नवभारत टाइम्स
चक दे इंडिया
एक शानदार समारोह के साथ बुधवार को ऑस्ट्रेलिया के गोल्ड कोस्ट में कॉमनवेल्थ गेम्स 2018 का उद्घाटन हो गया। भारतीय खेलप्रेमियों की निगाहें इस बात पर टिकी हैं कि उनके चहेते स्टार खिलाड़ी और एथलीट यहां देश की शान किस हद तक बढ़ा पाते हैं, और इस बार की मेडल सूची में भारत का मुकाम 2014 के ग्लासगो कॉमनवेल्थ गेम्स के मुकाबले ऊपर जा पाता है या नहीं। भारत का अब तक का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन 2010 के दिल्ली कॉमनवेल्थ गेम्स में ही रहा है, जब इसने 38 गोल्ड सहित 101 मेडलों पर कब्जा करके पदक सूची में ऑस्ट्रेलिया के बाद दूसरे नंबर पर अपनी स्थिति दर्ज कराई थी। लेकिन इसके ठीक बाद 2014 के ग्लासगो कॉमनवेल्थ गेम्स में यह 15 गोल्ड समेत मात्र 64 मेडलों के साथ फिर से पांचवें नंबर पर खिसक आया। बीते चार वर्षों में देश के खेल आकाश में ऐसे कई सितारे उभर आए हैं, जिनकी चमक खेलप्रेमियों की आंखों में उम्मीद की नई रोशनी जगाए हुए है। बैडमिंटन में पी वी सिंधु, साइना नेहवाल और किदांबी श्रीकांत हों या बॉक्सिंग में मैरी कोम और विकास कृष्णा, शूटिंग में मनु भाकर और जीतू राय हों या वेटलिफ्टिंग में मीराबाई चानू और जैवलिन थ्रो में नीरज चोपड़ा- इन सब नए-पुराने खिलाड़ियों के प्रदर्शन पर लाखों फैंस की निगाहें टिकी रहेंगी। कुश्ती में सुशील कुमार जरूर लंबे समय से किसी मुकाबले में उतरे ही नहीं हैं, बीच में कुछ अप्रिय विवादों से भी उन्हें गुजरना पड़ा, फिर भी उनकी पिछली उपलब्धियां ऐसी हैं जो उन्हें इस बार भी भारतीय दर्शकों की आंख का तारा बनाए रखेंगी। बहरहाल, खुद कॉमनवेल्थ गेम्स का सामना भी इधर काफी बड़ी चुनौतियों से हो रहा है। कुछ देश इसे पहले जैसी तवज्जो नहीं देते और इसके फॉरमेट में नएपन की कमी की शिकायत भी पुरानी है। यों भी कॉमनवेल्थ गेम्स अंतरराष्ट्रीय स्पोर्ट्स जगत के सर्वश्रेष्ठ मुकाबलों के लिए नहीं जाने जाते। लेकिन तमाम सीमाओं के बावजूद कॉमनवेल्थ गेम्स भारतीय खिलाड़ियों के लिए अपनी जोर-आजमाइश का अच्छा मंच हैं। यहां बड़े भूगोल में फैले देशों के खिलाड़ियों से उनका मुकाबला होता है, जिसका लाभ उन्हें जब-तब ओलिंपिक और अपने खेल की वर्ल्ड चैंपियनशिप में भी मिलता है। बैडमिंटन खिलाड़ी इनका उपयोग थॉमस और उबर कपों के लिए करेंगे, जबकि हॉकी खिलाड़ी यहां से अनुभव लेकर एशियन गेम्स में जाएंगे, जहां का गोल्ड मेडल 2020 के टोकियो ओलिंपिक्स में उनकी सीट पक्की कर सकता है। और ये दूर की बातें एक तरफ रख दें तो भी देश के लिए इंटरनैशनल मेडल लाना किसी भी खिलाड़ी के लिए बहुत बड़े गौरव की बात होती है। गोल्ड कोस्ट में हमारे लिए सबसे अच्छी बात यह है कि वहां का तापमान कमोबेश भारत जैसा ही है। तो फैंस के सुर में सुर मिला कर बोलें- चक दे इंडिया!
जनसत्ता
सुरक्षा का बल
जिस समय पाकिस्तान और चीन की सीमा से सटे इलाकों में लगातार तनाव या टकराव की खबरें आ रही हैं, उसमें यह बात चिंता में डालने वाली है कि भारतीय सशस्त्र बलों में बड़ी तादाद में सैनिकों के पद खाली पड़े हैं। हैरानी की बात यह है कि एक ओर किसी भी सैन्य हमले की स्थिति में देश के तैयार होने का दावा किया जाता है, दूसरी ओर भारी पैमाने पर सैनिकों की कमी के आंकड़े पेश किए जा रहे हैं। मंगलवार को राज्यसभा में एक सवाल के जवाब में रक्षामंत्री ने बताया कि तीनों सेनाओं में बावन हजार से ज्यादा कर्मियों की कमी है। हालांकि चौदह लाख से ज्यादा सैनिकों की स्वीकृत संख्या में बावन हजार कर्मियों की कमी कोई बड़ी चिंता का मामला नहीं है, लेकिन सैन्य तैयारियों और उनकी संवेदनशीलता के मद्देनजर देखें तो कई बार ऐसी छोटी संख्या को भी नजरअंदाज करना उचित नहीं होता। अगर रक्षा बजट से लेकर सेना की हर जरूरत पूरी करने के किसी भी मोर्चे पर सरकार सजग है, तो इतनी बड़ी तादाद में सैन्यकर्मियों की कमी का मुद्दा हाशिये पर क्यों दिखता है।
यों सरकार ने सशस्त्र बलों में सैनिकों की कमी को दूर करने के लिए कई कदम उठाने की बात कही है। मगर ऐसे आश्वासन लंबे समय से पेश किए जाते रहे हैं और हालात में कोई बड़ा फर्क नहीं आया है। तकरीबन तीन साल पहले तत्कालीन रक्षामंत्री मनोहर पर्रीकर ने भी लोकसभा में बावन हजार पद रिक्त होने की बात कही थी। सवाल है कि जब हथियारों और लड़ाकू विमानों के सौदों पर भारी खर्च किए जाने की खबरें आ रही हैं, उसमें सैनिकों की कमी के मामले में इस स्तर की उदासीनता कितनी वाजिब है! क्या यह स्थिति भर्तियों के प्रति ढीले-ढाले रवैये या फिर सैन्य सेवाओं के प्रति युवाओं के आकर्षित न होने का नतीजा है? अगर ऐसा है तो इससे निपटने के लिए सरकार क्या कर रही है? कई साल पहले से युवाओं को सेना में शामिल करने के लिए सरकार कई उपाय करने की बात कह रही है। इस बार भी कहा गया है कि सैनिकों की कमी दूर करने के लिए देश के हरेक हिस्से में भर्ती जोनों की संख्या बढ़ाई गई है, सोशल मीडिया के प्रयोग के अलावा आॅनलाइन प्रक्रिया पर खास जोर देने के साथ-साथ चयन के तौर-तरीके को आसान बनाया जा रहा है।
मगर यह ध्यान रखने की जरूरत है कि सैन्य बलों में भर्तियां रोजगार के दूसरे क्षेत्रों की तरह नहीं हैं। यह देश की बाहरी और आंतरिक सुरक्षा से जुड़ा संवेदनशील मामला है। सीमा क्षेत्रों में या फिर देश के भीतर कई बार असाधारण परिस्थितियों में पर्याप्त सैनिकों की जरूरत पड़ सकती है। खासतौर पर हाल के दिनों में सीमा पर पाकिस्तान और डोकलाम क्षेत्र के बहाने चीन के जैसे रुख सामने आ रहे हैं, उसमें इस मोर्चे पर जरा भी कोताही नहीं बरती जानी चाहिए। लेकिन सशस्त्र बलों में कर्मियों की कमी की खबर के अलावा सच यह भी है कि लगभग आठ महीने पहले कैग ने संसद में पेश एक रिपोर्ट में बताया था कि देश की सेना के पास गोला-बारूद की भारी कमी है और अचानक युद्ध की स्थिति में जरूरत पड़ने पर दस दिन से भी कम की खेप मौजूद है। इन हालात में बाहरी या आंतरिक मोर्चे पर सुरक्षा के सवालों को लेकर पूरी तरह आश्वस्त कैसे रहा जा सकता है!
हिंदुस्तान
गुस्सा और बंदूक
अमेरिका के लिए इस तरह की वारदात कोई नई चीज नहीं है। अपनी ही कुंठाओं से घिरा कोई सिरफिरा सड़क पर निकला और कहीं पहुंचकर दनादन गोलीबारी कर दी। यही बुधवार की सुबह कैलिफोर्निया में इंटरनेट के मशहूर वीडियो प्लेटफॉर्म यू-ट्यूब के मुख्यालय में हुआ। 35-40 वर्ष की एक महिला नसीम अघदम वहां पहुंची और प्रवेश द्वार से ही उसने गोलियां चलानी शुरू कर दीं। चार लोग घायल हो गए और बाद में नसीम ने खुद को भी गोली मार ली। इस पूरी कहानी में हो सकता है कि आप नसीम को सिरफिरा कहना पसंद न करें। गूगल कंपनी के वीडियो साइट यू-ट्यूब से उसे कई सारी शिकायतें थीं और उसका गुस्सा इस रूप में फट पड़ा। उसने अपने इस गुस्से को छिपाया भी नहीं था और अपनी वेबसाइट और सोशल मीडिया पर लगातार इसे व्यक्त भी किया। नसीम तरह-तरह के वीडियो बनाती थी और उनके लिए यू-ट्यूब प्लेटफॉर्म का इस्तेमाल कर रही थी। इससे उसकी थोड़ी-बहुत कमाई भी हो जाती थी। इस साल की शुरुआत में यू-ट्यूब ने अपने कई नियम बदल दिए। कहा जाता है कि इन बदलावों ने यू-ट्यूब पर कमाई करना पहले के मुकाबले कठिन हो गया है। शाकाहार और स्वतंत्र अभिव्यक्ति का प्रचार करने वाली नसीम ने यह कई बार कहा कि यू-ट्यूब नहीं चाहता कि बाकी लोग भी उसके साथ तरक्की करें। उनकी एक शिकायत यह भी थी कि उनके एक एक्सरसाइज वीडियो को एडल्ट श्रेणी में डाल दिया गया, जिससे उसे देखने वालों की संख्या कम हो गई, जबकि उस वीडियो में ऐसा कुछ नहीं था। नसीम ने यह भी कहा कि यू-ट्यूब उसकी अभिव्यक्ति को बाधित कर रहा है। मंगलवार को यू-ट्यूब ने उसका अकाउंट बंद कर दिया और इसी के गुस्से में नसीम ने इतना बड़ा कांड कर डाला।
नसीम ने जो किया, उसके बाद उससे हमदर्दी का कोई कारण नहीं रह जाता। गुस्सा कितना भी बड़ा हो और उसका कारण कितना भी वाजिब क्यों न हो, लेकिन उसके लिए कानून को हाथ में लेने या लोगों पर जानलेवा हमला करने को किसी भी तरह से वाजिब नहीं ठहराया जा सकता। यू-ट्यूब की नई नीतियों का शिकार सिर्फ नसीम बनी हो, ऐसा नहीं था। दुनिया भर के कई वीडियो बनाने वाले इससे प्रभावित हुए हैं और इसे लेकर कई तरह से यू-ट्यूब का विरोध भी हो रहा है। यह भी सच है कि यू-ट्यूब के लिए वीडियो बनाने वालों के पास बहुत ज्यादा विकल्प नहीं हैं। कुछ दूसरे विकल्प मौजूद जरूर हैं, मगर इस कारोबार में यू-ट्यूब का लगभग एकाधिकार ही है।
इस मामले में नसीम के अलावा अगर कोई दोषी है, तो वह है अमेरिका की वह व्यवस्था है, जो लोगों को इतनी आसानी से खतरनाक हथियार खरीदने के मौके दे देती है, जितनी आसानी से शायद खिलौने भी वहां नहीं मिल पाते। आपाधापी के इस दौर में जब तनाव हर किसी के सिर चढ़कर बोलता है, खुलेआम हथियार उपलब्ध होने के क्या खतरे हो सकते हैं, इसे हम अमेरिका में हर कुछ महीने पर देख लेते हैं। नसीम अब इस दुनिया में नहीं है, उसे अब दंडित नहीं किया जा सकता। लेकिन उस व्यवस्था को तो खत्म किया ही जा सकता है, जो अमेरिका के पिछले कई हत्याकांड का एक कारण थी। हालांकि डोनाल्ड ट्रंप की सरकार से इसी की उम्मीद सबसे कम है, क्योंकि जब उनकी सरकार बनी, तो उन्हें मिला सबसे बड़ा समर्थन अमेरिका की बंदूक लॉबी का ही था।
राजस्थान पत्रिका
मकडजाल तोडना ही होगा
सरकार जो कहती हैं, अगर उसका आधा भी करने लगे तो देश की नब्बे फीसदी समस्याओं का खात्मा हो सकता है। राजनीतिक दलों की चुनावी घोषणाओं और राजनेताओं के चुनावी भाषणों में तारे जमीन पर लाने के दावे किए जाते हैं लेकिन पांच साल बाद जब चुनाव आते हैं तो यही दल और नेता नया नारा लेकर फिर मैदान में आ जाते हैं। पुरानी घोषणाओं और उनके अमल की बात कोई नहीं कहता। केन्द्र सरकार ने अब बैंकों को कोई पेकेज नहीं देने का ऐलान किया है। वित्त मंत्रालय के अनुसार, बैंकों को दिए जा रहे 20 लाख करोड़ के पैकेज को आखिरी मदद के रूप में देखा जाए। सरकार के इस फैसले से आम जनता निश्चित खुश होगी। बात बैंकों की ही नहीं, सरकारी मदद किसी को भी दी जाए, पैसा जनता की जेब से ही जाता है। लेकिन अहम सवाल ये कि सरकार अपने फैसले पर कब तक कायम रह पाती है? और इस बात की क्या गारंटी है कि आने वाली नई सरकार इस सरकार के फैसले को माने ही।
यहां सवाल मदद देने अथवा नहीं देने का नहीं है। सवाल ये है कि बैंकों को मदद की जरूरत क्यों पड़ती है? बैंक हजारों करोड़ के घाटे में क्यों चले जाते हैं? जिम्मेदार अधिकारियों के खिलाफ क्या कार्रवाई की जाती है। देश के तमाम उन बड़े औद्योगिक घरानों के खिलाफ सख्त कदम क्यों नहीं उठाए जाते, जो कर्ज लेकर नहीं चुकाना अपना अधिकार समझते हैं। बैंकों से दिए जाने वाले कर्ज के मकड़जाल को आखिर साफ कौन करेगा? जिस दिन इन सवालों का जवाब देश को मिल जाएगा, उसी दिन से आम आदमी के चेहरे पर खुशहाली नजर आने लगेगी। सात दशकों में कितनी सरकारें आई और गई लेकिन कथनी व करनी के अंतर को जनता आज तक नहीं समझ पाई है। बैंक सरकारी हों या निजी, कर्ज देने और वसूली की पारदर्शी नीति बननी ही चाहिए। नीति ऐसी हो कि उसमें भ्रष्टाचार की गली निकल ही न सके। कर्ज की वसूली समय पर न हो तो जिम्मेदार अफसरों से वसूला जाए। एक-दो मामलों में भी ऐसा हो गया तो विजय माल्या और नीरव मोदी सरीखे उद्योगपतियों के भागने की नौबत ही नहीं आने पाएगी। और न ही देश को यू शर्मसार होना पड़ेगा। सरकारी योजनाओं में रिश्वतखोरी को ही भ्रष्टाचार की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता। बैंकों का हजारों-करोड़ का कर्ज डबना भी किसी भ्रष्टाचार से कम नहीं। इस भ्रष्टाचार को रोकने के लिए जुमलों की नहीं, जिम्मेदारी की जरूरत है।
दैनिक भास्कर
बाबाओं की बैसाखी पर सवार मप्र की शिवराज सरकार
मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने विधानसभा चुनावों को आसन्न देख पांच बाबाओं को राज्य मंत्री का दर्जा देकर एक किस्म का विवाद पैदा किया है। सरकार का दावा है कि इन बाबाओं ने वृक्षारोपण, नर्मदा सफाई और जल संरक्षण के लिए काम किया है और इसीलिए उन्हें यह सम्मान दिया गया है। कांग्रेस इसे राजनीतिक हथकंडा बता रही है, जिसे चुनाव जीतने के लिए चौहान सरकार ने अपनाया है। सवाल इन स्थानीय आरोप-प्रत्यारोपों से भी आगे का है कि क्या इस देश के धर्मनिरपेक्ष संविधान की भावना धर्मगुरुओं को राजसत्ता सौंपने के पक्ष में है? इस देश के इतिहास की विडंबना है कि संत की तरह रहने वाले और लंगोटीधारी महात्मा गांधी ने भारत को धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र बनाने का विचार रखा था और टाई सूट पहनने वाले बाबा साहेब ने धर्मनिरपेक्ष संविधान की रचना करने के बावजूद स्वयं बौद्ध धर्म ग्रहण किया। बाबा साहेब ने कई बार यह महसूस किया था कि महात्मा गांधी के व्यक्तित्व में संत और राजनेता दोनों विद्यमान हैं, इसलिए कई बार राजनीतिक रूप से उनका मुकाबला करने में दिक्कत आती है। लेकिन उन लोगों के धर्म और राजनीति के मानक उच्चस्तरीय थे और उनका बाह्य आडंबर से कम से कम वास्ता था। यहां मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री ने बाबाओं को राज्यमंत्री का दर्जा देकर न सिर्फ राजनीति की मर्यादा को आहत किया है बल्कि धर्म की मर्यादा को बेदाग नहीं छोड़ा है। आमतौर पर मंत्री उसे बनाया जाता है, जो चुनाव जीतकर आया हो। अगर नहीं आया है तो मंत्री बनने के छह माह के बाद उसे चुनाव जीतने की बाध्यता होती है। इस संवैधानिक दायरे से अलग सरकारों ने राज्यमंत्री का दर्जा देकर संविधान को बाइपास करने की परंपरा डाली है। दूसरी तरफ बाबा या साधु होने का मतलब है कि वह व्यक्ति प्रवृत्ति मार्ग से निवृत्ति मार्ग की ओर चला गया है और उसके लिए सांसारिक सुखों का कोई अर्थ नहीं है। आज अगर शिवराज सिंह चौहान ने इन हथकंडों का सहारा लिया है तो उससे साफ जाहिर है कि वे भाजपा सरकार के चौदह वर्षों के काम से जनता को संतुष्ट नहीं कर पाए हैं। किसान, दलित, व्यापारी, मध्यवर्ग और कर्मचारी सभी उनकी व्यवस्था से दुखी और नाराज हैं। यह समय-समय पर जनअसंतोष के माध्यम से व्यक्त भी होता रहा है। ऐसे में बाबाओं का दामन थामकर वे अपनी वैतरणी पार लगाना चाहते हैं।
दैनिक जागरण
न चलने वाली संसद
कुछ विपक्षी दल जिस तरह संसद में हंगामा करने के लिए आमादा हैं उसे देखते हुए इसके आसार कम ही हैं कि इस सत्र के शेष दिनों में लोकसभा अथवा राज्यसभा में कोई कामकाज हो सकेगा। यह सामान्य बात नहीं कि संसद लगातार 20वें दिन भी नहीं चली। विपक्षी दल संसद में कोई कामकाज न होने देने के लिए किस तरह अड़े हैं, इसका पता इससे चलता है कि गत दिवस राज्यसभा की कार्यवाही को 11 बार स्थगित करना पड़ा। नि:संदेह यह पहली बार नहीं जब संसद में गतिरोध कायम है, लेकिन यह बात नई अवश्य है कि विपक्षी दल जिन मसलों को लेकर हंगामा कर रहे हैं उन पर बहस से भी बच रहे हैं। ऐसे में इस नतीजे पर पहुंचने के अलावा और कोई उपाय नहीं कि उनका एक मात्र उद्देश्य संसद को काम न करने देना है। भारत सरीखे बहुदलीय लोकतंत्र में संसद में थोड़ा-बहुत हंगामा और गतिरोध होना स्वाभाविक है, लेकिन अगर संसद चलेगी ही नहीं तो फिर वह अपनी महत्ता खोने का काम करेगी। यदि संसद देश के समक्ष उपस्थित ज्वलंत समस्याओं पर चर्चा और जरूरी विधेयकों पर बहस नहीं कर सकती तो फिर उसे लोकतंत्र का मंदिर अथवा जन आकांक्षाओं का मंच बताने का क्या मतलब? आखिर ऐसी संसद अपनी गरिमा की रक्षा कैसे कर सकती है जिसमें कोई काम ही न हो सके? संसद की कार्यवाही में गिरावट कोई आज की समस्या नहीं है, लेकिन यह देखना दयनीय है कि सांसद किसी मसले पर विरोध जताने केलिए संसद की छत पर चढ़ जाएं अथवा शपथ ग्रहण के तत्काल बाद पीठासीन अधिकारी के समक्ष हंगामा करने पहुंच जाएं। हम सब इससे अवगत ही हैं कि संसद में किस तरह सुनियोजित तरीके से नारेबाजी करने और तख्तियां-बैनर लहराने का काम होने लगा है।1इसमें दोराय नहीं कि संसद चलाने की जिम्मेदारी सत्तापक्ष की है और इस जिम्मेदारी के निर्वाह के लिए विपक्ष की मांगों के प्रति लचीला रवैया आवश्यक है, लेकिन तब कुछ नहीं हो सकता जब विपक्ष असहयोग पर अड़ जाए। इसका कोई मतलब नहीं कि पक्ष-विपक्ष के कुछ नेता संसद न चलने के कारण अफसोस प्रकट कर रहे हैं, क्योंकि अब आवश्यकता इसकी है कि सदन चलाने के कुछ नए तौर-तरीके तय किए जाएं और जरूरत पड़ने पर उन्हें कानूनी रूप भी दिया जाए। ऐसा इसलिए, क्योंकि विधायी सदनों की कार्यवाही के संदर्भ में जो आचार संहिता अथवा परंपरा है उसकी धज्जियां उड़ चुकी है। यह वक्त की मांग है कि ऐसे नियम बनें जिसके तहत विधेयकों पर बहस के लिए अलग से समय तय किया जाए और इस दौरान हंगामा निषेध हो। इसी तरह किसी मसले पर दो-तीन से ज्यादा बार सदन स्थगित न करने का नियम बने। यदि गतिरोध इस पर हो कि बहस किस नियम के तहत हो तो आम सहमति बनाने की अवधि तय की जाए और फिर भी सहमति न बने तो किसी अन्य खास नियम के तहत बहस अनिवार्य की जाए। इस मामले में दुनिया के श्रेष्ठ लोकतांत्रिक देशों से सबक सीखा जा सकता है। वैसे भी यह किसी से छिपा नहीं कि हम सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश भले ही हों, लेकिन बेहतर नहीं हैं।
प्रभात खबर
फेक न्यूज का संकट
प्रधानमंत्री के हस्तक्षेप के बाद ‘फेक न्यूज’ पर सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के विवादास्पद निर्देश को वापस लेने का फैसला सराहनीय है. इस निर्देश को पत्रकारों ने उचित ही आशंका की नजर से देखते हुए उसे मीडिया की आजादी को सीमित करने के प्रयास के रूप में देखा.
इसमें कहा गया था कि यदि भारतीय प्रेस परिषद् या न्यूज ब्रॉडकॉस्टर एजेंसी जैसी स्वायत्त संस्थाओं की जांच में यह पुष्टि होती है कि कोई खबर फर्जी है, तो उस खबर के लिए जिम्मेदार पत्रकार की मान्यता निलंबित या रद्द की जा सकती है. मंत्रालय का यह निर्देश प्रथम दृष्टया स्थापित परिपाटी यानी स्व-नियमन के विरुद्ध था.
इसके लागू होने पर मामला राजकीय नियमन के दायरे में आ जाता. मीडिया का राजकीय नियमन लोकतांत्रिक कायदे के भीतर शंका की नजर से देखा जाता है. दूसरी बात, मीडिया की पेशेवर गड़बड़ी को रोकने के लिए भारतीय प्रेस परिषद् जैसी निगरानी और अंकुश की संस्थाएं हैं.
हालांकि, इन संस्थाओं के अधिकार बड़े सीमित हैं और इनकी कार्यप्रणाली पर समय-समय पर अंगुली भी उठती रही है, लेकिन इस तर्क की ओट में इनके औचित्य पर सवाल उठाते हुए मंत्रालय उन भूमिकाओं का निर्वाह में साझीदार नहीं हो सकता है, जो प्रेस परिषद् जैसी संस्थाओं से अपेक्षित हैं. यह भी समझा जाना चाहिए कि किसी घटना को खबर में ढालते वक्त पर्याप्त सावधानी के बावजूद उसके अनेक पहलू छूट सकते हैं. घटना को खबर के रूप में प्रस्तुत करना दरअसल प्रासंगिक सूचनाओं को प्राथमिकता के लिहाज से दर्ज करने का मामला है.
सो, पहली नजर में किसी खबर के बारे में यह आरोप तो लगाया जा सकता है कि उसमें किसी घटना के अमुक पक्ष की अनदेखी हुई है या उसे कम प्राथमिक माना गया है, लेकिन यह नहीं कहा जा सकता है कि खबर अपने सार में झूठी है. यूरोपीय आयोग की एक हालिया रिपोर्ट में फर्जी खबर की धारणा पर सवाल उठाते हुए कहा गया है कि खबर के बारे में विरूपण का सवाल उठाया जा सकता है, न कि उसके फर्जी होने के बारे में.
और, अगर मामला खबर के तथ्यों को विरूपित करने का हो, तो अच्छा यही है कि इसका फैसला वे संस्थाएं करें, जिनका काम मीडिया की निगरानी का है, क्योंकि खबरों के विरूपण को चिह्नित करना विशेष योग्यता की मांग करता है. प्रधानमंत्री ने सही फैसला लिया है और गेंद अब प्रेस परिषद् और मीडिया संस्थाओं के पाले में है. पत्रकारिता की पेशेवर नैतिकता और सजगता के निर्वाह का जिम्मा उन्हें ही उठाना है.
रही बात सोशल मीडिया और इंटरनेट के जरिये खतरनाक अफवाहों और फर्जी खबरों की, तो उनसे निपटने के लिए मौजूदा कानूनों का इस्तेमाल हो सकता है तथा इंटरनेट कंपनियों को मुस्तैद रहने का निर्देश दिया जा सकता है. मीडिया पर सरकारी दबाव बनाने की नीतियों से परहेज किया जाना चाहिए, क्योंकि ऐसा करना लोकतांत्रिक मूल्यों के विपरीत है.
देशबन्धु
ये कैसी सरकार चला रहे हैं मोदी जी
फेक न्यूज पर सूचना और प्रसारण मंत्रालय के नए दिशा-निर्देश को प्रधानमंत्री कार्यालय ने 24 घंटे के भीतर ही वापस लेने का आदेश दे दिया। इस खबर को इस तरह से भी कह सकते हैं कि स्मृति ईरानी ने पत्रकारों की आजादी छीनने का जो कदम उठाया था, उसे नरेन्द्र मोदी ने रद्द कर दिया। पत्रकारबंधुओं को अब प्रधानमंत्री का आभारी होना चाहिए कि उन्होंने भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में मीडिया की आजादी पर आंच नहीं आने दी। कहावत है देर आयद, दुरुस्त आयद, पर इस प्रकरण में कहा जा सकता है जल्द आयद, दुरूस्त आयद।
शायद नरेन्द्र मोदी को यह अहसास हो गया हो कि इस चुनावी साल में पत्रकारों से सीधी मुठभेड़ सही नहीं होगी। वैसे तो कुछेक न्यूज चैनल, अखबार और उनके पत्रकार सरकार की सेवा में दिन-रात लगे हैं। इन्हीं में कुछ कई दफे फेक न्यूज यानी भ्रामक या झूठी खबरें भी इस तरह प्रसारित करते हैं, जिसमें सरकार का फायदा हो और विरोधियों का दुष्प्रचार हो। याद करें जेएनयू प्रकरण, जिसमें देशविरोधी नारे लगाने वाले वीडियो में छेड़छाड़ की बात सामने आई थी। सोशल मीडिया साइट्स, ट्विटर, फेसबुक और व्हाट्सऐप भी दुष्प्रचार के सर्वोत्तम साधन बन गए हैं। सरकार ने इन पर तो किसी किस्म की सख्ती नहीं दिखाई, लेकिन उन पत्रकारों पर रौब गांठने में देरी नहीं की, जिन्हें भारत सरकार ने पूरी जांच-पड़ताल के बाद मान्यता दी है।
आम जनता को इसकी जानकारी शायद ही हो, लेकिन मीडिया से जुड़े लोग जानते हैं कि पीआईबी यानी प्रेस इन्फर्मेशन ब्यूरो से मान्यता हासिल करना मामूली बात नहीं है। इसमें पत्रकार का अनुभव, उसके लेखन, वह किस मीडिया संस्थान से जुड़ा है, यह सब देखकर ही पुलिसिया जांच-पड़ताल के बाद पीआईबी कार्ड जारी किया जाता है। इस कार्ड का इस्तेमाल करके पत्रकार सरकारी कार्यालयों में प्रवेश करते हंै और सरकार की गतिविधियों को जनता तक पहुंचाते हैं। मुख्यधारा मीडिया के इन पत्रकारों को बिरादरी बाहर करने की यह सोच तानाशाही किस्म की लगती है।
मोदी सरकार जब मौका मिले, तब आपातकाल की याद देश को दिलाती है। अब वह खुद क्यों मीडिया पर सरकारी तौर अंकुश लगाना चाह रही थी, यह समझ से परे है। वैसे तो जाहिर ही है कि जिन पत्रकारों की आवाज पसंद नहीं आती, उन्हें किस तरह खामोश कर दिया जाता है। गौरी लंकेश से लेकर संदीप शर्मा तक तमाम उदाहरण हमारे सामने हैं। लेकिन फेक न्यूज के नाम पर पत्रकारों की अधिमान्यता रद्द करने का विचार बेहद गंभीर मुद्दा है, जो फिलहाल प्रधानमंत्री के दखल के कारण टल गया है, लेकिन आगे नहीं होगा, इसकी कोई गारंटी सरकार की ओर से नहीं आई है। वैसे देश में पत्रकारिता में नैतिकता बनाए रखने के लिए न्यूज ब्राडकास्टर्स एसोसिएशन, इंडिया ब्राडकास्ट फाउंडेशन, प्रेस काउंसिल आफ इंडिया ऐसी तमाम संस्थाएं है, फिर सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय को अचानक फेक न्यूज प्रसारण की इतनी चिंता क्यों हो गई?
क्या इसलिए कि जिस मीडिया का इस्तेमाल मोदीजी की लार्जर दैन लाइफ छवि गढ़ने के लिए किया गया था, उसी मीडिया में अब उनकी खामियों की बातें होने लगी हैं, 4 सालों के कामकाज का लेखाजोखा दिया जाने लगा है। वैसे तो इस मामले में प्रधानमंत्री कहीं खुद सामने नहीं आए हैं और फैसला पलटने में भी प्रधानमंत्री कार्यालय का ही नाम लिया जा रहा है, प्रधानमंत्री का नहीं। लेकिन यह बात अटपटी लगती है कि सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय इतना बड़ा कदम उठाने जा रहा हो और प्रधानमंत्री को उसकी भनक भी नहीं लगे। हो सकता है, पहले इस फैसले में नरेन्द्र मोदी की सहमति रही हो और बाद में विरोध देखकर उन्होंने फिलहाल बात को टाल दिया हो। अगर ऐसा है, तो भविष्य के लिए पत्रकारों को सतर्क रहना होगा। और मान लें कि नरेन्द्र मोदी को पता ही नहीं था कि स्मृति ईरानी ऐसा फैसला लेने जा रही हैं, तब भी बात चिंता की है।
आखिर यह कैसी सरकार है, जहां कौन क्या करता है, किसी को पता ही नहीं चलता। प्रधानमंत्री नोटबंदी की घोषणा करते हैं, वित्त मंत्री को इसका पता नहीं होता। जीएसटी लागू हो जाता है, लेकिन अधिकारियों को नहीं पता होता कि नियमों का पालन किस तरह से होगा, बाद में नियम बदले जाते हैं। चुनाव आयोग मतदान की तारीखों का ऐलान बाद में करता है, भाजपा आईटी सेल को पहले पता चल जाता है। इराक में 39 भारतीय चार साल पहले मार दिए जाते हैं, सरकार को चार साल बाद उनकी खबर लगती है। मिनिमम गर्वमेंट, मैक्सिमम गर्वनेंस तो छोड़ें, यहां तो गर्वमेंट और गर्वनेंस दोनों का ही ठिकाना नहीं कि कब कौन क्या कर दे। मोदीजी सरकार चला रहे हैं या देश के साथ प्रयोग कर रहे हैं, जिसमें परिणाम कब क्या हो, कुछ पता ही नहीं चले।
The Hindu
The Violent Aftermath
The loss of nine lives in violent protests against the Supreme Court ruling introducing safeguards against misuse of the Scheduled Castes and Scheduled Tribes (Prevention of Atrocities) Act, 1989, is tragic. Clearly, both the Centre and State governments were caught unawares by the scale and intensity of the protests. The government has sought an urgent review, in an attempt to dispel the impression that its own stand was responsible for the Division Bench laying down fresh guidelines on handling complaints under the Act. From the day of the court ruling, what was a matter of concern was the nature of the message the Bench might have conveyed to marginalised and oppressed sections. Norms to safeguard the innocent against false complaints may not have been so unpalatable as the serious implications of the finding that there is large-scale misuse of the SC/ST Act. Proceeding on this premise, the court ruled that the bar under Section 18 of the Act on grant of anticipatory bail was not absolute. It mandated a preliminary inquiry into complaints before an FIR can be registered and barred any immediate arrest of the accused, unless approved by a higher authority in the case of public servants or the Senior Superintendent of Police in respect of private citizens. Whether these directions amount to judicial legislation and go against the grain of prevailing law and policy are complex questions that need careful judicial determination. But it is a moot question whether recent explosion of Dalit anger stems entirely from the fine print of the judgment. It is likely that it is a result of the perception that in a social environment where the legal and administrative system is already loaded against the community, a verdict like this may worsen the lot of the vulnerable.
As the Bench has now agreed to hear the petition to review its own March 20
order, what is needed is a spell of calm and peace. It is true that the Bench has declined to suspend the order and clarified that its objective was to safeguard the innocent and that it has not diluted the Act or undermined the rights of SCs and STs in any way. In a larger sense, there are two disparate factors at play — protecting the innocent against harassment and misuse of a law, and faithfully preserving the letter and spirit of a piece of legislation aimed at upholding the rights and dignity of the historically oppressed classes. Neither should be sacrificed for the sake of the other. Given the mood of anger and discontent, it is both pragmatic and necessary for the entire question to be re-examined by the court. The first requirement for this is a conducive atmosphere for such a hearing. One hopes that the initial fury has spent itself out and that there will be no cause for its being unleashed again.
The Indian Express
Muddying Waters
Delivering its verdict on the Cauvery water dispute on February 16, the Supreme Court (SC) had asked Tamil Nadu, Karnataka, Kerala and Puducherry, the states contending for the river’s waters, to shun their parochial outlook. It had called for a basin-centred approach to the imbroglio. But six weeks after the verdict, the matter is back at the apex court with the parties to the dispute at loggerheads over the mechanism to administer the court’s award.
Given that the Cauvery disputestretches back to more than a century and involves layers of complications, it is understandable that the two riparian states differ over the resolution mechanism. However, what is unfortunate is that the disagreements have taken an emotive hue in Tamil Nadu and poll-bound Karnataka. This is against the spirit of the apex court’s verdict.
In February, the SC modified the 2007 verdict of the Cauvery Water Disputes Tribunal (CWDT) — an agency it had constituted in 1990 — and increased Karnataka’s share of Cauvery waters at the cost of Tamil Nadu. The Court asked the Centre to formulate a “scheme” within six weeks so that its award “is smoothly made functional”.
But what has complicated matters is that this mechanism is different from the one enunciated by the CWDT. The Tribunal recommended that a Cauvery Management Board “be entrusted with the function of supervision of reservoirs and the regulation of water releases from the Cauvery”.
This is not a mere difference in nomenclature. “Scheme” is the terminology used in the Inter State River Disputes Act, 1956 and, according to the Karnataka government, what the Court means by it is “a dispute resolution body”, very distinct from the regulatory agency mandated by the CWDT. Karnataka also contends that the SC has “left the contents of the scheme to the discretion of the Centre”. Tamil Nadu disputes this interpretation arguing the “scheme” should be as per the recommendations of the CWDT.
With elections to the Karnataka assembly a little more than a month away, the Centre has played it safe. It has asked the SC, “if it is open to the Central government framing the scheme in variance with the recommendations contained in the CWDT report”. The Tamil Nadu government has also approached the Court contending that the Centre’s delay in giving effect to the February verdict constitutes a “contempt of court”.
The state government is well within its rights to approach the SC. But what is unacceptable is that both the ruling AIADMK and the opposition DMK are competing with each other to raise tempers over what is an emotive issue in the state. On Tuesday, the AIADMK called a strike with Chief Minister E K Palaniswami and his deputy O Panneerselvam participating in the protests. The SC will hear the matter on April 9. The parties will do well to hold their horses — at least till then.
The Times of India
Missing Some Steps
The US has articulated the view that it wants India to play a more ‘weighty role’ in its free and open Indo-Pacific strategy. This is welcome as both countries share common geopolitical interests. With an authoritarian power such as China flexing its muscles and seeking to dominate the region it’s natural for India and the US – the world’s largest and oldest democracies – to coordinate their policies in the international arena. Besides, both are multicultural nations facing threats from radical Islam.
That said, the Indo-Pacific strategy today suffers from lack of adequate cohesion. Stakeholders in the project have expressed intent but coordination on the ground has been nebulous. For India to play a central role in the Indo-Pacific strategy, the US must give it a leg up and accord to it the same treatment as an ally. The NDA government under Prime Minister Narendra Modi has reoriented foreign policy and India is now willing to play ball. But Washington must help build New Delhi’s strategic heft to counterbalance Beijing.
In this regard, it’s welcome that the US has been turning the screws on Pakistan – which provides safe haven to terror groups that target both India and the US – and recently designated Pakistani terror mastermind Hafiz Saeed’s political front Milli Muslim League as a terror group. The latter move, among other things, will be a relief to Pakistan’s cowed civilian politicians – who would be cowed further if a party with terror backing appeared in their midst. But more pressure will be necessary to get Pakistan to give up on terror havens, which in turn would enable peace between India and Pakistan and a stable subcontinent.
What is confusing, however, are US moves on the economic front. From tightening of H-1B visa processes that will impact Indian IT companies to launching a challenge at WTO against India’s export subsidy programmes, Washington appears to be in no mood to give India any economic quarter. What is important to note here is that India isn’t China which has for years gamed the international trading system. Besides, if India is to be a hedge against China – whose economy is more than four times bigger – then it should be enabled to get on the fast track to economic growth. Washington must realise that it can’t divorce defence cooperation from economic relations. It is currently a little too transactionalist in dealing with New Delhi.
The New Indian Express
Comical Twist to the Fake News Controversy
The last time we heard something comically hi-tech was when they talked about how a microchip embedded in the `2,000 note would enable it to be tracked via satellite, or whatever digital panopticon the minders of new India may prefer. Now comes a comical twist to the controversy over the fake news order. There’s talk of a hi-tech snooping sensor! Something that would be more suitable for tracking endangered tigers in our forests. Stout denials have been duly issued, but in the miasmic air that hovers over New Delhi it almost doesn’t matter. The anxieties in official circles are quite palpable, as is the sentiment on India’s noisy but robust versions of Fleet Street.
For those not updated, a snapshot. The I&B Ministry, under Smriti Irani, issues a fiat that journalists who stand accused of peddling “fake news” would have their Press Information Bureau (PIB) accreditation withdrawn, pending investigation. Now, it’s common consensus that while strongly loaded, even partisan interpretations of news can be present in print media, arguably in a justifiable way, the phenomenon of outright “fake news” is more a creature of online/social media, where its dissemination is faster and does more damage. Online media, significantly, was not covered under the proposed rule.
A huge backlash saw a responsive PMO rushing to make amends. Within 15 hours, the order stood withdrawn. All agreed that PM Modi had done right. Some even recalled the anti-freedom measures initiated under Indira and Rajiv Gandhi to show no one was clean on free speech. Then the twist: read it as high comedy or low farce. Reports warned of a PIB card enabled with radio-frequency identification (RFID)—so that the movement of journalists within ministry offices can be tracked! In India, most ‘news’ still comes from the government and its vast apparatus. So real news getting out is always a concern for regimes. Still, a journalistic dog-collar is better thought of as a lurid panic tale worthy of being buried with the `2,000 chip. That such talk exists is itself a sign of the times.
The Telegraph
In Anger
The two most striking features of the bandhcalled by Dalits on Monday were the scale of the protests and the unpreparedness of the state and Central governments. That the police of Madhya Pradesh claimed to have been prepared while the violence in the state claimed the most lives says something about the relationship of that government with its Dalit residents. The declared cause for the bandh was what Dalits saw as a ‘dilution’ of the Scheduled Caste and Scheduled Tribe (Prevention of Atrocities) Act by the Supreme Court. The court had decided on March 20 that anticipatory bail would be allowed for a complaint under this law in the absence of a prima facie case. Then the provision of immediate arrest upon first complaint would be waived too, and an investigation with a limit of seven days would determine if there had been an offence. Dalit anger, triggered off by the government’s attempt to reduce the number of reserved teaching jobs and by an increase in cruelties under the pretext of cow protection or banning horse riding or even a moustache – notably in Bharatiya Janata Party-ruled states – came to a head with the court’s decision. The Union government hemmed and hawed, although Dalit members of parliament within the BJP protested strongly. The government’s review petition to the Supreme Court came too late to stop the bandh.
The court has said that the law has not been diluted; only an effort has been made to protect the innocent. The government’s petition states, in a righteous tone, that misuse of a law is no reason to ‘read it down’. Since the government had supplied the court with the data in the first place, the righteousness is rather funny. The court’s decision would probably not have gone down so badly with the Dalits if they could trust the government. At the core of the conflict is loss of trust. National Crime Records Bureau statistics show that crimes against scheduled castes and scheduled tribes have grown steadily from 2014 onwards, especially in Uttar Pradesh, Rajasthan, Madhya Pradesh and Bihar. In a ‘counter protest’ in Rajasthan, the houses of an MP and a former MP, both Dalits, were burnt down. The upper caste message is obvious. The Dalits’ mistrust of the BJP would harden by the revelation of the government’s active part in the case in question. That would also obscure for them the reasoning behind the court’s verdict.