नवभारत टाइम्स
ट्रेड वॉर के आसार
अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने साफ कर दिया कि भारत और चीन के साथ व्यापार शुल्क के मामले में वह जैसे को तैसा वाली नीति अपनाएंगे। यानी ये देश अमेरिकी उत्पादों के आयात पर जितना टैक्स लगाएंगे, उतना ही टैक्स अमेरिका में इनके उत्पादों के आयात पर भी लगाया जाएगा। ऐसी ही धमकी ट्रंप अन्य देशों को भी देते रहे हैं। ‘अमेरिका फर्स्ट’ के नारे के तहत अपने देश के हितों को सबसे ऊंचा रखने की बात करने वाले ट्रंप इकलौते नहीं है। ऐसा नेतृत्व कई देशों में उभर रहा है। जहां वह सत्ता में नहीं है, वहां भी सरकार पर दबाव बनाने की स्थिति में आ गया है। स्वाभाविक है कि ट्रंप की इन घोषणाओं से अन्य देशों में भी संरक्षणवादी नीतियों की वकालत करने वाली आवाजों को मजबूती मिलेगी। इससे ग्लोबल पैमाने पर ट्रेड वॉर की आशंका सच होती लगने लगी है। करीब तीन दशकों तक चले ग्लोबलाइजेशन के बाद बहुतों को यह ‘उलटे बांस बरेली को’ वाला मामला लग सकता है। लेकिन तह में जाकर देखें तो ग्लोबलाइजेशन की प्रक्रिया में ही यह बात निहित थी कि इससे हर देश में उद्योग व्यापार के ऊपरी हिस्से को सहूलियत होनी थी और निचले हिस्से को नुकसान झेलना था। इसमें दो राय नहीं कि कुल मिलाकर ग्लोबलाइजेशन प्रक्रिया वैश्विक अर्थव्यवस्था के ही लिए नहीं, अलग-अलग तमाम देशों की अर्थव्यवस्थाओं के लिए भी तेजी लाने वाली साबित हुई। मगर निचले स्तर पर तमाम देशों में पुरानी तकनीकी वाली छोटी औद्योगिक-व्यापारिक इकाइयां घाटे में गईं या बंद हुईं, जिसका खामियाजा स्थानीय आबादी के सबसे कमजोर हिस्से को अपने रोजगार की बर्बादी के रूप में भुगतना पड़ा। स्वाभाविक रूप से यह तबका ग्लोबलाइजेशन से जुड़े कथित उदार मूल्यों को अपनी तबाही का सबब मानता है। इसी तबके का समर्थन हासिल करने के लिए पॉप्युलिस्ट राजनेता संरक्षणवादी नीतियों की वकालत कर रहे हैं और इसका भरपूर लाभ भी उन्हें मिल रहा है। इसे उचित भी माना जा सकता था, बशर्ते संरक्षणवादी नीतियां आबादी के बड़े हिस्से के लिए स्थायी समृद्धि का स्रोत बनतीं। दिक्कत यह है कि पॉप्युलिस्ट पॉलिटिक्स के नारे पहली नजर में अपील तो करते हैं, लेकिन इनकी धमक जल्द ही कपूर की तरह उड़ जाती है। किसी खास देश में ऊंचा आयात शुल्क शुरू में घरेलू औद्योगिक इकाइयों के मौके जरूर पैदा करता है, लेकिन अन्य देशों की ओर से जवाबी कार्रवाई शुरू होने के बाद अर्थव्यवस्था के निर्यात आधारित हिस्सों में जो मुर्दनी छाती है, उसका असर यह होता है कि बाकी सेक्टरों में भी घरेलू मांग सिकुड़ती चली जाती है। यानी कुल मिलाकर किसी भी देश के हाथ कुछ नहीं आता, उलटे वैश्विक मंदी का खतरा खड़ा हो जाता है। अच्छा होगा कि एक-दूसरे का व्यापार बर्बाद करने की होड़ में जाने के बजाय डब्लूटीओ के मंच से ही ग्लोबलाइजेशन के नकारात्मक प्रभावों का भी कुछ तोड़ निकाला जाए।
जनसत्ता
सहयोग का सफ़र
फ्रांस के राष्ट्रपति इमानुएल मेक्रॉन का भारत आना कई वजहों से अहम माना जाएगा। यूरोप के तीन देश अंतरराष्ट्रीय फलक पर सबसे प्रभावशाली माने जाते रहे हैं- ब्रिटेन, फ्रांस और जर्मनी। जहां ब्रिटेन ने यूरोपीय संघ से नाता तोड़ लिया है, वहीं एक समय बुलंदी पर दिख रहीं अंजेला मर्केला अब उतनी प्रभावशाली नहीं रह गई हैं। ऐसे में यूरोपीय संघ में फ्रांस के राष्ट्रपति इमानुएल मेक्रॉन की भूमिका बढ़ गई है। फिर, उन्होंने सुधार के एक सशक्त एजेंडे के साथ यूरोपीय संघ के सामने अपने को पेश किया भी है। उनकी छवि मजबूत इच्छाशक्ति वाले एक महत्त्वाकांक्षी नेता की है। भारत की उनकी यात्रा दोनों देशों के बीच विभिन्न क्षेत्रों में चले आ रहे सहयोग का एक नया मुकाम साबित हुई। पर सबसे खास बात हुई रणनीतिक सहयोग को लेकर। यों तो रक्षा क्षेत्र में फ्रांस से भारत का रिश्ता नया नहीं है, पर कुल ले-देकर यह कारोबारी ही रहा है। भारत ने लड़ाकू विमान से लेकर कल-पुर्जों की खरीद और उच्च रक्षा तकनीक हासिल करने में फ्रांस को वरीयता दी है। लेकिन यह शायद पहली बार हुआ कि दोनों देशों के रिश्तों ने एक बहुत महत्त्वपूर्ण आयाम ग्रहण किया।
शनिवार को प्रधानमंत्री नरेद्र मोदी से मेक्रॉन की बातचीत हुई। इसके बाद मोदी और मेक्रॉन ने एक रणनीतिक समझौते पर हस्ताक्षर किए, जिसके मुताबिक दोनों देश जरूरत पड़ने पर अपने-अपने नौसैनिक ठिकानों को एक दूसरे के युद्धपोतों के लिए उपलब्ध कराएंगे। फिर, मोदी और मेक्रॉन की मौजूदगी में दोनों देशों के बीच रक्षा, परमाणु ऊर्जा, शिक्षा, अंतरिक्ष अनुसंधान और आतंकवाद से मुकाबले आदि की बाबत कई करार हुए। दोनों देशों के बीच एक करार यह भी हुआ कि फ्रांस की एक कंपनी भारत में एक बड़ा एटमी बिजलीघर स्थापित करने का काम तेज करेगी। क्या यह जैतापुर की तरफ इशारा है, जहां विरोध व विवाद के कारण परमाणु बिजलीघर के निर्माण का काम ठप पड़ा है, या कोई नया प्रस्ताव है? जो हो, एक दूसरे को अपने नौसैनिक अड््डे तक रणनीतिक पहुंच की अनुमति देना एक ऐसा करार है जिसने सारी दुनिया के कूटनीतिक मामलों के जानकारों का ध्यान खींचा है। दरअसल, इस सहमति को चीन को रणनीतिक जवाब के रूप में देखा जा रहा है। दक्षिण चीन सागर में चीन के रवैए से विश्व की सभी अन्य प्रमुख शक्तियां क्षुब्ध हैं। चीन की बेहद महत्त्वाकांक्षी ‘वन बेल्ट वन रोड’ योजना ने भी उन्हें चिंतित कर रखा है।
दूसरी तरफ, चीन जिस तरह से हिंद महासागर में और दक्षिण एशिया में अपनी सक्रियता बढ़ाता गया है वह भारत के लिए चिंता की बात है। जहां पाकिस्तान के ग्वादर में चीन ने बंदरगाह बना लिया है, वहीं श्रीलंका के हंबनटोटा बंदरगाह को उसने निन्यानवे साल के लीज पर ले रखा है। चीन ने मालदीव के कई छोटे द्वीप खरीद लिये हैं। हिंद महासागर में स्वेज नहर से लेकर मलक्का की खाड़ी तक चीन की गतिविधियों से तो भारत फिक्रमंद है ही, डोकलाम में फिर से चीन की सैन्य सक्रियता बढ़ने की खबरें भी उसके लिए परेशानी का सबब हैं। ऐसे में, फ्रांस से हुए रणनीतिक समझौते ने परोक्ष रूप से चीन को कड़ा संदेश दिया है। अलबत्ता इस मौके पर न मोदी ने चीन का जिक्र किया न मेक्रॉन ने, न दोनों सरकारों के किसी अन्य प्रतिनिधि ने, लेकिन चीन के सामरिक प्रभाव की काट करने की मंशा इतनी साफ है कि वह बिना कहे भी रेखांकित की जा सकती है।
हिंदुस्तान
नए जमाने की लत
हममें से बहुत से लोग अपनी या अपने बच्चों की स्मार्टफोन की लत से परेशान हैं। जबकि दुनिया भर के मनोवैज्ञानिक इस बात को लेकर परेशान हैं कि यह लत इतनी प्रबल क्यों है? उनके पास लत छुड़ाने के जितने भी तरीके हैं, वे सब इसके आगे बेकार साबित हो रहे हैं। स्मार्टफोन में एक साथ दो चीजें हैं। एक उसकी उपयोगिता और दूसरी उसकी लत। लत छुड़ाने के सारे तरीके यही कहते हैं कि जिस चीज की लत हो, उससे दूर रहने की लगातार कोशिश करनी चाहिए। पर इसकी उपयोगिता इतनी महत्वपूर्ण है कि आप उससे बहुत ज्यादा दूरी भी नहीं बना सकते। लोकल टे्रन में, बस में, स्कूल, कॉलेज, दफ्तर, सड़क, फुटपाथ पर, हर जगह आपको कई ऐसे लोग दिख जाएंगे, जो पूरी तरह अपने स्मार्टफोन में डूबे हुए होते हैं। जो नहीं डूबे होते, वे भी हर कुछ समय बाद अपने स्मार्टफोन को निकालकर यह देखना नहीं भूलते कि कोई नया संदेश, कोई नई ई-मेल, कोई नई फेसबुक पोस्ट, कोई नया ट्वीट तो नहीं आया। कुछ तो इस चक्कर में अपने आस-पास के माहौल से, आस-पास के लोगों से पूरी तरह बेखबर दिखाई देते हैं। इसीलिए अक्सर यह भी कहा जाता है कि स्मार्टफोन लोगों को असामाजिक बना रहा है। या कम से कम उनकी सामाजिकता तो उनसे छीन ही रहा है। यह तब और लगता है, जब लोगों के नफरत फैलाने वाले या कुंठा भरे संदेश दिखाई देते हैं।
लेकिन अब मनोवैज्ञानिकों ने स्मार्टफोन को एक नए ढंग से देखना शुरू किया है। उनका कहना है कि सामाजिकता इंसान की सबसे पुरानी या यूं कहें कि आदिकालीन लत है। हर इंसान लोगों से जुड़ना चाहता है, कभी अपनी पहचान के नाम पर, कभी अपने किसी मकसद के लिए, या कभी जीवन का अर्थ खोजने के लिए। मैकगिल विश्वविद्यालय के सैमुअल वेलसिरी का कहना है कि स्मार्टफोन ने इंसान की इसी लत को एक नया आयाम दिया है। पुराने मोबाइल फोन की लत उतनी परेशान करने वाली नहीं थी, जितनी कि आज के स्मार्टफोन की लत है। और इसका कारण है, स्मार्टफोन से मिलने वाला सोशल मीडिया का सुख। स्मार्टफोन में डूबे हुए लोग भले ही अपने आस-पास के माहौल से दूर दिखते हों, लेकिन वे अपने बहुत सारे दूसरे तरह-तरह के दोस्तों से जुड़े रहते हैं। कई बार वे भले ही अपने परिवार के सदस्यों को नजरंदाज कर रहे हों, लेकिन वे अपने वाट्सएप गु्रप के साथ लगातार शरीर और मन से सक्रिय बने रहते हैं। मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि जिसे हम अक्सर स्मार्टफोन इस्तेमाल करने वालों की असामाजिकता मान बैठते हैं, उसके पीछे दरअसल उनकी एक अन्य तरह की अतिशय सामाजिकता है। किसी भी चीज की अति जैसे उग्र हो जाती है, वैसे ही इस सामाजिकता में भी हमें अक्सर उग्र तेवर दिखते हैं।
यहां असल सवाल यह है कि इस लत से पीछा कैसे छुड़ाया जाए? मनोवैज्ञानिकों के पास इसका कोई पक्का समाधान नहीं है। उनके पास इसके लिए कुछ नुस्खे जरूर हैं। जैसे हर रोज एक निश्चित समय के लिए पुश मैसेज को बंद कर दिया जाए। हो सके, तो सोते समय, खाना खाते, टहलते या कसरत करते समय मोबाइल फोन को या तो बंद कर दें या अपने से दूर रखें। हालांकि यह सबके लिए संभव नहीं है, खासकर तरह-तरह के पेशेवर दबावों के चलते। एक सोच यह भी है कि समस्या बढ़ेगी, तो अपने समाधान के रास्ते भी खुद ही निकालेगी।
अमर उजाला
फ्रांस का साथ
फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों की भारत यात्रा के दौरान शनिवार को दोनों देशों के बीच रक्षा, सुरक्षा, परमाणु ऊर्जा, शिक्षा आदि के क्षेत्र में हुए चौदह समझौते दो मुल्कों के बीच की बढ़ती गर्मजोशी को तो रेखांकित करते ही हैं, ये समझौते वैश्विक पटल पर भारत की मजबूत होती स्थिति के बारे में भी बताते हैं। इन तमाम समझौतों में से हिंद महासागर की साझा रखवाली का समझौता बेशक सर्वाधिक महत्वाकांक्षी है। हिंद महासागर में चीन की बढ़ती मौजूदगी के परिपेक्ष्य में इस समझौते का व्यापक महत्व है, जिसके तहत न केवल उपग्रह के जरिये इसकी निगरानी करने की योजना है, बल्कि भारत और फ्रांस एक दूसरे के नौसैनिक ठिकानों का इस्तेमाल तथा सैन्य साजो-सामान का प्रदर्शन भी कर सकेंगे। राफेल युद्धक विमानों के संबंध में अलबत्ता भारत की ओर से ज्यादा सतर्कता बरतने का संदेश इन समझौतों में दिखता है। राफेल मामले में मुखर कांग्रेस की मांग बेअसर करने के लिए जहां रक्षा और सामरिक मामलों की गोपनीय जानकारी सार्वजनिक न करने पर दोनों देशों में सहमति बनी है, वहीं फ्रांस द्वारा और 36 राफेल विमान देने की बात पर फिलहाल भारत ने जान-बूझकर बहुत उत्सुकता नहीं दिखाई है। सामरिक मोर्चे पर फ्रांस के साथ भारत का समझौता अमेरिका जैसा ही है, लेकिन कम से कम दो वजहों से फ्रांस के साथ सामरिक रिश्ता भारत के लिए ज्यादा महत्वपूर्ण है। एक तो यही कि फ्रांस के पाकिस्तान या अफगानिस्तान से वैसे रणनीतिक रिश्ते नहीं हैं जिस तरह के अमेरिका के हैं। और दूसरी बात यह कि फाइनेंशियल एक्शन टास्क फोर्स ने पिछले महीने आतंकवाद के संदर्भ में पाकिस्तान को ग्रे लिस्ट में डालने का जो फैसला किया है, उस पर फ्रांस की भी सहमति है। इसलिए मैक्रों और मोदी द्वारा पाकिस्तान का नाम लिए बगैर सीमापार आतंकवाद की निंदा करना अर्थपूर्ण है। प्रधानमंत्री ने इस अवसर पर ठीक ही याद दिलाया कि स्वतंत्रता, समानता और भाईचारा सिर्फ फ्रांस के ही जीवन मूल्य नहीं हैं, बल्कि हमारे संविधान में भी ये मूल्य समाहित हैं। इसी तरह पर्यावरण, शहरी विकास, रेलवे, सौर ऊर्जा आदि के क्षेत्र में हुए समझौते जहां लाभदायक साबित होंगे, वहीं शिक्षा के क्षेत्र में दोनों देशों द्वारा एक दूसरे की शैक्षणिक योग्यताओं को मान्यता देने का समझौता भी उतना ही महत्वपूर्ण है। अच्छी बात यह है कि विभिन्न क्षेत्रों में आपसी सहयोग से अब भारत में फ्रांस का निवेश भी बढ़ेगा।
राजस्थान पत्रिका
और ताकतवर जिनपिंग!
चीन की संसद ने आखिर शी जिनपिंग को और ताकतवर बनाने सम्बंधितधित संविधान संशोधन को मंजूरी दे ही दी। चीन में अब तक कोई भी राष्ट्रपति सिर्फ दो ही कार्यकाल (10 वर्ष) के लिए पद पर रह सकता था। माओत्से तुंग की तरह आजीवन सत्ता हथियाने से बचने के लिए चीन में यह व्यवस्था की गई थी। अब जिनपिंग चाहें तो आजीवन राष्ट्रपति बने रह सकते हैं। इसे चीन का अंदरुनी मामला मानकर नहीं छोड़ा जा सकता। कौन सा देश, किसे अपना नेता चुनता है यह उसका भीतरी मामला तो हो सकता है लेकिन चीन की अंदरूनी राजनीति दुनिया को प्रभावित करती है। दुनिया के तमाम बड़े देशों में चीन इकलौता देश है जहां लोकतंत्र नहीं है। अमेरिका, इंग्लैंड, फ्रांस, भारत, रूस, जर्मनी सरीखे तमाम बड़े देशों की सरकारों को जनता चुनती है। कहा जा सकता है कि सरकारों को जनमत का सम्मान करना पड़ता है। चीन में एक पार्टी की सरकार है। जनअभिव्यक्ति के लिए चीन में कोई स्थान नहीं है। ऐसे में जिनपिंग का आजीवन राष्ट्रपति बने रहना दुनिया की राजनीति को प्रभावित किए बगैर नहीं रहेगा, खासकर भारत के दृष्टिकोण से। एक दौर में भारत-चीन अच्छे मित्र की तरह थे। लेकिन 1962 में चीन ने हमारी पीठ पर छुरा घोंपा सम्बंध सुधार नहीं पाए। अपने पड़ोसी से विवाद करना चीन की आदत रही है। भारत को उकसाने के लिए चीन कभी अरुणाचल प्रदेश तो कभी किसी दूसरे राज्य में घुसपैठ करता रहता है। जिनपिंग का आजीवन राष्ट्रपति बने रहने का नया संविधान उन्हें तानाशाह बना सकता है। माओत्से तुंग के बाद जिनपिंग को चीन के सर्वाधिक शक्तिशाली राष्ट्रपति के रूप में देखा जाने लगा है। पाक के साथ मिलकर चीन भारत को घेरने की रणनीति पर लम्बे समय से काम कर रहा है। चीन की अंदरूनी राजनीति पर भारत को पहली नजर रखनी होगी। चीन के साथ आपसी सम्बंध मजबूत हों लेकिन देश के आत्मसम्मान का भी ध्यान रखा जाए। शक्ति-संतुलन के लिए हमें नेपाल, भूटान, मालदीव, के साथ-साथ अमरिका और रूस से भी सम्बंध प्रगाढ़ करने पर जोर देना चाहिए। चीन के संविधान में संशोधन का असर भारत के अलावा दूसरे देशों पर भी पड़े बिना नहीं रहेगा। जरूरत सावधान रहने की है ताकि हम अपनी स्वायत्तता को बनाए रखने में कामयाब रहें।
दैनिक जागरण
दाग अच्छे नहीं
आपराधिक मामलों का सामना कर रहे जनप्रतिनिधियों के संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट में पेश सरकार का हलफनामा यह बताने के लिए पर्याप्त है कि राजनीति में दागी नेताओं की संख्या किस हद तक बढ़ चुकी है। इस हलफनामे के अनुसार देश भर में 1765 सांसदों-विधायकों के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज हैं। इस संख्या से ज्यादा हैरान करने वाली बात यह है कि इन सभी पर दर्ज मामले 3045 हैं। इसका सीधा मतलब है कि इनमें से कई सांसद-विधायक ऐसे हैं जिन पर एक से अधिक मामले दर्ज हैं। यह भी तय है कि पिछले चार सालों में सांसदों न सही, ऐसे विधायकों की संख्या कुछ और बढ़ी ही होगी जिनके खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज हैं। यह ठीक है कि इस तरह के सांसदों-विधायकों के मामलों के निस्तारण के लिए कुछ राज्यों में विशेष अदालतों का गठन हो गया है और कुछ राज्यों में होना शेष है, लेकिन बात तब बनेगी जब एक निश्चित समयसीमा में इन सभी मामलों को निपटाया जा सके। चूंकि ये विशेष अदालतें हैं इसलिए यही अपेक्षित है कि ये अपना काम तेजी से निष्पादित करेंगी, लेकिन इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि कई बार विशेष अथवा फास्ट ट्रैक अदालतों में भी मामले लंबित बने रहते हैं। ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि सक्षम नेता येन-केन-प्रकारेण अपने मामलों की सुनवाई को बाधित करने में समर्थ रहते हैं। नेताओं अथवा अन्य प्रभावशाली मामलों में यह कोई छिपी बात नहीं कि किस तरह तारीख पर तारीख का सिलसिला कायम रहता है। 1निश्चित तौर पर गंभीर आपराधिक मामलों का सामना कर रहे जनप्रतिनिधियों के मुकदमों का निस्तारण प्राथमिकता के आधार पर होना चाहिए, क्योंकि इससे ही राजनीति में आपराधिक प्रवृत्ति वाले लोगों का प्रवेश सीमित किया जा सकता है, लेकिन यह जिम्मेदारी राजनीतिक दलों की भी बनती है कि वे ऐसे तत्वों को बढ़ावा देने से बचें। दुर्भाग्य से इस पर कहीं कोई ध्यान नहीं दिया जा रहा है। इस मामले में लगभग सभी राजनीतिक दलों की स्थिति एक जैसी ही है। वे राजनीतिक शुचिता और मर्यादा की बड़ी-बड़ी बातें भले ही करें, लेकिन सच यही है कि चुनाव के वक्त प्रत्याशियों का चयन करते समय वे केवल यही देखते हैं कि उनका उम्मीदवार चुनाव जीतने में सक्षम है या नहीं? उसके चरित्र की छानबीन मुश्किल से ही की जाती है। समस्या इसलिए और अधिक गंभीर हो गई है, क्योंकि जातिवाद-क्षेत्रवाद के फेर में फंसी जनता भी इस दायित्व का निर्वहन करने से बचती है कि खराब छवि अथवा आपराधिक अतीत एवं प्रवृत्ति वाले लोगों का निर्वाचन न किया जाए। स्पष्ट है कि राजनीति को साफ-सुथरा बनाने में राजनीतिक दलों और साथ ही समाज को भी अपने हिस्से की जिम्मेदारी निभानी होगी। चूंकि केंद्र सरकार राजनीति के अपराधीकरण को रोकने के लिए प्रतिबद्धता जताती रही है इसलिए बेहतर यह होगा कि वह चुनाव आयोग के इस सुझाव को अमल में लाने का काम करे जिसके तहत यह कहा जा रहा है कि ऐसे लोगों को चुनाव लड़ने से रोका जाए जिनके खिलाफ ऐसे आपराधिक मामले चल रहे हैं जिनमें पांच वर्ष या उससे अधिक की सजा हो सकती है और आरोपपत्र भी दायर हो चुका है। चूंकि ऐसी कोई अपेक्षा व्यर्थ है कि इस पर सभी राजनीतिक दल सहमत होंगे इसलिए सरकार को अपने स्तर पर ही आगे बढ़ना होगा।
प्रभात खबर
ट्रंप का ट्रेड वार
बतौर राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप अपना पहला साल पूरा कर चुके हैं और आर्थिक सरंक्षणवाद की उनकी नीति भी आकार लेने लगी है. चीन और भारत जैसी अर्थव्यवस्थाओं के लिए यह अच्छी खबर नहीं है. वाशिंग मशीनों और सौलर पैनलों पर आयात शुल्क वे बढ़ा चुके हैं. कनाडा और मैक्सिको के अलावा सभी देशों से इस्पात और एल्युमिनियम के आयात पर शुल्क लगाने के फैसले के बाद ट्रंप की नजर अब मोटरसाइकिल और कारों के आयात पर है. उनका कहना है कि जो देश अमेरिकी उत्पादों पर जितना शुल्क लगाते हैं, उन देशों पर के आयात पर वे भी उसी दर से शुल्क लगायेंगे, इस सन्दर्भ में वे चीन और भारत का उल्लेख बार-बार करते रहे हैं. वर्ष 2017 में चीन के साथ व्यापार में अमेरिका को 375.2 बिलियन डालर का नुकसान हुआ था, यानी अमेरिका ने चीन से अधिक उत्पाद आयात किये थे, भारत के साथ यह घाटा 24 बिलियन के आसपास है. बीते साल वैश्विक व्यापार में अमेरिका का कुल घाटा 2016 की तुलना में 12.1 फीसदी बढ़कर 566 बिलियन डालर हो गया है जो 2018 के बाद सबसे अधिक है. ट्रंप प्रशासन आयात और निर्यात के बीच की बढ़ती खाई को अमेरिकी विनिर्माण में गिरावट तथा तथा विदेशी वस्तुओं पर चिन्ताजनक निर्भरता रूप में चिन्हित करता है. उल्लेखनीय है कि अमेरिका के फेडरल रिजर्व द्वारा ब्याज दरों में वृद्धी की सम्भावनाओं के साथ ट्रंप प्रशासन द्वारा कॉर्पोरेट करों में कमीं के कारण दुनिया भर के शेयर बाजारों में बीते दिनों गिरावट आई थी. ऐसा अमेरिकी वित्तीय निवेशकों द्वारा धन को वापस अमेरिका लाने के कारण हुआ था. चूंकि कूटनीति तथा वाणिज्य का मौजूदा संबंध चोली-दामन का है, तो इस स्थिती में महत्वपूर्ण अर्थवयवस्थाओं को बातचीत करनी चाहिए. चीनी विदेश मंत्री वांग यी ने सही कहा है कि इतिहास में ट्रेड वार से किसी समस्या का समाधान नहीं हुआ है. भारत को भी बहुत जल्दी ही इस मुद्दे पर अपनी समझ तैयार करनी लेनी होगी, क्योंकि ट्रंप का ट्रेड वार सिर्फ इस्पात या मोटरसाइकिल तक नहीं रुकेगा, बल्कि जल्दी ही बौद्घिक संपदा को लेकर तनातनि होगी. मजबूत अर्थव्यवस्था होने के नाते विनिर्माण, तकनीकि और निवेश के जरिए भारत और चीन ट्रंप के रवैये को नुकसान के साथ बर्दाश्त करने की क्षमता रखते हैं . परंतु, बौद्घिक संपदा पर खींचतान से दोनों देशों को बहुत दिक्कत होगी. चीन की तरह भारतीय अर्थव्यवस्था के सामने अनेक चुनौतियां पहले ही हैं और ट्रेड वार का झटका भारी पड सकता है. वैश्वीकरण के हमारे युग में आर्थिक गतिविधियों का भी वैश्वीकरण हुआ है. ट्रंप का सरंक्षणवाद जारी रहा, तो जल्दी ही पूरी दुनिया को एक और आर्थिक मंदी का सामना करना पड सकता है. भारत को वर्तमान स्थिती के आधार पर भविष्य के लिए भी रूपरेखा पर विचार करना चाहिए.
देशबन्धु
खेतों की बजाए सड़क पर किसान
किसानों के हाथों में हल होने चाहिए या विकास की भाषा में बात करें तो ट्रैक्टर का स्टीयरिंग होना चाहिए, कि झंडे? उन्हें खेतों में बुआई, जुताई, सिंचाई करने में अपनी ऊर्जा लगानी चाहिए या सड़क पर मोर्चा निकालने में? फसल काटते किसान की तस्वीर भारत के नक्शे पर होनी चाहिए या फांसी के फंदे पर लटकते किसान की? ये सारे सवाल आज इसलिए उठाने पड़ रहे हैं क्योंकि देश का अन्नदाता बार-बार लगातार सड़कों पर उतर कर अपनी मांगों को चिल्ला-चिल्ला कर सरकार के सामने रख रहा है और सरकार न जाने विकास का कौन सा संगीत सुनने में रमी हुई है कि उसे इन किसानों की आह सुनाई ही नहीं पड़ रही है। जिस थाली में खाते हैं, उसी में छेद करते हैं, एहसानफरामोशी के इस मुहावरे को सरकार के लिए यूं बदल सकते हैं कि जिस किसान का दिया खाते हैं, उसे ही आत्महत्या करने पर मजबूर करते हैं।
केंद्र सरकार का बजट हो या राज्य सरकार का, किसानों की कर्जमाफी का ऐलान तो यूं किया जाता है, मानो उनके कुछ हजार रुपए वसूल न करके आप बड़ा एहसान कर रहे हों। कर्जमाफी हो या न्यूनतम समर्थन मूल्य, ऐसी घोषणाओं का कोई लाभ किसानों को नहीं मिल रहा है, तभी देश के विभिन्न प्रांतों में किसान बार-बार मोर्चा निकालने, आंदोलन करने पर मजबूर हो रहे हैं।
बीते कुछ महीनों में हरियाणा, जम्मू-कश्मीर, तमिलनाडु, राजस्थान, मध्यप्रदेश इन तमाम राज्यों में किसानों ने आंदोलन किए हैं। मध्यप्रदेश के सिवनी में पिछले 10 दिनों से मुआवजे की मांग कर रहे किसान भूख हड़ताल पर हैं। लेकिन सरकार की ओर से अब तक कोई ठोस फैसला नहीं लिया गया है।
महाराष्ट्र में भारतीय किसान संघ के बैनर तले हजारों किसानों का मोर्चा नासिक से मुंबईर् के लिए निकला है। 12 मार्च को ये किसान विधानसभा का घेराव करेंगे, ताकि सरकार तक उनकी आवाज पहुंच सके। इस मार्च में शामिल किसानों का कहना है कि पिछले 9 महीनों में डेढ़ हज़ार से अधिक किसानों ने आत्महत्या की है और सरकार सुनने को तैयार नहीं है। शिवसेना महाराष्ट्र सरकार में भाजपा की भागीदार है, लेकिन उसने भी आंदोलनरत किसानों के समर्थन का ऐलान किया है।
किसानों की मांग है कि बीते साल 34000 करोड़ की कजर् माफी का जो वादा फड़नवीस सरकार ने किसानों से किया था उसे पूरी तरह से लागू किया जाए। इसके अलावा किसान स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों को भी पूरी तरह लागू करवाना चाहते हैं इन सिफारिशों के अनुसार सी 2+50 प्रतिशत यानी कॉस्ट ऑफ कल्टिवेशन (यानी खेती में होने वाले खर्चे) के साथ-साथ उसका पचास प्रतिशत और दाम समर्थन मूल्य के तौर पर मिलना चाहिए। किसान नेता मानते हैं कि ऐसा करने पर किसानों की आय की स्थिति को सुधारा जा सकता है।
मोर्चे में आदिवासी किसानों की संख्या बहुत ज्यादा है। ये किसान आदिवासी वनभूमि के आवंटन से जुड़ी समस्याओं के निपटारे की भी मांग कर रहे हैं ताकि उन्हें उनकी जमीनों का मालिकाना हक मिल सके। नासिक क्षेत्र में जनजातीय भूमि वन विभाग के अधिकार क्षेत्र में आता है. यहां किसान आदिवासी हैं और वो खेती करते हैं लेकिन उनके पास इन ज़मीनों का मालिकाना हक नहीं है। इसीलिए आदिवासी अपनी उस जमीन पर अपना हक मांग रहे हैं जिसकी वो पूजा करते हैं। किसानों की यह मांग भी है कि महाराष्ट्र के ज्यादातर किसान फसल बर्बाद होने के चलते बिजली बिल नहीं चुका पाते हैं। इसलिए उन्हें बिजली बिल में छूट दी जाए। इन मांगों में एक मांग भी ऐसी नहीं है, जो गलत हो या किसी को नुकसान पहुंचाने वाली हो। किसान केवल अपने लिए थोड़ी सहूलियत चाहते हैं ताकि उन्हें आत्महत्या की राह न चुनना पड़े। इनके पास तो नीरव मोदी और मेहुल चौकसी जैसी बदनीयती और दुस्साहस भी नहीं है कि वे बैंक लूट कर जाएं और धमकी भी दें कि हम पैसे वापस नहीं करने वाले। कर्ज में डूबा किसान तो मुक्ति की राह फांसी के फंदे से ही तलाशता है।
सरकार ताकतवर लुटेरों का तो कुछ बिगाड़ नहीं सकती, लेकिन कमजोर किसानों पर अपनी धौंस दिखाने से पीछे नहीं हटती। यही कारण है कि अब धूप, गर्मी, भूख-प्यास की परवाह किए बगैर हजारों किसान कई किलोमीटर के पैदल मार्च पर महिलाओं और वृद्धों के साथ निकल गए हैं, ताकि वे भी सरकार को अपनी ताकत दिखा सकें। संविधान के अनुसार कृषि राज्य का विषय है। लेकिन इस दिशा में जो भी महत्वपूर्ण $फैसले होते हैं वो केंद्र सरकार करती है। महाराष्ट्र और केंद्र दोनों में इस वक्त भाजपा की सरकार है, देखते हैं उस पर इस मार्च का कोई असर पड़ता है या नहीं।