आज के हिंदी/अंग्रेजी अखबारों के संपादकीय 03 अप्रैल,2018

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जनसत्ता

आतंक का सामना

जम्मू-कश्मीर के अनंतनाग और शोपियां जिलों में सुरक्षा बलों के ताजा अभियान में तेरह आतंकवादियों के मारे जाने की घटना निश्चित रूप से एक बड़ी कामयाबी है। लेकिन इस दौरान तीन जवानों सहित चार नागरिकों की जान चली गई और यह देश के लिए बड़ा नुकसान है। इसके बावजूद यह कहा जा सकता है कि आतंकवाद से पीड़ित इस राज्य में सुरक्षा बलों को आतंकवादियों का सामना करने के मामले में कामयाबी की दर बढ़ रही है। गौरतलब है कि शनिवार और रविवार को आतंकवाद के खिलाफ अभियान के तहत अनंतनाग जिले के दायलगाम और द्रगाद, फिर शोपियां जिले के काचदुरु क्षेत्र में सुरक्षा बलों ने कुल तेरह आतंकवादियों को मार गिराया। मारे गए आतंकवादियों में वे भी शामिल हैं, जिन्होंने पिछले साल मई में लेफ्टिनेंट उमर फैयाज की हत्या कर दी थी। इस लिहाज से यह आतंकी गिरोहों को करारा जवाब भी है।

पिछले कई दशक से आतंकवाद पर काबू पाने के मकसद से की जा रही तमाम कवायदों के बावजूद आज भी कई बार आतंकी गिरोह सुरक्षा बलों पर हमले कर अपनी मौजूदगी का अहसास कराते रहते हैं। लेकिन यह भी सच है कि पिछले कुछ समय से खुफिया सूचनाओं के लेन-देन के मोर्चे पर अलग-अलग सुरक्षा एजेंसियों के बीच तालमेल बेहतर हुआ है और इसमें स्थानीय आबादी को भी सहयोग की भूमिका में लाने की कोशिश की गई है। इसका हासिल यह है कि आतंकवादियों के अचानक हमलों से निपटने के लिए की जाने वाली पूर्व तैयारी या रणनीति बनाने में काफी मदद मिली है। इस लिहाज से देखें तो अनंतनाग और शोपियां में एक साथ बहुस्तरीय अभियान में एक दर्जन से ज्यादा आतंकियों को मार गिराने की घटना महत्त्वपूर्ण है। निश्चित तौर पर इससे हिज्बुल मुजाहिदीन और लश्कर-ए-तैयबा जैसे आतंकवादी संगठनों को करारा झटका लगा है, जो पाकिस्तान की शह पाकर भारत में आतंकवादी घटनाओं को अंजाम देते रहते हैं। विडंबना यह भी है कि भारत की ओर से लगातार चेतावनी और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर तमाम फजीहत के बावजूद पाकिस्तान लश्कर-ए-तैयबा जैसे आतंकी संगठनों के खिलाफ कोई ठोस कार्रवाई करने की जहमत नहीं उठाता।

इस अभियान की एक अहम उपलब्धि यह रही कि दायलगाम मुठभेड़ के दौरान एक वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक ने एक आतंकी के परिजनों से काफी देर बातचीत के बाद उसे आत्मसर्पण के लिए राजी कर लिया। ऐसे उदाहरण कम मिलते हैं, जिनमें आतंकियों का सामना करते हुए ऐसी समझदारी का परिचय दिया गया हो। निश्चित रूप से इसे एक जटिल समस्या के ठोस हल की ओर बढ़ते कदम के रूप में देखा जा सकता है, जिसके तहत आतंकवाद के जाल में उलझे लोगों को यथार्थ का अहसास करा कर उन्हें मुख्यधारा की ओर लौटने के लिए तैयार किया जा सके। ताजा अभियान में तेरह आतंकियों के मारे जाने के बाद जम्मू-कश्मीर के पुलिस महानिदेशक ने कहा कि नौजवानों को इस तरह मरते देखना दुखद है और मैं सभी माता-पिता से अपील करता हूं कि वे अपने बच्चों से हिंसा छोड़ कर देश की मुख्यधारा में शामिल होने का अनुरोध करें। हालांकि पिछले कुछ समय से जम्मू-कश्मीर में आतंकवाद की ओर आकर्षित हो रहे युवाओं या उनके परिजनों से संवाद कायम कर उन्हें आतंक के रास्ते से वापस लाने की कवायदें भी साथ चल रही हैं। इनमें कुछ मामलों में परिजनों की अपील के बाद आतंकी दस्तों से कुछ युवाओं को वापस लाने में सफलता भी मिली है। जाहिर है, सुरक्षा बलों की चौकसी और अभियानों के साथ-साथ स्थानीय आबादी को विश्वास में लेने की रणनीति आतंकवाद की समस्या के दीर्घकालिक हल का रास्ता तैयार कर सकती है।


हिंदुस्तान

नाराजगी के स्वर

भारत बंद भले ही न हुआ हो, लेकिन हिल जरूर गया है। अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति अधिनियम के बारे में सुप्रीम कोर्ट का जो फैसला पिछले दिनों आया, उसे लेकर दलित समुदाय में काफी आक्रोश है। सुप्रीम कोर्ट ने यह फैसला दिया था कि इस कानून में सिर्फ प्राथमिकी के आधार पर जो गिरफ्तारी होती है, वह गलत है। आदर्श स्थिति तो शायद यही होती है कि सुप्रीम कोर्ट अगर किसी मसले पर कोई फैसला दे दे, तो या तो उसे मान लिया जाए और नहीं तो उसके खिलाफ पुनर्विचार याचिका डाली जाए। केंद्र सरकार ने इस मसले पर सुप्रीम कोर्ट में पुनर्विचार याचिका डाल भी दी है, लेकिन वह एक अलग मुद्दा है। ऐसा नहीं है कि सुप्रीम कोर्ट के किसी फैसले के खिलाफ लोग पहली बार सड़कों पर उतरे हों। अभी कुछ ही हफ्ते पहले सुप्रीम कोर्ट ने फिल्म पद्मावत  की रिलीज के लिए आदेश दिया था, लेकिन इसे लेकर कुछ संगठनों को विरोध इतना उग्र हो गया था कि कई राज्य सरकारें उसके आगे झुक गईं। लेकिन यहां हमें यह भी समझना होगा कि सुप्रीम कोर्ट के ताजा फैसले के खिलाफ दलित संगठनों का विरोध उतना अतार्किक भी नहीं है, जितना कि पद्मावत  मामले में करणी सेना का था।

इसके साथ ही हमें सुप्रीम कोर्ट के निर्णय को भी समझने की कोशिश करनी होगी। दुनिया भर के नागरिक अधिकार संगठन हमेशा से यह कहते रहे हैं कि अगर किसी भी गैर-नृशंस अपराध में सिर्फ एफआईआर के आधार पर गिरफ्तारी का प्रावधान है, तो उसका दुरुपयोग होगा ही। ऐसा दहेज विरोधी कानून में तो हमने तो बहुत ज्यादा देखा है। जाहिर है कि ऐसा दुरुपयोग एससी-एसटी ऐक्ट के कुछ मामलों में भी होता ही होगा। इस सवाल का जवाब कभी सरल नहीं रहा कि अगर किसी प्रावधान का दुरुपयोग होता ही है, तो क्या एकमात्र विकल्प उसे हटाना ही है? हमारी न्याय व्यवस्था अगर तेज चले, तो हो सकता है कि ऐसे दुरुपयोग बहुत दूर तक न जा पाएं, लेकिन ऐसा नहीं है, इसलिए किसी भी दुरुपयोग का असर भी बहुत दूर तक जाता है। न्याय व्यवस्था अगर तेज होती, तो शायद ऐसे प्रावधान की जरूरत ही न पड़ती।

ठीक यहीं पर हमें दलित समुदाय की पीड़ा को भी समझना होगा। आजादी के इतने साल बाद भी उन्हें सामाजिक स्तर पर जिस भेदभाव और प्रताड़ना का सामना करना पड़ता है, वह किसी भी सभ्य कहलाने वाले समाज में स्वीकार्य नहीं हो सकता। जिस दिन भारत बंद का आयोजन हुआ, उसी दिन अखबारों में यह खबर थी कि एक दलित युवा घोड़ी पर चढ़कर अपनी शादी के लिए जाना चाहता है और गांव में उच्च जातियों के लोगों को यह गवारा नहीं। प्रशासन भी उसकी मदद में असमर्थ था। देश में दलित सदियों से कई तरह की मनोवैज्ञानिक हिंसा को झेलते आए हैं। ऐसे में, उन्हें एससी-एसटी ऐक्ट एक औजार की तरह लगता है, जो कई तरह की मानसिक हिंसा से उनका बचाव कर सकता है। इसलिए इस प्रावधान को हल्का बनाया जाना उन्हें किसी भी तरह से स्वीकार नहीं। दलितों के आक्रोश का यह अकेला कारण नहीं है। इसे आप पिछले दिनों अंबेडकर की मूर्तियां तोडे़ जाने से भी जोड़कर देख सकते हैं, सोशल मीडिया पर चल रहे आरक्षण विरोधी अभियानों से भी। अच्छा होता कि ऐसे प्रावधान हटाने से पहले हम उस सामाजिक व्यवस्था को हटाते, जो दलितों के अपमान का कारण बनती है।


अमर उजाला

हिंसा समाधान नहीं

अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम के दुरुपयोग पर अंकुश लगाने वाले सर्वोच्च अदालत के फैसले के खिलाफ भड़की हिंसा और आगजनी की घटनाओं को किसी भी तरह से जायज नहीं ठहराया जा सकता, जिसमें अनेक लोगों की जान तक चली गई है और सार्वजनिक तथा निजी संपत्ति को भारी नुकसान पहुंचा है। मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, चंडीगढ़, हरियाणा और देश के दूसरे हिस्सों में हिंसक प्रदर्शन की आड़ में हो रही सियासत भी किसी से छिपी नहीं है; ध्यान रहे तीन दिन पहले ही केंद्रीय सामाजिक कल्याण मंत्री थावरचंद गहलोत ने स्पष्ट कर दिया था कि सरकार इस फैसले को चुनौती देगी। ऐसे में हिंसक प्रदर्शन से तो दलितों और आदिवासियों का पक्ष ही कमजोर होगा। सर्वोच्च अदालत ने 20 मार्च को यह फैसला दिया था, जिसमें उसने उत्पीड़न से संबंधित ऐसे मामलों में तुरंत गिरफ्तारी पर रोक लगाते हुए निर्देश दिए थे कि ऐसा किसी सक्षम अधिकारी की अनुमति के बाद ही हो और उसने आरोपित व्यक्ति को कुछ प्रावधानों के साथ अग्रिम जमानत की याचिका दायर करने की छूट भी दी। जिस मामले पर सुनवाई के दौरान उसने यह फैसला दिया। वह एक दलित कर्मचारी से संबंधित था, जिसकी गोपनीय रिपोर्ट में उच्च अधिकारियों ने नकारात्मक टिप्पणी की थी। अदालत ने इस मामले का निपटारा करते हुए टिप्पणी की कि यह अधिनियम निर्दोष नागरिकों और कर्मचारियों के ब्लैकमेल का जरिया बन गया है। वास्तव में 1989 में यह अधिनियम दलितों और आदिवासियों को उत्पीड़न और जातिगत भेदभाव से बचाने के लिए लाया गया था। इस वर्ग का उत्पीड़न एक सामाजिक सच्चाई है और इसे ही ध्यान में रखते हुए इसमें संशोधन कर 2015 में कुछ और तरह के उत्पीड़नों को भी शामिल कर इसे और कड़ा बनाया गया। दूसरी ओर यह भी सच है कि ऐसे मामलों में सजा मिलने की दर बहुत कम है। इसकी दो बड़ी वजहें हैं, पहली है मामलों को अंजाम तक पहुंचाने की अभियोजन की अक्षमता और दूसरी वजह है विद्वेष या किसी को फंसाने के इरादे से दर्ज किए गए मामले। खुद केंद्रीय गृह मंत्रालय ने 2017 में कहा था कि दलितों और आदिवासियोंके उत्पीड़न उसके लिए चिंता का कारण है। ऐसे में दलितों और आदिवासियों में नाराजगी स्वाभाविक है, लेकिन कानून को अपने हाथ में लेने की इजाजत किसी को नहीं दी जा सकती।


दैनिक भास्कर

लोकतांत्रिक समाज में हिंसा के लिए कोई जगह नहीं है 

अनुसूचित जाति/ अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम को कमजोर करने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले के विरुद्ध आयोजित भारत बंद उचित है लेकिन, उस दौरान होने वाली हिंसा एकदम अनुचित है। एक सभ्य और लोकतांत्रिक समाज में अपनी नाराजगी व्यक्त करने का तरीका भी शांतिपूर्ण होना चाहिए और सरकार को भी अपने नागरिकों को संभालने में कम से कम बल का प्रयोग करना चाहिए। लोकतंत्र में हिंसा के लिए कोई जगह नहीं है, क्योंकि यह न तो लाठी और बल से चलता है और न ही अनैतिक क्रियाकलापों से। लोकतंत्र की संचालन शक्ति सामाजिक और आर्थिक न्याय है और उसे अदालती स्तर पर ही नहीं बल्कि अन्य संस्थाओं के स्तर पर सुनिश्चित किया जाना चाहिए। एनडीए सरकार की ओर से अनुसूचित जाति और जनजाति समाज को सम्मान देने के राजनीतिक कदम के बावजूद अगर वह तबका नाराज है तो उसके कारणों की समीक्षा होनी चाहिए। पिछले चुनाव में उस समाज ने अपने सबसे ज्यादा जनप्रतिनिधि भाजपा के टिकट पर संसद भेजकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनके संगठन में विश्वास भी व्यक्त किया था। इन सबके बावजूद गुजरात, उत्तर प्रदेश, बिहार और मध्यप्रदेश और देश के दूसरे राज्यों से भारत बंद में प्रकट दलित आदिवासी आक्रोश देखकर यही लगता है कि राज्य की विभिन्न संस्थाओं के साथ धार्मिक और जातिगत स्तर पर कट्‌टर होते समाज ने भी सामाजिक न्याय के अहसास को कमजोर किया है। मौजूदा आक्रोश की वजह सुप्रीम कोर्ट का निर्णय तो है ही, जिसमें नागरिक की स्वतंत्रता की रक्षा के लिए अत्याचार निरोधी कानून की अनिवार्य गिरफ्तारी की धारा को लगभग खारिज ही कर दिया गया है और राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के अनुसूचित जाति और जनजाति के सासंदों के दबाव के बाद सरकार ने उस पर न्यायालय में पुनर्विचार याचिका दायर कर दी है। इसके अलावा वे कारण भी हैं जिनके तहत आर्थिक विकास के नाम पर आदिवासियों के जल जंगल और जमीन की लूट बढ़ी है और जातिवाद के चलते दलितों पर अत्याचार की बर्बर घटनाएं जारी हैं। प्रधानमंत्री मोदी भले ही अपनी सफलता का सारा श्रेय बाबा साहेब आंबेडकर को देते हैं लेकिन, देश असमानता से ग्रस्त है। यह दूर तो होना चाहिए और शिकायतों के विरोध की लोकतांत्रिक पद्धतियां भी हैं। हिंसा से न कभी कुछ हासिल हुआ है, न होगा।


राजस्थान पत्रिका

हिंसा हल नहीं

एससी-एसटी कानून पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के विरोध में देश का सुलग उठना लोकतंत्र के लिए किसी खतरे कीघटी से कम नहीं माना जा सकता। खासकर उस समय जब देश में दलित विरोधी घटनाएं बढ़ रही हों। इतिहास साक्षी रहा है कि इस देश में अनुसूचित जाति और जनजातियों को उत्पीड़न के लम्बे दौर से गुजरना पड़ा है। देश की सामाजिक समरसता को अलग-अलग कारणों से अनेक मौकों पर विषैला बनाने के प्रयास किए गए। लोकतंत्र में अपनी बात रखने को अधिकार सबको है।अहिंसक तरीके से आन्दोलन, प्रदर्शन और धरनों का भी अधिकार है। अनुसूचित जाति और जनजातियों पर अत्याचार रोकने के कानून में सुप्रीम कोर्ट के बदलावों को भी एक कड़ी के रूप में देखे जाने की जरूरत है। आजादी के 70 साल बाद भी दलित और पिछड़ों की हालत किसी से छिपी नहीं है। इस वर्ग के उत्थान के तमाम वादों और दावों के बावजूद इनकी हालत सुधर क्यों नहीं पाई ?आरक्षण और तमाम दुसरी सरकारी योजनाओं का लाभ इस वर्ग की निचली पायदान तक क्यों नहीं पहुंच पाया? ऐसे अनेक सवालों का जवाब किसी के पास नजर नहीं आ रहा। न सरकार में बैठे शासकों के पास और न राजनीतिक दलों के पास।

भारत बंद के दौरान देश भर में फैली हिंसा के पीछे शायद इन्हीं सवालों के जवाब न मिलने की हताशा है। हिंसा भी ऐसी कि बेगुनाहों को जान तक गंवानी पड़ी। कई जगह आगजनी और पुलिस फायरिंग भी हुई। दलित और पिछड़ी जातियों में फैली निराशा के लिए किसी एक सरकार या दल को दोष नहीं दिया जा सकता। इस देश पर 55 सालों तक कांग्रेस ने राज किया है और दस साल तक भाजपा ने भी। बीच-बीच में मोरारजी देसाई, चरण सिंह, चन्द्रशेखर, वी. पी. सिंह, एच. डी. देवगौड़ा और इन्द्र कुमार गुजराल सरीखे प्रधानमंत्री भी रहे। लेकिन समस्या का समाधान क्यों नहीं हो पाया? सुप्रीम कोर्ट को एससी-एसटी कानून में बदलाव की जरूरत क्यों पड़ी? सवाल ये भी उठता है कि क्या इस अथवा ऐसे दूसरे कानूनों का दुरुपयोग होता है? यदि हां, तो इसका समाधान खोजने के लिए सभी राजनीतिक दलों को राजनीतिक स्वार्थों से ऊपर उठना होगा। सरकारें आती-जाती रहेंगी लेकिन इस देश में हर धर्म और जाति के लोग पहले भी रहते आए हैं और आगे भी रहते रहेंगे। सामाजिक समरसता इस देश की पहचान रही है और इस पहचान को बनाए रखना सबकी जिम्मेदारी है। सरकारों की भी, राजनीतिक दलों की भी और सवा सौ करोड़ देशवासियों की भी।


दैनिक जागरण

अराजक विरोध
अनुसूचित जाति-जनजाति के लोगों को अत्याचार और भेदभाव से बचाने वाले एससी-एसटी एक्ट पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के विरोध में विभिन्न संगठनों और राजनीतिक दलों की ओर से बुलाए गए भारत बंद के दौरान कैसी खुली अराजकता का परिचय दिया गया, इसका पता कई लोगों के हताहत होने, बड़े पैमाने पर सरकारी एवं निजी संपत्ति को नुकसान पहुंचने और सड़क एवं रेल मार्ग से यात्र करने वाले लाखों लोगों के असहाय दिखने से चला। यह मानने के अच्छे-भले कारण हैं कि कई विपक्षी दलों ने दलित हित के बहाने आग में घी डालने का काम सुनियोजित तरीके से किया। समझना कठिन है कि देश को अराजकता की आग में झोंककर उन्हें क्या हासिल हुआ, लेकिन इससे खराब बात और कोई नहीं हो सकती कि भारत बंद के समर्थकों का विरोध भी ¨हसक तरीके से किया गया। स्पष्ट है कि ये वही लोग होंगे जो यह समझने के लिए तैयार नहीं कि दलितों का उत्पीड़न एक हकीकत है और उन्हें मुख्यधारा में लाने के लिए अभी बहुत कुछ किया जाना शेष है। यह बहुत कुछ किया जाना तभी संभव होगा जब अराजक राजनीति पर लगाम लगेगी। दुर्भाग्य से यही नहीं हो रहा है। विरोध के बहाने ¨हसा और उसके जवाब में भी ¨हसा तो देश को रसातल में ही ले जाएगी। भारत बंद के दौरान जैसा उत्पात देखने को मिला वह सभ्य समाज को शर्मिदा करने और साथ ही देश की छवि पर कालिख मलने वाला रहा। आज के युग में ऐसे भारत की कल्पना नहीं की जाती जहां जाति, वर्ग या क्षेत्र के हित के नाम पर अराजकता का सहारा लिया जाए। दुर्भाग्य से एक अर्से से यही हो रहा है। भारत बंद के दौरान हुए उपद्रव ने पाटीदारों के उग्र आंदोलन और करणी सेना के उत्पात की याद ताजा कर दी। अपने देश में विरोध जताने अथवा अधिकारों की मांग के नाम पर अराजकता का प्रदर्शन इसीलिए बढ़ता जा रहा है, क्योंकि इसके लिए जिम्मेदार राजनीतिक-गैर राजनीतिक तत्वों के खिलाफ कोई कठोर कार्रवाई मुश्किल से ही हो पाती है। क्या इस बार होगी? कहना कठिन है, लेकिन अगर अराजक विरोध को इसी तरह सहन किया जाता रहा तो कानून के शासन की रक्षा करना मुश्किल होगा।1आखिर जब सरकार एससी-एसटी एक्ट पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ पुनर्विचार याचिका दायर करने का वादा कर चुकी थी तब फिर इतने उग्र विरोध की क्या जरूरत थी? क्या इस विरोध में शामिल राजनीतिक दल दलितों की रक्षा के प्रति सचमुच समर्पित हैं? यह ठीक नहीं कि जब सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर विरोध और असहमति प्रकट करने का काम कहीं मर्यादित तरीके से किया जाना चाहिए था तब ठीक इसके उलट काम किया गया। इसके लिए छल-छद्म के साथ ऐसी अफवाह भी फैलाई गई कि यह सरकार आरक्षण खत्म करना चाहती है। नि:संदेह समय के साथ कानूनों में सुधार के सिलसिले को इसलिए नहीं रोका जा सकता कि उससे कुछ दलों को राजनीतिक रोटियां सेंकने में सहूलियत होती है, लेकिन इसी के साथ एससी-एसटी एक्ट के मामले में अनुसूचित जातियों और जनजातियों को यह भरोसा दिलाने की भी जरूरत है कि उनके साथ किसी तरह का भेदभाव नहीं होने दिया जाएगा।


देशबंधु

सबका साथ, सबका विकास तो सबका सम्मान क्यों नहीं?
अनुसूचित जाति-जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम 1989 में संशोधन के सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ दलितों की नाराजगी अब फूट पड़ी है। अदालत ने इस एक्ट में बदलाव किया कि आरोपी की तुरंत गिरफ्तारी की जगह पहले मामले की जांच हो, और इसमें जमानत का प्रावधान भी किया गया। इस पर दलित संगठन यहां तक कि एनडीए के दलित सांसद भी अपनी असहमति दिखला रहे थे और सरकार से मांग कर रहे थे कि वह इस पर पुनर्विचार याचिका दायर करे।
मोदी सरकार ने पहले तो दलितों की नाराजगी का ख्याल नहींं किया, लेकिन जब उसके सांसद ही विरोध करने लगे तो पुनर्विचार याचिका दायर करने का कदम उठाया गया। इस बीच दलित संगठनों ने 2 अप्रैल को भारत बंद का आह्वान किया। सरकार के समर्थक कुछ सवर्ण मानसिकता के हिमायती लोग अदालत के फैसले को सही ठहरा रहे हैं और दलितों के विरोध को राजनीतिक स्टंट। बेशक माननीय अदालत ने एससीएसटी एक्ट के दुरुपयोग को रोकने के लिए यह बदलाव किया था। अदालत दलितों के हकों की रक्षा के लिए भी प्रतिबद्ध है। लेकिन सवाल सरकार की प्रतिबद्धता का भी है और यह सवाल खुद उनके सांसद उठा रहे हैं। अभी कुछ महीने पहले केन्द्रीय मंत्री अनंत कुमार हेगड़े ने कहा था कि उनकी पार्टी संविधान बदलने सत्ता में आई है। इस बयान पर विवाद उठा तो पार्टी ने इस बयान से खुद को अलग कर लिया, लेकिन भाजपा अध्यक्ष अमित शाह कर्नाटक में नाराज दलितों के इस सवाल का जवाब नहीं दे सके कि उन्हें केबिनेट से क्यों नहीं हटाया गया है।
इधर उत्तरप्रदेश में भाजपा की दलित सांसद सावित्री फुले ने संविधान बचाओ, आरक्षण बचाओ रैली कर सरकार को साफ संदेश दे दिया कि वे सांसद रहें न रहें, पर संविधान से छेड़छाड़ नहीं होने देंगी। उन्होंने डा.अंबेडकर के नाम में रामजी जोड़नेे पर भी विरोध किया। उत्तरप्रदेश में डा.अंबेडकर की मूर्तियों के साथ तोड़-फोड़ की घटनाएं थम नहीं रही हैं, जो इस बात की सूचक हैं कि यहां सवर्णों का एकतबका दलितों को अधिकार दिलाने वालों का विरोधी है। कुछ दिनों पहले हाथरस में एक दलित युवक को अपनी बारात ले जाने के लिए सरकार से गुहार लगानी पड़ी क्योंकि गांव के ठाकुरों का कहना है कि जब उनके इलाके वाले रास्ते पर पहले कभी बारात आई ही नहीं तो ये नई मांग क्यों की जा रही है। जो रास्ता दलितों की बारात के लिए इस्तेमाल होता है, वहीं से बारात ले जानी चाहिए। इधर गुजरात में ऊना कांड के बाद भी दलितों पर अत्याचार की घटनाएं थम नहीं रही हैं।
पिछले साल मूंछे रखने पर दलितों पर जानलेवा हमले हुए और अभी भावनगर में एक दलित युवक को इसलिए मार दिया गया कि उसने घुड़सवारी का शौक पूरा करने के लिए घोड़ा खरीदा और तमाम धमकियों के बावजूद अपने घोड़े पर बैठकर घूमता रहा। ऐसी घटनाएं हांडी का एक दाना मात्र हैं और अंदाज लगाया जा सकता है कि इस देश में दलितोंं की दशा आज भी कैसी है। क्या इस दयनीय स्थिति में दलित किसी कानून का दुरुपयोग करने की स्थिति में हो सकते हैं? हो सकता है कुछ मामलों में इस कानून का गलत इस्तेमाल हुआ होगा, तो क्या इसके लिए सारे दलितों की सुरक्षा को दांव पर लगाया जा सकता है?
सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर दलित नेताओं के गुस्से पर  मुख्तार अब्बास नकवी का कहना है कि भारत खुला लोकतंत्र है जिसमें अपनी बात रखने की पूरी आजादी है, लोगों को अपनी बात को लेकर सड़कों पर उतरने को हम गलत नहीं मानते। हां, सरकार का मानना है कि दलितों के सम्मान उनके आरक्षण को लेकर कोई समझौता नहीं किया जा सकता। अगर मोदी सरकार नकवी के बयान से इत्तेफाक रखती है तो फिर जवाब दे कि दलितों के सम्मान के साथ खिलवाड़ क्यों होता है? वे अपनी मांगों के लिए सड़कों पर उतरे तो इसमें हिंसा को जगह कहां से मिल गई? क्यों राजस्थान के बाड़मेर में करणी सेना दलितों के प्रदर्शन के खिलाफ उतर आई? सरकार को पता था कि सोमवार को भारत बंद का आह्वान किया गया है, फिर क्यों ऐसे इंतजाम नहीं किए गए कि दलित शांतिपूर्ण तरीके से अपना विरोध दर्ज करा लेते? क्या अराजकता की स्थिति जानबूझकर निर्मित होने दी गई, ताकि माहैल दलितों के खिलाफ बन सके? क्या इस सरकार में किसी को भी अपनी आवाज उठाने का हक नहीं है? छात्र हों या किसान हों या दलित हों, जो भी अपनी मांगों के साथ सड़क पर उतरता है, माहौल उसके खिलाफ बना दिया जाता है। सबका साथ, सबका विकास में क्या सबका सम्मान शामिल नहीं होना चाहिए? ये कैसे लोकतंत्र में ही रहे हैं हम?


प्रभात खबर

रोजगार और सुधार
सरकारी क्षेत्र में सबसे ज्यादा नौकरी देने का श्रेय लंबे समय से भारतीय रेलवे को दिया जाता रहा है. खर्चे में कटौती सहित कई कारणों से पिछले कुछ सालों से रेलवे में बड़ी संख्या में निचले स्तर के पद खाली थे और नियुक्ति की प्रक्रिया रुकी हुई थी. इसका असर रेलगाड़ियों के परिचालन और यात्रा के दौरान हासिल सुविधा तथा सुरक्षा पर दिख रहा था. सो, जरूरत को महसूस करते हुए रेलवे ने बड़ी संख्या में नौकरियों के लिए आवेदन आमंत्रित किये.  लेकिन, रोजगार के लिए भटक रहे लोगों की संख्या कितनी अधिक है, इसका अंदाजा इस तथ्य से होता है कि रेलवे के अब तक विज्ञापित 90 हजार पदों के लिए कुल 2. 80 करोड़ अभ्यर्थी ऑनलाइन परीक्षा में बैठने जा रहे हैं. मतलब, हर विज्ञापित पद के लिए औसतन 311 व्यक्ति दावेदार हैं. जाहिर है, इनमें से 310 को होड़ से बाहर हो जाना है.  असल मुश्किल यहीं से शुरू होती है- आखिर ये 310 लोग क्या करेंगे? एक जवाब तो यही है कि वे किसी अन्य परीक्षा में शामिल होंगे. लेकिन, अफसोस की बात है कि नौकरी तलाशते हर युवा के लिए ऐसा विकल्प मौजूद नहीं है. कारण बड़ा सीधा है- दुनिया की सबसे तेज रफ्तार अर्थव्यवस्थाओं में शुमार होने के बावजूद अपने देश में रोजगार के समुचित अवसरों का सृजन नहीं हो पा रहा है.  एक आकलन के मुताबिक, देश के श्रम-बाजार में रोजगार के अवसरों की तलाश में हर साल 1.20 करोड़ नये लोग जुड़ते हैं और इन्हें जीविका का सम्मानजनक अवसर मुहैया कराने के लिए सालाना 10 फीसदी बढ़ोतरी जरूरी है. इस समस्या का एक विशेष पक्ष शिक्षित बेरोजगारों से जुड़ता है. देश में सामान्य शिक्षित बेरोजगारों की तादाद अन्य श्रेणी के कामगारों (किसी रोजगार विशेष के लिए प्रशिक्षित) की तुलना में बहुत ज्यादा है.  नेशनल सैंपल सर्वे के मुताबिक, सामान्य शैक्षिक पृष्ठभूमि के स्नातक और स्नातकोत्तर व्यक्तियों (रोजगार की उम्र वाले) की संख्या देश में 6.20 करोड़ (साल 2011-12 में) है और इस श्रेणी के व्यक्तियों में बेरोजगारी दर पांच प्रतिशत है.  आश्चर्य नहीं कि सामान्य शैक्षिक पृष्ठभूमि के ज्यादातर लोग पर्याप्त अवसरों के अभाव में अर्द्ध-बेरोजगारी या छिपी हुई बेरोजगारी के हालात से गुजर रहे हैं और एमए या पीएचडी धारक अभ्यर्थियों के बारे में खबर आती है कि उन्होंने चपरासी के पद के लिए आवेदन किया है.  सार्वजनिक सेवाओं के लिए धन की कमी, विनिर्माण-क्षेत्र का अपेक्षित गति से विस्तार न होना और कंपनियों को हासिल कर्ज की कमी जैसी कई वजहों से रोजगार के अवसरों का सृजन बाधित है. आर्थिक सुधार की गति अक्सर राजनीतिक हिसाब-किताब में उलझ जाती है या फिर सरकार की प्राथमिकताओं में वह निचले पायदान पर आ जाती है.  उम्मीद की जानी चाहिए कि अर्थव्यवस्था की जरूरतों के अनुरूप आनेवाले समय में रोजगारोन्मुख शिक्षा पर ज्यादा जोर दिया जायेगा और ढांचागत सुधारों की प्रक्रिया तेज कर रोजगार सृजन के प्रयास किये जायेंगे.


The Hindu

Cauvery Again
It is unfortunate that the Cauvery dispute is once again before the Supreme Court, barely weeks after the final verdict. The Centre is to blame for the dispute going into another round of litigation. While Tamil Nadu has moved the court to initiate contempt proceedings against the Centre for not complying with the direction to frame a scheme to implement the water-sharing arrangement set out in the February 16 judgment, the Centre has sought three more months and some clarifications in the court order. It is difficult to believe the issue at hand is so perplexing that the Centre had no option but to come back to the court. It appears that it does not want to handle the issue until the Karnataka Assembly elections get over in mid-May. Political and electoral considerations appear to have dictated the Centre’s action. It is almost as if it believes that as long as the option of buying further time is available, it need not fulfil its legal obligations. It is unfortunate that just before the expiry of the court’s six-week deadline, the Centre came up with a petition asking the court to clarify whether the proposed scheme should be the same as that which the Tribunal had set out in its final award in 2007, or could be at variance with it.

It is true that there is a divergence of opinion between Tamil Nadu and Karnataka on the proposed mechanism and its composition. While Tamil Nadu wants the ‘scheme’ envisaged by the court to mean nothing other than the Cauvery Management Board and the Cauvery Water Regulation Committee, mentioned in the Tribunal’s final award, Karnataka says there is no reference to a ‘board’ in the apex court’s order, and that the Centre could frame a scheme different from that described by the Tribunal. It contends that the apex court envisaged a ‘dispute resolution body’, and not the ‘management board’ favoured by the Tribunal. Against this backdrop, the Centre could have exercised discretion and come up with a scheme that would include an inter-State body to oversee the water-sharing. At the latest hearing, the Chief Justice of India, Dipak Misra, observed that the term ‘scheme’ mentioned in the judgment did not refer to only a ‘board’. He also assured Tamil Nadu that the court would ensure that it was not deprived of its share of Cauvery water. It is an indication that it is not the nomenclature but the nature of the relief that matters. It will be wise for all parties to remember that disputes are better resolved on the basis of equity and not prolonged on expedient considerations. The Centre’s actions should not amount to undermining the finality of the highest court’s judgment, and should be unwaveringly in aid of its implementation.


The Indian Express

Limits of Violence
The killing of 13 militants in Kashmir on Sunday in three operations has shown that the Jammu & Kashmir police and military are receiving top-notch real-time intelligence about militants. In terms of policing, this is no small achievement. An army official described it as “a special day for counter-terrorism operations in Kashmir”. But there can be no satisfaction or gloating over the killings themselves. “Black Sunday” is how Kashmiris are describing the day.

All 13 men were Kashmiri youth, 12 of them from different villages in Shopian, and the violent end they met is a grim reminder that the situation in the Valley needs urgent healing. Over the last few months, there have been no dearth of pronouncements that the situation in the Valley has improved considerably since 2016, and pats on the back of the security forces for eliminating more than 200 militants and their commanders in the last year.

What those pronouncements do not say is roughly the same number of Kashmiri youth have taken up arms in the same period. It has to be the country’s collective failure that some of its citizens have decided to take recourse to this option. For the last few years, the Centre has seemed to believe that it can turn around the situation in the Valley by the use of force alone. But each Kashmiri killed at the hands of security forces is an addition to the layers of alienation in the Valley, and increases the risk of further radicalisation.
A breakthrough in Kashmir will come not from a body count, but through dialogue. Whether that is with Kashmiris or Pakistan, this is the truth the Centre has to face up to. An assertion that Kashmir is an internal issue, and the only matter to settle with Pakistan is the LoC, and then, in the same breath, to declare there is nothing to talk about with Kashmiris is both disingenuous and dishonest. At the moment, the Hurriyat leadership still seems to hold some influence in the Valley, and a declared willingness to engage with them would be a beginning, and put the ball in their court.

It is unfortunate that the same army official who spoke of the specialness of Sunday also declared that the security forces had “avenged” the killing of the Kashmiri officer, Lieutenant Ummer Fayaz last year, as the two militants who killed him had been eliminated in the operation. The democratic state’s claim to a monopoly on violence is based on its legitimacy. It wields this violence only in protection of the state and its people. Bringing in the idea of vengeance is to blur the lines between state and non-state actors, and a sure way to lose all legitimacy. After all, the reason that every Kashmiri militant also gives for picking up the gun is revenge.


 New Indian Express

Behind the clash between judiciary and executive 

 Whether a touch of existential wrangling between the judiciary and the executive is welcome or not, it is not a new phenomenon. During Indira Gandhi’s regime too, a single party with a majority and strong, popular leader attempted to turn things to its advantage. Democracy thrives on the three organs of the state, the executive, the legislature and the judiciary, being independent of each other, and not necessarily on their interdependence. The state, as the biggest litigant, has an axe to grind; also, the highest judiciary is expected to scrutinise laws passed by the legislature, making a distinction between a bad or good law as judged against the provisions of the Constitution and the citizen’s rights.

What should be causing palpable worry is the underlying text of the ongoing tussle between the executive and judiciary that has left the highest judiciary deeply divided. It was an unprecedented situation where senior judges had to address a press conference against the ‘master of the roster’, the Chief Justice of India. The extent of the Centre’s ‘interference’ in judicial administration was still a matter of conjecture. Not anymore, not after the second highest judge of the apex court, Justice Chelameswar, put it in black-and-white in his recent letter to the CJI Dipak Misra and other judges, calling for an open court.

The executive which has been accused of ‘sitting’ on judges’ appointments (we have seen a former CJI reduced to tears before the PM) despite the huge vacancies and backlog of cases, wrote directly to the Karnataka High Court to check the antecedents of a district judge whose elevation to the HC was recommended by the SC collegium. It took a strong letter from Justice Chelameswar, forwarded to the chief justice of Karnataka HC by the CJI, to stop the ‘blatantly inappropriate’ and ‘uncalled for’ probe into a settled matter. There’s no word on the open court as yet, though there’s a precedent. What is unprecedented, however, is the time we live in, with even the word ‘impeachment’ of CJI popping up in the corridors of Parliament.


The Telegraph
Bleak Picture
Children ‘ s Day might be celebrated with great fanfare every November, but that does little to mask the actual plight of India ‘ s youngest citizens. A look at the latest report of the National Crime Records Bureau throws up dismal figures regarding crimes against children in India, with West Bengal ‘ s rate of such offences being the fifth- highest in the nation.
The state recorded 7,004 crimes against children in 2016; out of these, 4,178 were related to kidnapping and human trafficking. Bengal is still far behind Uttar Pradesh, Maharashtra and Madhya Pradesh — which bear the dubious distinction of being the three states with the highest rates of violence against children — but its numbers are worrisome on two counts. First, they mark an upward trend from the past. Second, they point to the complicity and collective silence of a society that allows such cruelty to be a big part of the daily lives of children. In other words, by the standards of Indian society, the use of force against children is not only commonplace, but is largely considered legitimate. A study conducted by the Union women and child development ministry had found that more than 68 per cent of Indian children experience the kind of physical violence in their schools, homes and even workplaces — where they ought not to be anyway — that in police custody would qualify as torture. It also revealed that over 53 per cent of children had been subjected to one or more forms of sexual abuse.
Apart from abject poverty — which renders children vulnerable to all kinds of abuse, including trafficking — there are other key factors contributing to the steadily growing rate of such offences.
One is the lack of a proper public debate on violent crimes against children. ( The existence of such a dialogue has played a role in curbing the problem to some extent in other countries.) The other is the absence of political will and robust police infrastructure to tackle such violence, in spite of the existence of laws against child abuse. These problems stem from the unwillingness of both the State and society to look upon children as citizens with rights. People who cannot vote — and, as such, cannot be treated as vote banks — are rarely given any importance by political parties or government institutions in India. In order to prevent crimes against children, a rigorous implementation of existing laws is required, as well as an end to the collective silence around — and tacit approval of — the violence they face every day.

The Times of India
New Digital Deal
Not so long ago, Silicon Valley corporations could do no wrong – Google, Facebook and their peers were seen as connecting the world, spreading freedom, ending repression. Their disruptions to traditional industries were seen as inevitable, and they could not be held to the old rules. But today Big Tech is facing a crisis of trust, as more people realise how opaque algorithms and big data can combine to control our lives in surreptitious ways. While these search engines, social networks, retail and streaming services may have eased our lives, their services come with strings attached – we are their product. These platforms shape what we see and we think.
Whether it is furtive and large-scale data extraction, bots manipulating the political discourse, or a self-driving car’s decision-making calculations going wrong, we are newly aware of the dark side of networked digital technologies. Artificial intelligence and machine learning are set to intensify these problems – human bias and error are often baked into code, which can have unpleasant effects.
We need a new deal, to regulate tech companies without cramping innovation. It is in this context that French president Emmanuel Macron outlined a nuanced vision where technology works for citizens, rather than the other way around. He spoke of tapping into AI, using its potential for healthcare, mobility, defence and so on, but also demanded algorithmic accountability, and a clearer bargain between tech service providers and citizens. We need to reset the terms, in the interests of users rather than tech platforms.
It can’t be denied that Europe has shown greater foresight in tech regulation than the US. While the US has left it to companies to publish long, technical privacy policies and just let users opt out, Europe requires much greater clarity, and gives users greater control over how their information is used. India, of course, has not even crafted a full data protection law yet, even as it encourages full-tilt digital innovation. The time has come for India to take more control of its digital infrastructure and ensure Indian tech companies have a level playing field, rather than leave it to monopoly foreign platforms. This might mean paying for some services, or relying on open-source models. It will definitely require regulators to step up, and ask technology companies to be more transparent about their code, their privacy practices as well as where they pay their taxes.