जेरूसलम की हमारी दास्तान पिछली कड़ी साल 1001 में ख़त्म हुई थी यानी हम पिछली सहस्त्राब्दी में प्रवेश कर चुके हैं. मिस्र का शासक अल-हाकिम की माता ईसाई थी. इस नाते और इस्माइली शियाओं यानी फ़ातमियों की नीति की वज़ह से जेरूसलम और राज्य के अन्य हिस्सों में ईसाईयों और यहूदियों के साथ सहिष्णुता का बर्ताव होता था. इन समुदायों को अनेक अधिकार भी दिए गए. लेकिन अल-हाकिम न्यायप्रिय और सादगीपसंद होने के साथ क्रूर और हिंसक भी था. उसके व्यवहार में अस्थिरता थी.
साल 1003 में अचानक ख़लीफ़ा अल-हाकिम ने फ़ुस्तात के सेंट मार्क चर्च को गिराने का आदेश दे दिया. बहाना यह था कि यह चर्च बिना मंज़ूरी के बना है जो कि इस्लामी क़ानूनों के ख़िलाफ़ है. उसकी जगह अल-रशीदा मस्जिद बना दी गयी. इस मस्जिद के आहाते में पास की यहूदी और ईसाई क़ब्रिस्तानों को भी शामिल कर लिया गया. फ़ुस्तात वह जगह थी जहाँ 641 में इस्लामी जीत के बाद मिस्र की पहली राजधानी बनायी गयी थी. इसके साथ ही पूरे मिस्र में कई जगहों पर ईसाई संपत्ति को ज़ब्त किया गया, सलीबों को जलाया गया और चर्चों की छतों पर छोटी मस्जिदें बना दी गयीं. ख़लीफ़ा पर उन अफ़वाहों का असर भी था जिनमें कहा जाता था कि फ़लस्तीन में हुए बद्दूओं के हालिया हमलों के पीछे ईसाइयों और बैजेंटाइन शासन का हाथ था. उसी दौरान ईस्टर के मौक़े पर सज-धज के जेरूसलम जा रहे कॉप्टिक ईसाइयों से भी अल-हाकिम चिढ़ गया था. ईस्टर जेरूसलम में बड़ा अवसर होता था और दुनियाभर से प्रमुख ईसाई वहाँ जमा होते थे. यह भी माना जाता था कि बैजेंटाइन शासक भी भेष बदलकर आया करते थे. अल-हाकिम को एक वरिष्ठ शिया प्रचारक क़ूतेकिन अल-अदूदी ने बताया था कि ईसाईयों के पवित्र आग के आयोजन में जादू दिखाने से मुस्लिम मानस में भ्रम फैल रहा है. जेरूसलम के ईसाई चर्चों की संपत्ति का चर्चा भी ख़ूब था.
असंतुलित अल-हाकिम ने 1009 के सितंबर में जेरूसलम के दो प्रमुख ईसाई धर्मस्थलों को नष्ट करने का आदेश दे दिया. इन इमारतों की नींव खोदने और खम्भे तक उखाड़ लेने के निर्देश थे. यह ऐसा भयावह कृत्य था कि मुस्लिम समुदाय को भी यह रास नहीं आया. इसके बाद दूसरे धर्मों के माननेवालों को इस्लाम अपनाने के लिए मजबूर किया जाने लगा. ईसाईयों को गले में लोहे की भारी सलीब लटका कर और यहूदियों को लकड़ी का टुकड़ा लटकाकर चलना होता था. यहूदियों के गले में लटके टुकड़े गाय के गर्दन में बाँधे जानेवाली चीज़ की तरह थे और उन्हें घंटी भी लटकानी होती थी, ताकि उनके आने की आहट पहले ही मिल जाए. यह उन्हें उस सुनहरे बछड़े की याद दिलाने के लिए किया था जिसका उल्लेख हमें हज़रत मूसा की कहानी में मिलता है. साल 1011 में फ़ुस्तात में यहूदियों की एक शवयात्रा पर पत्थर मारे गए तथा जेरूसलम के उनके पूजाघर को तहस-नहस कर दिया गया और धार्मिक चीज़ों को जला दिया गया. कुछ ने ऐसे हालात में इस्लाम अपना भी लिया, तो कई ईसाई बैजेंटाइन इलाक़ों में भाग गए.
लेकिन ख़लीफ़ा अल-हाकिम के क़हर से मुसलमानों को भी नहीं बचना था. साल 1016 में उसने ऐलान कर दिया कि वह एक दैवी अवतार है तथा उसे मनुष्यता को नया संदेश देने के लिए धरती पर भेजा गया है. शुक्रवार की प्रार्थनाओं में ख़ुदा की जगह उसने अपना नाम लेने का आदेश भी जारी कर दिया. इससे मुसलमान भड़क उठे और काहिरा में दंगे भी हुए. ख़लीफ़ा को असर नहीं हुआ और 1017 में उसने रमज़ान में रोज़ा रखने की मनाही तक कर दी. उसी साल उसने ईसाईयों और यहूदियों के ख़िलाफ़ दिए गए आदेश वापस कर लिए तथा उनकी संपत्ति को लौटा दिया. लेकिन जो मुसलमान उसका आदेश नहीं मानते थे, उन्हें भयंकर यातना दी जाती थी. बहरहाल, 1021 में एक रात वह अकेले गदहे पर सवार होकर महल से बाहर पहाड़ियों की ओर गया और लौट कर नहीं आया. तब उसकी आयु सिर्फ़ 36 साल थी.
अल-हाकिम के राजा बनने की कहानी भी दिलचस्प है. जब उसके पिता ख़लीफ़ा अज़ीज़ की मौत हुई थी, तब उसकी उम्र 11 वर्ष थी. मरने से पहले पिता ने उसे बुलाया और दुलार करने के बाद खेलने के लिए बाहर भेज दिया. कुछ देर बाद उसकी मौत के बाद दरबारी नए इमाम और ख़लीफ़ा को खोजने निकले, तो वह एक पेड़ पर चढ़ा हुआ था. शुरू में वह कविता, खगोल विज्ञान और दर्शन का प्रेमी था. उसे सादगी से जीना पसंद था. वह काहिरा की सड़कों पर आम लोगों से बातें करता था. पर जवान होते ही वह सनकी होने लगा था. आख़िरी सालों में तो उसने अपने दरबारियों, शिक्षकों, काज़ियों, कवियों, रिश्तेदारों, रसोईयों का भी क़त्लेआम करा दिया था. अनेक हत्याएँ उसने ख़ुद अपने हाथों से की थी.
ऐसे ग़ायब होने के बाद उसके अनुयायियों में उसकी मान्यता और बढ़ गयी. वे कहने लगे कि वह किसी स्त्री से नहीं पैदा हुआ था और न ही वह मरा है. भले ही अल-हाकिम का अता-पता नहीं चला, लेकिन उसका गदहा और ख़ून से सने कुछ कपड़े ज़रूर मिले. इन आधारों पर यह क़यास लगाया जाता है कि अल-हाकिम की हत्या ख़ुद उसकी बहन सित्त अल-मुल्क ने करा दिया था. अल-हाकिम के अनुयायियों और क़रीबियों को फ़ातिमी सेना ने मार डाला. जो बच गए, वो भाग निकले. उन्हीं के वंशज आज के लेबनान के द्रुज़ हैं.
अल-हाकिम के बाद उसकी बहन ने उसके बेटे ज़हीर को ख़लीफ़ा बना दिया, लेकिन वह अभी बच्चा था. इस कारण असली शासन बहन के हाथ में रहा. उसने जेरूसलम की तबाह ईसाई इमारतों को फिर से बनाने की अनुमति दी और 1023 में जेरूसलम के ईसाई प्रमुख निसेफ़ोरस को कुस्तुन्तुनिया भी भेजा. उसी साल सित्त अल-मुल्क की मौत भी हो गयी. अगले साल बद्दू विद्रोह के कारण शहर और आसपास के इलाक़ों के हालात और ख़राब होते गए. फ़ातमियों को फ़लस्तीन को फिर से अपने हाथ में लेने में कुछ साल लग गए थे. साल 1029 में ही उनका नियंत्रण क़ायम हो सका. साल 1033 के भयानक भूकम्प ने भी तीनों धर्मों की इमारतों और पूजा स्थलों को तबाह किया. जेरूसलम और फ़लस्तीन के यहूदियों की स्थिति तो और भी बदतर थी. इनकी आबादी भी बढ़ गयी थी क्योंकि 940 के दशक में बग़दाद और उत्तरी अफ़्रीका में लगातार बवालों से यहूदी पलायन कर फ़लस्तीन के विभिन्न इलाक़ों में बस गए थे. ज़हीर और बाद के ख़लीफ़ाओं ने सहिष्णुता की इस्माइली नीति को फिर से लागू किया और जेरूसलम की मरम्मत करायी. उन्होंने इस काम में बैजेंटाइन शासकों से भी सहायता लेने से गुरेज़ नहीं किया.
इस दौरान यह भी देखा गया कि बड़ी संख्या में ईसाई, यहूदी और मुसलमान तीर्थयात्रा के लिए जेरूसलम आने लगे. शायद अल-हाकिम की तबाही ने शहर को लेकर इन धर्मावलम्बियों में शहर के लिए अनुराग को बहुत बढ़ा दिया था. वहाँ मुसलमानों में सुन्नी और शिया का भेद तो था ही, यहूदियों के भी दो ख़ेमे थे. ईसाईयों में भी पश्चिम यानी रोम के पोप और शासक तथा पूर्व यानी बैजेंटाइन और ऑर्थोडॉक्स चर्च का भेद भी बढ़ने लगा था. यह अलगाव आज भी ईसाईयत में है. पर, इन सबके बावजूद शहर में ग़रीबी, भूखमरी, अंधविश्वास और सुबहा का माहौल था.
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