आज के हिंदी अख़बारों के संपादकीय: 27 फ़रवरी, 2018

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नवभारत टाइम्स

संघ का संदेश

उत्तर प्रदेश के मेरठ में अब तक का सबसे बड़ा स्वयंसेवक समागम आयोजित कर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) ने अपने कार्यकर्ताओं को अगले आम चुनाव के लिए कमर कस लेने का संदेश दिया है। इसके साथ ही संघ ने देश को अपने दमखम का अहसास कराने की कोशिश की है, और अपने बदले हुए रुख का भी। समागम में आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने हिंदुओं की एकजुटता पर सबसे ज्यादा जोर दिया। उन्होंने कहा कि ‘हम जाति के आधार पर आपस में लड़ रहे हैं, जो हमारे रास्ते में अवरोध पैदा कर रहा है। हमें मानना होगा कि हर हिंदू मेरा अपना भाई है, चाहे वह किसी भी जाति का हो। हम हिंदुओं को एक होना है।’ उन्होंने यह भी कहा कि अभी संघ का कोई विकल्प नहीं है, संपूर्ण समाज को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ बनाना होगा। दरअसल संघ के लिए यूपी अभी एक प्रयोगशाला है और अभी सारे प्रयोग यहीं से किए जाएंगे। खासकर पश्चिमी यूपी तो उसके लिए सबसे ज्यादा उर्वर रहा है। 2014 में बीजेपी को सर्वाधिक 73 लोकसभा सीटें उत्तर प्रदेश से ही मिली थीं। इसमें भी वेस्टर्न यूपी से सबसे ज्यादा सीटें हाथ लगी थीं। हालांकि इधर एक-दो वर्षों में यहां सवर्णों और दलितों के बीच टकराव की कई घटनाएं घटी हैं। इस आयोजन का एक उद्देश्य इस टकराव से पैदा हुए अलगाव को दूर करना भी हो सकता है। इसके लिए मेरठ और आसपास के जिलों से सभी जातियों के तीन लाख परिवारों से आगंतुकों के लिए भोजन के 6 लाख पैकेट एकत्र करने का दावा किया गया है। आयोजन में सभी मत-पंथ के लोगों, महिलाओं और संतों को जुटाने का प्रयास किया गया है। पिछले आम चुनाव और उसके बाद विधानसभा चुनावों में संघ ने जिस नई सोशल इंजीनियरिंग को अपनी रणनीति में जगह दी है, उसके नतीजे उसके लिए बड़े फलदायी रहे हैं। लेकिन जाति आधारित टकराव इस रणनीति को बेजान बना सकते हैं, इसलिए संघ का सबसे ज्यादा जोर हिंदू एकता पर है। गौर करने की बात है कि पिछले कुछ वर्षों में संघ ने बदलते सामाजिक यथार्थ के अनुरूप अपनी रणनीति और कुछ मूल सिद्धांतों में भी बदलाव किए हैं, साथ ही कई तरह के परस्पर विरोधी तत्वों को अपने

भीतर पचाने की क्षमता और लचीलापन भी विकसित किया है। जाहिर है, उसका बदलाव हाफ पैंट से फुल पैंट तक सीमित नहीं है। यह विचार में भी दिख रहा है। उसकी भाषा में जनतंत्र और आधुनिकता के कई तर्क मिलने लगे हैं। समलैंगिकता और आरक्षण जैसे मुद्दों पर उसने अपना रुख नरम किया और वैलंटाइंस डे पर चुप्पी साध ली है। शाखाओं में जहां-तहां छोटी लड़कियां भी दिखने लगी हैं। इस समागम के जरिए संघ ने अपने इसी रूप की एक झलक दिखाई है। देखना है, अपने वर्चस्व वाले समाज की बेचैनी को वह कितना साध पाता है।


जनसत्ता 

खतरे का पाठ

किसी मुकदमे में सजा पूरी करने के लिए या फिर विचाराधीन कैदियों को जब जेल में रखा जाता है तो एक मुख्य मकसद उनके भीतर सुधार लाना भी होता है। लेकिन अगर कोई जेल मामूली अपराधों के लिए बंद युवाओं को और ज्यादा खतरनाक अपराधी बनने के लिए प्रेरित करने का अड्डा बन जाए तो यह सरकार और संबंधित महकमे की कार्यक्षमता पर सवालिया निशान है। खबर के मुताबिक एक आधिकारिक रिपोर्ट में ये तथ्य उजागर हुए कि श्रीनगर की केंद्रीय जेल के भीतर छोटे-मोटे अपराध की सजा काट रहे और विचाराधीन कैदियों को कट्टरपंथ का पाठ पढ़ाने जैसी कवायदें चल रही हैं; जेल परिसर में करीब तीन सौ मोबाइल फोनों का संचालन हो रहा है।

रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि वहां दिए जाने वाले व्याख्यानों में धर्म के मूल सिद्धांतों को किनारे रख कर कट्टरपंथ के पहलुओं पर जोर दिया जाता है, जिसका कैदियों के मनोविज्ञान पर गहरा प्रभाव पड़ता है। इसमें ज्यादा गंभीर बात यह है कि इस खतरनाक योजना में युवा कैदियों को निशाने पर ज्यादा लिया जा रहा है। अंदाजा लगाया जा सकता है कि मामूली अपराधों के तहत जेल में सजा पूरी कर जो युवा फिर से समाज की मुख्यधारा में लौट कर सामान्य जीवन जी सकता था, वह जेल में चल रही उन अवांछित गतिविधियों के असर में कैसे एक ज्यादा खतरनाक अपराधी बन सकता है या फिर किसी आतंकवादी संगठन की चपेट में आ सकता है।

सवाल है कि देश की सबसे सुरक्षित मानी जाने वाली जेल में अगर एक तरह से सुनियोजित और संगठित तरीके से कट्टरपंथ को बढ़ावा देने वाली गतिविधियां संचालित की जा रही हैं तो इसकी जिम्मेदारी किस पर होनी चाहिए! जेलों में कैदियों पर निगरानी करने से लेकर तकनीकी संसाधनों के जरिए सुरक्षा व्यवस्था सुनिश्चित करने में कोताही के लिए कौन जवाबदेह है? हालांकि जेलों में कैदियों के मोबाइल या दूसरी सुविधाएं हासिल कर लेने या मनमानी करने का यह कोई अकेला उदाहरण नहीं है। हफ्ते भर पहले राजस्थान की जोधपुर जेल में बर्बर तरीके से एक व्यक्ति की हत्या करने के मामले में बंद शंभूलाल रेगर नाम के एक कैदी ने बाकायदा मोबाइल से एक खास समुदाय के खिलाफ नफरत से भरे संदेश का वीडियो बना कर लोगों को भेज दिया। इस तरह की घटनाएं यह बताने के लिए काफी हैं कि जेलों में सुरक्षा व्यवस्था और कैदियों की निगरानी की व्यवस्था में कैसी लापरवाही बरती जाती है।

यों देश की ज्यादातर जेलों में निर्धारित क्षमता से काफी ज्यादा संख्या में कैदियों को रखे जाने से लेकर उनके रहन-सहन या खानपान की बदहाली की तस्वीर कोई छिपी बात नहीं है। दूसरी ओर, ऐसी खबरें अक्सर आती रहती हैं जिनमें किसी जेल में कुछ खास या ऊंचे रसूख वाले कैदियों के लिए चारदिवारी के भीतर भी विशेष सुविधाओं का इंतजाम हो जाता है। वह मोबाइल का इस्तेमाल हो या फिर दूसरी कई सुविधाएं, उन्हें सामान्य घरेलू जीवन जीने में कोई दिक्कत नहीं होती। जब एकाध ऐसी खबर तूल पकड़ लेती है तब सरकार या संबंधित महकमे दोषियों के खिलाफ कार्रवाई करने की बात कहते हैं। लेकिन सच यह है कि जेल में तैनात सुरक्षाकर्मियों से लेकर अधिकारियों तक के स्तर पर कई बार कुछ खास कैदियों के साथ मिलीभगत होती है या फिर इस मामले में व्यापक कोताही बरती जाती है। लेकिन अगर अपराधियों के सजा काटने या उनके भीतर सुधार करने के बजाय जेलों में उनके और ज्यादा खतरनाक होने के हालात बनाए जा रहे हैं तो भविष्य में आतंकवाद या दूसरी अप्रिय स्थितियों के लिए किसे जिम्मेदार ठहराया जाएगा।


अमर उजाला

पाकिस्तान पर शिकंजा

आतंकवाद को निरंतर प्रश्रय देने वाले पाकिस्तान की मुश्किलें बढ़ती जा रही हैं, जिसे आतंकी फंडिंग और मनी लॉन्ड्रिंग पर रोक लगाने के लिए गठित अंतर सरकारी संस्था फाइनेंशियल ऐक्शन टॉस्क फोर्स (एफएटीएफ) ने पिछले हफ्ते अपनी ‘ग्रे सूची’ में डालने का फैसला किया है, जिसका औपचारिक एलान बाद में होगा। इसका मतलब है कि पाकिस्तान आतंकियों को होने वाली फंडिंग को रोकने में नाकाम साबित हुआ है। हालांकि इससे पहले 2012 से 2015 के दौरान तीन वर्षों के लिए उसे इस सूची में डाला जा चुका था, लेकिन इस बार कार्रवाई कहीं अधिक कठोर है, तो इसलिए क्योंकि यह पहल खुद अमेरिका ने की है और जिसके प्रस्ताव का एफएटीएफ के 39 सदस्य देशों में से तुर्की को छोड़कर सभी ने समर्थन किया। बेशक शुरू में चीन और गल्फ कोऑपरेशन काउंसिल ने विरोधी रुख अपनाया था, मगर बाद में उन्होंने भी इसका समर्थन किया। चीन पाकिस्तान को अपना मित्र बताता रहा है और मसूद अजहर के मुद्दे पर उसमें भारत के दबाव के बावजूद अपने मित्र का साथ दिया था। ऐसे में एफएटीएफ उसका पाकिस्तान के खिलाफ जाना, भारत के लिए मायने रखता है। संभव है कि इसकी वजह यह भी हो कि आर्थिक गलियारे और वन बेल्ट वन रोड की उसकी योजना के कारण उसका बहुत कुछ पाकिस्तान में दांव पर लगा हुआ है। दूसरी ओर भारत लंबे समय से पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद का पीड़ित है और वह लगातार आतंकी फंडिंग पर रोक लगाए जाने की मांग करता रहा है। अपने स्तर पर भारत ने आतंकी फंडिंग रोकने के प्रयास भी किए हैं, लेकिन जब तक अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कार्रवाई नहीं की जाएगी, उसका असर नहीं होगा। लिहाजा एफएटीएफ की इस कार्रवाई के बाद पाकिस्तान की साख पर जबर्दस्त असर पड़ा है और इसकी वजह से उसके लिए अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ),  विश्व बैंक और एशियाई बैंक (एडीबी) जैसी संस्थाओं से वित्तीय मदद मिलना मुश्किल हो सकती है। निवेशक पाकिस्तान से हाथ खींच सकते हैं, जिसका बुरा असर उसकी अर्थव्यवस्था पर पड़ सकता है, जोकि पहले ही चालू खाते के घाटे के संकट से जूझ रही है। इसके बावजूद ऐसे समय जब उसे इसी वर्ष आम चुनाव का सामना करना है, कहना मुश्किल है कि वहां का सत्ता प्रतिष्ठान आतंकियों पर किसी तरह की कार्रवाई करेगा!


हिंदुस्तान 
जिनपिंग का कार्यकाल 

कुछ ही महीने पहले जब चीन की कम्युनिस्ट पार्टी ने राष्ट्रपति शी जिनपिंग को देश के राष्ट्रपति के रूप में दुबारा चुना, तो कई जगह यह कहा गया कि वह चीन की कम्युनिस्ट पार्टी में उतने ही ताकतवर हो गए हैं, जितने कि कभी माओ जेडांग थे। जबकि चीन की राजनीति के कई माहिरों का कहना था कि वह माओ से भी ज्यादा ताकतवर हो चुके हैं। ऐसे ही तमाम विश्लेषणों के बीच इस बात का जिक्र भी हुआ था कि शी के लिए माओ बनना आसान नहीं होगा, क्योंकि उनके माओ बनने की राह में सबसे बड़ी बाधा चीन का संविधान है। माओ ने जिस तरह चीन को दशकों तक अपने नियंत्रण में रखा, उस तरह शी नहीं रख सकते, क्योंकि देंग जियाओपिंग के जमाने में बना नया संविधान एक राष्ट्रपति को दो कार्यकाल से ज्यादा इस पद पर रहने की इजाजत नहीं देता। लेकिन अब लगता है कि शी ने भी माओ बनने की ठान ली है। उन्होंने इसकी बाधाओं को हटाने की तैयारी कर ली है। रविवार को चीन की कम्युनिस्ट पार्टी ने कहा कि अधिकतम दो कार्यकाल का प्रावधान संविधान से हटाया जा रहा है। शी चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के चेयरमैन भी हैं और पार्टी पर उनका किस तरह का नियंत्रण है, यह हम पिछले कुछ समय में देख ही चुके हैं। जाहिर है, संविधान संशोधन में कोई बाधा नहीं आने वाली है। इसी को देखते हुए यह कहा जाने लगा है कि शी जिनपिंग अब आजीवन चीन की बागडोर संभालेंगे। यह कहना अभी शायद जल्दबाजी होगी, लेकिन यह बदलाव अगले कुछ साल या कुछ दशक के लिए चीन की दिशा तो तय कर ही देगा।

माओ के निधन के बाद जिस तरह से चीन में राजनीतिक उथल-पुथल हुई थी, उसे देखते हुए ही नए संविधान में दो कार्यकाल वाला यह प्रावधान डाला गया था। तब उम्मीद व्यक्त की गई थी कि यह चीन को स्थिरता देगा। देंग जियाओपिंग के बाद हू जिंताओ भी दो कार्यकाल तक ही देश के सर्वेसर्वा रहे। वे दो दशक चीन की राजनीति और समाज के लिए बदलाव के दो बहुत बडे़ दशक थे। उन्होंने न सिर्फ चीन को आधुनिक विश्व पूंजी से जोड़ा, बल्कि उसे एक आधुनिक राष्ट्र के रूप में तैयार किया। शी जिनपिंग ने भी इसी परंपरा को आगे बढ़ाया है। लेकिन दिलचस्प यह है कि अब जब इस प्रावधान को हटाने की बात कही जा रही है, तो वही तर्क दिया जा रहा है, जो इस प्रावधान को लाते समय दिया गया था- स्थिरता का तर्क। कहा जा रहा है कि इससे चीन में स्थिरता और निरंतरता आएगी।

हम जिस अर्थ में दुनिया में लोकतंत्र को देखते हैं, चीन में उस तरह का लोकतंत्र नहीं है। चीन के नेताओं को वहां की जनता प्रत्यक्ष रूप से नहीं चुनती और अप्रत्यक्ष तरीका भी इतना जटिल है कि आम जनता की राजनीति में कोई सक्रिय दिलचस्पी नहीं होती। चीन की इस व्यवस्था को हम निरंकुश भले ही न कहें, लेकिन उसमें तानाशाही के बहुत सारे तत्व हैं। चीन का यह तंत्र व्यवस्थापरक तंत्र है। देंग की भूमिका यही थी कि उन्होंने व्यक्तिपरक तंत्र को व्यवस्थापरक तंत्र में बदला था। लेकिन अब शी जिनपिंग जिस तरह से ताकतवर हो गए हैं कि चीन के तंत्र पर यह खतरा फिर मंडराने लगा है कि वह व्यक्तिपरक तंत्र में न बदल जाए। हालांकि विशेषज्ञ मानते हैं कि यह बहुत कुछ इस पर निर्भर करेगा कि चीन की अर्थव्यवस्था किस रफ्तार से बढ़ती है और फिर शी और उनकी पार्टी चीन के अंतरविरोधों को किस हद तक काबू में रख पाते हैं?


दैनिक भास्कर

डब्ल्यूटीओ के सेतु पर भारत और पाकिस्तान

भारत और पाकिस्तान के बिगड़े संबंधों को सुधारने की एक पहल मार्च में उस समय होने की संभावना है,जब डब्ल्यूटीओ के मंत्रियों की अनौपचारिक बैठक में हिस्सा लेने पाकिस्तान के वाणिज्य मंत्री परवेज आलम भारत आएंगे। मलिक ने आमंत्रण स्वीकार कर लिया है और उनके आगमन के बाद पाकिस्तान में होने वाली पाकिस्तान में होने वाली सार्क देशों की बठक में भारत के भी भाग लेने की उम्म्मीद है। भारत और पाक के रुख में आए इस बदलाव के पीछे परदे के पीछे चल रही वार्ताओं का योगदान तो है ही साथ में अंतर्राष्ट्रीय दबावों की भी अपनी भूमिका है। ग्लोबल फाइनेंशियल टास्क फ़ोर्स(जीएफएटीएफ)ने पाकिस्तान को निगरानी में रखते हुए चेतावनी दी है कि अगर उसने सरकारी स्तर पर आतंकियों को मदद देना बंद नहीं किया तो उसकी आर्थिक मदद रोक दी जाएगी। ख़ास बात यह कि जीएफएटीएफ की चेतावनी पर चीन ने खामोशी का रुख अपके रिश्ते ना लिया है। इसका मतलब है कि पाकिस्तान की आतंक को समर्थन देने की रणनीति के खिलाफ भारतीय राजनय ने दुनिया में एक वातावरण निर्मित किया है। भारत चाहता है कि पाकिस्तान से संबंघों के मोर्चे पर वह आमेरिका पर निर्भर रहने के बजाय स्वतंत्र पहल भी करे। हालांकि पाकिस्तान ने हाफिज सईद और जकिउर रहमान लखवी जैसे आतंकियों को रिहा करके पठानकोट हमले के बारे में कोई कार्रवाई न करके भारत को चिढाने का कोई मौका नहीं छोड़ा। यही वजह है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी यह इंतजार कर रहे हैं कि पाकिस्तानी प्रधानमंत्री शाहिद खकन अब्बासी कोई ऐसा रुख अपनाएं जिससे भारत को उनसे संबन्ध सुधारने का कोई औचित्य समझ में आए। आशा की जा रही है कि दोनों देश संवाद शुरू करने का माहौल बनाने के लिए उन कैदियों को रिहा करेंगे जो अपनी सजाएं काट चुके हैं और सेहत की दृष्टि से कमजोर हैं। ऐसे कैदियों में तकरीबन 51 औरतों और बच्चों का जिक्र किया जा रहा है। एनडीए सरकार चाहती है कि अपने कार्यकाल के आखिरी वर्ष में वह संबंध सुधारने का उपाय करे और इसलिए पाकिस्तान के साथ एक मंच पर आने लिए सहमत हो रही है। अगर इन कोशिशों से तनाव कुछ कम होता है तो इसका निश्चित तौर पर स्वागत होना चाहिए।


राजस्थान पत्रिका

क्या धंधा है नेतागिरी?

सांसदों और विधायकों की आर्थिक समृद्धि को आधार माना जाए तो देश अप्रत्याशित रूप से तरक्की कर रहा है। देश की सर्वोच्च अदालत में हुए एक खुलासे के अनुसार 25 सांसदों और 257 विधायकों की सम्पत्ति पिछले पांच सालों में पांच गुना तक बढ़ी है। कुछ सांसद-विधायकों की सम्पत्ति जो पचास गुना तक बढ़ने की बात भी सामने आई है। लेकिन जनप्रतिनिधियों की बढ़ रही इन सम्पत्तियों को क्या आम आदमी की खुशहाली से जोड़कर देखा जाए? जिस देश का किसान बदहाली से जूझ रहा हो. युवा रोजगार के लिए भटक रहे हों। आम आदमी महंगाई की मार से पस्त हो। उस देश में जनप्रतिनिधियों की बेतहाशा बढ़ रही सम्पत्ति की खबरें जले पर नमक छिड़कने से कम नहीं मानी जा सकती। बात यहां इस सरकार या इससे पहले रही सरकार की नहीं है। बात किसी राजनीतिक दल की भी नहीं है। बात है नेताओं की कथनी और करनी के अंतर की। हर सरकार आम आदमी की जिंदगी खुशहाल बनाने के लम्बे-चौड़े वायदे तो करती है लेकिन ऐसा होता नहीं। मंत्री-सांसद-विधायकों की सम्पत्ति तेज रफ्तार से बढ़ रही है तो आश्चर्य क्यों ना हो? ऐसे नेता भी मिल जाएंगे जिनका कोई कारोबार नहीं है, फिर भी वह करोड़ों-अरबों में खेल रहे हैं। वो तो भला हो देश की अदालतों और आरटीआई कार्यकर्ताओं का,।जिनके कारण नेताओं की सम्पत्ति का खुलासा हो भी जाता है। वरना पता ही ना चले कि किस की सम्पत्ति, कितनी बढ़ रही है। चुनाव से पहले अपने आप को जनता का सेवक बताने वाले यह जनप्रतिनिधि सत्ता में आते ही जनता के भाग्य विधाता बन जाते हैं। सम्पत्तियों के बेतहाशा बढ़ने के खुलासे होते जरूर हैं लेकिन इन नेताओं की सेहत पर कोई असर नहीं पड़ता। इनसे कोई पूछने वाला नहीं कि यह संपत्ति बढ़ती कैसे है? सम्पत्ति बढ़ाने का फार्मूला नेता जनता को भी बता दें तो देश का भी कल्याण हो सकता है। कम से कम आम आदमी भी अपनी जिन्दगी सुधार सकता है। जन सेवा के नाम पर तिजोरी भरने के खेल में देश के अधिकांश नेता तल्लीन हैं। भ्रष्टाचार के मामले की अदालत में ले गया और गंभीरता से पीछे पड़ा रहा तो ओमप्रकाश चौटाला और लालू सरीखे नेता सलाखों के पीछे पहुंच जाते हैं। अन्यथा जो चल रहा है वह किसी से छिपा नहीं।


दैनिक जागरण 

बेपरवाह कंपनियां 

वित्त मंत्रलय की ओर से करीब साढ़े नौ हजार गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियों को ज्यादा जोखिम वाली कंपनियों की सूची में शामिल किया जाना यही बताता है कि ऐसी कंपनियां किस तरह नियम-कानूनों के पालन को लेकर बेपरवाह हैं। इन कंपनियों को इसलिए एक तरह की काली सूची में डाला गया, क्योंकि इन्होंने तय समय में अपने यहां ऐसे अधिकारी की नियुक्ति नहीं कि जिस पर संदिग्ध और साथ ही दस लाख रुपये से अधिक के लेन-देन की जानकारी देने की जिम्मेदारी है। आखिर जब मनी लांडिंग कानून के तहत गैर बैंकिंग कंपनियों के लिए ऐसा करना आवश्यक है तो फिर उसकी अनदेखी करने का क्या मतलब? वित्त मंत्रलय की मानें तो मनी लांडिंग कानून के एक जरूरी नियम का पालन न करने वाली कंपनियों को ज्यादा जोखिम वाली कंपनियों की सूची में शामिल करने का फैसला आम जनता को यह बताने के लिए है कि वे ऐसी कंपनियों से दूर रहें। इसमें संदेह है कि संबंधित कंपनियों की सूची जारी करने मात्र से इस उद्देश्य की पूर्ति होने वाली है। दूर दराज के इलाकों में तो यह सूचना भी पहुंचना कठिन है कि अमुक-अमुक कंपनियां जोखिम वाली हैं और उनसे सचेत रहना आवश्यक है। बेहतर हो कि वित्त मंत्रलय यह देखे कि गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियां प्रत्येक नियम-कानून का पालन हर हाल में करें और अगर वे आनाकानी करें तो फिर उनके खिलाफ कोई कठोर कार्रवाई भी हो। इसकी जरूरत इसलिए है, क्योंकि ऐसी ही कंपनियों के बारे में यह संदेह है कि उन्होंने नोटबंदी के बाद कालेधन को सफेद करने का काम किया था। 1यह सामान्य बात नहीं कि कई कंपनियों के बारे में यह भी शक है कि उन्होंने नोटबंदी के बाद सहकारी बैंकों के जरिये कालेधन को सफेद किया। अगर किसी कंपनी की ओर से वास्तव में ऐसा किया गया तो फिर उसे केवल जोखिम भरी कंपनी करार देना एक तरह से प्रतीकात्मक कार्रवाई करके कर्तव्य की इतिश्री करना है। यह विचित्र है कि नोटबंदी के बाद जिस तरह यह सामने आया था कि कई सहकारी बैंकों ने रिजर्व बैंक के निर्देशों का पालन करने से इन्कार करते हुए कालेधन को सफेद करने का काम किया उसी तरह अब यह सामने आ रहा है कि अधिकतर गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियां मनी लांडिंग कानून के पालन को लेकर सचेत नहीं। पंजाब नेशनल बैंक में घोटाले के बाद यह भी सामने आया है कि कई सरकारी बैंक रिजर्व बैंक के निर्देशों का सही तरह पालन नहीं कर रहे थे। यह स्थिति वित्तीय अनुशासन और प्रबंधन पर सवाल ही खड़ा करती है। ऐसे सवाल जवाबदेही की कमी को इंगित करते हैं। अगर वित्तीय प्रबंधन को दुरुस्त करने संबंधी नियम-निर्देशों की अनदेखी पर सख्ती नहीं दिखाई जाती तो फिर अनदेखी करने वाले तो और अधिक लापरवाही का ही परिचय देंगे। क्या ऐसे नियम-कानूनों का कोई मतलब हो सकता है जिनका पालन न किया जाए? एक ऐसे समय जब सरकार बैकिंग और वित्तीय प्रबंधन को लेकर गंभीर सवालों से घिरी हो तब वह नियामक संस्थाओं पर दोष मढ़कर अपना बचाव नहीं कर सकती। यह देखना सरकार की जिम्मेदारी है कि नियामक संस्थाएं अपना काम सही तरह से करें।


प्रभात खबर

मशीनी बुद्धि का मसला

मशीनों तकनीक का सीधा संबंध हमारे विकास की गति से है. आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस तकनीक का भविष्य है. भारत को फैसला यह करना है कि मनुष्य की तरह सोचने यानी उपलब्ध सूचनाओं के आधार पर आकलन, अनुमान, समस्या की पहचान और तर्कसंगत समाधान की क्षमता रखने वाले यंत्रों का इस्तेमाल जीवन के किन क्षेत्रों और किस सीमा तक किया जाये. इस संदर्भ में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक विचार रखा है. वह ऐसे यंत्रों के उपयोग के पक्ष में हैं. उनका तर्क है कि अगर कृत्रिम बुद्धियुक्त प्रणालियों से गरीबी हटाने और दिव्यांग लोगों का जीवन सहज बनाने में मदद मिलती है, तो समानता के मूल्य के लिहाज से हमें इसका स्वागत करना चाहिए. इसी क्रम में प्रधानमंत्री ने प्राकृतिक आपदाओं की अग्रिम सूचना देने तथा आपदा राहत के काम में ऐसे यंत्रों को लगाने की बात भी कही है. मशीनीकृत बुद्धि (आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस) से सशंकित लोगों को प्रधानमंत्री के रुख से शायद कुछ हैरानी हो. ऐसे लोगों का तर्क है कि अतिविकसित यंत्र रोजगार पर नकारात्मक असर डालेंगे. कुछ जानकार ऐसा भी मानते हैं कि कभी संभव है कि यह यंत्र पूरी मनुष्य जाति को ही एक ‘समस्या’ के रूप में चिह्नित कर ले और हमारी सभ्यता के विरुद्ध हमलावर हो उठे। ऐसी चिंताओं पर विचार करने से पहले ध्यान में रखना होगा प्रधानमंत्री ने अपनी राय एक शर्त भी जोड़ी है. वह शर्त यह है कि ऐसी प्रणाली मानव-कल्याण के महत्तर उद्देश्य के लिए प्रयुक्त होनी चाहिए. इसका तात्पर्य यह है कि वे बुद्धियुक्त मशीनों पर मनुष्य के नैतिक नियंत्रण के पक्ष में हैं. पीडब्ल्यूसी की रिपोर्ट के अनुसार, 2030 तक वैश्विक अर्थव्यवस्था में आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का योगदान करीब 16 ट्रिलियन डॉलर का होगा. एक आकलन यह भी है कि भारत अपनी अर्थव्यवस्था में 2035 तक हजार बिलियन डॉलर इस प्रणाली से जोड़ सकता है. ऐसे में न तो हमें देर करनी चाहिए और ना ही हड़बड़ी, क्योंकि अत्याधुनिक प्रणाली के फायदे तो बहुत हैं, परंतु उसके गलत इस्तेमाल और नुकसानदेह असर की संभावनाओं को भी दरकिनार नहीं किया जा सकता है. इसके बेहतर और उत्पादक इस्तेमाल के लिए पहली शर्त तो है नीतिगत स्पष्टता. कृत्रिम बुद्धि प्रणाली को तैयार करने और संचालित करने तथा तकनीक को रोजमर्रा के जीवन में अहम बनाने के लिए सबसे पहले तो शिक्षा व्यवस्था, कौशल और रोजगार के क्षेत्र में बदलाव की जरूरत है. मैन्युफैक्चरिंग और वितरण में डिजिटल नियंत्रण के तहत ऑटोमेशन और रोबोट प्रक्रिया के अनुरूप कामगारों को तैयार करने की प्राथमिकता होनी चाहिए, चीन की तर्ज पर डिजिटल इंफ्रास्ट्रक्चर को ठोस बनाने की कवायद तुरंत शुरू कर दी जानी चाहिए, इन पहलों को लेकर परिपक्व नीति बनाने के लिए उद्योग जगत, सूचना-तकनीक के उद्यमों तथा शैक्षणिक संस्थाओं के साथ सरकार को विचार-विमर्श करना चाहिए.


देशबन्धु 

संघ के राष्ट्रोदय के उद्देश्य
भाजपा 2019 के चुनावों की तैयारी में तो जुटी ही हुई है, उसकी पितृसंस्था राष्ट्रीय स्वयं सेवकसंघ भी पूरे प्राणपण से यह सुनिश्चित करने में लग गया है कि भाजपा दोबारा सत्ता में आए। और बीते चार सालों में समाज के जिन तबकों को भाजपा शासन में परेशानी झेलनी पड़ी, उन्हें किसी तरह साथ आने के लिए प्रेरित किया जाए। शायद इसलिए मेरठ में आरएसएस के राष्ट्रोदय कार्यक्रम में संघ प्रमुख मोहन भागवत ने बार-बार समाज में एकता और हिंदुत्व की शक्ति पर जोर दिया। इस मंच से श्री भागवत ने किसी राजनीतिक दल का नाम नहीं लिया। भाजपा के शासन का कोई जिक्र नहीं किया। चुनावों की बात नहीं की। लेकिन फिर भी जिस तरह से यह पूरा आयोजन हुआ और इसमें शामिल स्वयंसेवकों को मोहन भागवत ने जो पाठ पढ़ाया, उसका संदेश साफ था कि हमें फिर से भाजपा को ही सत्ता में लाना है।

अपने भाषण में उन्होंने स्वयंसेवकों को शक्ति, अनुशासन और सामाजिक एकता का पाठ मुख्य तौर से पढ़ाया। उन्होंने कहा कि दुनिया का एक व्यावहारिक नियम है। दुनिया अच्छी बातों को भी तभी मानती है जब उसके पीछे कोई शक्ति खड़ी हो। कोई डंडा हो। देवता भी कहते हैं कि बकरे की बलि दो। वो कुछ नहीं कहता है, मैं… मैं… करता है। देव भी दुर्बलों का सम्मान नहीं करते। सामाजिक एकता के लिए उन्होंने कहा कि हम ख़ुद को भूल गए हैं। आपस में जात-पात में बंटकर लड़ाई करते हैं। हमारे झगड़ों की आंच पर सारी दुनिया के लोग अपने स्वार्थ की रोटियां सेकते हैं, इसको बंद करना है तो हर हिंदू मेरा भाई है। समाज के प्रत्येक हिस्से को हम गले लगाएं। श्री भागवत की इन बातों से साफ है कि आरएसएस दलित और पिछड़ों को साथ लाने की बात कर रही है, ताकि अगले चुनाव में नुकसान न उठाना पड़े। अल्पसंख्यक तो भाजपा शासन में निशाने पर हैं ही, बीते कुछ महीनों में दलितों में भी भाजपा के प्रति नाराजगी बढ़ी है।

पश्चिमी उत्तर प्रदेश के सहारनपुर में दलितों और सवर्णों के बीच तनाव बढ़ा और चंद्रशेखर नाम का नया दलित नेतृत्व उभरा। नए साल पर महाराष्ट्र में दलित और सवर्ण आमने-सामने आए। गुजरात में जिग्नेश मेवाणी भाजपा सरकार के विरूद्ध दलितों को एकजुट करने में सफल हुए हैं। इस तरह भाजपा के लिए चुनौतियां बढ़ती जा रही हैं, और इसलिए संघ को हिंदुत्व के साथ-साथ सामाजिक एकता की बात करनी पड़ी है।

संघ बीते 3-4 वर्षों में देश भर में इस तरह के कार्यक्रम करता रहता है। लेकिन मेरठ में राष्ट्रोदय के नाम से हुए इस समागम में अब तक की सबसे बड़ी भीड़ एकत्र हुई। अनुमान है कि करीब 3 लाख स्वयंसेवक इस कार्यक्रम में शामिल हुए। जिनमें छोटे बच्चों से लेकर युवा सभी थे। राष्ट्रोदय की जानकारी देने के लिए पूरे शहर में लगाए होर्डिंग्स में भी सबसे ज़्यादा होर्डिंग ऐसे थे जिनके •ारिए सामाजिक एकता और छुआछूत के खिला$फ संदेश दिए जा रहे थे। मेरठ में संघ प्रमुख छुआछूत मिटाने की बात कहते हैं, उधर मेघालय में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी कहते हैं कि भाजपा धर्म आधारित राजनीति में विश्वास नहीं करती और अपनी बात साबित करने के लिए वे केरल की उन 46 नर्सों का उदाहरण देते हैं, जिन्हें इराक में आईएसआईएस की कैद से छुड़वाया गया था, वे सभी ईसाई थीं। मेघालय में ईसाई समुदाय की बहुलता है तो भाजपा खुद को ईसाइयों का हितैषी बतला रही है और फिर भी प्रधानमंत्री कहते है कि वे धर्म की राजनीति नहीं करते। अगर ऐसा है तो उत्तरप्रदेश में श्मशान और कब्रिस्तान की बात उन्होंने क्यों की?

मोहन भागवत भी जात-पांत की लड़ाई न लड़ने का उपदेश दे रहे हैं। जिस वक्त वे मेरठ में ये प्रवचन दे रहे थे, उस वक्त कासगंज में एक दलित युवक को बारात निकालने की अनुमति देने से पुलिस ने इन्कार कर दिया, क्योंकि शांति व्यवस्था बिगड़ने का डर है। दलित युवक संजय जाटव की 20 अप्रैल को शादी है और इसलिए उसने बारात निकालने की अनुमति मांगी। संघ प्रमुख मोहन भागवत और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी कृपया बता दें कि हिंदुस्तान में किसी सवर्ण को कब इस तरह की अनुमति प्रशासन से लेनी पड़ती है? एकता का पाठ पढ़ाना, खुद को महान बताना बहुत आसान काम है। अपने कहे को हकीकत में बदलना कठिन है। संघ और भाजपा अगर सचमुच एकता कायम करना चाहते हैं तो पहले जाति और धर्म की राजनीति करना खुद छोड़ें।