नवभारत टाइम्स
राजनीति में हिंसक भाषा
राजनेताओं की लगातार जहरीली होती भाषा देश के लिए चिंता का विषय है। 58 सांसदों और विधायकों ने बतौर उम्मीदवार की जाने वाली अपनी घोषणा में यह बताया है कि उनके खिलाफ नफरत फैलाने वाले भाषण देने के लिए मुकदमे दर्ज हैं। बीजेपी नेताओं की संख्या इनमें सबसे अधिक है। असोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) की रिपोर्ट में यह जानकारी दी गई है। रिपोर्ट के अनुसार केंद्रीय पेयजल और स्वच्छता मंत्री उमा भारती ने भी अपने खिलाफ ऐसा मामला दर्ज होने का जिक्र किया है। इसके अलावा आठ राज्य मंत्रियों के खिलाफ हेट स्पीच को लेकर केस दर्ज है। पिछले कुछ वर्षों में अपने विरोधियों के खिलाफ आपत्तिजनक बयान देना, उनका मजाक उड़ाना, जाति और समुदाय को लेकर अनाप-शनाप बातें कहना राजनीतिक संस्कृति का हिस्सा बनता गया है। यह चलन न्यूज चैनलों के प्रसार के साथ बढ़ा लेकिन सोशल मीडिया के आने के बाद इसमें जबर्दस्त तेजी आई है। एक अध्ययन के मुताबिक मई 2014 से लेकर अब तक 44 नेताओं ने 124 बार वीआईपी हेट स्पीच दी, जबकि यूपीए-2 के दौरान ऐसी बातें सिर्फ 21 बार हुई थीं। इस तरह मोदी सरकार के दौरान वीआईपी हेट स्पीच में 490 प्रतिशत की बढ़ोतरी दर्ज की गई है। वर्तमान सरकार के दौरान हेट स्पीच देने वालों में 90 प्रतिशत बीजेपी नेता हैं। यहां यह याद दिलाना जरूरी है कि नेताओं के बयानों का लोगों पर सीधा असर होता है। कई जगहों पर इनके आक्रामक बयानों से हिंसा भड़क उठती है और जानमाल का नुकसान होता है, लेकिन नेताओं का कभी बाल भी बांका नहीं होता। लीडर किसी भी पार्टी के हों, गाली देकर या अभद्र टिप्पणी करके प्राय: माफी मांग लेते हैं। पार्टी आलाकमान अपने नेता की बात को उसका निजी बयान बताकर मामले से पल्ला झाड़ लेता है। जब तक चुनाव में नुकसान की आशंका न हो, तब तक शायद ही किसी नेता पर कार्रवाई होती हो। कभी ऐसी कोई नौबत आ भी जाए तो थोड़े समय बाद सब कुछ भुला दिया जाता है। पार्टियां अपने ऐसे बदजुबान नेताओं को टिकट देने में कोई कोताही नहीं बरततीं। इधर कुछ समय से चुनाव आयोग इस मामले में सचेत हुआ है पर उसकी अपनी सीमा है। इस बारे में सख्त नियम बनाने का काम जन प्रतिनिधियों का है, पर वे अपने ही खिलाफ नियम क्यों बनाने लगे! सबसे बड़ी बात है कि अब लोग ऐसे भाषणों को नियति की तरह स्वीकार करने लगे हैं और इन्हें पॉलिटिक्स का एक जरूरी अंग मानने लगे हैं। नेताओं को समझना चाहिए कि उनकी देखादेखी सामान्य लोगों की बोलचाल में भी आक्रामकता चली आती है, जिससे कटुता फैलती है। इससे विरोध और असहमति की जगह कम होती है और लोकतंत्र की बुनियाद कमजोर पड़ती है। ऐसी भाषा के प्रति सभी दलों को सख्ती बरतनी चाहिए।
जनसत्ता
सजा और संदेश
अपने एक शिष्य की नाबालिग बच्ची से बलात्कार के मामले में आसाराम को अदालत ने जो सजा सुनाई उसके कई संदेश हैं। पहला संदेश यही है कि कोई कितना भी ताकतवर और प्रभावशाली और पहुंच वाला क्यों न हो, कानून से ऊपर नहीं है। दूसरा संदेश यह है कि अध्यात्म की आड़ लेकर अपराध पर पर्दा नहीं डाला जा सकता। समाज को भी चाहिए कि वह ऐसे तथाकथित संतों और बाबाओं की असलियत को समझे और उनसे दूर रहे। जोधपुर की विशेष अदालत ने आसाराम को मृत्युपर्यन्त कारावास की सजा सुनाई है।
वहीं इस अपराध में सहयोगी रहे दो आरोपियों को बीस-बीस साल की सजा हुई है। अलबत्ता अदालत ने दो अन्य आरोपियों को सबूतों के अभाव में बरी कर दिया। विशेष अदालत का यह फैसला ऐसे वक्त आया है जब देश में बलात्कार खासकर बच्चियों के साथ दुष्कर्म की घटनाओं को लेकर दुख और आक्रोश का माहौल है। लिहाजा, आसाराम को सुनाई गई सजा का स्वाभाविक ही चौतरफा स्वागत हुआ है।
संभवत: पोक्सो के तहत यह पहला मामला है जिसमें कड़ी से कड़ी सजा सुनाई गई है। यह बात आसाराम के रसूख को देखते हुए और भी मायने रखती है और न्याय व्यवस्था पर लोगों का भरोसा बढ़ाने वाली है। जिस शख्स के पास आंख मूंद कर श्रद्धा रखने वालों की एक बड़ी तादाद हो, जो सैकड़ों आश्रमों और हजारों करोड़ रुपए की संपत्ति का मालिक हो और अनेक नेता भक्तिभाव से जिसके चरण छूते रहे हों, उसने तो यही सोचा होगा कि वह कुछ भी करे उसका कोई कुछ बिगाड़ नहीं सकता। आसाराम ने जघन्य अपराध तो किया ही, बाद में भी एक अपराधी जैसा ही बर्ताव किया।
अपने किए को स्वीकार करने और उस पर पश्चात्ताप प्रकट करने के बजाय वह अपने अपराध पर पर्दा डालने और सबूतों को नष्ट करने में जुट गया, जघन्यता की नई हदें पार करते हुए। पीड़िता के परिवार को धमकियां मिलती रहीं। तीन गवाहों की हत्या हो गई। आसाराम के खिलाफ कई नए मामले खुले। आसाराम पर गुजरात के सूरत में भी बलात्कार का एक मामला चल रहा है। अगर आसाराम जेल में है और मृत्युपर्यन्त कैद का भागी बना है तो इसके लिए पीड़िता के परिवार की हिम्मत की दाद देनी होगी, जिन्होंने जाने कितनी धमकियों और आतंक का सामना किया होगा। अदालत ने भी सख्ती दिखाई। आसाराम ने बारह बार जमानत याचिका दायर की, जिसे छह बार निचली अदालत ने, तीन बार राजस्थान उच्च न्यायालय ने और तीन बार सर्वोच्च न्यायालय ने खारिज किया। राजस्थान पुलिस ने भी, किसी भी दबाव की परवाह न करते हुए, अपने कर्तव्य का पालन किया।
हिंदुस्तान
कब तक ये हादसे
डिवाइन पब्लिक स्कूल के वे बच्चे हर रोज की तरह घर से नहाकर, तैयार होकर निकले थे। लेकिन रास्ते में पड़ने वाली कर्मचारी रहित रेलवे क्रॉसिंग पर उनकी बस की ट्रेन से टक्कर हो गई। दिल दहला देने वाले इस हादसे में कई बच्चों की जान चली गई और बस चालक की भी। पूर्वी उत्तर प्रदेश के कुशीनगर जिले में हुए हादसे के कुछ ही समय के भीतर दोषियों को ढूंढ़ने की कवायद शुरू हो गई। कहीं बस ड्राइवर पर, तो कहीं रेलवे की व्यवस्था पर उंगलियां उठने लग गईं। यही हर बार होता है, इसलिए ऐसी बातें कहने के लिए किसी को भी ज्यादा सोचना नहीं पड़ता। बस ड्राइवर पर उंगली उठाने वाले बता रहे थे कि उसने अपने कानों में ईयर फोन ठूंस रखे थे, इसलिए अंत तक वह ट्रेन की आवाज से बेखबर बना रहा। दूसरी तरफ तर्क यह था कि भारत में ज्यादातर ट्रेन दुर्घटनाएं कर्मचारी रहित रेलवे क्रॉसिंग पर ही होती हैं और यह ऐसी समस्या है, जिससे निकलने का रास्ता अभी तक भारतीय रेल मंत्रालय नहीं निकाल पाया है। खबरिया चैनलों और वेबसाइट ने बुलेट ट्रेन की गति से यह गिनाना भी शुरू कर दिया कि कौन-कौन से हादसे पिछले दिनों इस तरह की रेल क्रॉसिंग पर हुए थे। चंद मिनटों में एक और आंकड़ा भी सामने आ गया कि देश में लगभग चार हजार कर्मचारी रहित रेलवे क्रॉसिंग हैं। इतना ही नहीं, पलक झपकते ही सोशल मीडिया पर हर खास और आम की संवेदना का ढेर लग गया। यानी दिन भर सब कुछ वैसे ही हुआ, जैसा कि ऐसे मौके पर हमेशा होता आया है। इसलिए यह भी लगभग तय है कि हमेशा की तरह इस बार भी हादसे से कोई सबक नहीं सीखा जाएगा। सारी चीजें अगली बार के लिए भुला दी जाएंगी और अगली बार हर चीज पहले की तरह ही दोहरा दी जाएगी।
कुशीनगर की उस रेलवे क्रॉसिंग पर उन बच्चों की जान गई, जो देश को एक शिक्षित भविष्य देने के लिए अपने घर से निकले थे। उनके मां-बाप की आंखों में भी वैसे ही सपने रहे होंगे। ऐसे सपने समाज और देश सबको एक अच्छे भविष्य का आश्वासन देते हैं। बेशक हम इसे अपनी व्यवस्था की एक सफलता भी कह सकते हैं कि वह लोगों को ऐसे सपने देखने और उसे साकार करने में सक्षम बनाती है। लेकिन ठीक वहीं पर अगर यह व्यवस्था लोगों के जान-माल की सुरक्षा के प्रति लापरवाह दिखती है, तो उसे क्या सचमुच सफल माना जाए?
थोड़ी देर के लिए हम मान लेते हैं कि गलती सचमुच उस बस चालक की थी। सच यह भी है कि मोबाइल कान में लगाए हुए या कान में ईयर फोन लगाकर गाड़ी चलाना कानूनी रूप से गलत है और इसके लिए बाकायदा जुर्माने का प्रावधान है। ये प्रावधान एक तरह से ऐसे हादसों को रोकने के लिए हैं। लेकिन सचमुच में इसका इस्तेमाल कितना होता है? अगर इसका प्रभावी इस्तेमाल होता, तो शायद यह नौबत ही न आती। और जहां तक कर्मचारी रहित रेलवे क्रॉसिंग का मामला है, इसकी बातें हम न जाने कितने बरस, कितने दशक से सुनते आ रहे हैं। इसके लिए रेल मंत्रालय को सुप्रीम कोर्ट की झाड़ भी सुननी पड़ी है और संसद में इसके लिए उसने बहुत सारे वादे भी किए हैं। हमें यह भी बताया जाता रहा है कि काम बहुत बड़ा है और इसके लिए भारी निवेश की जरूरत है। लेकिन यह भी सच है कि जब तक लोगों के जान-माल का मामला निवेश की नजर से देखा जाता रहेगा, हादसे नहीं रुकेंगे।
राजस्थान पत्रिका
संत परम्परा पर कलंक
भारत में संतों की प्राचीन व गौरवशाली परम्परा रही है। इसने समय-समय पर हमारे समाज को सभ्य व
सुसंस्कृत बनाने में क्रांतिकारी योगदान दिया है। ‘संत’ शब्द ‘सद्’ धातु से बना है, जिसका प्रयोग सत्य, वास्तविक, ईमानदार इत्यादि अर्थों के लिए किया जाता है। संत उन्हें माना जाता है, जिन्हें सत्य का ज्ञान हो गया हो। मध्यकाल में संत नामदेव व संत रामानंद ने भक्तिमार्ग पर चलते हुए ज्ञान की जो अलख जगाई, उसने बाद में समाज को कबीर, रविदास, सूरदास, नानक, दादू, मीराबाई, तुलसीदास और तुकाराम जैसे संत दिए। आज भी जब हम अज्ञानता की गुफा में गुम होने लगते हैं, तब इन संतों की वाणी रास्ता दिखाती है। ऐसी महान विरासत वाले देश में जब आसाराम जैसा कोई ढोंगी, संत का चोला ओढ़ लेता है तो वह पूरे इतिहास को कलंकित कर जाता है। इसीलिए यौन दुराचार के मामले में सजा सुनाते हुए विशेष जज मधुसूदन शर्मा का यह कहना सारगर्भित है। कि ‘आसाराम ने न सिर्फ पीड़िता का भरोसा तोड़ा, बल्कि देशदुनिया में संतों की छवि भी खराब की है।’ | दुर्भाग्य से हम एक ऐसे समय में हैं, जब भक्तिमार्ग का इस्तेमाल लोगों की आस्था से खिलवाड़ करने के लिए किया जा रहा है। नीम पर करेला यह कि राजनीतिक दल भी बहती गंगा में हाथ धोने से बाज नहीं आ रहे। राजनीति को धर्म से अलग रखने की सैद्धांतिक सहमति ताक पर रखकर राजनेता ऐसे कलंक-पुरुषों के समक्ष नतमस्तक होने से गुरेज नहीं करते। इससे दोनों की ताकत बढ़ती है। यह कहना ज्यादा उचित होगा कि दोनों मिलकर आंखों में धूल झोंकते हैं। यह घालमेल ऐसा हो गया है कि मठों और आश्रमों से निकलकर चुनावी राजनीति में कूद जाना और सक्रिय राजनीति करते हुए भी अपने को साधु-संत बताना सामान्य तौर पर किसी को नहीं खलता। हम देख सकते हैं कि किस तरह संत वस्त्रधारी कई लोग राजनीतिक पदों तक पहुंच गए हैं। क्या ऐसे व्यक्ति कामक्रोध, राग-द्वेष, मोह-माया, अपना-पराया जैसी दुविधाओं से मुक्त हो सकते हैं? इससे मुक्त हुए बगैर वे सत्य कैसे जान सकते हैं? सबसे महत्त्वपूर्ण यह है कि महत्त्वाकांक्षा राजनीति की पहली शर्त हैं जबकि इससे मुक्त होना संत होने की पहली सीढ़ी। किसी संत को राजनीति या दुनियादारी में कदम रखना हो तो उसे संत का चोला उतार देना चाहिए।
दैनिक भास्कर
जस्टिस जोसेफ पर अटका हुआ सरकार का फैसला
राजनीति से दूर भागती न्यायपालिका राजनीति के चक्कर में फंसती जा रही है और इसका ताजा उदाहरण उत्तराखंड हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति केएम जोसेफ को सुप्रीम कोर्ट भेजे जाने में आई अड़चन है। विडंबना देखिए कि कांग्रेस समेत सात राजनीतिक दलों के महाभियोग को न्यायपालिका को धमकाने वाली मुहिम बताने वाली भाजपा नीत सरकार सुप्रीम कोर्ट के कॉलेजियम के निर्णय को रोककर उसकी स्वायत्तता को चुनौती दे रही है। सरकार पहले तो कॉलेजियम की उस सिफारिश को तीन महीने तक दबाए बैठी रही, जिसमें सुप्रीम कोर्ट की वरिष्ठ वकील इंदु मल्होत्रा और केएम जोसेफ को सुप्रीम कोर्ट का न्यायाधीश बनाने की बात थी। जब कॉलेजियम ने सरकार को बार-बार याद दिलाया तो सरकार ने इंदु मल्होत्रा के नाम को मंजूरी दे दी लेकिन, न्यायमूर्ति जोसेफ के नाम को रोक लिया। अभी तक वैधानिक स्थिति यही है कि सरकार कॉलेजियम की सिफारिश को लागू करने में देरी कर सकती है लेकिन, उससे इनकार नहीं कर सकती। जबकि वास्तविक स्थिति यही बन रही है कि सरकार अपनी पसंद के नाम को मंजूरी दे रही है और जिससे असहज है, उसे दबाकर बैठी रहती है। न्यायमूर्ति जोसेफ का नाम क्यों नहीं मंजूर किया गया इस बारे में स्पष्ट कारण नहीं बताए गए हैं। सारी राजनीति अनुमान के आधार पर चल रही है और इसके चलते देश की कार्यपालिका और न्यायपालिका के रिश्तों के बारे में लगातार खराब और संदेहपूर्ण छवि निर्मित हो रही है। एक कारण वरिष्ठता का बताया जा रहा है, जिसे परिभाषित करना कठिन है। तर्क है कि विभिन्न उच्च न्यायालयों में जोसेफ से ज्यादा वरिष्ठता वाले तीन दर्जन जज हैं। इसलिए उन्हें ही क्यों सुप्रीम कोर्ट भेजा जाए। दूसरा तर्क उत्तराखंड जैसे छोटे राज्य के कोटे का भी है। तीसरा कारण राजनीतिक है वह कारण उत्तराखंड में लगाए गए राष्ट्रपति शासन को न्यायमूर्ति जोसेफ द्वारा रद्द किया जाना है। उस फैसले के बाद राज्य में कांग्रेस के हरीश रावत की सरकार फिर बहाल हुई थी। यही कारण है कि देश के पूर्व केंद्रीय मंत्री पी चिदंबरम को कहना पड़ा है कि मौजूदा सरकार अपने को कानून से ऊपर मानती है। सबसे ज्यादा चिंताजनक है देश के मुख्य न्यायाधीश की चुप्पी। इन स्थितियों के चलते हमारा लोकतंत्र कानून का राज और शक्ति का पृथकीकरण कायम रखने में कमजोर दिख रहा है।
दैनिक जागरण
जानलेवा लापरवाही
कुशीनगर में मानवरहित रेलवे क्रासिंग से गुजर रही स्कूली वैन में सवार एक दर्जन से अधिक बच्चों की मौत लापरवाही की पराकाष्ठा का एक और प्रमाण है। यह स्कूली वैन इसीलिए ट्रेन की चपेट में आ गई, क्योंकि वैन के ड्राइवर ने ईयरफोन लगा रखा था। उसने न तो मानवरहित क्रासिंग के गेट मित्र की चेतावनी सुनी और न ही उन बच्चों की जो उसे ट्रेन निकट आने के बारे में चीख-चीखकर बता रहे थे। एक तरह से बेपरवाह ड्राइवर ने बच्चों को मौत के मुंह में झोंक दिया। इस भयावह हादसे के बाद राज्य सरकार की ओर से कार्रवाई शुरू हो गई है। रेलवे की ओर से भी कुछ कदम उठाए जा सकते हैं, लेकिन चाहे जैसे सख्त कदम उठाए जाएं जो बच्चे काल के गाल में समा गए वे वापस नहीं लौटने वाले। कोई भी कार्रवाई और कितना भी मुआवजा क्षति की भरपाई नहीं कर सकता। दुखी परिजनों को सांत्वना देने के लिए ऐसा कुछ कहा जा सकता है कि नियति को यही मंजूर था, लेकिन इस हादसे के लिए वह हत्यारी लापरवाही जिम्मेदार है जो रह-रहकर सामने आती रहती है और जिसके चलते देश के विभिन्न हिस्सों में आए दिन जानलेवा दुर्घटनाएं होती ही रहती हैं। मानवरहित क्रासिंग जोखिम बहुल होती है। जब ऐसे स्थान पर वाहन चालकों और खासकर स्कूली बच्चों को ले जा रहे वैन के ड्राइवर को कहीं अधिक सतर्कता का परिचय देना चाहिए था और किसी को यह सुनिश्चित भी करना चाहिए था कि वह कायदे से वैन चलाए तब ऐसा कुछ भी देखने को नहीं मिला। 1अपने देश में कुशीनगर में दुर्घटनाग्रस्त स्कूली वैन सरीखे अनाड़ी और लापरवाह ड्राइवरों की कमी नहीं। मानव रहित रेलवे क्रासिंग अथवा सामान्य रास्तों पर दुर्घटनाएं इसीलिए होती रहती हैं, क्योंकि न्यूनतम सतर्कता का परिचय देने से भी इन्कार करते हुए एक तरह से जानबूझकर लोगों की जान जोखिम में डाली जाती है। कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि कुछ लोग वाहन चलाते समय न तो अपनी जान की परवाह करते हैं और न ही दूसरों की। बात केवल वाहन चालन के दौरान बरती जाने वाली लापरवाही की ही नहीं है। औसत भारतीय सार्वजनिक सुरक्षा के प्रति मुश्किल से ही सचेत नजर आते हैं। यही कारण है कि सार्वजनिक स्थलों पर बेहिसाब दुर्घटनाओं का सिलसिला कभी थमता नहीं। खराब बात यह है कि बार-बार एक जैसे कारणों से ही दुर्घटनाएं घटती हैं और फिर भी लोग चेतते नहीं-न तो आम लोग और न ही वह सरकारी तंत्र जिस पर घटनाओं-दुर्घटनाओं को नियंत्रित करने की जिम्मेदारी होती है। एक गंभीर समस्या यह भी है कि हर तरह के हादसों में वृद्धि के बावजूद सार्वजनिक सुरक्षा संबंधी नियम-कानूनों की अनदेखी करने की प्रवृत्ति कायम है। इससे नागरिक दायित्व बोध के अभाव का ही पता चलता है। यह सही है कि अपने देश में सार्वजनिक सुरक्षा का वैसा तंत्र नहीं बन पाया है जैसा बनना चाहिए और इसका ही प्रमाण हैं देश में हजारों की संख्या में मानवरहित क्रासिंग, लेकिन कम से कम इतना तो होना ही चाहिए कि लोग सुरक्षा नियमों की अनदेखी करने की जानलेवा आदत छोड़ें और साथ ही सरकारी तंत्र हादसों से सचमुच सबक सीखे।
देशबन्धु
सरकार पर जिम्मेदारी निभाने का दबाव बने
उत्तरप्रदेश के कुशीनगर में एक स्कूल बस मानवरहित रेलवे क्रासिंग पार करते वक्त ट्रेन से टकरा गई, जिसमें 13 बच्चों की मौत हो गई। कुशीनगर के डिवाइन मिशन स्कूल में पढ़ने वाले ये बच्चे सरकारी लापरवाही का शिकार न हुए होते, तो सचमुच बड़े होकर कुछ डिवाइन यानी दैवीय कहलाने वाले भले कामों में लगते। लेकिन अब तो केवल दैवीय शक्तियों से प्रार्थना ही की जा सकती है कि उनकी आत्मा को शांति मिले।
मुख्यमंत्री आदित्यनाथ योगी ने मृतकों के परिजनों को 2-2 लाख के मुआवजे का ऐलान कर ढांढस बंधाने की कोशिश की है, रेल मंत्री पीयूष गोयल ने भी 2-2 लाख के मुआवजे की घोषणा कर अपनी जिम्मेदारी निभा दी है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने तो अपना भाषण बीच में रोककर इस घटना पर दुख जताया और कहा कि भगवान इस कठिन परिस्थिति में उन माता-पिता को हौसला दे, जिन्होंने अपना बच्चा खोया है। सही कहा मोदीजी ने, मां-बाप के पास हौसला रखने और भगवान भरोसे रहने के अलावा और रह ही क्या गया है? और केवल कुशीनगर क्यों पूरे भारत में आम जनता भगवान भरोसे ही तो रह गई है।
सरकार बहादुर तो चुनाव जीतने और विरोधी पार्टियों से हिसाब-किताब चुकता करने में लगे हैं। देश में किस-किस तरह की विडंबनाओं से आम आदमी दो-चार हो रहा है, उसकी फिक्र उन्हें नहीं है। सारी बातें, सारे वादे, सारे दावे केवल चुनाव केन्द्रित हो गए हैं, मानो इसी के लिए वे इस दुनिया में अवतरित हुए हैं। पुरानी सरकारों के फैसलों को उलटने-पलटने में अपनी बहादुरी समझने वाली मौजूदा सरकार ने इस बात की समीक्षा शायद ही कभी की हो कि उसके फैसलों का व्यापक असर किस तरह से हुआ है। आम बजट और रेल बजट को मिला दिया, लेकिन क्या इससे रेलवे की हालत सुधर गई। ट्रेनों में साधारण तबका मजबूरी में सफर करता है, क्योंकि चार्टर्ड प्लेन या हेलीकाप्टर तो उसके सपनों में भी दूर की कौड़ी है। आम आदमी की इस मजबूरी का फायदा सरकार खूब उठाती है।
किराए मनमाने तरीके से तय होते हैं, ट्रेनों में सुविधाएं मनमाने ढंग से दी जाती हैं और अब तो प्लेटफार्म संख्या भी शायद मनमर्जी से तय होने लगी है। इस सप्ताह की शुरुआत में ही लखनऊ-कानपुर रूट के हरौनी स्टेशन पर अचानक कानपुर से लखनऊ आने वाली ट्रेन का प्लेटफार्म बदलने की घोषणा हुई। प्लेटफार्म नंबर तीन पर खड़े यात्रियों में प्लेटफार्म नंबर चार पर जाने की भगदड़ मच गई। इस अफरा-तफरी में एक पच्चीस साल के युवक की मौत हो गई और दो व्यक्ति घायल हो गए। यह कोई पहली घटना नहीं है, जब अचानक ट्रेन का प्लेटफार्म बदल दिया गया हो।
लखनऊ कैैंट स्टेशन पर इसी हफ्ते 72 घंटों में 19 ट्रेनों के प्लेटफार्म अचानक बदले गए। प्रधानमंत्री के संसदीय क्षेत्र वाराणसी में 21 अप्रैल से 23 अप्रैल के बीच 8 ट्रेनों के प्लेटफार्म बदले गए। जिससे यात्रियों में अफरा-तफरी तो मची, लेकिन कोई बड़ी दुर्घटना नहीं हुई। शायद व्यवस्था सुधारने के लिए सरकार को और बहुत हद तक जनता को भी बड़ी दुर्घटनाओं का इंतजार रहता है। जब हम अपनों को खोते हैं, या अपने सामने कोई बड़ा हादसा देखते हैं, तभी हमारे भीतर असंतोष या आक्रोश जागता है। अन्यथा हम अपने सुविधा के खोलों के भीतर दुबके रहते हैं।
कुशीनगर में आज जैसा हादसा हुआ है, 2016 में भदोही में हुआ था। तब 8 स्कूली बच्चे मारे गए थे। तब भी दुख प्रकट करने, सांत्वना देने की औपचारिकता पूरी की गई थी। लेकिन दो साल में केवल हादसे की जगह और मृतकों की संख्या बदली है, हालात नहीं। कुशीनगर की घटना में बस चालक की लापरवाही बतलाई जा रही है, कि उसने ईयरफोन लगाए हुए थे और इस वजह से ट्रेन की आवाज नहीं सुन सका। मोबाइल पर बात करने, गाने सुनने या सेल्फी लेने के चक्कर में बढ़ती सड़क दुर्घटनाओं पर सरकार ने अब तक कोई सख्ती नहीं दिखाई है, क्योंकि इससे उसकी चुनावी सेहत पर कोई असर नहीं पड़ता। लेकिन लोगों को तो कम से कम अपनी सेहत, अपनी जान की परवाह करनी चाहिए।
कुशीनगर में 13 बच्चे ड्रायवर, प्रशासन और सरकार की लापरवाही के कारण मारे गए। इधर दिल्ली में भी सुबह एक स्कूल वैन दूसरी गाड़ी से टकराकर बुरी तरह क्षतिग्रस्त हुई और इसमें सवार बच्चे बुरी तरह घायल हुए हैं। इस घटना के बाद भी लोग गुस्सा दिखाने सड़क पर उतर आए। बुरी बातें पर गुस्सा करना जायज है, लेकिन यह नाराजगी क्षणिक या परिस्थितियों के हिसाब से क्यों होती है? क्यों नहीं जनता को अपनी शक्ति का प्रदर्शन सार्थक तरीके से करना चाहिए ताकि सरकारें और प्रशासन अपनी जिम्मेदारी को निभाने के लिए मजबूर हों। आम जनता के जीवन से खिलवाड़ कर मुआवजे बांटने का ढोंग अब बंद होना ही चाहिए।
Indian Express
Your Lordship
The NDA government has segregated and returned for reconsideration of the Supreme Court Collegium the proposed appointment of Justice KM Joseph as judge in the apex court. As Chief Justice of India Dipak Misra has pointed out, it is within its rights to do so. Yet, the government’s move in a fraught context rife with crucial questions raises worries about the health of the institution of the judiciary and its independence from the executive. The government has singled out Justice Joseph from the two recommendations made by the collegium in January after sitting on them for more than three months — the segregation is unusual, as was the delay. Neither can be explained away by the selective invoking of the so-called seniority or diversity norms in appointments to the higher judiciary. As Uttarakhand Chief Justice, K M Joseph had quashed the imposition of President’s Rule by the Centre in 2016, restoring the Congress government in the state. If the bid to stall his elevation is read as an unsubtle signal to him, and even more disquietingly, to all judges, that a judge has to pay for an inconvenient verdict, the government has itself to blame.
The ball — the opportunity to defend his institution — is now in CJI Misra’s court. At the very least, the government’s moves, given the questions they raise, need to be considered institutionally, in a meeting of the collegium. So far, CJI Misra appears to have discounted the serious concerns raised by his brother judges in the recent past regarding the executive’s bid to control or dominate the judiciary. In January, four senior-most SC judges held an unprecedented press conference to say that all is not well with the court. In March, Justice J Chelameswar wrote a letter flagging the government’s stalling of the elevation of a judicial officer to the Karnataka HC despite the Collegium’s reiteration of his candidature. In April, Justice Kurian Joseph wrote to the CJI about a threat to the “very life and existence of the institution”. Most recently, hours before the government cleared one Collegium appointment and held back another, Justices Ranjan Gogoi and Madan Lokur asked CJI Misra to call a “full court” to discuss its future. By not responding to the anxieties expressed by senior judges, CJI Misra has only strengthened the unfortunate impression that he is not willing to stand up to attempts to subdue the court.
In 2014, not long after the NDA assumed power at the Centre, the then CJI, RM Lodha, had written to the Union Law Minister to express his disapproval of the “unilateral” segregation by the government of the appointment of Gopal Subramaniam, former solicitor general who was outspoken on Gujarat 2002, from a panel of four names recommended by the Collegium for elevation as SC judges. “In future such a procedure… should not be adopted by the executive”, he wrote. The court has a proud legacy of protecting its own dignity and independence. CJI Misra must live up to it. Not just his own legacy, the integrity of the institution he heads is at stake.
Times Of India
Nurture Institutions
The misconceived attempt to remove Chief Justice of India Dipak Misra because Congress and other opposition parties might have found some of his decisions objectionable, was rightly rejected by Vice-President Venkaiah Naidu as it undermined judicial independence. But the government too is at fault for sitting on the Memorandum of Procedure for judicial appointments and nitpicking on some of those appointments, especially at a time when there is a desperate shortage of judges and enormous pendency of cases.
After much delay it has finally acted to elevate senior advocate Indu Malhotra to the Supreme Court, but moved to block Uttarakand high court chief justice KM Joseph. The reasons set out – overrepresentation of Kerala in higher judiciary, failure to consider 11 chief justices in other high courts more senior to Justice Joseph, the need to ensure balanced representation to all regions and to SC/ST community – are not entirely convincing. The collegium resolution of January 10 notes that Justice Joseph was “more deserving and suitable in all respects” and that factors like seniority, merit and integrity were considered in recommending him. Seniority has not been the sole yardstick for appointing high court chief justices or SC judges. Moreover, a disproportionate number of SC judges began their practice in Bombay and Delhi HCs. The nitpicking on these grounds fails to pass muster.
Further, five vacancies remain unfilled in SC if Malhotra and Joseph are included, and six more judges are retiring this year. That creates 11 vacancies where amends on yardsticks like regional diversity, affirmative action and seniority can be achieved quickly. Speculation has abounded that the government is yet to make peace with Justice Joseph’s verdict quashing President’s Rule in Uttarakhand in 2016. If true, the government and opposition are in effect just two sides of the same politics unhappy with the functional and administrative autonomy of the judiciary.
The delays and hindrances are a clear indication of government’s persistent unhappiness over the quashing of the National Judicial Appointments Commission. The collegium’s flaws – like avenues for nepotism and the lack of transparency – remain to be rectified. A good way to resolve this impasse would be for the government to revamp NJAC with majority representation for judges but other voices included in an institutional process. Judiciary’s independence is non-negotiable. Government as the largest litigant must desist from vetoing judicial appointments without valid reasons.
The Telegraph
Wayout
his is not the first time that a Bharatiya Janata Party government has found a so-called solution to the ‘problem’ of rape in the death penalty. In 2002, L.K. Advani as the deputy prime minister had called for capital punishment for rapists, but the idea was shot down by strong opposing arguments. The BJP seems convinced that there is an emotional harvest to be reaped from such decisions. That might explain why the present ordinance calls for death to those who rape minors below 12. The revelations about the reported gang rape of an eight-year-old in Kathua led to countrywide protests that also referred to the rape of the 17-year-old Dalit girl in Unnao. The government is responding dramatically: an ordinance, while suggesting urgency, also eliminates debate.
The ordinance is actually dangerous. Nowhere in the world has it been proven that capital punishment deters crime. Besides, such a sentence cannot be passed unless the evidence is flawless, so it lowers the conviction rate. The conviction rate for rapes of minors in India is tragically low; some reports put it around 28 per cent. This would drop further, especially since evidence gathering in these cases is often poor or difficult to get. Traumatized children can be delicate witnesses, and reporting the crime rarer when the complaint is against a family member or friend. The possibility of death will generate pressures that will exacerbate fears and aggressions. The criminal will tend to kill his witness and the defence lawyer will be harsher on the child. The death penalty already exists for the rarest of rare cases. By bringing it in separately for the rape of minors, the government is trying to cover up the fact that nothing has changed in sexual crimes in spite of the series of breakthroughs made by the law and activists from the time of the Mathura case, past the 2012 Delhi gang rape case to today’s Kathua and Unnao. The problem is not the lack of laws, but a system that consistently refuses to use them in a committed and targeted manner. With this ordinance, the Centre is once again shrugging off its real responsibility of ensuring that all sexual criminals from all levels of society are caught and punished. That would be the real deterrence.
The New Indian Express
No place for this draconian law in India
The Centre’s decision to lift the Armed Forces Special Powers Act from Meghalaya and parts of Arunachal Pradesh was long overdue. Except for the Changlang district in Arunachal Pradesh where the National Socialist Council of Nagalim-Khaplang is intermittently active, most parts of the state are free of any insurgent activity. Meghalaya has been one of the most peaceful states in the Northeast for many years and the AFSPA’s continuation was wholly unjustifiable.
The entire region, in fact, is slowly turning into a haven of peace. Data released by the Ministry of Home Affairs tells the story: from 1,963 insurgency incidents in 2000, the number fell to 308 in 2017. Civilian deaths have dropped from 907 to 37 in the same period, a drop of 96 per cent. This should prompt the Centre to consider if the Act is needed at all in the region. Except parts of Manipur, almost all of the Northeast today is free of insurgency.
According to South Asia Terrorism Portal, a well-respected website on terror and low-intensity warfare in South Asia, while Tripura and Mizoram did not witness any incident of violence last year, in Nagaland, Assam, Arunachal Pradesh and Meghalaya it was negligible. Another compelling reason to lift the AFSPA, if not repealing it altogether, is the misuse of the law. The Army and paramilitary forces which benefit from the Act have on a number of occasions been accused of unlawfully misusing its provisions not only against innocent people but even against the civil authorities.
Justice D M Sen, a retired judge of the Gauhati High Court, who had probed an incident of Army firing in Kohima in 1995 that killed at least seven civilians, had indicted the Army for obstructing the civil administration from performing its duties. The Army has to aid the civil power, not supercede it. Justice B P Jeevan Reddy submitted a report on the AFSPA over a decade ago but it is yet to see the light of the day. It is time take to a call on this draconian Act for there is no place for a military dictatorship-type law in a country that calls itself the world’s largest democracy.