा थी। पुलिस को भी अगली सुबह साढे छह बजे तक उसके पास नहीं जाने दिया गया।’’
लेकिन लोकसभा में इस चर्चा के दो दिन बाद रोहित की मां राधिका और भाई राजा वेमुला ने दिल्ली में एक प्रेस कांफ्रेंस की थी। दोनों ने ईरानी के वक्तव्य को सफेद झूठ बताया था। राजा वेमुला ने बताया था कि रात साढे आठ बजे जब वह परिसर में पहुंचा तो जहां शव पडा था, वहां उसने डाक्टर को भी देखा और पुलिस को भी। प्रेस कांफ्रेंस से एक दिन पहले यूनीवर्सिटी की ‘डाॅक्टर आॅन ड्यूटी’ डा. एम. राजश्री ने भी इस दावे को गलत बताया था कि डाक्टरों को रोहित के पास जाने और उसे बचाने की कोशिश नहीं करने दिया गया।
लेकिन स्मृति ईरानी ने लोकसभा में साफ किया था कि ‘वह ये सब अपनी तरफ से नहीं कह रही हैं, यह पुलिस ने कहा है’। प्रसंगवश याद करें कि अभी 3 अगस्त को रक्षा मंत्री निर्मला सीतारमन ने भी राफेल सौदे का व्यापारिक ब्यौरा उद्घाटित करने पर फ्रांस के राष्ट्रपति की आपत्ति एक चैनल से प्रसारित उनके इंटरव्यू में खुद नहीं सुनी थी, बल्कि उनके साथियों ने उन्हें बताया था कि राष्ट्रपति का जवाब था कि प्रतिस्पर्धी तो और भी हैं और उन्हे सौदे का ब्यौरा जानने की इजाजत नहीं दे सकते।’’
कहीं ‘पुलिस या साथियों के हवाले से बयान देना’ बाहर रचे जानेवाले उस स्वांग का संसदीय संस्करण तो नहीं, जिसमें पहले भूमिका बनायी जाती है कि
‘अगर आपमे से किसी को यह जानकारी है तो जरूर बताना, मुझे नहीं है, मैंने जितना इतिहास पढा है, मेरे ध्यान में नहीं आया।’ और फिर सवाल की शक्ल में एक असत्य सरका दिया जाता है कि ‘देश के लिये मर मिटने वाले, आजादी के जंग के अंदर जान खपानेवाले, वीर शहीद भगत सिंह जब जेल में थे, मुकदमा चल रहा था, क्या कोई कांग्रेसी परिवार का व्यक्ति भगत सिंह को मिलने गया था?’ जबकि नेहरू का जेल जाकर भगत सिंह से मिलना एक ऐतिहासिक तथ्य है।
एक रूप हाइपोथीसिस का भी हो सकता है, परिकल्पना का – वैज्ञानिक परिकल्पना का नहीं, जिसमें विगत के प्रेक्षणों को आधार बनाकर आगे अध्ययन का प्रस्ताव होता है। बल्कि इस हाइपोथीसिस में प्रेक्षणों को झुठला दिया जाता है और अघ्ययन -शोध की सिफारिश नहीं की जाती, निष्कर्ष प्रस्तावित कर दिया जाता है, जैसे कि यह कि ‘‘अगर नेहरू नहीं, सरदार पटेल देश के पहले प्रधानमंत्री होते, तो कश्मीर पूरा का पूरा हमारा होता।’ यह बात और किसी ने नहीं, स्वयं प्रधान सेवक ने बजट सत्र में राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद के प्रस्ताव पर चर्चा का उत्तर देते हुये गत 7 फरवरी को लोक सभा में कही थी।
झूठ और भी होंगे। यह तो बानगी है, वह भी केवल संसद के भीतर बोले गये झूठ की, बाहर तो वे बेशुमार हैं और उन सबकी पड़ताल शायद उतनी ही श्रम-साध्य होगी, जितनी हाल ही में प्रकाशित ‘वाशिंगटन पोस्ट’ का यह अध्ययन कि अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने रिपब्लिकन पार्टी के उम्मीदवार बनने के बाद से सार्वजनिक तौर पर जो कुछ कहा है उसमें कुल 2,140 झूठ, असत्य या गलतियां देखी गयी हैं। यह अध्ययन हम तो पता नहीं कब करेंगे, इस बीच अमरीका से लेकर खुद हमारे देश में भी इन असंसदीय अभिव्यक्तियों के लिये ‘उत्तर-सत्य’ और ‘वैकल्पिक तथ्य’ जैसे सम्मानजनक पदों का संधान और चलन शुरू हो गया है।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं जिन्हें संसद की रिपोर्टिंग करने का लम्बा अनुभव है ।