नवभारत टाइम्स
उत्तरी यूरोप से दोस्ती
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मंगलवार को पांच नॉर्डिक देशों- स्वीडन, नॉर्वे, डेनमार्क, फिनलैंड और आइसलैंड के सम्मेलन में शिरकत की, जिसकी सह मेजबानी स्वीडन और भारत के जिम्मे थी। पांचों नॉर्डिक देश एक साथ किसी अन्य देश के साथ इस तरह मिल बैठ कर बात कर रहे हों, ऐसा मौका इससे पहले सिर्फ एक बार आया है, जब बराक ओबामा के कार्यकाल में अमेरिका के साथ मिलकर उन्होंने ऐसा ही सम्मेलन किया था। उनका दूसरा सम्मेलन भारत के साथ हुआ, जिसकी खासियत यह रही कि इसमें राष्ट्र प्रमुखों के बजाय शासन प्रमुख शामिल हुए, ताकि ठोस फैसले लिए जा सकें। हर देश के शासनाध्यक्ष के साथ प्रधानमंत्री मोदी की द्विपक्षीय बातचीत भी हुई, लेकिन सामूहिक सहयोग की संभावनाओं पर बनी सहमति इस आयोजन की सबसे बड़ी उपलब्धि रही। याद करें तो स्वीडन के प्रधानमंत्री ओलोफ पाल्मे के समय जब भारत और स्वीडन की नजदीकी बढ़ी थी, तभी बोफोर्स सौदा हुआ था। उस विवाद के साये ने दोनों देशों के रिश्तों में ठंडापन ला दिया। 30 साल बाद हुई किसी भारतीय प्रधानमंत्री की इस यात्रा से दोनों देशों के रिश्तों में जमी बर्फ थोड़ी तो पिघली ही है। ऐसा ही मामला डेनमार्क के साथ भी है। पुरुलिया में एक हवाई जहाज से हथियार गिराए जाने के बाद से दोनों देशों के रिश्तों में खटास महसूस की जा रही थी। यह सम्मेलन इस बात का स्पष्ट संकेत बन कर आया है कि भारत और सारे नॉर्डिक देशों ने ‘बीती ताहि बिसार दे’ की तर्ज पर अतीत को भुलाकर भविष्य के मैत्रीपूर्ण दौर के लिए खुद को तैयार कर लिया है। ये देश क्षेत्रफल और आबादी के लिहाज से ज्यादा ताकतवर नहीं माने जाते। विश्व की विशाल अर्थव्यवस्थाओं में इनकी गिनती भी नहीं होती। लेकिन इनका विकास मॉडल पूरी दुनिया के लिए प्रेरणा स्रोत माना जाता रहा है। इन देशों के नागरिकों का ऊंचा जीवन स्तर, इनकी सरकारों का जन-कल्याणकारी स्वरूप और अमीर-गरीब के बीच आश्चर्यजनक रूप से कम अंतर सभी देशों के शासकों के लिए एक तरह का मानदंड है। भारत सरकार के लिए भी इनसे सीखने को काफी कुछ है। इन देशों के साथ भारत का सालाना व्यापार 530 करोड़ डॉलर का है, जबकि भारत में इनका सालाना प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) 250 करोड़ डॉलर है। दोनों पक्षों ने सुरक्षा, आर्थिक विकास और जलवायु बदलाव के मोर्चों पर सहयोग की प्रबल संभावनाएं दर्ज की हैं। मेक इन इंडिया, स्टार्टअप इंडिया, डिजिटल इंडिया और क्लीन इंडिया जैसे कार्यक्रमों को लेकर भारत सरकार की प्रतिबद्धता नॉर्डिक देशों के लिए भी खासी महत्वपूर्ण है। स्वच्छ टेक्नॉलजी, जहाजरानी से जुड़े सहयोग और फूड प्रॉसेसिंग जैसे क्षेत्रों में इन देशों की विशेषज्ञता का फायदा दोनों पक्षों को मिल सकता है। कुल मिलाकर सहयोग का यह नया दौर दोनों पक्षों के सामने बेहतर भविष्य की तस्वीर पेश कर रहा है।
जनसत्ता
फिर संकट
नोटबंदी की मार से लोग अभी पूरी तरह उबर भी नहीं पाए हैं कि एक बार फिर नकदी संकट की खबरों ने नींद उड़ा दी है। देश के ग्यारह राज्यों से खबर है कि लोग एटीएम से खाली हाथ लौट रहे हैं। ज्यादातर बैंकों के एटीएम खाली पड़े हैं। जहां इक्का-दुक्का एटीएम चल भी रहे हैं, वहां लंबी कतारें नोटबंदी के दिनों की याद ताजा करा रही हैं। दिल्ली और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में चालीस फीसद एटीएम खाली होने की खबरें हैं और हालत यह है कि पिछले एक हफ्ते से किसी भी बैंक में नकदी नहीं आई है। इस तरह अचानक आया संकट सरकार और बैंकिंग प्रणाली दोनों पर सवाल खड़े करता है। क्या सरकार और केंद्रीय बैंक को जरा भी भनक नहीं लगी कि नकदी की कमी होने जा रही है? अगर ऐसा है तो यह हमारी बैंकिंग प्रणाली की दुर्दशा को बताता है। हालांकि सरकार और रिजर्व बैंक ने दावा किया है कि देश में पर्याप्त नकदी है और यह संकट अस्थायी है। पर जिस तरह से सारा संकट आया, उसको देखते हुए यह बात आसानी से गले नहीं उतरती।
आखिर ऐसा क्या हुआ कि अचानक नकदी संकट आ गया? देश में इस वक्त अठारह लाख करोड़ रुपए की नकदी चलन में है। पिछले एक पखवाड़े में सामान्य से तीन गुना ज्यादा नकदी निकाल ली गई। वित्त मंत्रालय और रिजर्व बैंक समस्या की जड़ इसी में देख रहे हैं। देश में हर महीने बीस हजार करोड़ रुपए नकदी की खपत होती है, जबकि पिछले पंद्रह दिनों के भीतर पैंतालीस हजार करोड़ रुपए बाहर आ गए। कई राज्यों में तो दो हजार रुपए के नोट ही गायब हैं। क्या यह रकम जमाखोरों के हाथ में पहुंच गई है? सबसे ज्यादा संकट और अफवाहें दो हजार रुपए के नोट को लेकर हैं। पिछले साल मई के बाद रिजर्व बैंक ने दो हजार का नोट छापना बंद कर दिया था। देश की कुल मुद्रा चलन में पचास फीसद हिस्सेदारी दो हजार के नोट की है। इस वक्त बाजार में दो हजार रुपए मूल्य के मात्र दस फीसद नोट चलन में हैं। जाहिर है, दो हजार रुपए के जितने नोट बैंकों से निकले, उसका बड़ा हिस्सा जमाखोरी का शिकार हो गया। सरकार ने भी इस बात को माना है। नोटों की जमाखोरी के पीछे एक बड़ा कारण लोगों में नोटबंदी का बैठा खौफ है। दूसरा बड़ा कारण यह है कि लोग एफआरडीआइ (फाइनेंशियल रेग्युलेटरी एंड डिपॉजिट इंश्योरेंस) विधेयक को लेकर डरे हुए हैं। लोगों को लग रहा है कि अगर ऐसा कानून बन गया तो बैंकों में उनकी जमा रकम डूब सकती है। इसलिए पिछले कुछ महीनों में दो हजार के नोटों की जमाखोरी तेजी से बढ़ी।
मौजूदा नकदी संकट के लिए रिजर्व बैंक की कार्यप्रणाली काफी हद तक जिम्मेदार है। करेंसी चेस्ट में नोटों की सप्लाई घट कर चालीस फीसद रह गई है। इसीलिए करेंसी चेस्ट बैंकों को भी उनकी मांग के अनुरूप पैसा नहीं दे पा रहे। अर्द्धशहरी और ग्रामीण इलाकों में बैंकों को उनकी जरूरत के हिसाब से नकदी नहीं पहुंचाई जा रही। पचास, सौ और दो सौ रुपए मूल्य के नोट पर्याप्त नहीं हैं। जबकि सबसे ज्यादा जरूरत इन छोटे मूल्य के नोटों की पड़ती है। इससे साफ है कि रिजर्व बैंक नकदी सप्लाई नहीं कर पा रहा। इसके पीछे भले तकनीकी या नीतिगत वजहें हों, लेकिन संकट आम जनता को झेलना पड़ रहा है।
हिंदुस्तान
अराजकता का नया अध्याय
एअर इंडिया के एक पायलट ने अपने ग्राउंड स्टाफ का मोबाइल फोन वापस करने के लिए अंतरराष्ट्रीय उड़ान दो घंटे लेट करा दी। यह सब वहां हुआ, जहां अगर कोई यात्री महज पांच मिनट लेट हो जाए, तो उसे विमान के पास फटकने तक की इजाजत नहीं दी जाती। यहां तक कि उस सूरत में भी, जब यात्री की देरी के लिए खुद विमानन कंपनी ही किसी तरह से जिम्मेदार हो। अगर वह कोई वीआईपी हो, तो बात अलग है। लेकिन अब एअर इंडिया ने दिखा दिया कि वह सिर्फ वीआईपी के लिए ही यह उदारता नहीं बरतती, बल्कि अपने कर्मचारियों के लिए भी बरतती है। या यूं कहा जाए कि उसके कर्मचारी भी किसी वीआईपी से कम नहीं। विमानन कंपनियों और उनके स्टाफ की बढ़ती अराजकता के दौर में हीथ्रो से अहमदाबाद की उड़ान ने महज एक नया अध्याय जोड़ा है। सच तो यह है कि स्टाफ ने इस मामले में जैसी मुस्तैदी दिखाई, उसका दसवां हिस्सा भी आम दिनों में यात्रियों की सुख-सुविधा का ध्यान रखने में लगाया होता, तो देश की सबसे पुरानी एयरलाइन कंपनी एअर इंडिया नीलामी के कगार पर न खड़ी होती।
घटना 18 मार्च की लंदन के हीथ्रो हवाई अड्डे की है, जब अंतिम रूप से तैयार एआई-176 के पायलट ने उड़ान महज इसलिए रोक दी कि किसी ग्राउंड स्टाफ का मोबाइल फोन विमान में रह गया था। यह शायद विमानन इतिहास की भी अपने तरह की अनूठी घटना हो, जब एक पायलट साथी का फोन उस तक पहुंचाने के लिए इतना बेचैन हो जाए कि उड़ान रोक दे। टेकऑफ को तैयार विमान के दरवाजे बंद थे और सीढ़ी हट चुकी थी। इसे फिर से खोलने-बंद करने की खास प्रक्रिया होती है और जरा सी चूक बड़ी गड़बड़ कर सकती है। यही उस दिन हुआ। चतुर टीम ने दरवाजा खोल मोबाइल एक तकिए में लपेटकर15 फिट नीचे खड़े स्टाफ को कैच कराने की सोची, लेकिन दरवाजा इस तरह खुला कि सीढ़ी भी खुल गई, और कई तकनीकी खामियां पैदा हो जाने से उड़ान भरने में दो घंटे लग गए। ये विमान के वही पायलट और क्रू मेंबर थे, जिनकी अराजकता और जरा-जरा सी बात पर आक्रामक हो जाने के किस्से आम हैं। सुरक्षित विमान यात्रा अब इनके रहमोकरम पर है और निजी या सरकारी कोई भी एयरलाइन इसमें पीछे नहीं है। ये कन्फर्म बुकिंग के बावजूद जरूरत से ज्यादा यात्री का हवाला देकर किसी को यात्रा करने से रोक देते हैं, तो व्हील चेयर पर बैठे यात्री को अपने ही कारणों से विमान में चढ़ाने से इनकार कर देते हैं। खानपान और व्यवहार की शिकायतें तो लगभग सभी एयरलाइन्स में समान हैं, गोया सब अराजकता की होड़ में हों।
दैनिक जागरण
सूचना कानून का दायरा
भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड यानी बीसीसीआइ को सूचना अधिकार कानून के दायरे में लाने की विधि आयोग की सिफारिश महत्वपूर्ण अवश्य है, लेकिन वह तभी किसी काम की साबित होगी जब सरकार उसे मानने के लिए तैयार होगी। चूंकि विधि आयोग की सिफारिशें बाध्यकारी नहीं होतीं इसलिए कहना कठिन है कि सरकार विधि आयोग की रपट को लेकर किस नतीजे पर पहुंचती है, लेकिन यह किसी से छिपा नहीं कि संप्रग सरकार के समय भी खेल विधेयक के जरिये बीसीसीआइ को जवाबदेह बनाने की पहल परवान नहीं चढ़ी थी। बीसीसीआइ सूचना अधिकार कानून के दायरे में आने से इस आधार पर बचती रही है कि वह एक निजी संस्था है। यह एक कमजोर तर्क है, क्योंकि एक तो बीसीसीआइ के तहत क्रिकेटर देश का प्रतिनिधित्व करते हैं और दूसरे, उसे टैक्स में रियायत के अतिरिक्त परोक्ष तौर पर सरकारी सुविधाएं भी मिलती हैं। कोई भी खेल संस्था केवल इस आधार पर खुद को निजी नहीं बता सकती कि उसे सरकार से कोई सीधा अनुदान नहीं मिलता। इस मामले में विधि आयोग का यह निष्कर्ष तो सही है कि अन्य खेल संगठनों की तरह बीसीसीआइ भी है और उसे भी इन संगठनों की तरह सूचना अधिकार कानून के दायरे में आना चाहिए, लेकिन इस कानून के दायरे में आने का मतलब देश की इस सबसे धनी खेल संस्था का सरकारीकरण नहीं होना चाहिए। इस मामले में इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि अन्य खेल संगठन भले ही स्वायत्त संगठन कहे जाते हों, लेकिन वे सरकारी दखल से मुक्त नहीं हैं। आम धारणा है कि देश में इसी कारण खेल और खिलाड़ियों का सही तरह विकास नहीं हो पाया है। न तो इस धारणा को निराधार कहा जा सकता है और न ही इस तथ्य की उपेक्षा की जा सकती है कि सुप्रीम कोर्ट की कमेटी तमाम प्रयासों के बाद भी बीसीसीआइ के कामकाज को सुधार नहीं सकी है। ध्यान रहे कि यह सुप्रीम कोर्ट का ही निर्देश था कि विधि आयोग इसका आकलन करे कि बीसीसीआइ को सूचना कानून के दायरे में लाया जा सकता है या नहीं? 1नि:संदेह विधि आयोग ने अपना काम कर दिया, लेकिन यदि सरकार उसकी सिफारिश पर अमल करने के लिए आगे बढ़ती है तो उसे यह सुनिश्चित करना होगा कि बीसीसीआइ के कामकाज में पारदर्शिता और जवाबदेही तो आए, लेकिन उसकी कार्यप्रणाली में अनावश्यक हस्तक्षेप न हो। खुद बीसीसीआइ के हित में यही है कि वह अपनी कार्यप्रणाली को पारदर्शी बनाए। वह स्वयं को एनजीओ यानी गैर सरकारी संगठन बताकर बहुत दिनों तक अपना बचाव नहीं कर सकती। उसे इसका आभास होना चाहिए कि यह उसकी अपनी गलतियों और कमजोरियों का ही परिणाम है कि सुप्रीम कोर्ट को उसके काम में दखल देना पड़ा। फिलहाल यह कहना कठिन है कि विधि आयोग की सिफारिश का क्या होगा, लेकिन आम जनता को इस सवाल का भी जवाब मिलना चाहिए कि राजनीतिक दल सूचना अधिकार कानून के दायरे में आने को तैयार क्यों नहीं हैं? आखिर उनका काम पारदर्शी क्यों नहीं होना चाहिए? इस सिलसिले में यह भी ध्यान रहे कि खुद सुप्रीम कोर्ट ने भी इस कानून के दायरे में आने से इन्कार किया था।
प्रभात खबर
मॉनसून की चिंता
भारतीय मौसम विज्ञान विभाग के पूर्वानुमान के अनुसार, देश में दक्षिण-पश्चिम मॉनसून की बारिश सामान्य (लंबी अवधि के औसत का 97 फीसदी) रहेगी. मॉनसून समय पर आये और बरसात भरपूर हो, हमारी अर्थव्यवस्था के लिए इससे अच्छी खबर और क्या हो सकती है? भारत में सालाना बारिश का 70 फीसदी हिस्सा मॉनसून की देन है. इसी बारिश से तय होता है कि आनेवाले वक्त में बाजार और सियासत की रंगत क्या रहेगी. देश में खेती एक बड़ा हिस्सा (करीब 50 फीसदी) सिंचाई के लिए बारिश के पानी पर निर्भर है. हालांकि, अर्थव्यवस्था में खेती-किसानी तथा उससे जुड़े हिस्से का योगदान अब 15 फीसदी के आसपास रह गया है, परंतु सवा अरब लोगों के इस देश में अब भी आधी आबादी जीविका के लिए खेती पर निर्भर है. मॉनसून के समय पर आने और अच्छी बारिश होने से ऊपज अच्छी होती है तथा ग्रामीण भारत की आमदनी में इजाफा होता है. यह स्थिति बाजार के लिए सकारात्मक होने के कारण निवेशकों का भरोसा मजबूत बनाने और लोगों में सरकार के प्रति संतोष का भाव भरने में सहायक होती है. लेकिन, मौसम विज्ञान विभाग के पूर्वानुमान को ठीक से समझकर उम्मीद बांधने की जरूरत है. एक तो यह पहला ही पुर्वानुमान है. नये आंकड़ों के साथ जून के महीने में जब दूसरा पूर्वानुमान आयेगा, तब स्थिति कहीं अधिक स्पष्ट होगी. अगर अपवादस्वरूप 2017 के साल को छोड़ दें, तो बीते पांच सालों में मॉनसून के पहले पूर्वानुमान और बारिश की वास्तविक मात्रा में बहुत ज्यादा अंतर रहा है. ध्यान रखने की दूसरी बात यह है कि मॉनसून का आंकड़ा एक औसत की बात करता है. इससे यह जाहिर नहीं होता कि देश के किस हिस्से में सामान्य से ज्यादा बारिश होगी और किस हिस्से में सामान्य से कम. धान या गन्ने जैसी फसलों को लंबे समय तक ज्यादा पानी की जरूरत होती है और ऐसी फसलों पर देश के कुछ इलाकों में विशेष जोर है. सो, देखा यह भी जाना चाहिए कि ज्यादा बारिश की जरूरत के क्षेत्रों में मॉनसून की बारिश का हिसाब क्या रहता है. विभागीय पूर्वानुमान से पहले हाल में निजी क्षेत्र के एक अनुमानकर्ता स्काईमेट का आकलन आया था. उस अनुमान में मध्य भारत में सबसे ज्यादा बारिश की संभावना जतायी गयी है. पर, स्काईमेट के मुताबिक देश के मध्य भाग में अलग-अलग जगहों पर कहीं 15 फीसदी अतिरिक्त बारिश, कहीं सामान्य से 10 फीसदी कम और कुछ जगहों पर सूखे की भी आशंका है. इसी तरह स्काईमेट ने देश के पूर्वी और पूर्वोत्तर वाले हिस्से में 95 फीसदी के साथ सबसे कम बरिश की बात कही है और दक्षिण के राज्यों में भी कुछ हिस्सों में कम बारिश होने की आशंका है. सो, मॉनसून के पहले पूर्वानुमान पर भरोसा बांधने से पहले कुछ देर और इंतजार करना होगा तथा किसी भी चिंताजनक स्थिति से निपटने की तैयारी समय रहते कर लेनी चाहिए.
देशबन्धु
नगदी का संकट
नोटबंदी के बाद अब नकदी की कमी का संकट जनता को डरा रहा है। लोगों के पुराने जख्म हरे हो रहे हैं। एक खौफ सा तारी हो रहा है कि कहीं फिर से हमें अपने ही धन के लिए घंटो लाइन में न लगना पड़े। बीते दो-तीन दिनों से आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, बिहार, मध्य प्रदेश, कर्नाटक समेत देश के कई हिस्सों में नकदी संकट छाया हुआ है और इसका असर बाकी राज्यों पर पड़ना भी शुरु हो गया है। एटीएम पर नो कैश की लटकती तख्ती लोगों को मुंह चिढ़ा रही है कि सरकार ने तुम्हें फिर हमारी चौखट पर एड़ियां घिसने के लिए मजबूर कर दिया है। याद करें नोटबंदी का वह दौर, जब रोजमर्रा की जरूरतों से लेकर शादी-ब्याह जैसे जरूरी कामों के लिए भी लोगों के पास नकद नहीं था, क्योंकि पांच सौ और एक हजार के नोट एक झटके में बेकार कर दिए गए थे। तब सरकार ने दावा किया था कि इससे काले धन पर अंकुश लगेगा।
देशप्रेम के यज्ञ में लोगों ने यह आहुति भी दे दी। लेकिन काला धन या भ्रष्टाचार में कोई कमी आई हो, इसका प्रमाण नहीं मिला। हां, बीच-बीच में ऐसी खबरें जरूर आती रहीं कि कुछ लोगों के पास करोड़ों की पुरानी नकदी जब्त की गई, बाकायदा गिरोह बनाकर नोटबंदी के बाद पुराने नोटों को बदलने का काम हुआ। ऐसा गैरकानूनी काम करने वालों पर क्या कार्रवाई हुई, पता नहीं। इस बीच कई सार्वजनिक बैंकों का हजारों करोड़ लेकर भागे विजय माल्या की लंदन में तीसरी शादी की चर्चा हुई और पीएनबी से 13 हजार करोड़ लेकर भागे नीरव मोदी, मेहुल चौकसी की कोई खबर ही नहीं मिल रही। कभी ये अमेरिका में देखे जाते हैं, कभी हांग-कांग में। कागजों में दीवालिया इन लोगों को एक देश से दूसरे देश जाने में कोई आर्थिक तकलीफ नहीं होती और यहां आम आदमी सौ-दो सौ रुपयों के लिए मजबूर हो रहा है। किसी को साग-सब्जी खरीदने में दिक्कत है, किसी को बच्चों का एडमिशन कराने की।
मोदी सरकार को चुना गया था कि अच्छे दिन आएंगे, लेकिन अभी तो आशंकाओं भरे दिन आ गए हैं। किस दिन कौन सी खबर डरा दे, समझ ही नहीं आता। पर सरकार को जनता के भय और अंदेशे से कोई लेना-देना ही नहीं है। अभी भी वित्त मंत्री अरुण जेटली कह रहे हैं कि नकदी का कोई ंसंकट नहीं है। देश में जरूरत से ज्यादा नोट सर्कुलेशन में हैं और बैंकों में भी पर्याप्त नोट उपलब्ध हैं। वित्त मंत्री ये भी कहते हैं कि कुछ इलाकों में नोटों की मांग अप्रत्याशित रूप से बढ़ गई है। अगर ऐसा है तो क्या सरकार ने पता लगाने की कोशिश की है कि किस इलाके में और क्यों नोटों की मांग बढ़ी है? क्या इसका आगामी चुनाव से कोई लेना-देना है, जब राजनीतिक दलों को मतदाताओं पर न्यौछावर करने के लिए नकदी की जरूरत पड़ेगी? यह भी कहा जा रहा है कि बैंकों से जितना धन निकल रहा है, उतना जमा नहीं हो रहा है।
यानी ये नकदी कहीं न कहीं जमा हो रही है। तो यह पता लगाना चाहिए कि आखिर लोग बैंकों में धन क्यों नहीं जमा कर रहे? क्या फाइनेंशियल रिजोल्यूशन एंड डिपाजिट इंश्योरेंस यानी एफ आर डी आई के प्रस्तावित विधेयक का डर लोगों को सता रहा है। क्योंकि इसमें प्रावधान है कि अगर बैंक दिवालिया होता है, तो खाताधारक को केवल 1 लाख ही वापस मिलेंगे, उसकी शेष रकम बैंक को आर्थिक संकट से उबारने में लग जाएगी। इसे ऐसे भी समझ सकते हैं कि माल्या या मोदी जैसे लोग चाहें तो हजारों करोड़ लेकर भाग जाएं और बैंक को संकट में डाल दें, बैंक अन्य खाताधारकों की रकम का इस्तेमाल कर अपना संकट दूर कर लेगी, बदले में खाताधारक को कितना संकट झेलना होगा, इसकी फिक्र इस बिल में नहीं है। नकदी संकट का एक कारण पुराने एटीएम भी है, जो 2 सौ के नए नोटों के हिसाब से तैयार नहीं हुए हैं। नोटबंदी के बाद 2000 रुपये के नोट के साथ भी यही समस्या आई थी। लेकिन न तब सरकार ने पहले से कोई तैयारी रखी थी, न अब तैयार दिख रही है।
आश्वासन मिल रहा है कि कुछ दिनों में संकट दूर हो जाएगा। नए नोट छापने की रफ्तार भी बढ़ा दी गई है। लेकिन इस सवाल का जवाब अब भी नहीं मिल पाया है कि आखिर अचानक इस तरह का नकदी संकट क्यों हुआ? क्या 2 हजार के नोटों को जमा कर फिर कालाबाजारी नहीं बढ़ाई जा रही है? सरकार अभी यह आश्वासन देने की स्थिति में भी नहीं है किआगे ऐसा संकट नहीं आएगा। संसदीय समिति ने 17 मई को रिजर्व बैंक के गर्वनर उर्जित पटेल को तलब किया है। यह क्या संयोग ही है कि 15 मई तक कर्नाटक के नतीजे आ जाएंगे? बहरहाल, 17 मई में अभी एक महीना है, इस बीच बैंकिंग क्षेत्र में और क्या उठा-पटक होती है, यह देखना होगा। लोगों का विश्वास पहले ही डगमगाया हुआ है, थोड़ा और डरा कर सरकार न जाने क्या हासिल करना चाहती है?
The Times of India
Vital Platform
Prime Minister Narendra Modi’s visit to the UK for the Commonwealth Heads of Government Meeting opens up a new strategic opportunity for India. There are two main reasons for this. First, the 53-nation Commonwealth is being looked at in a new light following Brexit. True, the Commonwealth doesn’t make for an automatic replacement for the European Union. Nonetheless, the grouping could be reoriented to serve as a vital economic and innovation platform representing 2.3 billion people across all continents. This would require shedding the grouping’s colonial associations and reimagining the Commonwealth as a body that actively tackles contemporary issues from trade to climate change.
It is within this new frame that India can play a big role in the Commonwealth. New Delhi must discard its traditional defensive mindset towards the grouping and actively contribute towards transforming the Commonwealth into a vital pillar of a new multipolar global order. Secondly, one advantage of the grouping is that it doesn’t include China. At a time when the Chinese have decided to remake the international architecture through new China-dominated forums and big-ticket transnational infrastructure projects, several countries are looking for ways to balance Beijing’s assertive rise. The Commonwealth could present a viable alternative to the Chinese model of economic cooperation riddled with debt traps for other countries, by championing an equitable development model that works.
This is where India and countries like UK, Australia and Canada must put their heads together to boost trade and investment linkages between Commonwealth member nations. This is also why the Commonwealth must now shun its prescriptive approach on human rights and democracy – this has little traction today and can even push some Commonwealth members closer to China. The Commonwealth has to stop being a pretentious moral club and start seeing itself as a serious strategic force.
In that sense, the Commonwealth heritage is just a platform to bring member countries together. Commonalities in language and certain administrative structures ought to serve as a starting point to evolve greater consensus on trade, security and global governance. And India, poised to overtake Britain in terms of GDP, should be at the heart of these conversations. With the UK looking for other outlets following Brexit, British and Indian economic and strategic interests can come together here. India should help elevate the Commonwealth to this higher status.
The Indian Express
Out of Currency
The RBI and the Union finance ministry have a lot of answering to do on the renewed currency shortage reported in many states. ATMs running out of cash, almost one-and-a-half years after demonetisation, is a serious matter. But instead of trying to explain the reasons for what seems a supply issue — which could either be lack of adequate capacity to print new notes or failure to anticipate the transaction needs of the public with a recovery in GDP growth and consumption — policymakers have sought to deflect attention to the “unusual spurt in currency demand in the last three months”. This alleged spurt was evidently seen more in some parts of the country like Andhra Pradesh, Telangana, Karnataka, MP and Bihar. But the government has not clarified why it happened, even as reports point to the limited printing of high value notes, recalibration of ATMs which reduces the capacity of the machines to load cash, logistical issues, hoarding of currency amid a growth in economic activity.
Whatever the reasons, it is difficult to recall the last time when there was such a currency shortage except in the first few months after the announcement of demonetisation on November 8, 2016. If the government and the RBI have taken all steps to meet this “unusual demand”, as claimed, with a stock of adequate currency notes of all denominations, including of Rs 500, 200 and 100, why should there be a prolonged cash crunch in states such as Telangana and Andhra Pradesh, an issue flagged by these governments earlier? Unless, as some reports indicate, there are glitches related to the printing of currency at the production facilities controlled by both the government and RBI. Surely, the upcoming polls in Karnataka and hints of cash hoarding cannot be the only reason, considering that hardly a year goes by without state elections. From a supply side perspective, government and the central bank appear to have bet wrongly on a growth in digital transactions after demonetisation. Data shows that after peaking at Rs 154.09 lakh crore in March 2017, the value of digital transactions fell to Rs 114.12 lakh crore in February 2018.
Data also indicates that the supply of fresh currency was not commensurate with the demand for cash. Nudging people to move to the digital form of transactions or putting restrictions on the use of cash for investments like real estate may well be a desirable public policy goal but that is different from making adequate cash available to the public, which is the primary job of any central bank or monetary authority. All the more reason to have ensured enough stock of currency especially at the peak of the harvest season. Over the last few months, India’s banking sector and the regulator have been weighed down by multiple challenges. It is important to avoid opening another front.
The New Indian Express
The Pros and Cons for Simultaneous Elections
Comprehensive as it may be, the Law Commission’s draft report on the possibility of holding simultaneous polls by 2019 would require wide bipartisan consensus before it can take shape. The Commission is of course open to inputs from constitutional experts, academics, political parties, even students. It has annexed a public notice to the white paper to be circulated to them, with a short time-frame, May 8, for them to respond. This is because, if the proposal has to bear fruit, the Election Commission has to be given a lead period of six months. Parliament will have to carry out crucial amendments, including one on the Constitution, the other on the Representation of People Act, 1951, as also the Rules Procedure of the Lok Sabha and Assemblies, by the monsoon session. Easier listed than done!
The GST experience has shown us that path-breaking changes that alter the very rules of the game, however well-intentioned, should ideally not be rushed. Simultaneous polls will not be a one-time phenomenon. To make it sustainable, it requires other amendments, such as in the anti-defection law, and also loosening the grip of party whips, to avoid hung Assemblies. This may reduce the partisan approach to law-making and other legislative business, but as a devil’s advocate may say, it may bring money play and backdoor lobbying into the process. Can a developing country like India, with its myriad of competing interest groups, allow the weakening of the oppositional voice or even afford a bipartisan approach to law-making?
The endless chain of polls, in the PM’s view, is a distraction from governance. Apart from the model code of conduct, it keeps parties locked in a bitter tussle inside Parliament and in a perpetually rabble-rousing mode outside. However true, this only applies to national parties. A regional party has no such problem of being an itinerant campaigner, hopping from one poll to another. So simultaneous polls will suit those with a political footprint across India. As an idea it has points, but the counter-points need careful consideration
The Telegraph
Special Entry
The granting of citizenship has had a fractious history in India. The latest rumblings between the Asom Gana Parishad and the Bharatiya Janata Party — the two are in an alliance in Assam — bear testimony to the tensions that are latent in the idea of citizenship. The AGP has stated that it would resist the Centre’s attempts to bestow legal recognition on Hindu immigrants from Bangladesh. Incidentally, the citizenship (amendment) bill – radical changes have been proposed to amend the existing provisions by the ruling BJP – seeks to make six religious communities from Afghanistan, Pakistan and Bangladesh eligible for Indian citizenship. Muslim refugees, however, are not its intended beneficiaries: the bill extends privileges and concessions to Hindus, Sikhs, Buddhists, Jains, Parsis and Christians. The AGP is alleging that the provisions of the bill go against the stipulations of the Assam Accord, which declares that those who entered the state after 1971 cannot be considered citizens The other charge levelled by its ally would embarrass the BJP further: the AGP has apparently smelt a plot to undermine the secular moorings of Assamese society. The BJP, which faces similar allegations from its adversaries, could find it difficult to brush away such misgivings from an ally.
Of course, the AGP’s reservations could be a political ploy. There are murmurs of dissatisfaction in the National Democratic Alliance and the AGP could well use the BJP’s anxieties over these to extract political gains. What the goings-on also reveal is that the question of identity remains pivotal to Assam’s society and politics. This is not unexpected, given the long history of interventions on the part of ruling parties to politicize citizenship in a state with porous borders. The number of deportations under the Illegal Migrants (Determination by Tribunal) Act, 1983 — this legislation was passed by the Congress — was far from satisfactory. It now appears that the BJP is keen on replicating a similar strategy. It is thus being accused of consolidating its constituency by making religion the guiding principle of according citizenship. These lapses expose a deeper political complicity. International statutes agree that the notion of equality is integral to the bequeathing of citizenship. But New India seems to be proposing to discriminate against a vulnerable people on religious lines in contravention of the spirit of inclusion.