नवभारत टाइम्स
संवाद ही है रास्ता
जम्मू-कश्मीर के निवासी, खासकर सीमावर्ती इलाके के लोग आतंकी हमलों और सीमा पार से आए दिन होने वाली गोलीबारी से काफी परेशान हैं। कुछ समय पहले जम्मू-कश्मीर विधानसभा में पेश आंकड़ों के मुताबिक़ पाकिस्तान की तरफ से हुई गोलीबारी में केवल 18 से २२ जनवरी के बीच सात नागरिकों सहित 14 लोगों को जान गंवानी पड़ी है और 70 लोग घायल हुए हैं। हाल के कुछ महीनों में सीमा- क्षेत्र के हजारों लोगों को घर छोड़ने पड़े हैं। रह-रहकर सीमा पार से आतंकी हमले हो रहे हैं, जिनकी आंच ससे ज्यादा सुरक्षा बलों को झेलनी पड़ रही है। शनिवार को आतंकवादियों ने जम्मू के बाहरी इलाके सुंजवान के सैन्य शिविर पर हमला कर दिया जिसमें छह जवान शहीद हो गए। उडी के सैन्य शिबिर पर हुए हमले के बाद यह दूसरा बड़ा आतंकी हमला है। इन हालत से निपटने के दो तरह के सुझाव दिए जा रहे हैं। राज्य की मुख्यमंत्री महबूबा मुफ़्ती ने कहा है कि मौजूदा संकट से निपटने के लिए पाकिस्तान से बातचीत जरुरी है। लेकिन उनके साथ मिलकर सरकार चला रही बीजेपी और केंद्र सरकार ऐसा नहीं मानती। केंद्र सरकार इस स्टैंड पर अडिग है कि जब तक पाकिस्तान आतंकियों को मदद करना बंद नहीं करता, उससे कोई बात नहीं होगी। केंद्र सरकार के ही एक हलके में सुंजवान हमले के बाद एक बार फिर सर्जिकल स्ट्राइक जैसी किसी कार्रवाई की बात भी सुनाई पड़ रही है। उडी सैन्य शिविर पर हुए आतंकी हमले के बबाद भारतीय सेना ने सर्जिकल स्ट्राइक कर पाकिस्तानी सीमा के भीतर चल रहे कई आतंकी प्रशिक्षण शिविरों को तबाह कर दिया था। उस समय यह मान लिया गया था कि इस हमले के बाद सीमा पार चल रहे आतंकी संगठनों की कमर टूट गई है। मगर आतंकी घुश्पैठ और सुरक्षा ठिकानों पर हमलों की घटनाएं जारी हैं। जानी या तो वे इतने समारी हो गए हैं कि हमारी सुरक्षा और सूचना तंत्र में आसानी से सेंध लगा ले रहे हैं, या फिर उन्हें मिल रहा स्थानीय सहयोग अभी बहुत बढ़ गया है। राज्य में इतने असंतोष का माहौल न होता तो शायद उनका काम शायद इतना आसान न होता। जाहिर है, मामला काफी उलझा हुआ है। इसको भांपकर कुछ समय पहले श्रीनगर स्थित सेना की उत्तरी कमान के प्रमुख लेफ्टिनेंट- जनरल डीएस हुड्डा ने कहा था कि कश्मीर का मसला कानून व्यवस्था का नहीं, बल्कि राजनीतिक मसला है और समाधान राजनीतिक पहलकदमी से ही होना है। पाकिस्तान में अभी सियासी स्टार पर एक शून्य है लेकिन हम वहां सबकुछ ठीक होने का इंतजार नहीं कर सकते। अभी उच्च स्तरीय बातचीत भले संभव न हो पर स्थानीय अधिकारियों के स्तर पर विश्वास बहाली की कोशिशें की जा सकती हैं पिछले महीने दोनों देशों के सीमा सुरक्षा बालों में बातचीत हुई ही थी। फिलहाल ऐसी पहलकदमियों को कुछ और आगे बढाया जा सकता है।
जनसत्ता
हमले के तार
रक्षामंत्री निर्मला सीतारमण ने सुंजवान हमले के लिए पाकिस्तान को जिम्मेदार ठहराया है। अगर देश की रक्षामंत्री यह बात कह रही हैं तो जरूर उसका कुछ आधार होगा। यों पाकिस्तान पहले ही, सुंजवान हमले के पीछे अपना कोई हाथ होने से इनकार कर चुका है। निर्मला सीतारमण का बयान पाकिस्तान के इस इनकार के एक रोज बाद आया। उन्होंने यह भी कहा कि सारे सबूत पाकिस्तान को सौंपे जाएंगे। सेना का कहना है कि सुंजवान हमले को जैश-ए-मोहम्मद ने अंजाम दिया। जैश का सरगना मसूद अजहर है जिसका नाम अमेरिका ने भी आतंकियों की अपनी सूची में डाल रखा है, लेकिन जिसे सुरक्षा परिषद के जरिए वैश्विक आतंकी घोषित करवाने के भारत के प्रयासों पर चीन कई दफा पानी फेर चुका है।
निर्मला सीतारमण का इशारा जैश से भी आगे है, उनका संकेत आइएसआइ की तरफ है, और शायद इसी बिना पर उन्होंने सुंजवान हमले के लिए पाकिस्तान को जिम्मेवार ठहराया है। और इसी के साथ उन्होंने यह भी जोड़ा है कि पाकिस्तान को आतंकी हमले के सबूत दिए जाएंगे और माकूल जवाब भी। अलबत्ता जवाब किस प्रकार का होगा यह उन्होंने साफ नहीं किया।सुंजवान में फिदायीन हमले के बहत्तर घंटों के भीतर ही आतंकियों ने सोमवार की सुबह श्रीनगर के कर्णनगर इलाके में सीआरपीएफ की तेईसवीं बटालियन पर हमला कर दिया। लेकिन सतर्क सुरक्षा बलों ने हमलावरों की साजिश नाकाम कर दी। इस हमले की जिम्मेदारी लश्कर-ए-तैयबा ने ली है। जैश और लश्कर पाकिस्तान की जमीन से ही संचालित होते हैं। क्या उनके अड्डों के बारे में पाकिस्तान की पुलिस, फौज और खुफिया एजेंसियों को पता नहीं होगा? फिर, ये संगठन कैसे न सिर्फ अपना वजूद कायम रखते हैं बल्कि आतंकवादी प्रशिक्षण और गतिविधियां भी चलाते रहते हैं? यही नहीं, मसूद अजहर और हाफिज सईद जैसे इनके सरगना बेहद संगीन आपराधिक धाराओं के आरोपी होते हुए भी कैसे खुलेआम विचरण करते हैं और खूब चंदा भी इकट्ठा कर लेते हैं? यह सब यही बताता है कि इन पर नकेल कसने के लिए या तो पाकिस्तान का इरादा नहीं है या कम से कम वह संजीदा नहीं है, भले दुनिया का ध्यान बंटाने की कोशिश में वह कुछ भी कहता रहे। अब सवाल है कि आतंकी हमलों के तार पाकिस्तान से जुड़े होने के सबूत पाकिस्तान को सौंपने से क्या हासिल होगा? 2008 में मुंबई में हुए हमले की बाबत ढेर सारे सबूत पाकिस्तान को सौंपे गए थे। उन पर पाकिस्तान ने क्या किया? अब तक कुछ भी ठोस नहीं।
पठानकोट में हुए आतंकी हमले की बाबत मिले सबूतों को उसने सिरे से खारिज कर दिया था। लिहाजा, सहज ही यह सवाल उठता है कि जिन ताजा सबूतों को पाकिस्तान को सौंपने की बात रक्षामंत्री ने कही है, क्या उन्हें भी पाकिस्तान ढिठाई से नकार नहीं देगा? इसलिए ऐसे सबूतों की ज्यादा उपयोगिता अंतरराष्ट्रीय समुदाय के सामने इन्हें पेश किए जाने में है। इससे भारत अगर कोई कड़ी कार्रवाई करेगा तो उसका औचित्य साबित करने की भूमिका पहले से ही बन चुकी होगी। विडंबना यह है कि ताजा हमले ऐसे वक्त हुए हैं, जब अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप कुछ समय से आतंकवाद पर पाकिस्तान को लगातार चेतावनी देते रहे हैं। ऐसा लगता है कि अमेरिका की ज्यादा दिलचस्पी पाकिस्तान तालिबान और हक्कानी नेटवर्क पर शिकंजा कसने में है जो अफगानिस्तान में उसके लिए मुश्किल खड़ी करते हैं। इसलिए भारत को पाकिस्तान पर ट्रंप के दबाव से सकारात्मक परिणाम निकलने की ज्यादा आस बांधने के बजाय अपनी रणनीति पर अधिक ध्यान देना चाहिए, जिसका पहला तकाजा है सीमापार से घुसपैठ रोकने के उपायों को और पुख्ता करना।
हिंदुस्तान
चीन की दादागिरी
अमेरिका का रक्षा बजट सिर्फ उसकी रक्षा जरूरतों के खर्च का हिसाब-किताब भर नहीं होता। एक तरह से वह उसकी रक्षा नीति और उसकी प्राथमिकताओं का दस्तावेज भी होता है। भारत के रक्षा बजट में आंकड़े महत्वपूर्ण होते हैं, लेकिन अमेरिका के बजट में महत्वपूर्ण चीज आंकड़ों में नहीं, शाब्दिक विस्तार में होती है। वहां अगर किसी मद में खर्च बढ़ाया जाता है, तो यह भी बताया जाता है कि इसकी जरूरत क्यों है और कैसे है? और इस सबसे उसकी रक्षा नीति की व्याख्या भी हो जाती है। इन बातों की ओर दुनिया का सबसे ज्यादा ध्यान तब जाता है, जब वह अपने रक्षा बजट में खासी बढ़ोतरी करता है, जैसे कि इस साल की गई है। बजट प्रस्तावों के अनुसार, अमेरिका अगले दो साल में अपनी सेना पर होने वाले खर्च में 195 अरब डॉलर की वृद्धि करेगा। फिलहाल हमारे लिए इस वृद्धि से ज्यादा महत्वपूर्ण वे तर्क हैं, जो बजट प्रस्तावों में दिए गए हैं। इन प्रस्तावों में सबसे महत्वपूर्ण खतरा चीन की तरफ से दिखाया गया है। इसमें अमेरिकी रक्षा विभाग यानी पेंटागन ने कहा है कि भारतीय-प्रशांत क्षेत्र यानी इंडो-पैसिफिक के देशों को जिस तरह से चीन दादागिरी दिखा रहा है, वह चिंता की बात है। वियतनाम, कोरिया और जापान जैसे देश इसे लेकर कई बार आपत्ति भी जता चुके हैं। भारत के आस-पास श्रीलंका, मालदीव और म्यांमार जैसे कई देशों में वह कई तरह से सैनिक और व्यापारिक आधिपत्य जमा रहा है, उसकी पिछले कुछ दिनों में काफी चर्चा हुई है। पाकिस्तान को तो खैर अब कुछ लोग चीन का उपनिवेश ही कहते हैं। इतना ही नहीं, चीन से बहुत दूर ऑस्ट्रेलिया तक अपनी चिंता जाहिर कर चुका है। जाहिर है कि ऐसी चिंताओं का अमेरिकी रक्षा बजट में जगह पाना कोई हैरत की बात नहीं है।
हालांकि अमेरिकी रक्षा बजट में चिंता अकेले चीन को लेकर व्यक्त नहीं की गई है। उसमें रूस को लेकर भी चिंता व्यक्त की गई है। रूस को लेकर अमेरिका की चिंता पूर्वी यूरोप तक ही सीमित नहीं है। पश्चिम एशिया में रूस की जिस तरह की दखल है, वह भी अमेरिका की परेशानी का कारण है। सीरिया में तो अमेरिका और रूस परस्पर विरोधी ताकतों को लड़ा ही रहे हैं। उत्तर कोरिया ने जो सिरदर्द अमेरिका को दिया है, उसकी झलक भी इस रक्षा बजट में देखी जा सकती है और ईरान की तरफ से खड़े होने वाले खतरों की भी। हालांकि ये दोनों खतरे उतने बडे़ नहीं हैं, पर दो नई परमाणु ताकतों का उदय अमेरिका की परेशानियां बढ़ा तो रहा ही है। सबसे बड़ा खतरा वह चीन को मान रहा है।
चीन की इस दादागिरी के भारतीय अनुभव बहुत सारे हैं। ताजा अनुभव डोका ला क्षेत्र का है, जहां उसने बेवजह तनाव पैदा किया है और वहां से चीनी सक्रियता की छिटपुट खबरें आती ही रहती हैं। वैसे तो भारत या किसी भी अन्य देश को अमेरिकी रक्षा बजट से ज्यादा लेना-देना नहीं होना चाहिए, लेकिन कोई महाशक्ति जब अपनी दादागिरी दिखाने लगे, तो सभी पर क्षेत्रीय और अंतरराष्ट्रीय समीकरण बनाने का दबाव आ जाता है। अमेरिका का रक्षा बजट हालांकि अमेरिकी जरूरतों और उसकी सामरिक सोच के हिसाब से बना है, लेकिन कुछ हद तक यह उन देशों को आश्वस्त जरूर कर सकता है, जो चीन के दबाव का सबसे बड़ा शिकार हैं। बाकी यह तो सभी देशों को पता है कि आखिर में इस दादागिरी से निपटने का काम खुद उन्हें ही करना पड़ेगा।
अमर उजाला
अपराध से कैसे मुक्त हो राजनीति
धन और बाहुबल के प्रभाव को खत्म किये बिना राजनीति को स्वच्छ नहीं किया जा सकता, यह स्वीकार्य तथ्य है; इसके बावजूद इन दोनों ही बुराइयों से राजनीति को मुक्त करना आसान नहीं है। राजनीति में पारदर्शिता के लिए निरंतर काम कर रही एडीआर (एसोशिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म) की देश के मुख्यमंत्रियों पर आई रिपोर्ट है कि अब भी व्यवस्था में ऐसे लोग न केवल चुनाव जीतने में सफल हो जाते हैं, बल्कि मुख्यमंत्री की कुर्सी पर पहुंच जाते हैं। इस रिपोर्ट के मुताबिक राज्यों और केंद्रशाषित प्रदेशों के 31 मुख्यमंत्री में से 11 यानी करीब 35 फीसदी ने हलफनामे दिये थे कि उनके खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज हैं और 26 फीसदी के खिलाफ हत्या, हत्या के प्रयास और धमकी देने जैसे संगीन आरोप हैं। हालांकि 81 फीसदी मुख्यमंत्रियों का करोड़पति होना हैरान नहीं करता, लेकिन आज जिस तरह राजनीति करना महंगा होता जा रहा है, उसमें यह जरुर हैरत की बात बात है कि देश में आज भी ऐसे मुख्यमंत्री हैं, जिनके पास कुल एक करोड़ रुपए की संपत्ती भी नहीं है। सबसे कम आय वाले मुख्यमंत्रियों में त्रिपुरा में अपनी सत्ता बचाने के लिए संघर्ष कर रहे माणिक सरकार सबसे ऊपर हैं, तो इसी सूची में उनके साथ ममता बनर्जी, महबूबा मुफ्ती, मनोहर लाल और रघुवर दास शामिल हैं। लेकिन असल सवाल राजनीति और चुनाव को अपराधियों से मुक्त करने का है। सर्वोच्च अदालत ने सवाल किया कि आखिर जिन नेताओं को आपराधिक मामलों में सजा हो चुकी है, वे कैसे राजनीतिक दल का मुखिया हो सकते हैं। यह बैल को सींग से पकड़कर काबू करने जैसा काम है। प्रधान न्यायाधीश जस्टिस दीपक मिश्र ने वाजिब सवाल किया है कि ऐसे नेता खुद तो चुनाव नहीं लड़ सकते, लेकिन वह कैसे अपनी पार्टी का नेता होने के नाते उम्मीदवारों का चयन कर सकते हैं। जो काम आप व्यक्तिगत रूप से नहीं कर सकते, उसे सामूहिक रूप से एजेंट के जरिये कैसे कर सकते हैं? मुश्किल यह है कि राजनीति में सुधार की ऐसी पहलें राजनीतिक वर्ग के भीतर से होने के बजाए न्यायपालिका, चुनाव आयोग या फिर गैर सरकारी संगठनों की कोशिशों से हो रहा है। क्या उम्मीद करें कि यदि इस संबंध में कोई कानून बनाने की बात आएगी, तो सारे दल उस पर सहमत होंगे?
दैनिक भास्कर
सोच बदलकर किसानों के लिये ठोस कार्यक्रम बनाएं
चुनाव लोकतंत्र को जवाबदेह और संवेदनशील बनाता है। यह बात कम से कम मध्य प्रदेश और राजस्थान की सरकारों के रुख से साबित हो रही है। उपचुनाव हार चुकी राजस्थान की वसुंधरा राजे सरकार ने किसानों के पचास हजार रुपए तक के कर्ज माफी करने की घोषणा की है। उनका ध्यान छोटे और मझोले किसानों पर है और कर्जमाफी के इस कदम से 20 लाख किसानों को लाभ मिलने का दावा किया गया है। वसुंधरा राजे सरकार ने मालगुजारि माफ करने के लिये आयोग बनाने का फैसला किया है, जिससे 40 लाख किसानों को राहत मिल सकती है। दूसरी तरफ मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने किसानों के कर्ज का व्याज माफ करने का एलान किया है। इसके अलावा सरकार ने पिछ्ले साल रबी की प्रति क्विंटल खरीद पर 200 रूपए के बोनस का एलान किया है। उनका एलान है कि आने वाले मौसम में रबी किसानों को बोनस के साथ 2000 रुपए का लाभ होगा। इसी साल चुनाव में उतर रही इन सरकारों ने मजबूर होकर यह कदम उठाया है। राजस्थान में तो बारी-बारी से सरकारें बदलती हैं लेकिन,मध्यप्रदेश में तीन बार से काबिज शिवराज सरकार की तमाम कमियां सामने आ चुकी हैं। पिछ्ले साल मंदसौर, इन्दौर, उज्जैन, रतलाम से लेकर भोपाल तक मध्यप्रदेश के किसानों ने जो हिंसक आंदोलन किया उसके जवाब में स्वयं मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को भी अनशन करना पड़ा था। उससे सरकार का ध्यान तो किसानों की समस्याओं की ओर गया लेकिन, उसे दूर करने के लिये सरकार ने जो कदम उठाये वे भरोसे पर खरे नहीं उतरे। यही वजह थी कि चौहान ने भोपाल के जम्बुरि मैदान में जो किसान महासम्मेलन किया उसमें सबसे कम उपस्थिति किसानों की ही थी। चौहान सरकार व्यापारियों के दबाव और नोटबंदी के कारण किसानों के फसलों के दाम दिला नहीं सकी है। किसानों की दशा के बारे में जो रिपोर्टें हैं वे डराने वाली हैं। स्टेट बैंक ऑफ़ इंडियाज एन्वायरमेंट 2017 के अनुसार देश में 34 किसान रोजाना आत्महत्या करते हैं। 2014से 2015 के बीच किसान आत्महत्याओं के मामलों में 42 प्रतिशत वृद्धि हुई है। देश के 31.4 प्रतिशत कृषक परिवारों पर कर्ज है जबकि 22.4 प्रतिशत कर्ज गैर कृषक परिवारों पर है। इसलिये किसानों के बारे में बुनियादी सोच बदलनी होगी और चुनाव के अल्पकालिक हितों से से ऊपर उठकर दीर्घकालिक ठोस कार्यकृम बनाने होंगे।
राजस्थान पत्रिका
चुनाव: अकेले या साथ
एक साथ चुनाव के जितने समर्थक हैं उतने ही विरोधी भी। किसी को एक साथ चुनाव में खर्च कम होता तो किसी को इसमें क्षेत्रीय दलों का दम घुटता दिखता है।
देश में आम चुनाव को लेकर चर्चाओं का बाजार गर्म है। कभी खबर आती, ये समय पूर्व होंगे, तो कभी लोकसभा व विधानसभाओं के चुनाव एक साथ होंगे, तो कभी खबर आती है कि ऐसा संभव ही नहीं है। चुनाव कब, कैसे होंगे यह चुनाव आयोग का काम है। वह निश्चित ही इसे केंद्र सरकार के साथ सलाह के बाद ही करेगा। जरुरत इस बात की है कि यह केवल केंद्र सरकार ही नहीं, राज्य सरकारों, राजनीतिक दलों और इसमें रुचि रखने वाले अन्य व्यक्ति और संगठनों से विचार-विमर्श के बाद हो। समय पूर्व चुनाव कराना या नहीं कराना तो किसी भी सरकार के हाथ में है। एक साथ चुनाव कराने में बहुतों का, बहुत कुछ दांव पर है। एक साथ चुनाव की बात होती है तो केवल लोकसभा व विधानसभा चुनाव की ही बात होती है। स्थानिय निकायों, जिनमें शहरी और ग्रामीण निकाय शामिल हैं, को हम भूल जाते हैं। इन दोनों ही संस्थाओं को हमने संवैधानिक दर्जा दे रखा है। लोकसभा- विधानसभा की तरह हर पांच साल में उनके चुनाव कराना भी हमारी संवैधानिक व्यवस्था तो है ही, बाध्यता भी है। एक साथ चुनाव के जितने समर्थक हैं उतने ही विरोधी भी। किसी को एक साथ चुनाव में खर्च कम होता तो किसी को इसमें क्षेत्रीय दलों का दम घुटता दिखता है। यह तय है कि एक साथ चुनाव से, चुनावी आचार संहिता के नाम पर सरकारों के लिये काम करने के दिनों की संख्या कम होना तो रुकेगा। जरुरी यह भी है कि यह काम अकेले नहीं हो। जितने भी चुनाव सुधार करने हैं वह भी इसी के साथ लागू हों। फिर चाहे उम्मीदवारों का चुनाव खर्च राजकोष से उठाने की बात हो अथवा फिर भ्रष्टाचार और विभिन्न अपराधों को दोषी ही नहीं, आरोपियों को भी चुनाव लड़ने से रोकने की बात हो। ऐसे किसी भी विचार-विमर्श में न्यायपालिका को शामिल किया जाना भी भविष्य में उठने वाले सवालों का पहले ही समाधान करने की दृष्टी से उचित होगा। एक साथ चुनाव होना जितना जरूरी है, उससे ज्यादा जरुरी है
चुनाव में जनता का विश्वास होना। जिसका ध्यान अकेले चुनाव आयोग ही नहीं, तमाम राजनीतिक दलों और सरकारों को भी रखना है।
दैनिक जागरण
पाकिस्तान का नया झांसा
कम से कम भारत को इससे तनिक भी प्रभावित नहीं होना चाहिए कि पाकिस्तान ने मुंबई में आतंकी हमले की साजिश रचने और जेहाद के नाम पर आतंकियों की फौज खड़ी करने वाले आतंकी सरगना हाफिज सईद पर पाबंदी लगाने का फैसला किया है। पाकिस्तान ने नए-नए नाम से आतंकी संगठन चलाने वाले हाफिज सईद पर पाबंदी लगाने अथवा उसके खिलाफ कार्रवाई करने का दिखावा पहले भी कई बार किया है। हर बार यह आतंकी सरगना कुछ दिनों या महीनों के बाद खुले आम घूमने और भारत3के खिलाफ जहर उगलने में सक्षम हुआ है। यह तय मानकर चला जाना चाहिए कि पाकिस्तानी सेना और सरकार की कृपा से वह आगे भी ऐसा करने में समर्थ होगा। हाफिज सईद पर एक और बार कथित पाबंदी लगाने की पहल करके पाकिस्तान ने संयुक्त राष्ट्र के साथ-साथ भारत और दुनिया के अन्य देशों की आंखों में धूल झोंकने का ही काम किया है। इसका एक बड़ा सबूत यह है कि अभी पिछ्ले माह ही पाकिस्तानी प्रधानमंत्री पूरी बेशर्मी के साथ यह फरमा रहे थे कि हाफिज सईद साहब के खिलाफ तो कोई मामला ही नहीं है। इसमें कोई संदेह नहीं कि पाकिस्तान ने एक तरह से छिपते-छिपाते हुए हाफिज सईद और उसके संगठनों पर पाबंदी लगाने की पहल महज इसलिय की है ताकि संयुक्त रास्ट्र सुरक्षा परिषद के समक्ष शर्मसार होने से बच सके। सुरक्षा परिषद की उस समिति की बैठक अगले कुछ दिनों में होनी है जिस पर यह देखने की जिम्मेदारी है कि संबंधित देशों ने संयुक्त रास्ट्र की प्रतिबंधित सूची में शामिल आतंकी संगठनों के वित्तीय स्रोतों पर लगाम लगाई या नहीं?
चूंकि पाकिस्तान ने भारत के खिलाफ उन्माद से भरे हुए हाफिज सईद और आतंकी पैदा करने वाले उसके संगठनों के खिलाफ कुछ किया ही नहीं इसलिए वह इससे चिंतित था कि कहिं उसे सुरक्षा परिषद की पाबंदियों का सामना न करना पड़े। पाकिस्तानी रास्ट्रपति ने हाफिज सईद को आतंकी घोषित करने वाले अध्यादेश पर हस्ताक्षर इसलिए कदापि नहीं किए कि पाकिस्तानी शासन इस आतंकी सरगना पर लगाम लगाना चाहता है। उसका एक मात्र मकसद तो विश्व समुदाय को झांसा देना है। इसके भरे-पूरे आसार हैं कि यह अध्यादेश कानून का रूप नहीं लेगा। अगर पाकिस्तान आतंकवाद के खिलाफ कार्रवाई करने के मामले में तनिक भी ईमानदार होता तो वह आतंकी संगठन जैश-मुहम्मद के सरगना मसूद अजहर के खिलाफ भी कोई कदम उठाता। उसने ऐसा नहीं किया और इसका सीधा मतलब है कि वह उसे सरंक्षित रखते हुये उसका इस्तेमाल भारत के खिलाफ जारी रखेगा। भारत सरकार को यह नहीं भूलना चाहिए कि पाकिस्तान ने बीते एक दशक से अपने यहां पल रहे उन आतंकी संगठनों को अपना रणनीतिक हथियार बना रखा है। अमेरिका ने दशकों तक यह सब देखने से इन्कार किया। नतीजा यह हुआ कि उसे पाकिस्तान से धोखे के अलावा और कुछ नहीं मिला।
प्रभात ख़बर
अर्थव्यवस्था को राहत
महंगाई और औद्दोगिक उत्पादन के नये आँकड़े राहत का संकेत लेकर आये हैं, केंद्रीय सांख्यिकी संगठन (सीएसओ) हर माह औद्दोगिक उत्पादन सूचकांक(आइआइपी) और खुदरा महंगाई दर के आंकड़े जारी करता है, ताजा आंकडे खुदरा मंहगाई दर में कमी तथा औद्दोगिक उत्पादन कुछ बेहतर होने के रुझान हैं. उपभोक्ता मूल्य सूचकांक के आधार पर दिसंबर में महंगाई 5.07 फीसदी हो गई है. खाने-पीने की चीजों की कीमतों का घटना जनवरी में खुदरा महंगाई में कमी की मुख्य वजह रही. खुदरा मूल्य सूचकांक में खाने-पीने के सामानों की हिस्सेदारी 46 फीसदी होती है. जनवरी में खाद्द वस्तुओं की खुदरा मंहगाई दर 4.7 फीसदी पर आ गई है, जबकि दिसम्बर में 4.96 फीसदी थी. हालांकि इस तथ्य को ध्यान में रखना होगा कि महंगाई के घटने के बावजूद उपभोक्ता का खर्च कम नहीं हुआ है, क्योंकि तेल की कीमतें चढ़ाव पर रहीं. औद्दोगिक विकास दर की मांप आइआइपी भी सुधार पर है. दिसंबर में इसमें 7.1 फीसदी की वृद्घि हुई है. अगर चालू वित्त वर्ष की पहली तीन तिमाहियों की तुलना करें, तो आइआइपी में आये सुधार से बड़े आशाजनक संकेत निकलते हैं. साल 2017 के अप्रेल से दिसंबर महीने के बीच उद्दोगों की विकास दर औसतन 3.7 फीसदी रही.नवंबर की तुलना में दिसंबर में दर में हल्की कमी आई है. उद्दोगों की विकास दर में उछाल की मुख्य वजह विनिर्माण क्षेत्र में आई तेजी को माना जा रहा है. फैक्ट्रियों में उत्पादन बढ़ा है और बढ़ोतरी विनिर्माण क्षेत्र में आयी 8.4 फीसदी की तेजी की देन है. सीएसओ के नये तथ्य संकेत करते हैं कि खनन और बिजली उत्पादन के क्षेत्र में खास बढोतरी हुई है. बहरहाल, औद्दोगिक उत्पादन में आई तेजी और खुदरा मंहगाई में हुई कमी को रिजर्व बैंक की नई समीक्षा के तथ्यों की रोशनी में देखना ज्यादा ठीक होगा. रिजर्व बैंक का आकलन है कि अगले वित्त वर्ष (2018-19) में मानसून के सामान्य रहने पर मंहगाई दर 5.1 प्रतिशत से 5.6 प्रतिशत रह सकती है. साथ ही, बैंक ने चालू वित्त वर्ष (2017-18) में जनवरी से मार्च महीने के लिये डीजल-पेट्रोल की कीमतों की वृद्घि के मद्देनजर महंगाई दर 5.1 प्रतिशत रहने का अनुमान लगाया है, जबकि दिसंबर में महंगाई दर के 4.4 फीसदी तक रहने का अनुमान था. मंहगाई दर में कमी के रुझान अगर नये वित्त वर्ष के ज्यादतर महीनों में जारी रहें, तभी आम उपभोक्ता के लिये राहत की स्थिति बन पायेगी. रिजर्व बैंक ने पूंजी निर्माण की स्थितियों के बारे में आगाह किया था. फिलहाल बचत और निवेश के रुझान 2007 की तुलना में बेहतर नहीं हैं, जबकि आर्थिक वृद्धि दर को वांछित स्तर पर बनाये रखने के लिए बचत और निवेश के अनुकूल स्थितियां तैयार करना बहुत अहम है.
देशबन्धु
प. एशिया में भारत की नई शुरुआत
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की तीन पश्चिमी एशियाई देशों की यात्रा कई मायनों में सफल और सार्थक कही जा सकती है। संयुक्त अरब अमीरात, फिलीस्तीन और ओमान जाकर मोदीजी ने विदेश नीति के उस संतुलन को बनाए रखा है, जिसके बिगड़ने का डर लग रहा था। भारत की आजादी के बाद पं.नेहरू ने किसी भी शक्तिशाली देश के दबाव में न आते हुए स्वतंत्र विदेश नीति को अपनाया था। जिसमें अमेरिका, रूस जैसे देशों के साथ बराबरी का रिश्ता था, तो एशिया, अफ्रीका के अनेक नवस्वतंत्र देशों के साथ भी नए संबंध विकसित किए गए। हमने गुटनिरपेक्षता को अपनाया, जिसके कारण दुनिया के नक्शे में भारत की अलग पहचान बनी।
नेहरूजी के बाद भी तमाम प्रधानमंत्रियों ने घरेलू स्तर पर चाहे जो बदलाव किया हो, विदेश नीति में उनका ही अनुकरण किया। मोदीजी के सत्ता में आने के बाद जब इजरायल से रिश्ते घनिष्ठ होने लगे, तो कहीं न कहीं यह आशंका हो रही थी कि कहीं इसका असर फिलीस्तीन से हमारे रिश्तों पर न पड़े। लेकिन बीते दिनों संरा में अमेरिका के प्रस्ताव के खिलाफ फिलीस्तीन का साथ भारत ने दिया, तो यह संदेश फिलीस्तीन तक पहुंचा कि भारत उसके साथ होने वाले अन्याय का साथ नहीं देगा।
हालांकि यह सच अपनी जगह है कि सामरिक, आर्थिक कारणों से अब इजरायल से रिश्ते निभाना भी हमारे लिए जरूरी हो गया है। दोनों विरोधी देश भारत को अपना मित्र मानते हैं, ऐसे में भारत को अपना हर कदम फूंक-फूंक कर रखना होगा। प्रधानमंत्री ने इस यात्रा में फिलिस्तीन के साथ करीब 5 करोड़ डॉलर के छह समझौतों पर हस्ताक्षर किए, जिससे दोनों देशों के बीच आर्थिक सहयोग बढ़ेगा। इधर संयुक्त अरब अमीरात के साथ भी भारत ने पांच समझौतों पर हस्ताक्षर किए। इसके अलावा मोदीजी ने राजधानी अबू धाबी में पहले हिंदू मंदिर के निर्माण की आधारशिला रखी।
यह महज धार्मिक उपलब्धि नहीं है, बल्कि इसे सांस्कृतिक दृष्टि से भी बड़ी उपलब्धि माना जाना चाहिए। एक मुस्लिम बहुल देश में जब हम मंदिर निर्माण की शिला रखते हैं, तो यह सुनिश्चित करना चाहिए कि यहां भारत में जो सदियों की गंगा-जमुनी संस्कृति है, वह मंदिर-मस्जिद राजनीति की भेंट न चढ़ जाए। अपने दौरे के आखिर में प्रधानमंत्री ओमान पहुंचे। इस देश से भी हमारे रिश्ते बरसों पुराने हैं। जब ओमान के सुल्तान कबूस बिन सैद अल-सैद ने जुलाई, 1970 में सत्ता अपने हाथों में ली तो केवल ब्रिटेन और भारत के साथ ही उनके कूटनीतिक रिश्ते बनें। तब से ही भारत और ओमान के बीच कूटनीतिक, राजनीतिक, व्यापार और नौसैनिक सहयोग जारी रहा।
ओमान ने बांग्लादेश युद्ध के वक्त भारत का समर्थन किया जबकि कई अरब देश इसके खिलाफ थे। बीच में कुछ गलतफहमियों के कारण भारत-ओमान के बीच कुछ खटास बन गई थी, लेकिन अब रिश्तों को फिर से पटरी पर लाया जा रहा है। ओमान हमेशा से भारत के साथ रक्षा सहयोग बढ़ाने का इच्छुक रहा है। भारत से उसे आधुनिक तकनीकी मिल सकती है, तो ओमान से भारत को सामुद्रिक सुरक्षा हासिल करने में मदद मिल सकती है।
प्रधानमंत्री मोदी की इस यात्रा के दौरान भारत और ओमान के बीच 8 समझौतों पर हस्ताक्षर किए गए। साथ ही स्वास्थ्य, आउटर स्पेस, कूटनीति, रक्षा अध्ययन और विश्लेषण के तीन समझौता ज्ञापन पत्र पर भी हस्ताक्षर किए गए। भारत के लिए खास बात यह रही कि एक समझौते के तहत अब भारत ओमान के दुकम पोर्ट का इस्तेमाल अपनी सैन्य गतिविधियों एवं लॉजिस्टिक सपोर्ट के लिए कर सकेगा। दुकम पोर्ट ओमान के दक्षिणपूर्वी भाग में स्थित है और यहां से एक साथ अरब सागर और हिंद महासागर दोनों तरफ नजर रखी जा सकती है। इस पोर्ट का सामरिक एवं रणनीतिक महत्व काफी ज्यादा है क्योंकि यह ईरान के चाबाहार बंदरगाह के नजदीक स्थित है।
भारत यहां से चीन की गतिविधियों पर भी नजर रख सकता है। साथ ही पूर्वी अफ्रीका में व्यापार बढ़ाने में भी भारत को यहां से मदद मिलेगी। ओमान से अच्छे रिश्ते भारत के लिए इसलिए भी जरूरी हैं, क्योंकि उससे हमें समुद्री सुरक्षा मिलती है। अदन की खाड़ी और सोमालिया में समुद्री लुटेरों से बचने के लिए हमारे जहाजों को ओमान के बंदरगाहों में पनाह मिलती है। कुल मिलाकर प.एशियाई देशों की इस यात्रा से नई संभावनाएं जगी हैं और इन देशों में यह संदेश फिर से गया है कि भारत उनका पुराना और स्थायी मित्र है।