आज के हिंदी अख़बारों के संपादकीय: 01 मार्च, 2018

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नवभारत टाइम्स

सुधार की कवायद

लगातार बैंकिंग घोटालों से परेशान सरकार ने बैंकों में सुधार के लिए कुछ कदम उठाए हैं। वित्त मंत्रालय ने मंगलवार को सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को 50 करोड़ रुपये से अधिक के सारे एनपीए खातों की जांच करने और उनमें किसी तरह की गड़बड़ी मिलने पर इसकी सूचना सीबीआई को देने का निर्देश दिया है। साथ ही पीएमएलए, फेमा और अन्य प्रावधानों के उल्लंघन की जांच के लिए उन्हें प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) और राजस्व आसूचना निदेशालय (डायरेक्टोरेट ऑफ रेवेन्यू इंटेलिजेंस) के साथ मिलकर चलने को कहा है। तमाम बैंकों को परिचालन और तकनीकी जोखिमों से निपटने के लिए 15 दिनों के भीतर एक पुख्ता व्यवस्था तैयार करने के निर्देश भी दिए गए हैं। वित्तीय सेवा विभाग के सचिव राजीव कुमार ने कहा कि बैंकों के कार्यकारी निदेशकों और मुख्य तकनीकी अधिकारियों को जोखिम से निपटने के लिए अपनी तैयारियों को व्यवस्थित करने के मकसद से एक कार्ययोजना तैयार करने के लिए कहा गया है। उधर रिजर्व बैंक ने सभी बैंकों को 30 अप्रैल तक स्विफ्ट प्रणाली को कोर बैंकिंग प्रणाली के साथ जोड़ने का निर्देश दिया है। इससे लेन-देन को लेकर बैंकों की अंदरूनी निगरानी प्रक्रिया मजबूत होगी। देखना है, बैंकों के आला अधिकारी इस समस्या से निपटने के लिए अपनी तरफ से क्या कदम उठाते हैं। एक बात तो तय है कि सीबीआई या प्रवर्तन निदेशालय के बूते इस बीमारी का इलाज संभव नहीं। ये एजेंसियां बाकी मामलों में किस तरह से काम कर रही हैं, यह जगजाहिर है। समाधान ऐसा ढूंढना होगा कि जालसाजी की भनक शुरुआत में ही मिल सके और एनपीए का ढेर लगने से पहले उसे रोका जा सके। दरअसल बैंकों की यह हालत काफी कुछ राजनीति के कारण हुई है। बड़े स्तर पर एनपीए की बीमारी 2009 के आसपास शुरू हुई, जब मंदी से मुकाबले के नाम पर बड़े उद्योगपतियों ने भारी-भरकम कर्ज लिए, लेकिन इसका कोई उत्पादक इस्तेमाल नहीं कर सके। उत्पादन बढ़ाने के वायदे और कर्जखोरी के बीच एक स्पष्ट विभाजक रेखा खींची जानी चाहिए थी, जो नहीं खींची जा सकी। इस तरह कुछेक उद्योगपतियों के लिए बैंक दुधारू गाय बन गए। जब जिसके मनमाफिक सरकार रही उसने उतना ज्यादा दुहा, और यह सिलसिला आज भी रुका नहीं है। इस दौरान बैंक अपने ही नियमों को लागू करने में असमर्थ रहे और जब-तब उनके अफसरों ने भी बहती गंगा में हाथ धोए। दरअसल बैंकों में भी एक दोहरी व्यवस्था चल रही है। उद्योगपतियों के लिए बैंक कुछ और हैं, साधारण लोगों के लिए कुछ और। आखिर वजह क्या है जो सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के कहने के बावजूद सभी डिफॉल्टरों के नाम उजागर नहीं किए/ सुधार किए जाएं, पर उससे पहले बैंकों में राजनीतिक दखल बंद हो।


जनसत्ता
टकराव का हासिल
किसी भी सरकार के सुचारु कामकाज के लिए जरूरी है कि प्रशासनिक अधिकारियों से उसका तालमेल सही रहे। लेकिन हाल के दिनों में दिल्ली में जो हुआ, वह अप्रत्याशित है। गौरतलब है कि उन्नीस फरवरी की रात दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के घर हुई एक बैठक में मुख्य सचिव अंशु प्रकाश से मारपीट की खबर सामने आई। उसी घटना के बाद दिल्ली सरकार और अफसरशाही के बीच जो गतिरोध पैदा हुआ, वह अब भी कायम है और उसका सीधा असर सरकारी कामकाज पर पड़ा है। इस खींचतान के बीच मंगलवार को पहला मौका था जब दिल्ली मंत्रिमंडल और नौकरशाही की बैठक हुई। पिछले कई दिनों से माफी और कानूनी कार्रवाई की मांग पर अड़े होने के बावजूद शीर्ष स्तर के अफसर बैठक में शामिल हुए। फिर भी यह साफ है कि गतिरोध टूटा नहीं है, क्योंकि शायद यह पहली बार है जब किसी राज्य सरकार के मंत्रिमंडल की बैठक सुरक्षा के साए में हुई। दरअसल, अगले वित्त वर्ष के दिल्ली के बजट के प्रारूप से संबंधित बैठक में आए मुख्य सचिव अंशु प्रकाश के अलावा गृह विभाग के प्रधान सचिव मनोज परीदा और वित्त विभाग से प्रधान सचिव एसएन सहाय की सुरक्षा के लिए करीब डेढ़ दर्जन पुलिसकर्मियों को तैनात किया गया था।

अरविंद केजरीवाल के घर हुई कथित घटना से उपजी असुविधाजनक स्थिति का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि बैठक से पहले मुख्य सचिव ने मुख्यमंत्री को बाकायदा पत्र भेज कर कहा कि चूंकि सरकारी कामकाज सुचारु रूप से चलते रहने के लिए बजट सत्र की तारीखें तय करना और बजट पारित कराना जरूरी है, इसलिए वे बैठक में शामिल हो रहे हैं; लेकिन मुख्यमंत्री सुनिश्चित करें कि वहां आए किसी भी अधिकारी पर शारीरिक हमला नहीं होगा या गाली-गलौज नहीं की जाएगी। गौरतलब है कि केजरीवाल सरकार और उपराज्यपाल अनिल बैजल के बीच पहले से ही जिस तरह विवाद की स्थिति बनी हुई थी, उसमें नए घटनाक्रम ने ज्यादा उलझन पैदा कर दी है। एक ओर, उपराज्यपाल ने केजरीवाल को पत्र लिख कर कहा कि वे खुद अफसरों से बातचीत करें, क्योंकि उस अप्रिय घटना की वजह से अफसरों का मनोबल गिरा है। वहीं दिल्ली के उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया ने सख्त तेवर के साथ जवाब दिया कि अफसरों के रवैये के चलते पिछले तीन महीने से आंगनबाड़ी कर्मचारियों का वेतन रुका हुआ है, क्या उससे अफसरों का मनोबल नहीं गिरता है!

जाहिर है, इस समूचे प्रसंग में जिस तरह एक सरकार के तहत दो पक्ष बन गए हैं और दोनों ही अपने रुख पर अड़े हुए हैं, उससे आखिरी नुकसान दिल्ली की आम जनता को होना है। यों भी एक सरकार के तहत यह विचित्र स्थिति है कि अधिकारी केवल लिखित संवाद के जरिए काम करें और मंत्री या विधायक के साथ किसी भी बैठक का बहिष्कार करें! ऐसे में अगर प्रशासनिक कामकाज में रुकावट आती है तो उसका सीधा असर योजनाओं के अमल पर पड़ता है। इसलिए अफसरों के संगठन को क्या विरोध के अपने तरीके पर सोचने की जरूरत नहीं है, ताकि जनता के हित में होने वाले काम बाधित न हों? लेकिन सवाल है कि अगर अरविंद केजरीवाल के आवास पर हुई घटना के असर से आम आदमी पार्टी की सरकार अनजान नहीं है और उसे दिल्ली की जनता की फिक्र है तो क्या उसे स्थितियों या अफसरशाही के साथ संबंधों को सहज करने के लिए पहलकदमी नहीं करनी चाहिए?


हिन्दुस्तान 

खतरे की दस्तक

इतिहास, भूगोल और सामान्य ज्ञान की हमारी सारी धारणाएं यही कहती हैं कि यूरोप अगर ठंडा रहता है, तो उसके आगे उत्तरी ध्रुव बहुत ही ठंडा। लेकिन ग्लोबल वार्मिंग के इस युग में ये सारी अवधारणाएं अब ध्वस्त होती दिख रही हैं। कम से कम फिलहाल तो ऐसा ही है। पूरा यूरोप इस समय भीषण शीत-लहर की चपेट में है। वहां बर्फ गिरने और जीवन बेहाल होने की खबरें और तस्वीरें आए दिन मीडिया में दिख जाती हैं। बहुत से क्षेत्रों का तापमान शून्य से नीचे पहुंच चुका है। यह भले ही ऐतिहासिक न हो, लेकिन असामान्य तो है ही। लेकिन ठीक इसी समय उत्तरी ध्रुव में जो हो रहा है, वह असामान्य भी है और ऐतिहासिक भी। पहली बार ऐसा हुआ है, जब उत्तरी ध्रुव का औसत तापमान यूरोप के औसत तापमान से ऊपर चला गया हो।

लेकिन उत्तरी ध्रुव का यह तापमान जहां पहुंच गया है, वह डराने वाला है। उत्तरी ध्रुव ऐसी जगह है, जहां हर मौसम में हरदम बर्फ जमी रहती है। तापमान शून्य से काफी नीचे रहता है, औसत तापमान शून्य से लगभग 30 डिग्री सेल्सियस नीचे रहता है। लेकिन इस बार इस ध्रुव के कुछ क्षेत्रों का तापमान दो डिग्री सेंटीग्रेट तक पहुंच गया है। बेशक, भारत के लिहाज से हम दो डिग्री को भी काफी ठंडा मौसम मान सकते हैं, लेकिन उत्तरी ध्रुव के हिसाब से यह काफी गरम है। वैज्ञानिकों का आकलन है कि उत्तरी ध्रुव अपने ऐतिहासिक औसत तापमान के मुकाबले इस बार 35 डिग्री सेल्सियस अधिक गरम दिख रहा है। इसीलिए यह भी कहा जा रहा है कि यूरोप में अगर इस समय शीत लहर है, तो उत्तरी ध्रुव में लू चल रही है। दिक्कत यह है कि अभी बसंत का मौसम है और स्थिति आने वाले दिनों में और बिगड़ सकती है। अभी यह ध्रुव अंधेरे में है और मार्च के मध्य में यहां सूर्य देवता भी अपने दर्शन देने लगेंगे, तब यह स्थिति काफी बिगड़ भी सकती है।

ध्रुवों पर जमी बर्फ को हम अरसे से धरती के पर्यावरण का पैमाना मानते आए हैं। यह माना जाता रहा है कि जब ध्रुवों की बर्फ पिघलने लगेगी, तो दुनिया के कई हिस्सों में कयामत आएगी। इसका अर्थ होगा, दुनिया के कई द्वीपों और यहां तक कि कई देशों का डूब जाना। वनस्पति और जीव जगत की कई प्रजातियों का नष्ट हो जाना। क्या यह समय आ गया है? वैज्ञानिक मानते हैं कि अभी यह मानना जल्दबाजी होगी, पर उत्तरी ध्रुव की पिघलती बर्फ बता रही है कि खतरे ने दस्तक दे दी है।

समस्या यह भी है कि जो हो रहा है, वैज्ञानिक अभी ठीक से नहीं समझ पा रहे हैं। वे मानते रहे हैं कि समय के साथ-साथ ग्लोबल वार्मिंग का असर जैसे-जैसे बढ़ेगा, धरती के ध्रुवों की बर्फ पिघलने लगेगी। लेकिन अचानक एक दिन तापमान इतना ज्यादा बढ़ने की खबर आएगी, इसकी किसी ने कल्पना भी नहीं की थी। इसका एक अर्थ यह भी है कि यह ऐसी स्थिति है, जिससे निपटने की दुनिया के पास फिलहाल कोई तरकीब उपलब्ध नहीं है। वैसे एक सच यह भी है कि उत्तरी ध्रुव के तापमान के ताजा आंकड़े ग्रीनलैंड में बने निगरानी केंद्र ने हासिल किए हैं, और ये आंकडे़ पूरे ध्रुव के नहीं हैं, इसलिए माना यह जा रहा है कि सब जगह स्थिति शायद इतनी खराब न हो। अगर ऐसा है भी, तब भी ये खबरें एक चेतावनी तो हैं ही कि दुनिया के सारे झगड़े-झंझट, सारे गुमान, सारी रंजिशें भूलकर मानव सभ्यता और उससे भी बड़ी बात है कि सारी धरती को बचाने का वक्त आ गया है।


अमर उजाला

मुश्किल में कार्ति

आईएनएक्स मीडिया को एफआईपीबी (विदेशी निवेश संवर्धन बोर्ड) से मंजूरी दिलाने के सिलसिले में मनी लॉन्ड्रिंग के कथित आरोप में सीबीआई पिछले काफी समय से पूर्व वित्त मंत्री पी चिदंबरम के बेटे कार्ति चिदंबरम की जिस तरह मुश्कें कस रही थी, उसे देखते हुए उनकी गिरफ्तारी बहुत आश्चर्यजनक भले ही न हो, लेकिन इसकी टाइमिंग जरूर महत्वपूर्ण है। सीबीआई का कहना है कि आईएनएक्स मीडिया मामले में कार्ति के खिलाफ उसके पास पुख्ता सबूत हैं । चूंकि यह मामला पी चिदंबरम के वित्त मंत्री  रहने के दौर का है, और उसी दौर के एयरसेल-मैक्सिस डील में भी कार्ति की कथित लता के सबूत के बारे में सीबीआई बता रही है, ऐसे में देर-सबेर पूर्व वित्त मंत्री को भी शिकंजे में कस लिया जाए, तो हैरानी नहीं होगी। हालांकि सीबीआई की एफआईआर में उनका नाम नहीं है। कार्तिक के खिलाफ प्रवर्तन निदेशालय ने भी मुकदमा दर्ज कर रखा है, लिहाजा फौरी तौर पर यह आपराधिक कदाचार का मामला लगता है, जिसमें अपने राजनीतिक रसूख का इस्तेमाल करके एक कंपनी को बेजा लाभ पहुंचाया गया। लेकिन बड़ा सवाल यह है कि सीबीआई अदालत में इसे साबित कर भी पाएगी या नहीं ऐसे मामलों में सीबीआई का ट्रैक रिकॉर्ड बहुत अच्छा नहीं है, फिर पिछले दिनों 2 जी मामले में ए राजा का बेदाग बरी होना भी इसका ज्वलंत उदाहरण है कि भ्रष्टाचार की बात कहना और उसे अदालत में साबित कर पाना दो अलग-अलग चीजें हैं। इसके बावजूद सीबीआई ने कार्ति की गिरफ्तारी का जो समय चुना, वह ध्यान देने लायक है। मोदी सरकार के सत्ता में चार साल पूरे होने वाले हैं, और भ्रष्टाचार के खिलाफ सख्त होने के बावजूद अभी तक यूपीए के दौर के भ्रष्टाचार पर कोई कार्रवाई नहीं हुई है। उल्टे बजट सत्र के दूसरे हिस्से में सरकार को नीरव मोदी के भ्रष्टाचार के मामले में विपक्ष के निशाने पर रहना पड़ सकता है। ऐसे में, कार्ति की गिरफ्तारी के बाद सरकार को न केवल संसद में ताकत मिलेगी, बल्कि भ्रष्टाचार पर बढ़-चढ़कर बोलने वाली कांग्रेस के अब रक्षात्मक होने की संभावना अधिक है। अलबत्ता उम्मीद करनी चाहिए कि कार्ति की गिरफ्तारी भ्रष्टाचार के एक मामले को उसकी तार्किक परिणति तक पहुंचाने के लिए हुई है, इसे राजनीतिक चश्मे से बिल्कुल नहीं देखा जाना चाहिए।


दैनिक भास्कर

कार्ति की गिरफ्तारी के बाद रक्षात्मक हो जाएगा विपक्ष

एअरसेल-मैक्सिस विलय और आईएनएक्स मीडिया में अतिरिक्त निवेश के मामले में पूर्व वित्त मंत्री पी. चिदंबरम के बेटे और व्यापारी कार्ति चिदंबरम की गिरफ्तारी कानूनी प्रक्रिया की सहज परिणति है या और कुछ यह तो आने वाले समय में अदालत से ही निर्धारित होगा लेकिन, सरकार ने उन्हें गिरफ्तार करवाकर संसद के नए सत्र में विपक्ष को रक्षात्मक करने का प्रयास जरूर किया है। सरकार को यह अच्छी तरह पता है कि आने वाले सत्र में विपक्ष पीएनबी घोटाले और उसके अभियुक्तों नीरव मोदी, मेहुल चौकसी और पहले भागने वाले ललित मोदी और विजय माल्या को देश लाए जाने का सवाल उठाएगा। इस तरह से भ्रष्टाचार के मोर्चे पर सरकार की आक्रामकता बेअसर होती नज़र आ रही थी लेकिन, कार्ति की गिरफ्तारी से सरकार ने कांग्रेस को फिर कटघरे में खड़ा करना चाहा है। अब इस मुद्‌दे का इस्तेमाल कर्नाटक और आगामी चुनावों में होगा। सीबीआई का कहना है कि कार्ति जांच में सहयोग नहीं कर रहे थे इसलिए गिरफ्तार किया गया है, जबकि वकीलों की दलील है कि चार्जशीट के बिना गिरफ्तारी उचित नहीं है। दरअसल, कार्ति से जुड़े मामले उनके पिता के वित्त मंत्री रहने के कार्यकाल से जुड़े हैं और इन मामलों में कानून के हाथ उनके पिता तक भी पहुंच सकते हैं। यही कारण है कि कांग्रेस पार्टी इसे राजनीतिक प्रतिशोध का विषय बना रही है और सरकार आम चुनाव से पहले शिकंजा कस रही है। सीबीआई अदालत से टू-जी मामला खारिज कर दिए जाने के बावजूद सुप्रीम कोर्ट में उसके कुछ मामले चल रहे हैं और दूसरी तरफ प्रवर्तन निदेशालय मारीशस की कंपनियों से आईएनएक्स मीडिया में आए भारी निवेश पर भी नज़र गड़ाए हुए है। नब्बे और इस सदी के पहले दशक में मारीशस और मलेशिया के रास्तों से भारत में बहुत सारे निवेश हुए हैं। सरकार ने इन देशों के साथ ऐसी संधियां कर रखी थीं, जिनके तहत इस रास्ते से आने वाली कंपनियां दोहरे कराधान से मुक्त रहती थीं। पहले की सरकारों ने उसे इसलिए नहीं छेड़ा कि उससे निवेश घटने और उदारीकरण के धीमा पड़ने का खतरा था। मौजूदा सरकार उन्हें चुनिंदा तरीके से इसलिए उठा रही है, क्योंकि इससे उसे राजनीतिक लाभ मिलेगा। इसलिए कानून की दृष्टि में पक्ष और विपक्ष भले बराबर होते हैं लेकिन, राजनीति की नज़र में ऐसा बिल्कुल नहीं होता।


राजस्थान पत्रिका

मजबूरी के गठबंधन

खबर है कि कांग्रेस समान विचारधारा वाले दलों को गठबंधन का संदेश देने की तैयारी कर रही है ताकि अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव में भाजपा और सहयोगी दलों का मजबूती से मुकाबला किया जा सके। एक बड़े राजनीतिक दल के नाते कांग्रेस को चुनावी तैयारियों के तहत अकेले अथवा मिलकर चुनाव लड़ने का पूरा अधिकार है। पिछले लोकसभा चुनाव और उसके बाद हुए अधिकांश विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को पराजय का सामना करना पड़ा। ऐसे में उसके सामने अकेले अथवा मिलकर चुनाव लड़ने का रास्ता खुला है। कांग्रेस को लगने लगा है कि भाजपा को टक्कर देने के लिए समान विचारधारा वाले दलों को एक मंच पर आना लाना जरूरी है। ये तो हुआ सिक्के का एक पहलू। दूसरा पहलू ये कि समान विचारधारा वाले दलों को एक मंच पर लाना क्या इतना आसान होगा? कांग्रेस क्या प. बंगाल में ममता बनर्जी और वाम दलों को एक साथ ला पाएगी? उत्तर प्रदेश में समाजवादी और बसपा का एक दूसरे का साथ देने को तैयार होंगे? सालों तक महाराष्ट्र में कांग्रेस के साथ मिलकर चुनाव लड़ते रहे शरद पवार क्या राहुल गांधी का नेतृत्व स्वीकार कर पाएंगे? इन सवालों के जवाब ही गठबंधन की भावी रूपरेखा तय करेंगे। उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के नतीजे कांग्रेस के सामने हैं। दो साल में अकेले चुनाव लड़ने की तैयारियां कर रही कांग्रेस ने आखिरी समय में अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी से हाथ मिला लिया। हुआ क्या, किसी से छिपा नहीं है? 2012 के चुनाव में 28 सीटें जीतने वाली कांग्रेस यूपी में सिर्फ सात सीटों पर सिमट गई। मतलब साफ है कि गठबंधन भी कांग्रेस को फायदा नहीं पहुंचा पाया। देश में दो दलीय व्यवस्था संभव नहीं लेकिन दो गठबंधन भी आमने-सामने हों तो अच्छा रहे। मतदाताओं के सामने मजबूत विकल्प मौजूद रहे। आज हालत ये है कि दल की बात तो दूर, कोई भी गठबंधन पचास फ़ीसदी मत हासिल नहीं कर पाता। चालीस फीसदी मतों के सहारे गठबंधन भारी जीत हासिल कर लेते हैं। मौजूदा राजनीतिक हालात में ये व्यवस्था बदलने वाली नहीं। ऐसे में मजबूत गठबंधन बनाने का कांग्रेस का विचार अच्छा कदम है। बशर्ते गठबंधन सीटों के तालमेल से अधिक नीतियों के आधार पर बने।


दैनिक जागरण

प्रतीक्षित गिरफ्तारी

कांग्रेसी नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री पी चिदंबरम के बेटे कार्ति चिदंबरम की गिरफ्तारी प्रतीक्षित ही थी, क्योंकि वह जांच एजेंसियों के साथ लुकाछिपी का खेल खेलने में लगे हुए थे। इसके चलते ऐसे सवाल उभर रहे थे कि क्या सीबीआइ उन्हें गिरफ्तार करने की हिम्मत नहीं जुटा पा रही है? कायदे से तो उन्हें बहुत पहले गिरफ्तार कर लिया जाना चाहिए था, क्योंकि वह जांच में सहयोग करने के बजाय बहाने बनाने और अदालतों की दौड़ लगाने में लगे हुए थे? यह ठीक नहीं कि घपले-घोटाले के आरोपी के साथ इसलिए नरमी बरती जाए कि वह किसी राजनीतिक शख्सियत का परिजन है। सच तो यह है कि प्रभावशाली लोगों के खिलाफ कहीं अधिक सख्ती दिखाई जानी चाहिए। इस पर हैरत नहीं कि खुद को तंग करने का रोना रो रहे पी चिदंबरम के बेटे की गिरफ्तारी होते ही कांग्रेस ने यह कहने में देर नहीं लगाई कि सरकार राजनीतिक बदले की भावना के तहत काम कर रही है। यह वह बेसुरा राग है जो घपले-घोटाले में फंसा हर नेता अलापता है। कांग्रेसी नेता कार्ति की गिरफ्तारी पर ऐसे रुदन कर रहे हैं जैसे कांग्रेसी नेताओं अथवा उनके परिजनों को घपलेबाजी में लिप्त होने के आरोपों के बाद भी गिरफ्तारी से बचे रहने का विशेषाधिकार प्राप्त है। आखिर ऐसे तर्को का क्या मतलब कि कार्ति की गिरफ्तारी का वक्त ठीक नहीं। क्या इसके लिए कोई शुभ मुहूर्त निकाला जाना चाहिए था? यह न केवल अजीब है, बल्कि हास्यास्पद भी कि सरकार को भ्रष्ट तत्वों के खिलाफ कार्रवाई करने की चुनौती दे रही कांग्रेस भ्रष्टाचार के एक गंभीर मामले में कार्ति की गिरफ्तारी के बाद आपा खो रही है। बेहतर हो कि वह यह समङो कि ऐसे घिसे-पिटेबयानों से बात नहीं बनने वाली कि विपक्ष को डराने की कोशिश हो रही है।1कार्ति चिदंबरम की गिरफ्तारी आइएनएक्स कंपनी को कानूनी सीमा से अधिक विदेशी निवेश की जांच रुकवाने के बदले रिश्वत लेने के आरोप में की गई है। सीबीआइ की मानें तो आइएनएक्स को विदेशी निवेश संवर्धन बोर्ड यानी एफआइपीबी ने 4.62 करोड़ रुपये के विदेशी निवेश की अनुमति दी थी, लेकिन कंपनी अनुचित तरीके से तीन सौ करोड़ रुपये से अधिक का निवेश ले लाई। जब इसका भंडाफोड़ हुआ और जांच की नौबत आई तो इस कंपनी की ओर से पीटर मुखर्जी और इंद्राणी मुखर्जी ने कार्ति से संपर्क साधा। कुछ समय बाद बाद तत्कालीन वित्तमंत्री पी चिदंबरम ने जांच बंद कर दी। बेटी की हत्या के आरोप में जेल में बंद इंद्राणी मुखर्जी का कहना है कि जांच बंद कराने के लिए कार्ति को रिश्वत दी गई थी। अगर यह सब सच है तो फिर पी चिदंबरम भी जांच के दायरे में आएंगे। पता नहीं उनसे पूछताछ कब होती है, लेकिन सीबीआइ और प्रवर्तन निदेशालय को यह अवश्य सुनिश्चित करना चाहिए कि कार्ति के खिलाफ उनके पास जो भी प्रमाण हैं वे अदालत के समक्ष ठहर सकें। इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि रसूखदार लोगों के खिलाफ जांच के मामले में इन दोनों एजेंसियों का रिकॉर्ड बहुत दयनीय है और लोग अभी यह भूले नहीं हैं कि 2जी घोटाले का क्या हश्र हुआ?


प्रभात खबर

जीएसटी की बेहतरी

किसी विधान का कामयाब होना मुख्य रूप से दो बातों पर निर्भर है- एक, उसका व्यावहारिक स्तर पर लोगों की जरूरत से मेल होना, और दूसरे, विधान का पालन सहजता से हो कि वह लोगों के दैनिक आचरण का हिस्सा बन जाये. विधान की व्यावहारिकता का पता उसके इस्तेमाल की सहूलियतों और दिक्कतों से चलता है. साथ ही, उसका आदत में बदलना लंबी अवधि तक अमल के बाद ही संभव है. वस्तु एवं सेवाकर के बारे में वित्त मंत्री अरुण जेटली के बयान को इस संदर्भ में भी देखा जाना चाहिए, उन्होंने कहा है कि जीएसटी की एक दर लागू करना संभव नहीं है, क्योंकि भारत आर्थिक विषमताओं वाला देश है. बड़ी तादाद में लोग गरीबी रेखा से नीचे हैं. उन्होंने यह भरोसा दिलाया है कि टैक्स के अनुपालन के मानकों में सुधार के बाद कर दरों में बदलाव किया जायेगा. पर इस बाबत उन्होंने ऐसा कोई संकेत नहीं दिया, जो लगे कि ‘एक देश-एक कर’ के नारे के अनुरूप शुद्धतावादी है और हमारे विशाल देश में मौजूद ऐतिहासिक विषमता की अनदेखी करता है. जेटली का बयान इस बात की भी निशानदेही करता है कि जीएसटी व्यवस्था को आगे प्रयोगों के कई दौर से गुजरना होगा, तभी वह अनुपालन के मामले में लोगों के लिए आदत का रूप ले पायेगी. पुराने कर ढांचे की खामियां जगजाहिर थीं और ज्यादा से ज्यादा आर्थिक गतिविधियों को करो के दायरे में शामिल करने के प्राथमिक उद्देश्य से जीएसटी का कानून अमल में आया. अब मुख्य प्रश्न कानून के जमीनी स्तर पर लागू करने में आने वाली दिक्कतों की पहचान करने और उनके समाधान की है. इस सिलसिले में फेडरेशन ऑफ इंडियन चैंबर्स ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री (फिक्की) के हालिया सर्वेक्षण पर ध्यान दिया जाना चाहिए. सर्वेक्षण के मुताबिक, जीएसटी के लागू होने के बाद से व्यावसायिक गतिविधियों में कुछ मायनों में आसानी हुई है. सामान गंतव्य तक आसानी से पहुंच रहे हैं और पहले की की तरह वाहनों को नाकों पर देर तक हरी झंडी मिलने का इंतजार नहीं करना पड़ रहा है. मुख्य समस्या जीएसटी पोर्टल के कामकाज में आ रही है. जीएसटी के अंतर्गत जिन प्रक्रियाओं को पूरा करना अपेक्षित है, उससे संबंधित ब्योरों की विशालता के लिहाज से पोर्टल की गति धीमी है, आंकड़े जरूरत के अनुरूप अद्यतन नहीं हो रहे हैं और ब्योरों की गलतियों को सुधारना पोर्टल के मौजूदा फॉरमेट में कठिन है. कारोबारी जगत का एक तबका चाहता है कि जीएसटी के लिए रिटर्न भरना तिमाही कर दिया जाये, जिसे अभी मासिक आधार पर भरने की बाध्यता है. अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर को बढ़ाने की प्रक्रिया में कर प्रणाली बहुत अहम कारक है. इससे उत्पादन, मांग और वितरण का गणित सीधे तौर पर प्रभावित होता है. चूंकि वित्त मंत्री का रुख जीएसटी के ढांचे में बदलाव के लिहाज से सकारात्मक है, सो उम्मीद की जा सकती है कि कारोबारी तबके की जीएसटी से संबंधित व्यावहारिक परेशानियां जल्दी दूर होंगी.