आज के हिंदी अख़बारों के संपादकीय: 13 मार्च, 2018

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नवभारत टाइम्स

जमीन से आसमान तक

फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों की भारत यात्रा से दोनों देशों के बीच गर्मजोशी और बढ़ी है। सच्चाई यह है कि फ्रांस के साथ हमारा संबंध महज कारोबारी नहीं रहा है, जैसा ऊपर से दिखता है। कई जरूरी मौकों पर फ्रांस हमारे साथ खड़ा हुआ है। 1998 में जब पोखरण में परमाणु परीक्षण हुआ था, तब पश्चिमी देशों में सिर्फ वही था जिसने भारत के खिलाफ किसी भी तरह का द्विपक्षीय प्रतिबंध लगाने से साफ मना कर दिया था। आज बदलते वैश्विक समीकरण में हम दोनों को एक-दूसरे की और भी ज्यादा जरूरत है। पिछले कुछ सालों में यूरोप में फ्रांस की हैसियत बदली है। ब्रिटेन यूरोपीय संघ से बाहर निकल गया है, जबकि जर्मनी की एंजेला मर्केल का प्रभाव पहले जैसा नहीं रह गया है। ऐसे में मैक्रों की भूमिका वहां काफी बढ़ गई है। यूरोप को लेकर उन्होंने अपना एक विजन पेश किया है, साथ ही अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी वह फ्रांस के रुतबा बढ़ाना चाहते हैं। अभी दुनिया भारत को एक उभरती हुई शक्ति के रूप में देख रही है। खासकर अमेरिका और यूरोप हमारे साथ एक स्थिर शक्ति संतुलन बनाने की कोशिश कर रहे हैं। फ्रांस की ओर से ज्यादा से ज्यादा रक्षा सहयोग की पेशकश का कारण यही है। दोनों देशों ने एक-दूसरे के लिए अपने नौसैनिक अड्डों को खोलेने का फैसला किया है। फ्रांस की नेवी इधर थोड़ी कमजोर जरूर हुई है, लेकिन हिंद महासागर में वह आज भी बहुत बड़ी शक्ति है। अपनी नौसैनिक ताकत को भारत के साथ साझा करने से उसे कई तरह के फायदे हो सकते हैं। इससे इस इलाके में चीन पर अंकुश लगाए रखने में दोनों देशों को मदद मिलेगी। दोनों देशों के बीच सुरक्षा, परमाणु ऊर्जा और गोपनीय सूचनाओं के संरक्षण जैसे रणनीतिक क्षेत्रों में 14 समझौतों पर हस्ताक्षर किए गए। साथ ही शिक्षा, पर्यावरण, शहरी विकास और रेलवे के क्षेत्र में भी करार किए गए हैं। मैक्रों ने कहा कि भारत और फ्रांस ने आतंकवाद और कट्टरता से निपटने के लिए मिलकर काम करने का फैसला किया है। वही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि जमीन से आसमान तक कोई विषय ऐसा नहीं है जिसमें भारत और सांसद साथ मिलकर काम न कर रहे हों। इस दोस्ती का दूसरा पहलू भारत में लोगों को इधर कुछ दिनों से परेशान कर रहा यह सवाल है कि इतनी नजदीकी के बावजूद फ्रांस में हमें राफेल विमान ज्यादा कीमत पर बेचा जबकि मिस्र और कतर को सस्ते में दे दिया। दोनों नेता यह उलझन दूर कर देते तो अच्छा था। वैसे एक इंटरव्यू में मैक्रों ने कहा कि अगर भारत सरकार विपक्ष के साथ बहस में राफेल सौदे से जुड़ी कुछ बारीकियों पर से परदा उठाना चाहती है तो फ्रांस को इस पर कोई आपत्ति नहीं होगी। उम्मीद करें कि हमारा आपसी सहयोग आगे और बढ़ेगा।


 जनसत्ता

जरुरत की ऊर्जा

ऊर्जा संकट से निपटने के लिए अंतरराष्ट्रीय सौर गठबंधन ने जो पहल की है, वह पूरी दुनिया को इस गंभीर समस्या से निजात दिलाने की दिशा में एक बड़ा कदम साबित हो सकती है। चाहे विकसित हों या विकासशील देश, ऊर्जा का गंभीर संकट सबके सामने है। विकासशील देशों के सामने यह चुनौती ज्यादा बड़ी है। ऐसे में अगर भारत अंतरराष्ट्रीय सौर गठबंधन की स्थापना से लेकर उसे लक्ष्य तक पहुंचाने के लिए नेतृत्व की भूमिका में आए तो यह एक बड़ी उपलब्धि होगी। दिल्ली में अंतरराष्ट्रीय सौर गठबंधन के पहले सम्मेलन में शिरकत करने वाले बासठ देशों ने ऊर्जा की जरूरतों को पूरा करने के लिए सौर ऊर्जा का उत्पादन और इस्तेमाल बढ़ाने की प्रतिबद्धता जताई है। अंतरराष्ट्रीय सौर गठबंधन की अहमियत इसलिए भी बढ़ गई है कि पेरिस समझौते के तहत सदस्य देशों को सौर ऊर्जा के इस्तेमाल, उसके लिए शोध, परियोजनाओं के लिए पैसे जैसी सारी जरूरतें इसी के जरिए पूरी की जाएंगी। इसका मुख्यालय गुरुग्राम में होगा, जिसके लिए भारत ने छह करोड़ बीस लाख डॉलर दिए हैं। इस सम्मेलन को अमली जामा पहनाने के पीछे सबसे बड़ी भूमिका फ्रांस की रही है, जिसने इस संगठन को खड़ा करने में भारत के साथ मिल कर काम किया। इस मौके पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुअल मैक्रों ने मिर्जापुर जिले में उत्तर प्रदेश के सबसे बड़े सौर ऊर्जा संयंत्र का लोकार्पण भी किया। गौरतलब है कि इस संयंत्र को फ्रांस की कंपनी ने ही बनाया है। इसमें एक करोड़ तीस लाख यूनिट बिजली हर महीने बनेगी।

भारत के समक्ष आज सबसे बड़ी चुनौती सवा अरब से ज्यादा आबादी को सस्ती बिजली मुहैया कराने की है। अभी देश में ज्यादातर बिजली का उत्पादन कोयले पर निर्भर है। बिजलीघरों को कोयले की कमी की समस्या से जूझना पड़ रहा है। खासतौर पर गरमी के मौसम में बिजली का संकट तब और बढ़ जाता है जब मांग की तुलना में बिजलीघर उत्पादन नहीं कर पाते और इसके पीछे सबसे बड़ा कारण बिजलीघरों को समय पर पर्याप्त कोयला नहीं मिल पाना है। जाहिर है, आने वाले वक्त में संकट और गहरा सकता है। ऐसे में भारत के लिए ऊर्जा का वैकल्पिक स्रोत तलाशना जरूरी है। सौर ऊर्जा इसका सबसे सस्ता और कारगर विकल्प साबित हो सकती है। भारत ने अगले पांच साल में सौर ऊर्जा से पौने दो खरब वाट बिजली बनाने का लक्ष्य रखा है। इसके लिए तिरासी अरब डॉलर की जरूरत पड़ेगी। इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए प्रधानमंत्री ने सौर परियोजनाओं के लिए सस्ता और बिना जोखिम वाला कर्ज देने की भी वकालत की।

सौर ऊर्जा का इस्तेमाल हर लिहाज से लाभदायक है। इससे बनने वाली बिजली न केवल सस्ती होगी, बल्कि इससे इन कारखानों से होने वाले प्रदूषण से भी निजात मिलेगी। कोयले से चलने वाले बिजलीघर जिस कदर राख और धुआं छोड़ते हैं, वह पर्यावरण के लिहाज से और जीवन के लिए खतरनाक है। सौर ऊर्जा के इस्तेमाल से कोयले जैसे प्राकृतिक स्रोत पर निर्भरता कम या फिर खत्म होगी। सम्मेलन में प्रधानमंत्री मोदी ने जो दस सूत्री कार्रवाई योजना पेश की है, उसमें सभी राष्ट्रों को सस्ती सौर प्रौद्योगिकी मुहैया कराना, ऊर्जा मिश्रण में फोटोवोल्टिक सेल से उत्पादित बिजली का हिस्सा बढ़ाना, सौर ऊर्जा परियोजनाओं के लिए नियमन और मानदंड बनाना, बैंक कर्ज के लिए सौर परियोजनाओं के लिए सलाह देना और विशिष्ट सौर केंद्रों का नेटवर्क बनाना शामिल है। सौर नीतियों, परियोजनाओं और राष्ट्रीय सौर मिशन जैसी पहलकदमी के जरिए अगर आम लोगों तक सौर ऊर्जा का फायदा पहुंचता है तो निश्चित ही भारत को भविष्य में ऊर्जा संकट से निपटने में कामयाबी मिलेगी।


हिन्दुस्तान

राजनीति में अपराध

भारतीय राजनीति का विद्रूप दिखाता यह नया आईना है। यह भारतीय राजनीति को अपराधीकरण से मुक्त करने की कई दशक पुरानी बहस का नया प्रस्थानबिंदु भी है, जब आधिकारिक आंकडे़ बता रहे हैं कि हमारी संसद और विधान मंडलों के एक तिहाई से ज्यादा सांसद और विधायक गंभीर रूप से दागी हैं। सरकार ने इन आंकड़ों के साथ सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दाखिल कर इनका निपटारा फास्ट टै्रक अदालतों में एक साल के अंदर करने की वचनबद्धता दोहराई है। आंकड़ों के अनुसार, देश में सांसदों-विधायकों की कुल संख्या 4,896 है और इनमें से 1,765 सांसदों और विधायकों पर 3,045 मामलों में आपराधिक मामले चल रहे हैं। इनमें सबसे ऊपर उत्तर प्रदेश है, उसके बाद तमिलनाडु, बिहार, पश्चिम बंगाल, आंध्र, केरल और कर्नाटक हैं। महाराष्ट्र और गोवा के आंकडे़ इसमें शामिल नहीं हैं। शुरुआत 2014 में सुप्रीम कोर्ट के उस आदेश से हुई थी, जब एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म (एडीआर) की याचिका पर कोर्ट ने सरकार को फास्ट ट्रैक कोर्ट बनाकर मामले समय-सीमा में निपटाने का आदेश दिया था। केंद्र ने तब इस पर 12 फास्ट टै्रक कोर्ट बनाने की बात की थी, और 780 करोड़ रुपये का बजट भी आबंटित किया गया था, लेकिन ताजा आंकड़ों के बाद लगता है कि अब दोगुनी फास्ट ट्रैक अदालतें बनानी होंगी।

भारतीय राजनीति में शुचिता की बहस पुरानी है,मगर इस पर ईमानदारी से कभी कुछ नहीं हुआ। प्रयास कई हुए, लेकिन उन पर राजनीति हावी हो गई। पूर्व प्रधान न्यायाधीश एमएन वेंकटचलैया ने तो बहुत पहले ही ‘नेशनल कमीशन टु रिव्यू द वर्किंग ऑफ द कांस्टीट्यूशन’ की अध्यक्षता करते हुए पांच साल से अधिक की सजा की स्थिति में चुनाव लड़ने से रोकने और हत्या, दुष्कर्म, तस्करी जैसे जघन्य मामलों में दोषी ठहराए जाने पर ताउम्र प्रतिबंध का सुझाव दिया था। वीरप्पा मोइली की अध्यक्षता वाले दूसरे प्रशासकीय सुधार आयोग व बाद में विधि आयोग ने भी कई सिफारिशें कीं। चुनाव आयोग ने भी काफी पहले स्पष्ट किया था कि निचली अदालत द्वारा दोषी ठहराया जाना ही चुनाव लड़ने से अयोग्य करने को पर्याप्त होगा। इतना सब हुआ, पर वाकई कुछ नहीं हुआ।

यह भारतीय राजनीति का विद्रूप ही है कि हमारे यहां शासन तंत्र की बागडोर जिन जन-प्रतिनिधियों के हाथों में है, उनका चयन योग्यता पर नहीं, बल्कि जाति, वर्ग, धनबल और बाहुबल के आधार पर होता है। जेल जाने और बेल पर भी बाहर आने पर जश्न मनता है। जो जितना धन-बलशाली हो, उतना ही बड़ा जश्न। यही उसकी ताकत का पैमाना बनता है। असल जरूरत इस विद्रूप पर नियंत्रण पाने की है, शायद ताजा प्रयास इसके प्रति आश्वस्त कर सके। एक बात जरूर देखने की होगी कि ऐसी त्वरित कार्रवाई शुचिता के नाम पर किसी नई अराजकता का अवसर न बन जाए। यह भी कि मामला सिर्फ फास्ट्र टै्रक कोर्ट की तेजी तक सीमित न रहे, ऊपरी अदालतों में भी वैसी ही तेजी से सुनवाई और फैसले हों। राजनीति की शुचिता का सपना तभी सही मायनों में पूरा हो सकेगा। सवाल यह भी है कि क्या यह सब वाकई कानून से खत्म होगा? दरअसल, यह काम राजनीतिक दलों को करना होगा। उन्हें  सोचना होगा कि क्या वे वाकई ऐसा चाहते हैं? जिस दिन उनकी इच्छाशक्ति आकार ले लेगी, कानून को बीच में आने की जरूरत ही नहीं पडे़गी।

अमर उजाला

सड़क पर किसान

अखिल भारतीय किसान सभा के नेतृत्व में महाराष्ट्र में आंदोलनरत किसानों के साथ बातचीत में देवेंद्र फडणवीस सरकार ने उनकी ज्यादातर मांगे मान लेने का भरोसा तो दिया है, अलबत्ता इसका खास ध्यान रखा जाना चाहिए कि किसानों की समस्याओं का समाधान करते हुए जरूरी संवेदनशीलता का परिचय दिया जाए। हालांकि शिवसेना, एनसीपी और कांग्रेस ने आंदोलनकारी किसानों का जिस तरह समर्थन किया, वह उनसे सहानुभूति जताने के बजाय अपनी राजनीति चमकाने की कोशिश ही अधिक है, क्योंकि इसका कोई सुबूत नहीं है कि खुद सत्ता में रहते हुए उन्होंने उनके प्रति जरूरी संवेदनशीलता का परिचय दिया था किसानों का संकट सिर्फ महाराष्ट्र में नहीं है, वह कमोबेश पूरे देश में है। और यह संकट अचानक नहीं पैदा हुआ है, बल्कि यह दशकों से खेती-किसानी के प्रति हमारी उत्तरोत्तर सरकारों की उपेक्षा का नतीजा है। यह संयोग नहीं है कि भारतीय किसान यूनियन ने भी कृषि उपज के लाभकारी मूल्य की मांग के साथ आज नई दिल्ली में किसानों की महापंचायत आयोजित करने की बात कही है। खुद मुसीबते झेल कर देश का पेट भरने वाले किसानों को अगर अपनी मांग मनवाने के लिए तपती धूप में सैकड़ों किलोमीटर पैदल चलकर आना पड़े, तो इससे विकास से संबंधित हमारी प्राथमिकताओं की गड़बड़ी का ही पता चलता है। नासिक से मुंबई आए किसानों में अनेक आदिवासी थे, जो वन अधिकार कानून को सही तरीके से लागू करने की मांग कर रहे थे। पता यह चलता है कि गढ़चिरौली में तो यह कानून ठीक से लागू हुआ है, लेकिन नासिक में नहीं, जिससे किसानों को उनके खेत का मालिकाना हक नहीं मिला है। जल संकट से जूझते सूबे के किसान नदी जोड़ योजना के तहत पानी देने की भी मांग कर रहे हैं। वे चाहते हैं कि परियोजनाओं के लिए उनके खेत न लिए जाएं। कमोबेश ये पूरे देश के किसानों की समस्याएं हैं। महाराष्ट्र की फडणवीस सरकार ने पिछले वर्ष जिस किसान कर्ज माफी योजना की घोषणा की थी, जिला स्तरीय बैंकों के खस्ताहाल होने और तकनीकी गड़बड़ियों के कारण किसान उस लाभ से भी वंचित है। भूलना नहीं चाहिए कि महाराष्ट्र के ये किसान अपनी मांगों के साथ पिछले साल भी नासिक में इकट्ठा हुए थे। चूंकि केंद्र सरकार ने 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने का वायदा किया है, इसलिए भी किसानों की जायज मांगों के प्रति संवेदनशील होने की जरूरत है।


दैनिक भास्कर

राजनीति को परे रख किसानों की मांगों पर ध्यान दे सरकार 

यह अच्छी बात है कि देश का ध्यान उन 40 हजार किसानों की ओर जा रहा है, जो नासिक से 160 किलोमीटर पैदल चलकर मुंबई पहुंचे हैं और सरकार से अपनी मांगों के लिए याचना कर रहे हैं। नासिक कृषि उत्पादों की बहुत बड़ी मंडी है और मुंबई देश की आर्थिक राजधानी है। अगर इसके बीच देश के किसान दुखी और नाराज हैं तो जरूर व्यवस्था में कहीं कुछ गड़बड़ है। पिछले साल मध्यप्रदेश में मंदसौर, रतलाम और इंदौर से लेकर भोपाल तक किसानों ने उग्र प्रदर्शन किया था। संयोग से उस आंदोलन का नेतृत्व राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के ही एक किसान नेता कर रहे थे। इस आंदोलन का नेतृत्व अखिल भारतीय किसान सभा के हाथ में है और वह मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी वाली शाखा है। इसके बावजूद उसे कांग्रेस, महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना और शिव सेना का समर्थन प्राप्त है। इस प्रदर्शन में वे आदिवासी भी हैं जो जंगल में मिली हुई जमीन को जोत रहे हैं लेकिन, वह अभी तक उनके नाम नहीं हुई है। ये लोग एक तरफ कर्ज माफी, दूसरी तरफ वन अधिकार अधिनियम के तहत अपने अधिकार और किसानों को उपज उचित का मूल्य दिलाने के लिए बनी स्वामीनाथन कमेटी की रिपोर्ट को भी लागू करने की मांग कर रहे हैं। स्वामीनाथन कमेटी की रिपोर्ट पर बड़े बड़े दावों के बावजूद सरकार ने न तो सी-2 फार्मूले को लागू करने की पहल की है और न ही न्यूनतम समर्थन मूल्य में अनाज की अधिकतम किस्मों को शामिल किया है। उल्टे जमीन का किराया न देने वाले ए-2 फार्मूले को लागू किया जा रहा है और वह मूल्य भी हकीकत में प्राप्त नहीं हो रहा है। किसानों की विडंबना यह है कि वह देश का अन्नदाता होने के बावजूद अपना पेट नहीं भर पाता। अगर उसका पेट भर भी जाता है तो शिक्षा, स्वास्थ्य और दूसरी जरूरतें नहीं पूरी होतीं। यही वजह है कि वह आत्महत्या करने को मजबूर होता है। आदिवासियों को जंगल में अधिकार दिलाने के लिए 2006 में वन अधिकार कानून बनने के बावजूद राजनेता, अधिकारी और ठेकेदार का त्रिकोण उसे लागू नहीं होने देते। यह बात सरकार द्वारा गठित वर्जीनिया खाखा कमेटी की रपट में स्पष्ट तौर पर कही गई है। इसीलिए जाति और धर्म के दायरे को तोड़कर किसान संगठित होकर सरकार के समक्ष शांतिपूर्ण तरीके से अपनी मांग रखने आए हैं और सरकार को राजनीतिक पक्षपात के बिना उन पर ध्यान देना चाहिए।


राजस्थान पत्रिका

कैसी कल्चर?

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सार्वजनिक रूप से भाजपा को ‘कांग्रेस कल्चर’ से बचाने की बात कहते हैं। इसलिए ताकि पार्टी में भी वे बुराइयां ना आ जाएं जिनका विरोध भाजपा सालों से करती आ रही है। यह तो हुई एक बात जो पार्टी कार्यकर्ताओं को अच्छी लगती होगी। लेकिन इसमें विपरीत बीते सप्ताह में भाजपा महाराष्ट्र के नारायण राणे को पार्टी का राज्यसभा प्रत्याशी बना चुकी है उत्तर प्रदेश के समाजवादी पार्टी नेता नरेश अग्रवाल को माला पहनाकर अपने यहां लाया चुकी है। शिवसेना से राजनीति शुरू करने वाले राणे पार्टी छोड़ने के बाद कांग्रेस में रह चुके हैं। कांग्रेस में रहते हुए राणे भाजपा पर जमकर प्रहार करते थे। वहीं कांग्रेस से अपनी राजनीति शुरु करने वाले अग्रवाल समाजवादी पार्टी समेत अन्य दलों में रह चुके हैं। सप्ताह भर पहले तक भाजपा की नीतियों की धज्जियां उड़ाने से नहीं थकने वाले अग्रवाल को शामिल करके भाजपा क्या संदेश देना चाहती है। महत्वपूर्ण बात ये कि समाजवादी पार्टी ने उन्हें राज्यसभा का टिकट नहीं दिया तो तीन दिन के भीतर वे पार्टी छोड़कर भगवा रंग में रंग गए। यहां सवाल दो नेताओं के भाजपा में शामिल होने व इससे भाजपा को लाभ का नहीं है। सवाल अहम ये है कि भाजपा ऐसा कर क्यों रही है? क्या उसे लगता है कि राणे और अग्रवाल मन से भाजपाई हो गए होंगे? सवाल का जवाब ना में है जिसे भाजपा के नेता भी जानते हैं और राणे-अग्रवाल भी। पिछले कुछ सालों में देश की राजनीति में ‘आयाराम-गयाराम’ का चलन बेतहाशा बढ़ गया है। चुनाव की आहट हो या नहीं, दलबदल का सिलसिला सालभर जारी रहने लगा है। दलबदल ने राजनीति को दूषित बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। भाजपा में शामिल होने का इनाम राणे को तो राज्यसभा सीट के रूप में मिल गया है। अग्रवाल को भी कोई पद मिल सकता है। लेकिन फिर मोदी के ‘कांग्रेस कल्चर’ वाले बयान का क्या होगा? इसका फैसला तो भाजपा के शीर्ष नेतृत्व को ही करना होगा। दूसरे दलों के अनेक नेता पहले भी भाजपा में आ चुके हैं लेकिन कभी घुल-मिल नहीं पाए। राणे और अग्रवाल कितनी देर तक टिक पाते हैं, समय ही बताएगा।


दैनिक जागरण

अप्रत्याशित दलबदल

अपने बेतुके बयानों और अभद्र टिप्पणियों के लिए चर्चा में रहने वाले नरेश अग्रवाल जिस आसानी के साथ समाजवादी पार्टी छोड़कर भाजपा में प्रवेश कर गए वह अप्रत्याशित है। नरेश अग्रवाल के भाजपा में आगमन से यही पता चला कि मौकापरस्त नेताओं के लिए किस तरह हर दल में जगह है और यहां तक कि उस दल में भी जो चाल, चरित्र और चेहरे की बात करता है। क्या भाजपा इस तरह औरों से अलग दल की अपनी छवि का निर्माण करेगी? आम जनता और साथ ही खुद भाजपा समर्थकों के लिए यह समझना कठिन होगा कि नरेश अग्रवाल जैसे नेता का हाथ थामकर पार्टी ऐसा क्या हासिल करने वाली है कि उसने अपनी छवि को दांव पर लगाने का काम किया? क्या वह सपा के विधायकों की बड़ी टोली के साथ आए हैं या फिर उनके सहयोग से भाजपा उत्तर प्रदेश में विपक्ष के हिस्से की भी राज्यसभा सीटें जीतने जा रही है? इस पर हैरानी नहीं कि भाजपा की सदस्यता ग्रहण करते समय भी नरेश अग्रवाल बेतुके बोल बोलने से बाज नहीं आए। उन्होंने खुद को जया बच्चन से बड़ा नेता साबित करने के फेर में उनके प्रति अभद्र टिप्पणी कर डाली। इससे यही साबित हुआ कि उन्हें भाजपा की रीति-नीति से कोई मतलब नहीं। वैसे भी यह किसी से छिपा नहीं कि अभी कल तक भाजपा, मोदी सरकार और उसकी नीतियों के बारे में उनके विचार कैसे थे? लगता है नरेश अग्रवाल को अपना बनाने की आतुरता में भाजपा भी उन्हें ऐसी कोई नसीहत देना भूल गई कि कम से कम अब तो वह अपनी जबान पर काबू रखें। सुषमा स्वराज को इसके लिए साधुवाद कि उन्होंने नरेश अग्रवाल को ङिाड़का और दो टूक कहा कि उनकी अमर्यादित भाषा अस्वीकार्य है। इसमें संदेह है कि इस हिदायत का उन पर कुछ असर होगा, लेकिन इतना अवश्य है कि भाजपा के लिए इस सवाल का जवाब देना मुश्किल होगा कि वह राजनीतिक शुचिता और मर्यादा की बातें किस संदर्भ में किया करती है?1लोकतंत्र में न केवल नेताओं की छवि का महत्व होता है, बल्कि इसका भी कि किसी नेता के बारे में जनता क्या सोचती है? हालांकि राजनीतिक दल इससे अच्छी तरह परिचित हैं कि राजनीति में छवि और धारणा असर करती है, लेकिन सियासी फायदे के फेर में वे अक्सर लोकलाज की परवाह नहीं करते। यह और कुछ नहीं जनता का निरादर है। कई बार यह निरादर महंगा पड़ता है। भाजपा को यह विस्मृत नहीं करना चाहिए कि जब उसने बसपा से निकाले गए बाबूसिंह कुशवाहा को गले लगाया था तो किस तरह उसे निंदा का पात्र बनना पड़ा था और इसके चलते उनकी सदस्यता को स्थगित करना पड़ा था। माना कि आज की राजनीति में नीति एवं निष्ठा की कोई अहमियत नहीं रह गई है और तात्कालिक राजनीतिक लाभ ही सवरेपरि हो गया है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि आयाराम-गयाराम की पराकाष्ठा होने लगे। भाजपा यह ध्यान रखे तो बेहतर कि जैसे सवाल दलबदल में महारत हासिल कर चुके नरेश अग्रवाल को लेकर उठ रहे हैं वैसे ही महाराष्ट्र के नेता नारायण राणो को लेकर भी उठे हैं।


देशबन्धु

राहुल गांधी की सहनशीलता

राहुल गांधी की मलेशिया और सिंगापुर यात्रा के दौरान दिए गए भाषण चर्चा का विषय बने हुए हैं। मलेशिया में एक कार्यक्रम में राहुल से एक व्यक्ति ने पूछा कि वह किस प्रकार नोटबंदी को लागू करते। इस पर राहुल गांधी का जवाब था कि अगर मैं प्रधानमंत्री होता और कोई मुझे नोटबंदी लिखी हुई फाइल देता तो मैं उसे डस्टबिन में फेंक देता। क्योंकि मुझे लगता है कि नोटबंदी के साथ ऐसा ही किए जाने की जरूरत है।

उनके इस जवाब से भाजपा काफी चिढ़ गई है। उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री योगी ने इस पर प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि राहुल गांधी कई चीजें फाड़ देते हैं। और इसलिए जनता उनकी अपील को फाड़कर फेंक देती है। भाजपा नेता शहनवाज हुसैन ने कहा कि इस तरह की भाषा बोलने वाला कभी प्रधानमंत्री नहीं बन सकता। राहुल खुद अपना मजाक बनवा रहे हैं। भाजपा के नेता और समर्थक हमेशा से राहुल गांधी का मखौल उड़ाने में आगे रहे हैं और राहुल गांधी मोदीजी या सरकार के लिए कुछ कहें यह उन्हें बर्दाश्त नहीं होता। इसलिए राहुल के बयान पर उनका तिलमिलाना स्वाभाविक है। रहा सवाल भाषा और प्रधानमंत्री पद का, तो इसमें मोदीजी से बड़ी मिसाल क्या हो सकती है?

चुनावी रैलियों से लेकर संसद के सदनों के भीतर उन्होंने कई बार भाषा की मर्यादा को तोड़ा है। केवल राहुल और सोनिया गांधी ही नहीं, वे दिवंगत प.जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी और राजीव गांधी तक पर अपने कटाक्ष पेश कर चुके हैं। राज्यसभा में पिछले साल डा.मनमोहन सिंह और इस साल रेणुका चौधरी पर जिस तरह के बयान प्रधानमंत्री पद पर रहते हुए नरेन्द्र मोदी ने दिए, उसके बाद कभी शहनवाज हुसैन ने क्यों नहीं कहा कि इस तरह की भाषा प्रधानमंत्री को नहीं बोलनी चाहिए।

नोटबंदी मोदी सरकार का एक ऐसा फैसला था, जिसमें तानाशाही की गंध भरी हुई है। इससे पूरा देश प्रभावित हुआ। जाहिर है ऐसे विवादास्पद फैसले पर लोग अपनी प्रतिक्रिया देंगे और राहुल गांधी ने भी वही किया है। क्या सत्ता पर बैठी भाजपा में इतनी सहनशक्ति नहीं है कि वह अपनी आलोचना सुन सके? वैसे बात अगर राहुल गांधी की सहनशक्ति की करें तो इसकी मिसाल उन्होंने सिंगापुर में एक वार्ता के दौरान जब उनसे राजीव गांधी के कातिलों के बारे में पूछा गया, तो जवाब मिला कि उन्होंने और उनकी बहन प्रियंका ने पिता के कातिलों को माफ कर दिया है। राहुल गांधी ने कहा कि मैं ये समझने के लिए काफी दर्द से होकर गुजरा हूं। मुझे सच में किसी से नफरत करना बेहद मुश्किल लगता है। यही बात उन्होंने गुजरात चुनावों के दौरान भी कही थी। सिंगापुर के प्रतिष्ठित ली कुआन यिऊ स्कूल ऑफ पब्लिक पॉलिसी में एक चर्चा के दौरान उनसे जो सवाल किए गए, उनके जवाब भी राहुल गांधी की सहनशीलता को दिखाते हैं।

एशिया के रिबार्न के लेखक पी के बासु ने उनसे साफ-साफ लफ्जों में कहा कि जब तक देश में नेहरू-गांधी परिवार का राज रहा, तब तक देश का विकास नहीं हुआ। जबकि अनीश मिश्रा नाम के एक व्यक्ति ने कहा कि आज भारत जो कुछ है, वह जवाहरलाल नेहरू की वजह से है। इन दोनों बातों पर राहुल गांधी ने कहा कि ये जो आप देख रहे हैं, वही ध्रुवीकरण है। एक को लगता है कि कांग्रेस ने कुछ नहीं किया, दूसरे को लगता है कि कांग्रेस ने ही सब कुछ किया है। मैं बताता हूं कि सच क्या है। भारत की सफलता के पीछे भारत के लोगों का हाथ है। इसके बाद राहुल गांधी ने देश को आगे बढ़ाने में कांग्रेस के योगदान का जिक्र किया और परस्पर विरोधी विचारों को सम्मान करने की अपनी आदत का जिक्र किया। जिस तरह बर्कले में बेबाकी के साथ राहुल गांधी ने अपनी बातें रखीं थीं, वही अंदाज सिंगापुर-मलेशिया में भी दिखा। लेकिन देश में चुनाव केवल इन बातों के सहारे नहीं लड़ा जा सकता। उसके लिए कांग्रेस को अभी काफी मेहनत करनी होगी। अपनी खूबियों और खामियों का ईमानदारी से आकलन करना होगा। सबसे बड़ी बात राहुल गांधी जो राजनैतिक परिपच्ता विदेश दौरों में दिखा रहे हैं, उसे देश की आम जनता के बीच भी साबित करना होगा। तभी कांग्रेस को खोई जमीन हासिल होगी।


प्रभात खबर

किसानों की पदयात्रा

देश की वित्तीय राजधानी मुंबई फिलहाल किसानों और आदिवासियों की मांगों की धमक महसूस कर रही है. अखिल भारतीय किसान सभा की अगुवाई में छह मार्च को हजारों की तादाद में किसान महाराष्ट्र के नासिक और आसपास के इलाकों से निकले और दो सौ किलोमीटर पैदल चलकर रविवार की रात मुंबई पहुंचे. राज्य की विपक्षी पार्टियों और सिविल सोसाइटी ने किसानों की मांगों का समर्थन किया है.

सरकार ने शुरुआती टालमटोल के बाद कई मांगों को मान लिया है और बाकी पर गंभीरता से विचार का आश्वासन दिया है. आंदोलनकारी किसानों ने कर्ज माफी, उपज का लाभकारी मूल्य और फसल बीमा की कारगर व्यवस्था जैसी बरसों से चली आ रही समस्याओं तथा जंगल की जमीन के पट्टे जैसी मांगों को लेकर यह मार्च निकाला है. लेकिन, ये मुद्दे महाराष्ट्र के एक जिले तक सीमित नहीं है.

कई राज्यों में किसान बेहतर मूल्य तथा कर्जमाफी के लिए आवाज उठा रहे हैं. भारतीय अर्थव्यवस्था का एक कड़वा सच यह है कि ज्यादातर आबादी जीविका के लिए किसानी और उससे जुड़ी गतिविधियों पर निर्भर है, लेकिन कुल घरेलू उत्पादन (जीडीपी) में कृषि तथा संबंधित गतिविधियों का योगदान लगातार कम होता जा रहा है.

उदारीकरण के दौर में खेतिहर आबादी की आमदनी अन्य पेशेवर तबकों की तुलना में बड़ी धीमी गति से बढ़ रही है. खेती घाटे का सौदा बन गयी है और ज्यादातर किसान परिवार जीविका का कोई अन्य विकल्प मौजूद न होने की मजबूरी में ही खेती में लगे हैं. यह भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि देश के अधिकतर किसान सीमांत किसान हैं, यानी उनकी जोत बहुत अधिक नहीं है.

सरकारी कर्ज मिलने की मुश्किलों के कारण अक्सर उन्हें भारी सूद पर महाजनों से उधार लेना पड़ता है. किसान की इच्छा होती है कि वह उपज को जल्दी बेचकर नकदी जुटा ले. ऐसे में वह खुले बाजार का मोहताज होता है. समर्थन मूल्य, सरकारी खरीद और भंडारण की लचर व्यवस्था उसकी बेचारगी को और बढ़ा देती है. यही पैटर्न देश के अलग-अलग हिस्सों में है.

स्थिति की भयावहता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि हर साल लगभग 12 हजार किसान अपनी जान दे देते हैं. भारत के करीब नौ करोड़ खेतिहर परिवारों में से करीब 70 फीसदी परिवार कमाई से अधिक उपज पर खर्च कर देते हैं. बीते एक दशक में कृषि क्षेत्र में बजट आवंटन में बढ़ोतरी तो हुई है, पर उसका लाभ किसानों के बजाय कृषि उत्पादों के कारोबार को मिल रहा है. मुंबई की जुटान किसान असंतोष का एक संकेत भर है.

सरकार को तुरंत ही किसानों को फौरी राहत देने तथा उपज के उचित दाम पर ध्यान देना चाहिए. बजट के प्रावधानों को कागजों से उतारकर खेतों और मंडियों तक ले जाने के अलावा कोई विकल्प नहीं है. इसके साथ ही, कृषि संकट के दीर्घकालिक समाधान के लिए विभिन्न अध्ययनों और रिपोर्टों के आधार पर तथा किसानों से सलाह-सुझाव लेकर ठोस नीतिगत पहल करनी चाहिए.