नवभारत टाइम्स
बदले हुए तेवर
हाल के कुछ उपचुनावों में बीजेपी की हार के बाद एनडीए में खलबली बढ़ गई है। बीजेपी के कुछ सहयोगी दलों ने उसका साथ छोड़ दिया है, तो कुछ घुमा-फिराकर इसकी धमकी दे रहे हैं। अब तक चुप बैठे दलों का रुख भी आक्रामक हो रहा है। बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी की पार्टी हिंदुस्तानी आवाम मोर्चा एनडीए से पहले ही अलग हो चुकी है, अब टीडीपी ने भी उससे नाता तोड़ लिया है। यही नहीं उसने सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाने की घोषणा कर दी है। एलजेपी सांसद चिराग पासवान ने कहा है कि बीजेपी सहयोगी दलों से बात करे और इस पर विचार करे कि एनडीए में बिखराव क्यों हो रहा है। उन्होंने सवाल उठाया कि बीजेपी नई जगहों पर तो चुनाव जीत रही है, लेकिन पहले से जीती हुई सीटों को क्यों नहीं बचा पा रही है/ आरएलएसपी के उपेंद्र कुशवाहा ने भले ही कुछ कहा न हो, पर उनकी गतिविधियां काफी कुछ संकेत दे रही हैं। जनवरी में उन्होंने बिहार में मानव श्रृंखला का आयोजन किया था जिसमें आरजेडी के कई नेता शामिल हुए थे। उनकी आरजेडी से गुपचुप नजदीकी की चर्चा गर्म है। शिवसेना पहले ही तय कर चुकी है कि वह 2019 का चुनाव बीजेपी के साथ नहीं लड़ेगी। अब वह कह रही है कि अगले लोकसभा चुनाव में बीजेपी को 110 सीटों का नुकसान होगा। वाजपेयी सरकार के दौर में चूंकि बीजेपी के पास बहुमत नहीं था, इसलिए एनडीए बेहद प्रभावी भूमिका में रहा,लेकिन मोदी के समय स्थितियां बदल गईं। इस बार अकेले अपने दम पर सरकार बनाने वाली बीजेपी ने कभी सहयोगी दलों को गंभीरता से नहीं लिया। न उनसे नियमित संवाद रखा न ही महत्वपूर्ण फैसलों में उनकी राय ली। इस तरह एनडीए की स्थिति प्रतीकात्मक ही रह गई थी। सहयोगी दल अब तक इसलिए मुखर नहीं हो पा रहे थे क्योंकि बीजेपी लगातार जीत रही थी। उन्हें अहसास था कि मोदी मैजिक के जरिए उनकी सत्ता भी सुनिश्चित रहेगी। फिर उन्हें डर भी था कि मोदी सरकार की नीतियों के खिलाफ बोलने से कहीं वे जनता के बीच अप्रासंगिक न हो जाएं। इसलिए वे हालात बदलने की प्रतीक्षा कर रहे थे। यूपी के दो अहम उपचुनावों में बीजेपी की शिकस्त से उन्हें आभास हो गया है कि जनता में बीजेपी की पकड़ ढीली हुई है। दूसरी तरफ वे यह भी देख रहे हैं कि बीजेपी विरोधी ताकतें एकजुट हो रही हैं। अब बीजेपी के सहयोगी दल बीजेपी और केंद्र सरकार से कड़ी सौदेबाजी चाहते हैं। अगर हालात बीजेपी के खिलाफ होते गए तो वे अपनी नई राह भी चुन सकते हैं। फिलहाल वे जनता का मूड भांपने की कोशिश करेंगे। बीजेपी को संभल जाना होगा। उसे अगर अपने कुनबे को बचाए रखना है तो सहयोगी दलों को जल्द से जल्द विश्वास में लेना होगा।
जनसत्ता
सुविधा की सजा
मानव तस्करी के मामले में आरोपी रहे मशहूर गायक दलेर मेंहदी को पंजाब की पटियाला कोर्ट में दोषी ठहराए जाने, उनकी गिरफ्तारी और तुरंत जमानत की खबर से एक बार फिर यही लगता है कि भारत की कानूनी प्रक्रिया की पेचीदगी का फायदा कई बार समर्थ और रसूख वाले लोगों को मिलता है। जहां किसी कमजोर पृष्ठभूमि के आरोपी के खिलाफ कानूनी प्रक्रिया में तेजी देखी जाती है, वहीं अपराध में शामिल व्यक्ति अगर कोई ऊंची पहुंच वाला या जानी-मानी हस्ती है तो उसके प्रति पुलिस-प्रशासन में आंखें मूंदे रखने जैसा भाव पाया जाता है। हैरानी की बात है कि दलेर मेंहदी को करीब चौदह साल पहले कई लोगों से करोड़ों रुपए वसूलने और उन्हें दूसरे देशों में छोड़ आने के आरोप लगे थे, लेकिन अब इतने सालों बाद जब उस मामले में उन्हें सिर्फ दो साल की सजा हुई भी तो कुछ ही देर बाद जमानत भी मिल गई। यानी अब वे सजायाफ्ता भले हैं, लेकिन फिलहाल आजाद हैं। मानव तस्करी जैसे गंभीर अपराध के दोषी को मिलने वाली ऐसी सुविधा का कानूनी आधार चाहे जो हो, लेकिन यह समूचा प्रसंग अपने आप में बताने के लिए काफी है कि इंसाफ के तकाजे के बरक्स व्यवहार में हमारी व्यवस्था कैसे काम करती है!
गौरतलब है कि पिछले कुछ सालों के दौरान लोगों को विदेश भेजने का झांसा देकर बड़ी रकम की ठगी करने वाले कई गिरोह पकड़ में आए थे। मानव तस्करी के इस धंधे को कबूतरबाजी के नाम से भी जाना जाता है। दलेर सिंह और उनके बड़े भाई शमशेर सिंह के खिलाफ 2003 में पहली शिकायत दर्ज कराई गई थी कि ये दोनों कानूनों को ताक पर रख कर कुछ लोगों को अपने संगीत समूह का हिस्सा बना कर दूसरे देशों में ले जाते हैं और उन्हें वहीं छोड़ देते हैं। इसके बदले भारी रकम वसूली जाती है। फिर जब मामला खुलने लगा तब पता चला कि दोनों भाइयों ने एक तरह से इसे अपना व्यवसाय बना लिया था। बाद में पटियाला पुलिस ने दोनों के खिलाफ धोखाधड़ी के इकतीस से ज्यादा मामले दर्ज किए। लेकिन दलेर को उनके कद का फायदा किस तरह मिला, इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि पहली शिकायत के बाद जब उनके भाई को पुलिस ने पकड़ा था तब गिरफ्तारी में शामिल पुलिस की उस पूरी टीम का तबादला कर दिया गया था। फिर 2006 में भी पुलिस ने दलेर मेंहदी को निर्दोष बताते हुए अदालत से मामला बंद करने की अपील की थी। जाहिर है, अगर अदालत ने मौजूद सबूतों को पर्याप्त मानते हुए छानबीन की कानूनी प्रक्रिया जारी रखने के निर्देश नहीं दिए होते तो शायद दलेर मेंहदी इस सजा से भी बच निकलते।
मानव तस्करी का अपराध देश के भीतर भी एक गंभीर समस्या की शक्ल ले चुका है। इसे अंजाम देने वाले गिरोहों के जाल में अक्सर भोले-भाले और कमजोर लोग फंसते हैं और एक तरह से उनकी जिंदगी तबाह होकर रह जाती है। ऐसे में दलेर मेंहदी को दोषी ठहराए जाने और दो साल की सजा के तुरंत बाद जमानत मिलना इस तरह की गैरकानूनी गतिविधियों में लिप्त लोगों के मनोबल को ही बढ़ाएगा। हालांकि अदालतों के फैसले कई बार पुलिस की जांच रिपोर्ट के आधार पर भी आते हैं। किसी अपराध के मामले में जांच प्रक्रिया के दौरान पुलिस अगर संबंधित आरोपी की हैसियत या उसके रसूख को न देख कर तथ्यों के आलोक में अपनी रिपोर्ट बनाए, तो अदालत के फैसले पर उसका असर पड़ेगा। यों भी, न्यायिक प्रक्रिया में ईमानदारी व्यवस्था और इंसाफ पर लोगों का भरोसा बनाए रखने की सबसे बड़ी जरूरत है।
हिन्दुस्तान
कैंसर से जंग में हम
अब तक बहुत कुछ छप चुका है, तकरीबन हर दृष्टि और हर कोण से। पिछले तीन दिनों से टेलीविजन चैनलों ने भी इस पर काफी ज्ञान दिया है। इस बीच तमाम लोगों ने न्यूरोएंडोक्राइन ट्यूमर के लगभग सभी पहलुओं को समझने की कोशिश में पूरा इंटरनेट खंगाल डाला है। हालांकि इनमें से बहुत से लोगों ने कैंसर के इस प्रकार का शायद पहली बार ही नाम सुना हो। भारतीय फिल्म उद्योग की इरफान खान जैसी लोकप्रिय प्रतिभा का इस रोग से ग्रस्त रहना पूरे देश के लिए किसी सदमे की तरह है। भले ही अक्सर यह कहा जाता हो कि हर कैंसर खतरनाक नहीं होता, लेकिन सच यही है कि कैंसर का नाम हमारे मन में एक भय तो पैदा करता ही है। शायद इसे लेकर बनी तमाम धारणाओं की वजह से भी, और शायद इसलिए भी कि हमारी कई फिल्मों ने इसके खतरे को भावनात्मक स्तर पर पेश किया है। हालांकि कैंसर वैज्ञानिकों और यहां तक कि डॉक्टरों के लिए कोई अबूझ पहेली नहीं है, और इलाज भले ही लंबा चलता हो, लेकिन कई तरह के कैंसर के मरीज पूरी तरह ठीक भी हो जाते हैं। कुछ मामलों में समस्या जरूर आती है, जहां इलाज अभी पूरी तरह विकसित नहीं हुए हैं, लेकिन समस्या का बड़ा कारण यह है कि किसी को कैंसर है हमारे देश में, इसका पता अक्सर बहुत बाद में चलता है, इतना बाद में कि कई बार इलाज में बहुत देरी हो चुकी होती है।
इरफान खान को जिस तरह का कैंसर है, वैसा ही कैंसर कुछ साल पहले आईफोन बनाने वाली कंपनी एपल के संस्थापक और सीईओ स्टीव जॉब्स को भी हुआ था। उस समय भी इसे लेकर तमाम जानकारियां सामने आई थीं। लेकिन इनमें एक महत्वपूर्ण जानकारी यह थी कि अमेरिका में कुल 1,200 लोग इस तरह के दुर्लभ कैंसर से ग्रस्त हैं। यह किसी औसत से निकाला गया आंकड़ा नहीं था, बल्कि यह उन लोगों की संख्या थी, जिनमें इस रोग की पुष्टि हो चुकी थी। जनसंख्या और औसत के आधार पर कुछ अटकलें जरूर लग रही हैं, लेकिन सही आंकड़े कहीं नहीं हैं। कुछ मामलों में तो हो सकता है कि किसी को यह रोग हो और उसे पता ही न हो कि वह एक दुर्लभ समस्या से ग्रस्त है। एक तो कैंसर विशेषज्ञ और कैंसर का पता लगाने की सुविधा हमारे देश के हर जिले में उपलब्ध नहीं है और यह भी सच है कि हमारी आबादी का एक बड़ा हिस्सा अभी भी ऐसा है, जो आमतौर पर अपने इलाज या जांच के लिए जिला मुख्यालय तक पहुंच पाने की स्थिति में नहीं होता।
वैसे भी हमारे देश में स्वास्थ्य के मद में सार्वजनिक धन का प्रावधान इतना कम है कि आमतौर पर होने वाली सामान्य बीमरियों के इलाज के लिए ही वह पूरा नहीं पड़ता। जरूरी यह भी है कि हम रोगों की जांच के लिए कुछ विशेष प्रावधान करें, ताकि रोगी को कम से कम अपनी व्याधि की सही जानकारी तो मिल सके। कैंसर जैसी जटिल व्याधियों के मामले में जो इलाज उपलब्ध भी है, वह भी काफी महंगा है और इसका इलाज आम आदमी के बूते का नहीं है। कई अध्ययनों में यह भी बताया गया है कि अक्सर इसके रोगियों को प्रोसेस्ड फूड से दूर रहने और फल खाने की सलाह दी जाती है। मगर बड़ी संख्या में मरीजों की आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं होती कि वे नियमित रूप से फल खा सकें। यह बताता है कि जमीन पर स्थितियां कैसी हैं? पिछले बजट में पेश स्वास्थ बीमा योजना से जरूर ऐसे मामलों में एक उम्मीद बंधी है।
अमर उजाला
कांग्रेस की परीक्षा
कांग्रेस का 84 वां महाधिवेशन राहुल गांधी को बतौर पार्टी अध्यक्ष के तौर पर पेश करने के अलावा 2019 के लोकसभा चुनाव की पृष्ठभूमि में बदलाव के उद्देश्य से आयोजित था। इसे अधिवेशन की थीम के जरिए भी देखा जा सकता था और केंद्र की एनडीए सरकार पर सोनिया और राहुल गांधी के तीखे हमलों से भी। नीरव मोदी के मामले, उपचुनावों के कुछ नतीजों और तेदेपा के एनडीए से अलग होने की ताजा घटना ने कांग्रेस समेत विपक्ष को बेशक केंद्र की मोदी सरकार के खिलाफ आक्रामक होने का अवसर दिया है। इस आधार पर विपक्ष के आगामी चुनाव से पहले एकजुट होने की रणनीति में कुछ भी अस्वाभाविक नहीं है। लेकिन चुनौतियों से घिरी कांग्रेस के लिए आगे का रास्ता इतना आसान भी नहीं है। सबसे लंबे समय तक केंद्र की सत्ता में रह चुकी पार्टी आज देश के चार राज्यों में सिमट चुकी है और उनमें से भी एक महत्वपूर्ण राज्य कर्नाटक में इस साल विधानसभा चुनाव है। यह महाधिवेशन अपनी कमियां दूर करते हुए भविष्य की रणनीति तैयार करने का अवसर हो सकता था। लेकिन मल्लिकार्जुन खड़गे जैसों को छोड़ दें, जिन्होंने अंदरूनी कलह से निपटने और कर्नाटक चुनाव के लिए अचूक रणनीति तय करने की जरूरत बताई, तो यह अधिवेशन जिस तरह भाजपा-विरोध पर केंद्रित रहा, वह बताता है कि सबसे मुश्किल समय से गुजरती कांग्रेस पर भाजपा का दबाव कितना अधिक है। यह भाजपा-विरोध की राजनीति का ही एक सुबूत है कि कांग्रेस को ईवीएम की जगह मतपत्रों से चुनाव कराने का प्रस्ताव लाने तक में हिचक नहीं हुई। इसी से पता चलता है कि कुछ सहयोगी विपक्षी दलों को साथ लेने के लिए वह तर्क और वैज्ञानिकता को तिलांजलि देने को तैयार है। राहुल गांधी ने नेताओं और कार्यकर्ताओं के बीच की दीवार तोड़ने की जरूरत बताते हुए अपने पिता स्वर्गीय राजीव गांधी की याद तो दिलाई, लेकिन नवोदित अध्यक्ष भी यह बखूबी जानते हैं कि पार्टी में अंदरूनी बदलाव आवश्यक होने के बावजूद आसान नहीं है। ऐसे ही चुनाव से पहले गठबंधन पर सहमति जताने के बावजूद इसकी गारंटी नहीं है कि विपक्ष का नेतृत्व कांग्रेस या राहुल गांधी के पास आएगा। बल्कि बिहार और उत्तर प्रदेश उपचुनाव के के नतीजे बताते हैं कि भाजपा का विकल्प बनने के लिए कांग्रेस को कठिन परिश्रम करने की जरूरत है।
राजस्थान पत्रिका
नए जोश में कांग्रेस
देश के सबसे पुराने राजनीतिक दल कांग्रेस का दो दिवसीय 84 वां महाअधिवेशन समाप्त हो गया। युवा अध्यक्ष राहुल गांधी की अध्यक्षता में कांग्रेस के बुजुर्ग से लेकर युवा नेताओं ने विचार रखे। राहुल गांधी, पूर्व अध्यक्ष सोनिया गांधी, पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, पूर्व वित्त मंत्री पी. चिदंबरम सहित सभी नेताओं के संबोधनों में निशाने पर सिर्फ भाजपा व प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी रहे। भाषण में राहुल ने महाभारत का जिक्र करते हुए भाजपा और
आरएसएस की तुलना कौरवों तथा कांग्रेस की पांडवों से की। भाजपा नेताओं को भ्रष्ट और घमंडी तो कांग्रेसियों को सच के लिए लड़ने वाला बताया। दो दिन के विभिन्न सत्रों में भ्रष्टाचार, नीरव मोदी, किसानों के मुद्दों और न्यायपालिका पर संकट को लेकर चर्चा हुई, प्रस्ताव भी पारित हुए। जेटली व उनकी पुत्री, जज लोया प्रकरण में भाजपा अध्यक्ष पर आरोप उछाले तो हाल के उपचुनावों में विपक्ष की जीत से उत्साहित नवजोत सिद्धू ने राहुल गांधी के अगले वर्ष लाल किले पर तिरंगा फहराने की बात कह सम्मेलन में जोश भरा।
एनडीए सरकार पर जम्मू-कश्मीर मसले को और उलझाने, प्रधानमंत्री पर ज्वलंत मुद्दों से जनता का ध्यान भटकाने के आरोप भी लगाए। गौरी लंकेश व कलबुर्गी मामलों पर सरकार की खिंचाई की। राहुल ने जनता का आह्वान किया कि देश झूठी उम्मीदों पर जिएगा या सच का सामना करने वालों का साथ देगा। उन्होंने यूपीए सरकार की नाकामियां भी मानीं। कहा हमसे गलतियां हुईं जिससे मतदाता ने हमें नकार दिया। हम लायक युवाओं को आगे लाएंगे। राहुल को नई कार्यसमिति चुनने के अधिकार का प्रस्ताव भी पारित हुआ। राहुल ने भी साफ संदेश दिया कि अब कांग्रेस का भविष्य युवा ही है। बुजुर्ग नेताओं को इससे जरूर निराशा होगी। कुल मिलाकर महाअधिवेशन में प्रतिनिधि उत्साह में दिखे। वरिष्ठ नेताओं ने भी जोश भरा। अब कांग्रेस और राहुल गांधी के सामने सबसे बड़े चुनौती हिन्दी भाषी राज्यों में विधानसभा और अगले वर्ष आम चुनाव में भाजपा को मात देना है। सारा दरोमदार राहुल गांधी की नई टीम पर होगा कि वह कैसे सभी को साथ लेकर चलेगी। भाजपा के खिलाफ विपक्ष में एकजुटता व एक राय बनाएगी। जनता की निगाह भी इसी पर है। समय कम और चुनौतियां अपार हैं।
दैनिक जागरण
पाकिस्तान की चालबाजी
पाकिस्तान की ओर से नई दिल्ली स्थित अपने उच्चायुक्त को वापस बुलाने के बाद जिस तरह यह कहा गया कि वह फिलहाल उन्हें भारत भेजने के लिए तैयार नहीं उससे यही स्पष्ट हो रहा है कि वह अंतरराष्ट्रीय समुदाय को गुमराह करने की कोशिश कर रहा है। एक तो पहले उसने इस्लामाबाद में भारतीय उच्चायुक्त को तरह-तरह से परेशान किया और इस संदर्भ में भारत की आपत्तियों की भी अनदेखी की। इस पर जब भारत ने जैसे को तैसा वाली नीति अपनाई तो उसने शिकायती मुद्रा अपना ली। वह किस तरह भारत से संबंध सुधारने के लिए इच्छुक नहीं, इसका पता इससे भी चलता है कि उसने विश्व व्यापार संगठन की भारत में होने वाली बैठक में अपने प्रतिनिधि को भेजने से इन्कार कर दिया। आखिर इस इन्कार के बाद पाकिस्तान किस मुंह से यह कह सकता है कि भारत उससे संपर्क-संवाद के लिए इच्छुक नहीं। पाकिस्तान केवल राजनयिक मोर्चे पर ही उल्टा चोर कोतवाल को डांटे वाली कहावत को चरितार्थ नहीं कर रहा है, बल्कि वह सीमा को अशांत रखने से भी बाज नहीं आ रहा है। इस क्रम में वह सीमावर्ती क्षेत्र के आबादी वाले इलाकों को निशाना भी बना रहा है। एक ओर वह अपनी सेना को उसूलों पर चलने वाली सेना बताता है और दूसरी ओर जानबूझकर निदरेष-निहत्थे नागरिकों को निशाना बना रहा है। 1यह ठीक है कि भारत पाकिस्तान को मुंहतोड़ जवाब देने में लगा हुआ है, लेकिन पाकिस्तानी सेना जैसा शातिराना रवैया अपनाए हुए है उसे देखते हुए इसकी आवश्यकता बढ़ गई है कि भारत पाकिस्तान की ओर से किए जा रहे संघर्ष विराम के उल्लंघन का जवाब देने के लिए नए तौर-तरीके अपनाए। ऐसा इसलिए आवश्यक हो गया है, क्योंकि जम्मू-कश्मीर के सीमावर्ती क्षेत्रों में रह रही आबादी की समस्याएं बढ़ती चली जा रही हैं। एक बड़ी संख्या में लोगों को पलायन के लिए विवश होना पड़ा है। जाहिर है कि ऐसे लोग सरकार से सवाल करने में लगे हुए हैं। इसमें दो राय नहीं कि भारत एक बड़ी हद तक पाकिस्तान पर दबाव बनाने और उसे अंतरराष्ट्रीय मंचों पर अलग-थलग करने में सफल हुआ है, लेकिन अभी इस मोर्चे पर बहुत कुछ किया जाना शेष है, क्योंकि पाकिस्तान तमाम नुकसान एवं शर्मिदगी उठाने के बावजूद अपनी भारत विरोधी गतिविधियों को छोड़ता हुआ नजर नहीं आ रहा है। बेहतर हो कि भारत सरकार एक ओर जहां अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पाकिस्तान के खिलाफ अपनी कूटनीतिक आक्रामकता और बढ़ाए वहीं दूसरी ओर सीमा पार आतंकवाद और पाकिस्तानी सेना की ओर से की जाने वाली गोलीबारी से होने वाली क्षति से बचाव के पुख्ता प्रबंध भी करे। चूंकि भारत सरकार एक लंबे अर्से से पाकिस्तान के खिलाफ उन विकल्पों को आजमाने से बच रही है जिनके बारे में पहले उसने संकेत दिए थे इसलिए ऐसे सवाल उठना स्वाभाविक है कि आखिर पाकिस्तान पर प्रभावी अंकुश लगाने के लिए क्या किया जा रहा है? अच्छा यह होगा कि भारत अपने शेष विकल्पों को आजमाए जाने को लेकर गंभीरता से विचार-विमर्श करे। यदि स्थितियों में बदलाव नहीं होता तो पाकिस्तान की नीति को लेकर और अधिक सवाल उठने शुरू हो सकते हैं। सच तो यह है कि ऐसे सवाल उठने भी लगे हैं।
प्रभात खबर
खेतिहरों का ख्याल
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने किसानों को लागत का डेढ़ गुना दाम देने के संकल्प को दोहराया है. बजट पेश करते हुए वित्त मंत्री अरुण जेटली ने घोषणा की थी कि सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य को निर्धारित करने की योजना पर काम कर रही है. हालांकि इसे तय करने के फॉर्मूले पर बहस हो रही है, पर खेतिहरों को उपज का उचित दाम दिलाने की बड़ी जरूरत है. एक तरफ खेती को खर्च बढ़ता जा रहा है, तो दूसरी तरफ अच्छी फसल होने के कारण मंडियों में भाव गिर रहे हैं. किसानों के बकाये के समय पर भुगतान न होने की शिकायतें भी आम हैं. सरकार ने डिजिटल तकनीक के प्रसार के अपने प्रयास के तहत खेती, उपज, भंडारण और बिक्री से जुड़ी सूचनाओं के आदान-प्रदान पर ध्यान दिया है. ऐसी सुविधाएं निश्चित रूप से लाभप्रद होंगी. बजट में भी कृषि को प्राथमिकता दी गयी है. फिलहाल जरूरत इस बात की है कि बजट के प्रावधानों और आवंटन को सहूलियत के साथ किसानों तक पहुंचाया जाये. कुल घरेलू उत्पादन में खेती के योगदान और आबादी के बड़े हिस्से की निर्भरता के लिहाज से अर्थव्यवस्था को गति देने में किसानों की आमदनी एक बड़ा कारक है. किसान महत्वपूर्ण उत्पादक होने के साथ बड़ा उपभोक्ता वर्ग भी है. अगर उसकी आमदनी बढ़ती हैं, तो इसका सकारात्मक मसर मांग पर होगा तथा औद्योगिक उत्पादन एवं सेवाओं का दायरा बढ़ेगा. कई वर्षों के कृषि संकट के कारण रोजगार की तलाश में ग्रामीण आबादी के एक हिस्से को शहरों का रुख करना पड़ता है. इस कारण शहरों पर दबाव बढ़ रहा है. बैंकों से कर्ज मिलने में कठिनाई तथा बीमा का सीमित विस्तार किसानों को उच्च दर पर कर्ज लेने के लिए मजबूर करता है. कर्ज के दुष्चक्र की भयावह परिणति आत्महत्याओं के सिलसिले के रूप में हमारे सामने है. इस स्थिति में तत्काल राहत के उपायों की आवश्यकता तो है ही, केंद्र और राज्य सरकारों को ठोस कृषि नीति बनाने की दिशा में पहल करनी चाहिए. इस संदर्भ में खेती के आधुनिक तौर-तरीकों को अपनाना भी प्रमुख तत्व है. प्रधानमंत्री मोदी की यह सलाह उचित है कि किसानों को यूरिया का कम इस्तेमाल करना चाहिए और जैविक खेती को अपनाना चाहिए, जैसा कि उन्होंने कहा है, इन कार्यों को सरकार नहीं कर सकती हैं. इनके लिए किसानों को प्रयास करना होगा. सरकार की भूमिका यह होगी कि वह जानकारियां और संसाधनों का इंतजाम करे. चूंकि हमारी अर्थव्यवस्था तेजी से विकसित होती आर्थिकी है और वैश्विक कारोबार में उसका दखल बढ़ रहा है, तो हम खेती और किसान को उसके हाल पर नहीं छोड़ सकते हैं. कृषि संकट से उबरने के साथ जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों का भी मुकाबला करना है. उम्मीद की जानी चाहिए कि सरकार खेती को लेकर अपनी प्रतिबद्धता को धार और गति देगी तथा इस बाबत दीर्घकालिक सोच और रणनीति के साथ कार्यरत होगी.
देशबन्धु
महाधिवेशन में धर्म युद्ध का संदेश
कांग्रेस के महाधिवेशन में उद्घाटन के वक्त महज 4 मिनट और समापन पर 50 मिनट के भाषण में कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने साफ कर दिया कि 2019 का चुनाव कांग्रेस के लिए धर्मयुद्ध की तरह है। जिसमें कौरवों की तरह अहंकार में चूर भाजपा एक ओर है और दूसरी ओर सब कुछ हारे हुए पांडव हैं, जिनके पास विनय और साहस है। उन्होंने रविवार को अधिवेशन की समाप्ति पर अंग्रेजी और हिंदी में न केवल अधिवेशन स्थल पर मौजूद लोगों बल्कि पूरे देश को ही संबोधित किया। अपने भाषण में उन्होंने भाजपा सरकार और नरेन्द्र मोदी की जमकर खिंचाई की कि किस तरह उन्होंने जनता को, युवाओं को बरगालकर सत्ता हासिल की और बदले में उन्हें धोखा दिया।
उन्होंने देश को बताया कि कांग्रेस सत्ता में आई तो किस तरह रोजगार, शिक्षा, कृषि आदि के लिए काम करेगी। लेकिन सबसे बड़ी बात उन्होंने नेताओं और कार्यकर्ताओं के बीच की दीवार तोड़नेे की की और कहा कि यह मंच कार्यकर्ताओं के लिए खाली रखा गया है। जिसमें कोई भी सुयोग्य आकर बैठ सकता है। उन्होंने गांधी, नेहरू, पटेल के दिनों का गौरव कांग्रेस को वापस लौटाने की बात भी कही। दरअसल कांग्रेस में इस वक्त ऐसा ही जोश भरने की जरूरत भी थी।
कांग्रेस का 84वां महाधिवेशन ऐसे वक्त में आयोजित हुआ, जब देश जबरदस्त राजनैतिक उथल-पुथल के दौर से गुजर रहा है। हाल ही में हुए पूर्वोत्तर के चुनाव में कांग्रेस ने फिर मात खाई। मेघालय उसके हाथ से चला गया। अब कर्नाटक में कभी भी चुनावों की घोषणा हो सकती है और वहां भी केसरिया झंडा लहराने के लिए मोदी-शाह की जोड़ी नजरें गड़ाई बैठी है। कर्नाटक के बाद छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, राजस्थान जैसे राज्यों में भी चुनाव होंगे, जहां कांग्रेस अपना राज फिर से कायम करने के लिए बेचैन है। छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश में तो वह 15 सालों से सत्ता से बाहर है, और यहां कांग्रेसियों की आंतरिक अनबन भाजपा को फायदा दिलाती रही है।
राजस्थान में जरूर भाजपा को लेकर असंतोष दिख रहा है, जो उपचुनावों में खुलकर प्रकट हुआ। राजस्थान के अलावा, मध्यप्रदेश में भी उपचुनावों में कांग्रेस को जीत मिली, जबकि उत्तरप्रदेश में उसे फिर मुंह की खानी पड़ी। उप्र चुनावों में सपा-बसपा गठबंधन प्रभावी रहा। उधर चंद्रशेखर राव, ममता बनर्जी जैसे लोग गैर कांग्रेसी-गैर भाजपाई तीसरे मोर्चे की संभावनाएं टटोल रहे हैं। इस पृष्ठभूमि मेंंकांग्रेस का दो दिनों का महाधिवेशन कई मायनों में खास कहा जा सकता है। सबसे पहली बात तो यह है किराहुल गांधी के अध्यक्ष बनने के बाद पहली बार अधिवेशन हुआ। अब तक राहुल गांधी उपाध्यक्ष की भूमिका में थे, लेकिन फिर भी चुनाव में हार का ठीकरा उनके ही सिर फूटता था।
अब वे अध्यक्ष हैं और उनके सामने विधानसभा चुनावों के साथ-साथ आम चुनाव में जीत हासिल करने की कठिन चुनौती है। इसी तरह एक और कठिन चुनौती है कार्यकर्ताओं में नए सिरे से उत्साह भरने की। राहुल गांधी के सामने तीसरी बड़ी चुनौती है भाजपा को टक्कर देने वाले प्रचार तंत्र की, जिसमें मीडिया की अहम भूमिका है। महाधिवेशन पर मुख्यत: इन तीनों चुनौतियों के इर्द-गिर्द ही चर्चा होती रही। पुरानी परिपाटी से हटकर इस बार मंच पर केवल वक्ता ही रहा और दिग्गज नेताओं की भीड़ नदारद रही। लगभग 18 हजार लोग महाधिवेशन में मौजूद थे, और कोशिश रही कि अधिक से अधिक लोगों को चर्चा-परिचर्चा में हिस्सा लेने का, अपने विचार रखने का मौका मिले।
दिग्गज नेताओं ने सभा को संबोधित किया तो बहुत से युवा नेताओं को भी अपनी बात रखने का अवसर दिया गया। इस तरह दो पीढ़ियों का उचित संगम इस महाधिवेशन में देखा गया। तमाम नेताओं ने मोदी सरकार की नीतियों, योजनाओं, वादों की अपने-अपने तरीके से आलोचना की और कार्यकर्ताओं में यह विश्वास जगाने की कोशिश की गई कि जब कांग्रेस सत्ता में आएगी, तभी देश में अच्छे दिनों की वापसी होगी। महाधिवेशन के पहले दिन सोनिया गांधी ने हमेशा की तरह आक्रामक तरीके से मोदी सरकार पर वार किया, साथ ही चिकमंगलूर का जिक्र किया, जहां से आपातकाल की हार के बाद इंदिरा गांधी ने फिर जीत दर्ज की थी। चिकमंगलूर कर्नाटक में है और इसलिए इस बात का जिक्र अभी खास हो जाता है।
महाधिवेशन में गठबंधन की संभावनाओं पर भी चर्चा हुई और मल्लिकार्जुन खड़गेे द्वारा पेश किये गये राजनैतिक प्रस्ताव में बताया गया कि कांग्रेस सभी समान विचारधारा वाले दलों के साथ सहयोग करने के लिए साझा व्यावहारिक कार्य प्रणाली विकसित करेगी। इस राजनैतिक प्रस्ताव को बहुत महत्वपूर्ण माना जा रहा है क्योंकि इसी के माध्यम से पार्टी लोकसभा सहित अगले चुनावों में अन्य विपक्षी दलों के साथ गठबंधन करने की अपनी दिशा निर्धारित करेगी।
कांग्रेस जानती है कि प्रचार तंत्र में भाजपा से कमजोर पड़ने का खामियाजा उसे कैसे उठाना पड़ा। ऐसे में कांग्रेस ने अपने महाधिवेशन में मीडिया को भी संबोधित किया। पार्टी यह संदेश भी देना चाहती है, वह मीडिया की मजबूती और उसकी स्वतंत्रता की पक्षधर है। इस पूरी कवायद के पीछे कांग्रेस की रणनीति मीडिया को भाजपा के खिलाफ खड़ा करने की भी है। यही वजह है कि कांग्रेस ने पहली बार अपने किसी राजनीतिक फोरम में मीडिया की स्वायत्तता का मुद्दा उठाया है। कुल मिलाकर कांग्रेस के महाधिवेशन में जमीनी हकीकत को देखते-समझते हुए नीतियां-रणनीतियां बनाई गईं। और राहुल गांधी ने अध्यक्ष की आसंदी से जिस जोश, गंभीरता, दूरदृष्टि, ऐतिहासिक गौरव इन सबका मेल करते हुए अपना समापन भाषण दिया, उसमें उनकी राजनैतिकपरिपक्वता दिखाई दी।