आज के हिंदी अखबारों के संपादकीय: 17,फ़रवरी, 2018

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नवभारत टाइम्स

प्रदूषण और दुविधा

दिल्ली का प्रदूषण विश्वव्यापी चिंता का विषय हो गया है। न्यू यॉर्क स्थित कोलंबिया युनिवर्सिटी के ‘अर्थ इंस्टीट्यूट’ के प्रमुख जेफ्री सैक्स ने कहा है कि अपने दमघोंटू प्रदूषण के कारण दिल्ली रहने लायक शहर नहीं रही। दिल्ली में आयोजित वर्ल्ड सस्टेनेबल डिवेलपमेंट समिट में उन्होंने प्रदूषित हवा और ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन के लिए सरकार की नीतियों को जिम्मेदार बताया और कहा कि प्रदूषण पर सख्त कदम न उठाने के लिए गरीबी को बहाना बनाना गलत है। सैक्स ने इलेक्ट्रिक वाहनों को समय की जरूरत बताया। दिल्ली को लेकर कई और संगठन भी इस तरह की बात कह चुके हैं। बीते दिसंबर में दिल्ली की हवा में पीएम 2.5 की मात्रा 320.9 माइक्रोग्राम प्रति घनमीटर दर्ज की गई, जो आपात स्थिति के मानक से कुछ अधिक ही थी। इसी तरह पीएम 10 की मात्रा 496 माइक्रोग्राम प्रति घनमीटर दर्ज की गई, जो आपात स्थिति के करीब है। कई चिकित्सकों ने कहा कि अगर यही हाल रहा तो पैदा होने वाले शिशुओं का मस्तिष्क अविकसित रह जा सकता है। लेकिन प्रदूषण से निपटने को लेकर सरकार के स्तर पर भारी दुविधा है। एक तरफ वह स्वच्छ पर्यावरण को लेकर अपनी प्रतिबद्धता दिखाती है, दूसरी तरफ ऑटोमोबाइल सेक्टर और अन्य प्रदूषणकारी उद्योगों के प्रति कुछ ज्यादा ही उदार बनी रहती है। वैकल्पिक ऊर्जा स्रोतों को लेकर उसका स्टैंड भी बदलता रहता है। पिछले साल सरकार ने घोषणा की थी कि 2030 से देश में बनने वाली सभी कारें पूरी तरह बैटरी से चलेंगी। नागपुर में हाल ही में शुरू हुए एक चार्जिंग सेंटर को इस दिशा में मील का पत्थर माना गया। लेकिन फिर इस लक्ष्य को 2032 कर दिया गया और सरकार के सुर इतनी तेजी से बदलने शुरू हुए कि अभी पर्यावरण मंत्री नितिन गडकरी और नीति आयोग के सीईओ अमिताभ कांत ने साफ कह दिया है कि गाड़ियों को बैटरी पर लाने वाली किसी नीति की फिलहाल कोई जरूरत ही नहीं है। रेलवे के विद्युतीकरण को लेकर भी सरकार अगर-मगर में झूल रही है। रेल मंत्री पीयूष गोयल जहां शत प्रतिशत विद्युतीकरण के पक्ष में हैं, वहीं प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद के सदस्य विवेक देबॉय ने इस पर पुनर्विचार करने को कहा है। वह इस परियोजना को आर्थिक दृष्टि से फायदेमंद नहीं मानते। उनका मानना है कि आपात स्थितियों में डीजल इंजन ज्यादा कारगर होते हैं। कई देशों का हवाला देकर उन्होंने दोहरी ईंधन व्यवस्था की वकालत की है। कुल मिलाकर यह साफ नहीं है कि सरकार चाहती क्या है। उसे असमंजस छोड़ना होगा। पर्यावरण को ध्यान में रखते हुए परिवहन, ऊर्जा और नगर नियोजन नीतियों में एकरूपता जरूरी है। लेकिन उससे भी जरूरी है इच्छाशक्ति, जिसके बगैर सारी बातें सिर्फ बातें ही रह जाती हैं।


जनसत्ता

परीक्षा से पहले

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने शुक्रवार को दिल्ली के तालकटोरा स्टेडियम में स्कूलों और कॉलेजों के हजारों विद्यार्थियों को संबोधित किया, जिसका विषय था कैसे तनाव-मुक्त रह कर परीक्षा दें। पिछले लोकसभा चुनाव के समय ‘चाय पर चर्चा’ नामक उनके कार्यक्रमों की तर्ज पर इसे परीक्षा पर चर्चा भी कहा जा सकता है, या चाहें तो ‘मन की बात’ की तरह इसे परीक्षा की बात भी कह सकते हैं। इस संबोधन को टीवी और अन्य माध्यमों से सुनने वाले विद्यार्थियों की संख्या तो जोड़ दें, तो यह लाखों में रही होगी। यह संबोधन ऐसे वक्त हुआ, जब दसवीं और बारहवीं की बोर्ड परीक्षाएं आसन्न हैं। इसलिए विषय का महत्त्व स्वत: जाहिर है। यह आम अनुभव है कि परीक्षा को लेकर अधिकतर विद्यार्थी तनाव में रहते हैं। पता नहीं कौन-से प्रश्न आएंगे, पता नहीं कहां से पूछ लिया जाएगा, कितने अंक मिलेंगे, कैसा परिणाम आएगा, आदि चिंताएं उन्हें घेरे रहती हैं। लिहाजा, वे न तो परीक्षा की तैयारी के दौरान और न ही परीक्षा के दौरान सहज रह पाते हैं। प्रधानमंत्री ने इस सिलसिले में उन्हें दो नसीहतें दीं। एक तो यह कि वे प्रसन्न भाव से परीक्षा दें, इससे वे अच्छा कर पाएंगे। दूसरे, वे अपने अंदर आत्मविश्वास विकसित करें, और यही सफलता की बुनियाद है।

प्रधानमंत्री ने कई ऐसी बातें भी कहीं जो हमारी शिक्षा प्रणाली नहीं सिखाती। उन्होंने किसी और के जैसा बनने की कवायद करने के बजाय अपनी विशिष्टता पर ध्यान देने और उसे विकसित करने की सलाह दी। उन्होंने अभिभावकों को भी हिदायत दी कि वे बच्चों पर अपनी महत्त्वाकांक्षा न लादें। उन्हें अपनी अधूरी इच्छाएं पूरी करने का जरिया न समझें। ये सब ऐसी बातें हैं जिन्हें दुनिया के महान शिक्षाविद और चिंतक कहते आए हैं। अच्छी बात है कि प्रधानमंत्री भी इसी दिशा में सोचते हैं। लेकिन उन्होंने जो कुछ कहा है उस दिशा में शिक्षा प्रणाली को ले जाने की पहल कौन करेगा! अगर विद्यार्थी परीक्षा से पहले और परीक्षा के दौरान तनाव में रहते हैं, तो क्या यह उनकी वैयक्तिक कमजोरी का मामला है, या इसका ज्यादा संबंध शिक्षा व्यवस्था और मूल्यांकन प्रणाली से है? परीक्षा के बाद विद्यार्थी और अभिभावक दाखिले के तनाव में रहते हैं, क्योंकि हमारी शिक्षा व्यवस्था बहुत विषमतामूलक है। एक तरफ काफी प्रतिष्ठित समझे जाने वाले चुनिंदा कॉलेज हैं, और दूसरी तरफ, ऐसे कॉलेज जहां पढ़ाई-लिखाई के नाम पर विद्रूप है। उच्च शिक्षा के दायरे में आते ही या पढ़ाई पूरी करते ही नौकरी की चिंता घेर लेती है, जो कि स्वाभाविक है। लेकिन ऊंची विकास दर के बरक्स रोजगार-सृजन की गति बहुत धीमी है।

शिक्षा अधिकार अधिनियम लागू होने के बाद से स्कूलों में नामांकन दर में तेजी आई है और अब बहुत कम बच्चे होंगे जो स्कूली शिक्षा की पहुंच से बाहर रह गए होंगे। लेकिन कैसी पढ़ाई-लिखाई हो रही है इसका अंदाजा गैरसरकारी संगठन ‘प्रथम’ की हर साल आने वाली रिपोर्ट से हो जाता है। ग्रामीण भारत में स्कूली शिक्षा पर ‘प्रथम’ की ताजा रिपोर्ट भी विचलित करने वाली है। यह रिपोर्ट बताती है कि चौदह से अठारह साल के अधिकांश बच्चे अपने से निचली कक्षाओं के लायक भी नहीं हैं। यह तथ्य भी किसी से छिपा नहीं है कि अधिकतर राज्यों में सरकारी स्कूलों में शिक्षकों के ढेर सारे पद खाली हैं। प्रशिक्षित शिक्षकों के बजाय ठेके पर शिक्षाकर्मी या शिक्षामित्र नियुक्त करने का चलन बढ़ा है, ताकि बहुत कम तनख्वाह देकर काम चलाया जा सके। उम्मीद की जाए कि प्रधानमंत्री इन बातों पर भी गौर करेंगे!


अमर उजाला

सबको साधने की कोशिश

उत्तर प्रदेश की योगी सरकार के दूसरे बजट में उम्मीदों के अनुरूप ही किसानों के साथ ही बुनियादी ढांचे पर खासा जोर दिया गया है, लेकिन कृषि कर्जमाफी जैसी लोकप्रिय घोषणा का न होना बताता है कि सरकार वित्तीय अनुशासन बनाए रखने को लेकर सतर्क है। वित्त मंत्री राजेश अग्रवाल ने पिछले वर्ष की तुलना में 11 फीसदी अधिक, कुल चार लाख 28 हजार करोड़ रुपये का बजट पेश किया है। पिछले वर्ष राज्य सरकार ने किसानों की कर्जमाफी के लिए 36 हजार करोड़ रुपये रखे थे, लेकिन इस बार उन्हें सीधे ऐसा लाभ न देते हुए उर्वरक के अग्रिम भंडारण और कम ब्याज दर पर फसली ऋण उपलब्ध कराने के लिए दो सौ करोड़ रुपये की व्यवस्था की गई है और सिंचाई परियोजनाओं के लिए जो प्रावधान किए गए हैं, इनसे निश्चित ही छोटे किसानों को फायदा होगा। साथ ही डेयरी और कुक्कुट पालन के लिए 614 करोड़ रुपये रखे गए हैं और किसानों से गेहूं की खरीद के लिए 5,500 नए केंद्रों की स्थापना की जाएगी। बिजली और सड़क के लिए भारी-भरकम बजट रखा गया है, उसका फायदा भी ग्रामीण क्षेत्रों को मिलेगा। मसलन, बिजली क्षेत्र के लिए 29,883 करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया है और यह पिछले वर्ष की तुलना में 54 फीसदी अधिक है। इससे पता चलता है कि 2019 के लोकसभा चुनावों से पहले मोदी सरकार की हर घर तक बिजली पहुंचाने की योजना का कैसा दबाव सूबे पर भी है, जहां से भाजपा को पिछले चुनाव में 80 में से 71 सीटें मिली थीं! विगत वर्षों में सूबे में एक्सप्रेस-वे पर खासा जोर दिया गया है, और इसकी झलक इस बजट में भी दिख रही है, जिसमें चार एक्सप्रेस-वे बुंदेलखंड एक्सप्रेस-वे, गोरखपुर लिंक एक्सप्रेस-वे, पूर्वांचल एक्सप्रेस-वे और आगरा-लखनऊ एक्सप्रेस-वे के लिए 2,730 करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया है। स्टार्ट अप और कौशल विकास पर भी जोर दिया गया है, लेकिन सूबे के आकार को देखते हुए साफ है कि रोजगार के अवसर पैदा करने की चुनौती कहीं अधिक बड़ी है। तीर्थ पर्यटन को योगी सरकार बढ़ावा दे रही है, जिसके लिए कुछ धार्मिक सर्किट भी चुने गए हैं, इसके साथ ही अयोध्या में दीपावली और ब्रज में होली के लिए किए गए प्रावधान बताते हैं कि वह हिंदुत्व के अपने एजेंडे को भी साधे रखना चाहती है।


हिन्दुस्तान

ओली की चुनौतियां

सीपीएन-यूएमएल अध्यक्ष खड्ग प्रसाद (केपी) शर्मा ओली ने दूसरी बार नेपाल के प्रधानमंत्री की कुरसी संभाल ली है। चीन से गलबहियां और भारत से रिश्तों में तल्खी उनकी पहचान रही है, जिसकी झलक अक्तूबर 2015 से अगस्त 2016 तक के उनके पहले कार्यकाल के दौरान दिखती रही थी। 66 वर्षीय ओली महज दसवीं पास हैं, लेकिन नेपाल की राजनीति में मजबूत पैठ रखते हैं। यह राजनीतिक सक्रियता ही थी, जिसने उन्हें पढ़ाई में आगे नहीं बढ़ने दिया। हालांकि किताबें पढ़ना उनकी रुचियों में है और वह नेपाली व हिंदी किताबों की खासी अच्छी जानकारी रखते हैं। उनके प्रधानमंत्री बनने को लंबे समय बाद नेपाल में राजनीतिक स्थिरता की वापसी के रूप में देखा जा रहा है। यह भारत और चीन से संतुलन साधने के उनके कौशल की परीक्षा का भी वक्त है। पिछले कार्यकाल में ओली का भारत विरोध और चीन से गलबहियां वाला रुख मुखर होकर उभरा था। वह नेपाल की राजनीति में भारत के रुचि लेने को हस्तक्षेप के रूप में देखते रहे और इस खटास में दही उस वक्त पड़ गया, जब 2015 में भारत ने नेपाल के नए संविधान में मधेसी हितों की अनदेखी वाली कुछ शर्तों पर आपत्ति जता दी। जगजाहिर है कि उत्तर प्रदेश और बिहार से मधेसियों का खासा करीबी रिश्ता रहा है और भारत इसकी अनदेखी नहीं कर सकता। इन्हीं रिश्तों की पृष्ठभूमि को दरकिनार कर ओली के नेतृत्व वाला नेपाल, भारत को संदेह की नजर से देखता रहा। संविधान में अपने हितों की उपेक्षा के खिलाफ सीमा पर मधेसियों के आंदोलन को भी वह भारत का इशारा ही मानते रहे। 2016 में सत्ता गंवाने के पीछे तो वह भारत को जिम्मेदार मानते ही हैं। लेकिन समय के साथ जब बहुत कुछ बदला है, तो ओली को भी अपनी सोच बदलने की जरूरत है।

ओली जिस तरह चीनी वर्चस्ववाद का मोहरा बनते रहे हैं, यह उससे मुक्ति पाने का समय है, हालांकि उतना आसान भी नहीं। लेकिन उन्हें कम से कम ऐसी संतुलनकारी नीति पर तो चलना ही होगा, जो नेपाल के हितों की दूर तक रक्षा कर सके और यह भारत से रिश्तों में ही संभव है। भारतीय विदेश मंत्री सुषमा स्वराज की हालिया नेपाल यात्रा और चुनाव में जीत के बाद ओली से भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बधाई देते हुए साथ मिलकर नेपाल के हित में काम करने की मंशा जताकर स्पष्ट और सकारात्मक संदेश दे दिया है। ओली को इस संदेश की भाषा को समझना होगा। उन्हें समझना होगा कि नेपाल जिस तरह चीन को अपने इलाके में लगातार घुसते जाने के अवसर दे रहा है, वह उसके भविष्य के लिए घातक है। उन्हें भारत और नेपाल की सांस्कृतिक साझेदारी और भाईचारे के अतीत को समझना होगा। यह भी सोचना होगा कि नेपाल को दोस्ती की आड़ में एक व्यापारिक हित साधने वाले विस्तारवादी पड़ोसी की जरूरत है या सांस्कृतिक ताने-बाने में लगभग एक जैसी बुनावट वाले संरक्षक की। दरअसल, यह उनके लिए दोनों को समान रूप से साधने का समय है, जिसमें खासी चुनौतियां भी हैं। घरेलू मोर्चे पर भी उनके लिए चुनौतीपूर्ण समय है। मधेसीहितों की रक्षा के लिए संविधान संशोधन पर सहमत हो वह दूरगामी असर की राजनीति कर सकते हैं। सबसे बड़ी चुनौती तो गठबंधन के सबसे महत्वपूर्ण घटक सीपीएन (माओवादी सेंटर) को साधे रखने की है, जिसकी वैचारिक जड़ें उनकी धारा से बिल्कुल उलट भी हैं, गहरी भी।


राजस्थान पत्रिका

मायूसी क्यों हो?

कावेरी जल विवाद पर सर्वोच्च न्यायालय ने अपना अन्तिम फैसला सुना दिया। इस फैसले से तमिलनाडु को मिलने वाले पानी की मात्रा में थोड़ी कमी आई है जबकि कर्नाटक का हिस्सा उतना ही बढ़ा है। लाजिमी तौर पर कर्नाटक खुश हुआ है और तमिलनाडु वालों के चेहरे पर मायूसी है। लेकिन क्या यह मायूसी होनी चाहिए? आखिर न्यायालय ने नदी जल विवाद न्यायाधिकरण के दस साल पुराने फैसले में कोई परिवर्तन किया है तो वह बदलाव उसने बेंगलूरु की पेयजल जरूरतों के लिए किया है। यद्यपि बेंगलूरु की औद्योगिक इकाइयों की बढ़ी हुई पानी की जरूरतों को उसने दोयम नम्बर पर रखा है। यह किसी से छिपा नहीं है कि बेंगलूरु हो या चैन्नई, मुम्बई हो या कोलकाता अथवा हैदराबाद या जयपुर, सभी कहने को किसी एक राज्य की सीमा में हों पर उनमें देश के दस-दस राज्यों के लोग रह रहे हैं। मुम्बई, कोलकाता और बेंगलूरु को तो अब ‘मिनी भारत’ ही कहा जाने लगा है। वैसे तो कहीं कोई विवाद होने ही नहीं चाहिए और पीने के पानी पर तो कोई झगड़ा होना ही नहीं चाहिए। राज्यों के नाम पर ज्यादातर विवाद उन राज्यों की सरकारों और राजनीतिक दलों की ओर से खड़े किए जाते हैं जिनका वहां की आम जनता से तब तक कोई संबंध नहीं होता, जब तक कि उसे भड़काया-उकसाया नहीं जाए। यह भी जरूरी है कि ऐसा कोई भी विवाद जैसे ही खड़ा हो, उसके समाधान के तुरन्त और ठोस उपाय हों। आज की तारीख में गोदावरी, कृष्णा, कावेरी, नर्मदा, रावी-व्यास और महादयी जैसे अनेकों नदी जल विवाद हैं जिन्होंने देश के एक दर्जन से ज्यादा राज्यों की नींद खराब कर रखी है। बेहतर हो, इन विवादों के त्वरित समाधान का कोई स्थायी तंत्र विकसित किया जाए।


दैनिक भास्कर

सुप्रीम कोर्ट का लोकतंत्र में सादगी घोलने वाला फैसला

सुप्रीम कोर्ट ने चुनावी उम्मीदवारों को सिर्फ आय ही नहीं आय के स्रोत भी घोषित करने की हिदायत देकर चुनाव सुधार की दिशा में महत्वपूर्ण कदम उठाया है। न्यायमूर्ति चैलमेश्वर की पीठ से आया यह अहम फैसला गैर-सरकारी संगठन ‘लोकप्रहरी’ की गाचिका पर आधारित है, जिसकी चिंता यह है कि विधायक/सांसद बनने के बाद जनप्रतिनिधियों को आय कैसे कई गुना बढ़ जाती है। निश्चित तौर पर बिधायक या सांसद बनने से पहले और बाद में किसी राजनेता की आय की तुलना होनी चाएि

और कोई मानक भी निर्धारित किया जाना चाहिए कि आय में कितनी फीसदी बढ़ोत्तरी उचित है। याचिका में शामिल एसोसिएशन ऑफ़ डेमोक्रेक्टि रिफॉर्म (एडीआर) ने अपनी प्रपोर्ट में बताया था कि लोकसभा के चार संसदों की आय में 12 गुना और 22 की आय में पांच गुना बढ़ोत्तरी हुई है। आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू देश के सबसे  अमीर मुख्यमंत्री हैं और उनकी कुल संपत्ति 177 करोड़ रुपए की है, जबकि  मानिक सरकार मात्र 26 लाख की संपत्ति के साथ देश के सबसे गरीब मुख्यमंत्री हैं। अदालत के आदेश के तहत जन प्रतिनिधि को न सिर्फ अपनी आय के स्रोत बताने होंगे बल्कि अपनी पत्नी और बेटा-बहू बेटी-दामाद की आय के साथ उनके स्रोत भी घोषित करने होंगे। इस पहल का अच्छा प्रभाव तभी पड़ेगा जब पद का दुरुपयोग करते हुए बेहिसाब संपत्ति बनाने वाले राजनेताओं पर कार्रवाई के समय समाज भी इन नेताओं को अहमियत दे जो अपना जीवन धन और सत्ता अर्जित करने की बजाय । सेवा को समर्पित करते हैं। ऐसे में अगर इस समय त्रिपुरा के चार बार मुख्यमंत्री रह चुके माकपा नेता माणिक सरकार की सादगी और गरीबी लोकतांत्रिक कसौटी पर है तो देश में ईमानदारी और लोकपाल को स्थापना के लिए राजनीति में आए अरविंद केजरीवाल और उनके साथियों का सादगी को छोड़ना विडंबनापूर्ण है। उन्होने  क्राउड फंडिंग के माध्यम से बहुत सारा चंदा जमा किया और कानूनी बाध्यता न होने के कारण उसका स्रोत नहीं बताया। जहां तक कांग्रेस और भाजपा जैसी बड़ी पार्टियों की बात है तो उनके चंद लोगों को छोड़कर बाकि के लिए आय के स्रोत और सादगी का मामला आचरण से ज्यादा आरोप-प्रत्यारोप के औजार हैं। मौजूदा फैमले की असली सार्थकता तो तब होगी जब लोकतंत्र धनतंत्र के दबाव से मुक्त हो और सादगी का सम्मान हो।


दैनिक जागरण 

आगे बढ़ते चुनाव सुधार

सुप्रीम कोर्ट ने यह आदेश देकर चुनाव सुधारों को बल देने का ही काम किया है कि अब प्रत्याशियों को नामांकन के वक़्त अपने साथ-साथ जीवनसाथी एवं समस्त आश्रितों की आय के स्रोत का भी विवरण देना होगा  यह

आदेश इसलिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि अभी तक उन्हें केवल अपनी चल-अचल संपत्ति का ही विवरण देना होता था। यह आदेश ऐसे समय आया है जब कुछ सांसदों और विधायकों की संपत्ति में बेतहाशा वृद्धि के चलते उनकी जांच हो रही है। इसी तरह यह भी एक तथ्य है कि बीते कुछ समय से पैसे बांटकर चुनाव जीतने की प्रवृत्ति भी बढ़ती हुई दिखी है। उम्मीद की जाती है कि सुप्रीम कोर्ट का उक्त आदेश उन लोगों पर दबाव बनाने में सफल होगा जो भ्रष्ट तौर-तरीकों का इस्तेमाल करते हुए चुनाव लड़ते हैं या फिर चुनाव जीतने के बाद अनुचित तरीके से पैसे बनाने में लग जाते हैं, लेकिन महज इस आदेश के आधार पर ऐसा कुछ होने के बारे में सुनिश्चित नहीं हुआ जा सकता कि राजनीति और चुनाव में धनबल की भूमिका पूरी तौर पर खत्म होने वाली है। यह तो तब होगा जब राजनीति और चुनाव के तौर-तरीकों को और अधिक पारदर्शी बनाया जाएगा। राजनीतिक दलों के चंदे का मामला अभी भी सही तरह से नहीं सुलझा है। इस मामले में चुनावी बांड के चलन पर खुद सरकार का मानना है कि अभी और कुछ किया जाना शेष है। यह शेष इसलिए है, क्योंकि राजनीतिक दलों के बीच चुनाव सुधारों को लेकर सहमति नहीं बन पा रही है। राजनीतिक दल भले ही लोकतंत्र के गुण गाते हों, लेकिन वे भारतीय लोकतंत्र को उन्नत एवं आदर्श बनाने के लिए कुछ ठोस करते हुए नहीं दिख रहे हैं। यह किसी से छिपा नहीं कि वे अपने आय-व्यय का सही-सही विवरण देने के लिए तैयार नहीं।

यह अच्छा हुआ कि चुनाव सुधार के लिए सक्रिय संगठनों की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐसा आदेश दिया जो चुनाव सुधारों की प्रक्रिया को आगे बढ़ाने में सहायक बनेगा, लेकिन बेहतर होगा कि निर्वाचन आयोग की उन मांगों पर भी विचार किया जाए जो अर्से से लंबित हैं। निर्वाचन आयोग केवल यही नहीं चाह रहा है कि उन लोगों की चुनाव लड़ने से रोका जाए जिनके खिलाफ ऐसे आपराधिक मामले चल रहे जिनमें उन्हें पांच साल या इससे अधिक सजा हो सकती है और जिनके विरुद्ध आरोप पत्र दायर हो चुका हो। वह यह भी चाह रहा है कि उसे राजनीतिक दलों की मान्यता खत्म करने का अधिकार मिले। वह अपने लिए कुछ और ऐसे अधिकार चाह रहा है जिससे उसे स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव कराने में कहीं अधिक सुविधा हो। इनमें से कुछ की वकालत विधि आयोग भी कर चुका है, लेकिन राजनीतिक दलों की हीलाहवाली के चलते उन पर ध्यान नहीं दिया जा रहा है। निःसंदेह इसके आसार नहीं हैं कि राजनीतिक दल चुनाव सुधारों के प्रति प्रतिबद्धता दिखाएंगे, क्योंकि अभी तक का अनुभव यही कहता है कि वे न तो राजनीति में सुधार लाने के लिए तत्पर हैं और न ही चुनाव संबंधी सुधारों को गति देने के लिए। बेहतर होगा कि सुप्रीम कोर्ट लंबित चुनावी सुधारों की भी सुध ले।