आज के हिंदी/अंग्रेजी अख़बारों के संपादकीय: 17 अप्रैल, 2018

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नवभारत टाइम्स

कोई भी दोषी नहीं

स्पेशल एनआईए कोर्ट ने सोमवार को मक्का मस्जिद ब्लास्ट मामले में सभी पांच आरोपियों को बरी कर दिया। 18 मई 2007 को हैदराबाद की इस प्रमुख मस्जिद में जुमे की नमाज के दौरान हुए विस्फोट में 9 लोग मारे गए थे और 58 घायल हुए थे। इसके कुछ ही देर बाद उग्र भीड़ को काबू करने की कोशिश में हुई पुलिस फायरिंग में पांच और लोगों की जान चली गई थी। इतने संवेदनशील मामले में सारे आरोपियों का ‘सबूत के अभाव में’ बरी हो जाना हमारी जांच एजेंसियों की क्षमता पर गंभीर सवाल खड़े करता है। यह अपनी तरह का अकेला मामला नहीं है। मालेगांव ब्लास्ट, समझौता एक्सप्रेस ब्लास्ट और मक्का मस्जिद ब्लास्ट- कुछ महीनों के अंतराल पर हुए ये तीन आतंकी हमले इस मायने में विशिष्ट थे कि तीनों में दक्षिणपंथी उग्रवादी संगठन अभिनव भारत का नाम सामने आया था। स्वाभाविक रूप से इन मामलों पर भारत ही नहीं, पूरी दुनिया की नजरें टिकी थीं। बावजूद इसके, इन तीनों मामलों में न केवल जांच की रफ्तार सुस्त रही बल्कि इसकी लाइन भी बदलती रही और जांच की एजेंसियां भी। मालेगांव ब्लास्ट में तो खुद सरकारी वकील एनआईए पर आरोपियों के खिलाफ जान-बूझकर ढीला रुख अपनाने का आरोप लगा चुकी हैं। बहरहाल, सारी आशंकाएं निर्मूल मान ली जातीं, बशर्ते मुकदमा अपनी तार्किक परिणति तक पहुंचता प्रतीत होता। मगर हम देख रहे हैं कि स्थानीय पुलिस, सीबीआई और एनआईए- इन तीनों एजेंसियों से गुजरते हुए 11 साल बाद मामला जब फैसले के मुकाम तक पहुंचा तो अदालत इसी नतीजे पर पहुंची कि उसे सबूत नहीं मुहैया कराए गए। यानी सीधा सवाल जांच एजेंसियों की गुणवत्ता पर है। क्या जांच के दौरान उन्हें एक बार भी ऐसा नहीं लगा कि जिन्हें उन्होंने पकड़ा है, उनके खिलाफ पर्याप्त सबूत नहीं हैं, लिहाजा उन्हें इस संभावना पर भी काम करना चाहिए कि कहीं वास्तविक अपराधी उनकी पहुंच से दूर न जा रहे हों/ अगर ऐसा था तो जांच की कोई और लाइन पकड़ने से उनको किसने रोका था/ दूसरी संभावना यह हो सकती है कि एजेंसियों ने वास्तविक अपराधियों को ही पकड़ा था, लेकिन उनके खिलाफ ठोस सबूत ढूंढना उनके अजेंडे पर ही नहीं आ पाया। अगर ऐसा है तो यह कहीं ज्यादा गंभीर मामला है और इसके नुकसान इस देश को बाद में भी उठाने पड़ेंगे। इतने सारे निर्दोष लोगों की हत्याओं की सजा किसी को भी न मिले, यह खुद में इतना बड़ा कलंक है, जिससे मुक्त होने में भारत को लंबा वक्त लगेगा। काफी समय से भारत को एक ‘सॉफ्ट स्टेट’ (कमजोर या पिलपिला राज्य) कहा जाता रहा है, जिसका अर्थ यह है कि संगठित अपराधों से सख्ती के साथ निपटने, दोषियों को अंजाम तक पहुंचाने की कोई परंपरा हमारे यहां नहीं बन पाई है। अफसोस कि इन तीनों हृदयविदारक घटनाओं में हमारी जांच एजेंसियों की नाकामी हमारी इस तकलीफदेह छवि को और मजबूत बनाएगी।


जनसत्ता

सलीका और सवाल

भारत और पाकिस्तान के रिश्ते दशकों से उतार-चढ़ाव भरे रहे हैं। पर दो देशों के बीच कितना भी तनावपूर्ण दौर क्यों न हो, राजनयिक शिष्टता का हमेशा पालन किया जाता है, किया जाना चाहिए। इसलिए पिछले हफ्ते पाकिस्तान ने जो किया वह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है। गौरतलब है कि पाकिस्तान ने भारतीय उच्चायुक्त को वहां तीर्थयात्रा पर गए सिख श्रद्धालुओं से मिलने नहीं दिया। भारत से अठारह सौ श्रद्धालुओं का समूह तीर्थाटन सुगमता संधि के तहत बैसाखी पर्व पर गुरद्वारा पंजा साहिब और ननकाना साहिब की यात्रा पर गया था। लेकिन पाकिस्तान ने भारतीय उच्चायुक्त को न तो गुरद्वारे जाकर उनसे मिलने दिया न वाघा सीमा पर। इस पर भारत सरकार ने उचित ही सख्त एतराज जताया है और पाकिस्तान के इस कदम को कूटनीतिक बेअदबी और विएना संधि का उल्लंघन करार दिया है। पाकिस्तानी अधिकारियों ने भारतीय उच्चायुक्त को बीच रास्ते से ही लौटने के लिए बाध्य कर दिया। जबकि यह एक सामान्य प्रक्रिया है कि भारतीय राजनयिकों को भारत से आने वाले तीर्थयात्रियों के तीर्थस्थल पर जाने और उनसे संपर्क की छूट होती है। ऐसी छूट का मकसद किसी आपातस्थिति, खासकर स्वास्थ्य संबंधी मुश्किलों के मद्देनजर एक-दूसरे की मदद करना है।

भारतीय उच्चायुक्त को भारत से गए तीर्थयात्रियों से मुलाकात न करने देने के पीछे पाकिस्तान ने सुरक्षा संबंधी तर्क दिया है, जो गले नहीं उतरता। अपने देश से आए तीर्थयात्रियों से उच्चायुक्त के मिलने में सुरक्षा संबंधी क्या समस्या हो सकती थी! और अगर पाकिस्तान सरकार के पास सुरक्षा के लिए खतरे संबंधी कोई खुफिया सूचना थी, या कोई अंदेशा था, तो उससे निपटने और सुरक्षा मुहैया कराने की जिम्मेदारी किसकी थी? जाहिर है, पाकिस्तान सरकार की ही! अगर वह भारत के प्रधानमंत्री के अचानक पहुंच जाने पर सुरक्षा संबंधी कोई समस्या नहीं आने दे सकती, तो सिख तीर्थयात्रियों से भारतीय उच्चायुक्त की सुरक्षित मुलाकात का इंतजाम क्यों नहीं कर सकती थी? पाकिस्तान का यह व्यवहार विएना संधि, 1961 और तीर्थयात्रियों की बाबत तय किए द्विपक्षीय प्रोटोकॉल का उल्लंघन तो है ही, हाल में दोनों देशों के बीच बनी सहमति पर पानी फेरना भी है। कोई पखवाड़े भर पहले भारत और पाकिस्तान राजनयिकों के साथ व्यवहार से संबंधित मसलों का समाधान करने को राजी हुए थे। उस रजामंदी का क्या हुआ? पाकिस्तान में भारतीय राजनयिकों के साथ बदसलूकी का यह कोई पहला या अकेला मामला नहीं है। आक्रामक निगरानी रखे जाने और खतरनाक ढंग से पीछा किए जाने की शिकायत भारत के राजनयिकों ने कई बार की है। पर यह सिलसिला बंद नहीं हुआ है।

ज्यादा वक्त नहीं हुआ, जब इस्लामाबाद में भारतीय राजनयिकों के आवासीय परिसर पर पाक एजेंसियों ने छापा मारा था। इस पर भारतीय उच्चायुक्त ने पाकिस्तान के विदेश सचिव से मुलाकात कर विरोध जताया था। भारत और पाकिस्तान के बीच तनाव का खमियाजा उन लोगों को भी भुगतना पड़ता है जो जाने-अनजाने सीमा पार कर जाते हैं। उन्हें न कानूनी मदद मिल पाती है न उन तक राजनयिक पहुंच होने दी जाती है। कई बार खुद उनके देश के दूतावास ही उनकी सुध नहीं लेते। उनके परिजनों को पता नहीं चलता कि वे कहां और किस हाल में हैं। वे पराए देश की जेल में सड़ते रहते हैं। जब कोई संबंध सुधार की कोई पहल होती है, तो सौहार्द का कूटनीतिक इजहार करने के लिए उनमें से कुछ को रिहा कर दिया जाता है। लेकिन आपसी संबंधों में कितना भी उतार-चढ़ाव क्यों न हो, मानवाधिकारों का और राजनयिक शिष्टता का लिहाज किया ही जाना चाहिए।


 हिंदुस्तान

ग्यारह साल बाद

हम अपनी अदालतों, न्याय प्रणाली और जांच एजेंसियों से यही उम्मीद करते हैं कि जब कोई मामला उनके पास पहंुचेगा, तो वह सुलझेगा। वहां दूध का दूध और पानी का पानी हो जाएगा। लेकिन दुर्भाग्य से कई जटिल मामले वहां सुझलने की बजाय और उलझ जाते हैं। यह समस्या तब और बड़ी हो जाती है, जब ये मामले आतंकवादी वारदात के हों। हैदराबाद की ऐतिहासिक मक्का मस्जिद में हुए विस्फोट का मामला 11 साल बाद एक ऐसे ही मोड़ पर आकर खड़ा हो गया है। विशेष अदालत ने इस मामले के सभी आरोपियों को बरी कर दिया है। अदालत का कहना है कि राष्ट्रीय जांच एजेंसी यानी एनआईए इन आरोपियों के खिलाफ पर्याप्त सुबूत देने में नाकाम रही है। 18 मई, 2007 को हुए इस विस्फोट में नौ लोग मारे गए थे और 58 घायल हुए थे। और अब 11 साल चली पूरी जांच कार्रवाई और अदालती कार्यवाही के बाद हम यह नहीं जानते कि दोषी कौन था? जब यह मामला एनआईए को सौंपा गया था, तब इसे लेकर हमने तरह-तरह की डींगें सुनी थीं। हर रोज हमें कहानियां सुनने को मिली थीं कि जांच एजेंसी ने किस तरह इस मामले को सुलझा लिया है। लेकिन अब पता चला है कि एनआईए द्वारा जुटाए गए सुबूत अदालत में ठहर ही नहीं सके। अब जो फैसला आया है, उसे राजनीतिक नजरिये से भी देखा जाएगा और यह आरोप भी आएगा कि सीबीआई की तरह एनआईए भी ‘पिंजरे का तोता’ है। अगर राजनीति के नजरिये से न देखें, तो इसमें एनआईए की अकुशलता भी दिखती है और असफलता भी।

मक्का मस्जिद बम कांड देश में हुई कुछ उन आतंकवादी वारदात में था, जिन्हें ‘भगवा आतंकवाद’ कहकर प्रचारित किया गया था। अजमेर की दरगाह में हुआ विस्फोट, मालेगांव बम विस्फोट और समझौता एक्सप्रेस में हुआ विस्फोट कुछ ऐसे ही मामले थे। इन सभी आतंकी वारदात में बात सिर्फ राजनीतिक प्रचार की नहीं है, जांच की दिशा और आरोपियों के खिलाफ सुबूत जुटाने का काम भी इसी सोच के साथ हुआ था। अजमेर विस्फोट में भी अदालत ने कई आरोपियों बरी कर दिया था। इनमें वह स्वामी असीमानंद भी थे, जिन्हें विशेष अदालत ने सोमवार को मक्का मस्जिद विस्फोट मामले में भी बरी कर दिया है। हालांकि अजमेर दरगाह मामले में अदालत ने तीन आरोपियों को सजा सुनाई थी, जिनमें से एक सुनील जोशी का पहले ही निधन हो चुका था। लेकिन मक्का मस्जिद मामले में किसी भी आरोपी के खिलाफ एनआईए के आरोप ठहर नहीं सके। यह दुखद इसलिए है कि एनआईए के रूप में देश ने एक ऐसी जांच एजेंसी की कल्पना की थी, जो आतंकवाद के मामलों को देखने वाली अतिकुशल एजेंसी होगी, और सबसे बड़ी बात है कि वह किसी भी तरह की राजनीति से ऊपर होगी। एनआईए इन दोनों ही कसौटियों पर खरी उतरती नहीं दिख रही।

मुमकिन है कि जिन आरोपियों को अदालत ने बरी किया, वे सचमुच में गुनहगार न हों और किसी अन्य वजह से आरोपों में घिर गए हों। किसी अदालत से जब भी ऐसा फैसला आता है, तो यह सवाल हमेशा खड़ा होता है कि उस लंबे कालखंड का क्या होगा, जो उन्होंने जेल में या आरोपों की बदनामी झेलते हुए बिताए? क्या यह हो सकता है कि ऐसे फैसले के साथ ही अदालत उनके लिए क्षतिपूर्ति की भी घोषणा कर दे? अच्छा हो कि यह क्षतिपूर्ति जांच एजेंसी की जेब से ही हो।


दैनिक भास्कर

मक्का मस्जिद विस्फोट के फैसले का दूरगामी असर

हैदराबाद की मक्का मस्जिद में 18 मई 2007 को हुए पाइप बम विस्फोट के फैसले में सभी आरोपियों के बरी होने का दूरगामी असर होगा और उम्मीद है कि उन सभी मुकदमों के आरोपी बरी होंगे जिनमें ‘भगवा आतंकवाद’ का राजनीतिक कोण होने का संदेह व्यक्त किया गया था। इस मामले में स्वामी असीमानंद समेत सभी दस (एक मृत) आरोपियों के बरी होने के बाद पुलिस, केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (सीबीआई), एंटी टेररिस्ट स्क्वाड (एटीएस) और नेशनल इन्वेस्टीगेशन एजेंसी (एनआईए) समेत हमारी न्याय प्रणाली पर या तो बहुत विश्वास बढ़ेगा या उन पर गहरा अविश्वास पैदा होगा। निश्चित तौर पर इस फैसले पर अभी विधिशास्त्र के लिहाज से कुछ भी कहने में जल्दबाजी होगी लेकिन, जब भी विधिशास्त्र इस पर गंभीरता से विचार करेगा तो बहुत कुछ रोचक और सैद्धांतिक विमर्श निकलेगा। इस फैसले को सकारात्मक रूप में लिया जाए या नकारात्मक रूप में यह तब तक स्पष्ट नहीं होगा जब तक मक्का मस्जिद विस्फोट के बारे में सारे तथ्य सामने नहीं आ जाते। मक्का मस्जिद के विस्फोट के मामले में हमारी जांच एजेंसियां यूपीए सरकार के कार्यकाल में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से निकले अभिनव भारत जैसे संगठन पर संदेह कर रही थीं। वे ही एजेंसियां एनडीए का शासन आते ही उसमें सिमी, लश्कर-ए-तय्यबा, हरकत अल जिहाद अल इस्लामी जैसे विदेशी आतंकी गुटों का हाथ देखने लगीं। यूपीए सरकार के गृहमंत्री पी चिदंबरम ने अगस्त 2010 में राज्य पुलिस के प्रमुखों के सम्मेलन को संबोधित करते हुए कहा था कि उन्हें सिर्फ ‘इस्लामी आतंकवाद’ पर ही नहीं ध्यान देना चाहिए बल्कि ‘भगवा आतंकवाद’ पर भी संदेह करना चाहिए। हिंदू संगठनों का आरोप था कि यह पाकिस्तान को फायदा पहुंचाने वाला सिद्धांत है और अपने ही सेना, पुलिस और अन्य जिम्मेदार विभागों के अधिकारियों पर संदेह करता है। अब मक्का मस्जिद के फैसले की रोशनी में देखें तो लगता है कि कांग्रेस का वह सिद्धांत झूठा था और ऐसे सभी मामलों में आरोपियों को बरी होने से कोई रोक नहीं सकता। लेकिन अगर तमाम गतिविधियों के लिहाज से देखें तो लगता है कि राजनीतिक बहसों में कानून और न्याय का सच कहीं दब कर रह गया है।


राजस्थान पत्रिका

विश्व पर युद्ध का साया

अमरीका, ब्रिटेन और फ्रांस का सीरिया पर हुआ मिसाइल  हमला दुनिया के लिए बड़े खतरे की घंटी है। हमले केविरोध में रूस का खुलकर सीरिया के समर्थन में उठ खड़ा होना उससे भी बड़े खतरे की तरफ संकेत करता है। सीरिया की घटना ने विश्व को सीधे-सीधे दो खेमों में बांट दिया है। एक खेमा अमरीका के साथ नजर आ रहा है और दूसरा उसके खिलाफ। दुनिया की यही खेमेबंदी से तीसरे विश्वयुद्ध की तरफ धकेलती नजर आ रही है। सीरिया के भीतर चल रह्न गृहयुद्ध 70 साल बाद एक बार फिर दुनिया को तबाही के कगार पर पहुंचाता नजर आ रहा है। रूस ने अपने नागरिकों को युद्ध के लिए तैयार रहने की चेतावनी जारी कर अपने इरादे साफ कर दिए हैं। दूसरी तरफ अमरीका सीरिया पर फिर ऐसे हमलों की संभावना जताकर महासंग्राम का खाका तैयार कर रहा है।

विश्वयुद्ध की आशंका पर हर किसी का चिंतित होना स्वाभाविक है। भारत जैसे देश के लिए विशेष रूप से। रूस ने भारत का दशकों तक साथ निभाया है। तो ह्मल के दिनों में अमरीका भारत का नया मित्र बनकर उभरा है। भारत की विदेश नीति को ध्यान में रखा जाए तो इसके तटस्थ रहने के प्रबल आसार हैं। लेकिन बड़ा सवाल ये कि क्या आग की लपटों से बचना इतना आसान होगा। भारत भले किसी पाले में खड़ा नजर नहीं आए लेकिन क्या हमारे पड़ोसी चीन और पाकिस्तान ऐसा होने देंगे। चीन और पाकिस्तान का अमरीकी विरोध किसी से छिपा नहीं। युद्ध की आशंका के बीच सबसे बड़ी चिंता मध्यस्थ देशों की कमी के रूप में नजर आती हैं। ऐसा कोई देश नहीं जो इन दो महाशक्तियों को समझाने में कामयाब हो पाए। इस दौर में संयुक्त राष्ट्र भी कुछ कर पाएगा, उम्मीद कम ही नजर आती है। पिछले लम्बे समय से सीरिया गृह युद्ध की आग में झुलस रहा है। सीरिया में सरकार समर्थक और विरोधी खून की होली खेल रहे हैं। लेकिन संयुक्त राष्ट्र इसमें अपनी भूमिका निभाता कभी नजर नहीं आया। विश्वयुद्ध की सूरत बनी तो भी संयुक्त राष्ट्र इसे रोक पाएगा, कहना मुश्किल है। अमरीका

और रूस की धमकियों के बीच तनाव बढ़ना तय है। पहले दो विश्वयुद्धों की त्रासदी दुनिया आज तक नहीं भूली है। चिता यह है कि आज के दौर में युद्ध हुआ तो कितने हिरोशिमा और नागासाकी तबाह होंगे। जो जख्म लगेगे उन्हें भरने में कितने दशक लगेगे।


दैनिक जागरण

गुनहगार कौन

हैदराबाद की मक्का मस्जिद में विस्फोट मामले में राष्ट्रीय जांच एजेंसी यानी एनआइए की अदालत की ओर से सभी पांच आरोपितों को बरी किए जाने के बाद यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि आखिर इस मस्जिद में विस्फोट किसने किया? चूंकि अदालत ने यह पाया कि अभियोजन पक्ष आरोप साबित करने में नाकाम रहा इसलिए ऐसे सवाल भी उठेंगे कि क्या एनआइए ने अपना काम सही ढंग से नहीं किया? ऐसे सवालों के बीच इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि 11 वर्ष पुराने इस मामले की जांच में प्रारंभ में स्थानीय पुलिस ने हरकतुल जिहाद नामक आतंकी संगठन को विस्फोट के लिए जिम्मेदार माना और कुछ लोगों को गिरफ्तार भी किया, लेकिन इसके बाद जब मामला सीबीआइ के पास आया तो उसने हंिदूू संगठनों के कुछ सदस्यों को अपनी गिरफ्त में लिया। इसी के साथ तत्कालीन सरकार की ओर से भगवा और हंिदूू आतंकवाद का जुमला उछाल दिया गया। आज भले ही विपक्ष में बैठी कांग्रेस इससे इन्कार कर रही हो कि उसका इस जुमले से कोई लेना-देना नहीं, लेकिन सच यही है कि उसके नेताओं ने ही इस जुमले को उछाला था। क्या यह महज एक दुर्योग है कि आतंक के जिन मामलों और खासकर मालेगांव और अजमेर शरीफ दरगाह में विस्फोट को हंिदूू आंतकवाद के उभार के तौर पर प्रचारित किया गया उनमें आरोपितों के खिलाफ लगे आरोप साबित नहीं हो सके? पहले मालेगांव एवं अजमेर मामले और अब मक्का मस्जिद मामले में आरोपित जिस तरह बरी हो गए उससे तो यही लगता है कि हंिदूू आतंकवाद के जुमले को राजनीतिक फायदे के लिए गढ़ा गया और इस क्रम में जांच एजेंसियों का मनमाना इस्तेमाल भी किया गया। इस पर हैरत नहीं कि एनआइए अदालत के फैसले के बाद भाजपा भगवा आतंकवाद के जुमले को लेकर कांग्रेस पर हमलावर है तो कांग्रेसी नेता इस जांच एजेंसी पर सवाल उठा रहे हैं, लेकिन तथ्य यह है कि आतंकवाद के मामलों में आरोपितों को सजा दिलाने के मामले में जांच एजेंसियों को पहले भी नाकामी मिली है। जर्मन बेकरी और साबरमती एक्सप्रेस में विस्फोट के आरोपित बरी हो चुके हैं। विडंबना यह है कि राजनीतिक दल ऐसे मामलों में अदालती फैसले की अलग-अलग तरह से व्याख्या करते हैं। कभी वे कहते हैं कि आखिरकार गलत तरीके से फंसाए गए लोगों को न्याय मिला और कभी वे सरकार एवं जांच एजेंसियों की नीयत पर सवाल उठाते हैं। बेहतर हो कि वे अपनी सुविधा अनुसार अदालती फैसलों की व्याख्या करना बंद करें और यह देखें कि जांच एजेंसियां और अधिक सक्षम कैसे बनें? यह ठीक नहीं कि अपने देश में आतंकी घटनाओं के आरोपितों का सूबूतों के अभाव में बरी होने का सिलसिला कायम है। इस सिलसिले पर लगाम लगाने की जरूरत है, क्योंकि आतंकी घटनाओं में जान-माल का नुकसान काल्पनिक नहीं होता। यह एक तथ्य है कि मक्का मस्जिद विस्फोट में नौ लोगों की मौत हुई थी? क्या इनके परिजनों को न्याय मिलेगा? यह कहना कठिन है कि एनआइए के हाईकोर्ट जाने पर उसे क्या हासिल होता है, लेकिन यह ठीक नहीं कि आतंकी घटनाओं के मामले में न्याय कम और आरोप-प्रत्यारोप की राजनीति अधिक देखने को मिले।


प्रभात खबर

दौरे से उम्मीदें

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के स्वीडन और ब्रिटेन के दौरे की उपलब्धियों के बारे में काफी हद तक निश्चिंत हुआ जा सकता है, क्योंकि दोनों देश इस यात्रा को विशेष महत्व दे रहे हैं. वर्ष 1988 में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी के स्वीडन दौरे के तीन दशक बाद जब भारतीय प्रधानमंत्री वहां हैं, तो दुनिया में भारतीय अर्थव्यवस्था की धमक है और निवेश के नये अवसर पैदा हुए हैं. एक वजह यह भी है, जो स्वीडन ने नार्डिक देशों (डेनमार्क, फिनलैंड, आइसलैंड, नार्वे और स्वीडन) का पहला सम्मेलन भारत के साथ मिलकर आयोजित करने का फैसला किया है.

नार्डिक देशों में मुक्त व्यापार, बाजार और निजी मिल्कियत को बहुत महत्व दिया जाता है, लेकिन इसमें श्रम बाजार के नुमाइंदे सरकार की मध्यस्थता में काॅरपोरेट जगत से सेवा और भुगतान की शर्तें तय करते हैं. इन देशों ने नागरिकों के लिए सामाजिक कल्याण की बेहतर स्थितियां सुनिश्चित की हैं और टैक्स वसूली का अनुकरणीय मॉडल तैयार किया है.

ये बातें प्रधानमंत्री के ‘सबका साथ-सबका विकास’ वाले सोच के बहुत करीब हैं और उम्मीद की जा सकती है कि भारत-नार्डिक सम्मेलन से सामाजिक कल्याण की नीतियों के बारे में एक-दूसरे से सीखने की नयी राहें खुलेंगी. प्रधानमंत्री मोदी का जोर इस दौरे में विज्ञान, प्रौद्योगिकी और द्विपक्षीय व्यापार पर होगा और इस लिहाज से देखें, तो नार्डिक देशों में अपनाया गया साफ-सफाई का ढांचा ‘स्वच्छ भारत मिशन’ के लिए बहुत उपयोगी साबित हो सकता है.

स्वीडन में 20 हजार की तादाद में आप्रवासी भारतीय हैं. इनके सहारे स्वीडन से व्यापारिक रिश्तों की बढ़वार की उम्मीद बांधी जा सकती है. साल 2000 से अब तक स्वीडिश कंपनियों ने भारत में 1.4 अरब डॉलर का निवेश किया है. उम्मीद की जा सकती है कि स्वीडिश कंपनियों के प्रमुखों से प्रधानमंत्री की मुलाकात से इस निवेश में आगे तेजी आयेगी. ब्रिटेन में भी प्रधानमंत्री मोदी के दौरे को विशेष महत्व दिया जा रहा है.

इसका एक प्रमाण तो यही है कि राष्ट्रमंडल देशों की बैठक में शिरकत करने से पहले ब्रिटेन की प्रधानमंत्री थेरेसा मे से प्रधानमंत्री मोदी की दो दफे मुलाकात होगी. द्विपक्षीय बातचीत का यह अवसर सिर्फ भारतीय नेता को हासिल है, राष्ट्रकुल देशों की बैठक में शिरकत कर रहे अन्य नेताओं को नहीं. मोदी महारानी एलिजाबेथ से भी भेंट करेंगे. भारत और ब्रिटेन का आपसी व्यापार 13 अरब डॉलर का है और समूह-20 के देशों में ब्रिटेन भारत में सबसे बड़ा निवेशक है.

चूंकि प्रधानमंत्री मोदी का खास जोर इस दौरे में विज्ञान और प्रौद्योगिकी पर है, सो उम्मीद की जा सकती है कि इस यात्रा से टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में भारत-ब्रिटेन सहयोग का एक नया अध्याय खुलेगा. अलगाववाद, सीमा-पार से घुसपैठ, अवैध आप्रवासियों के प्रत्यर्पण तथा भारतीयों के लिए ब्रिटिश वीजा नीति जैसे आपसी हित के मसलों पर भी दोनों देशों के बीच नये सिरे से सहमति बनने के आसार हैं.


देशबन्धु

यह आने वाले खतरे का संकेत है

अगले कुछ महीनों में अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण को लेकर कोई बड़ा उलट-फेर होने का अंदेशा है। कम से कम आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत और विहिप के नए अंतरराष्ट्रीय अध्यक्ष पूर्व जस्टिस विष्णु सदाशिव कोकजे और नए अंतरराष्ट्रीय कार्यकारी अध्यक्ष आलोककुमार के ताजा बयानों से तो यही संकेत मिलते हैं। इन तीनों ने एक-दो दिन के भीतर मंदिर निर्माण पर अलग-अलग बयान दिए, जिसमें मूल बात एक जैसी ही थी कि राम मंदिर अयोध्या में बनकर रहेगा, चाहे अदालत के आदेश का जो हो। गौरतलब है कि अयोध्या विवाद इस वक्त सुप्रीम कोर्ट में है। जीने की कला सिखाने वाले रविशंकर सरीखे कुछ लोग सभी पक्षों में बाहरी समझौते की कोशिश में भी लगे हैं। लेकिन इसे समझौते की जगह दबाव कहना उचित होगा, क्योंकि उनकी असल नीयत यही है कि मुस्लिम मस्जिद की जगह को स्वेच्छा से मंदिर निर्माण के लिए दे दें। केेंद्र और उत्तरप्रदेश दोनों जगह की सत्ता पर बैठी भाजपा की राजनीति तो मंदिर निर्माण से ही शुरु हुई है।

2014 के चुनाव में भी भाजपा ने हिंदू बहुसंख्यकों से वादा किया था किवे मंदिर वहीं बनाएंगे। इस बीच सत्ता चलाने के लिए इस मुद्दे को थोड़ा दबाना पड़ा, तो भाजपा ने मजबूरी में दबाया भी, लेकिन इस एजेंडे को उसने कभी छोड़ा नहीं है। इसलिए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी दशहरे पर उत्तरप्रदेश जाकर जयश्रीराम कहते हैं और मुख्यमंत्री आदित्यनाथ योगी अयोध्या में दीपावली मनाते हैं। अब 2019 का चुनाव सामने है तो जाहिर है फिर से मंदिर निर्माण की सुगबुगाहट तेज होगी। लेकिन इस बार यह महज सुगबुगाहट नहीं बल्कि किसी निर्णायक स्थिति पर पहुंचने की उत्कंठा अधिक लग रही है।

विश्व हिंदू परिषद में 53 साल में पहली बार वोट डालकर चुनाव, नए पदाधिकारियों की नियुक्ति, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की रणनीति सब इसी ओर इशारा कर रही हैं। विहिप के पूर्व अंतरराष्ट्रीय कार्यकारी अध्यक्ष प्रवीण तोगड़िया और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के बीच की कड़वाहट खुलकर सामने आ चुकी है। पहले कभी ये दोनों एक ही पाले में हुआ करते थे, लेकिन नरेन्द्र मोदी का राजनीतिक कद बढ़ने के साथ-साथ प्रवीण तोगड़िया की उनसे शिकायतें भी बढ़ती गईं, जो अब एनकाउंटर की साजिश जैसे गंभीर आरोप तक पहुंच चुकी है। कुछ माह पहले प्रवीण तोगड़िया रहस्यमय ढंग से गायब हुए थे, फिर रहस्यमय तरीके से वापस भी आ गए और गुजरात व राजस्थान सरकार पर आरोप लगाया कि वे उन्हें मरवाना चाहते हैं। हाल ही में तोगड़िया ने प्रधानमंत्री को मंदिर निर्माण न करवाने पर आर-पार की लड़ाई की धमकी भी दी थी। विहिप के कार्यकारी अध्यक्ष का ऐसा विरोध सरकार की सेहत के लिए ठीक नहींं होता। लिहाजा चुनाव कराए गए और विष्णु सदाशिव कोकजे को विहिप की कमान दी गई। श्री कोकजे का कहना है कि संतों की अगुवाई में अयोध्या में राम मंदिर बनेगा। और ऐसा न्यायालय के आदेश या फिर संसद से कानून बनाकर किया जाएगा।

तोगड़िया की जगह पद संभालने वाले आलोक कुमार का भी यही कहना है कि अगर कोर्ट का फैसला पक्ष में नहीं आता है तो फिर संसद में कानून बनाकर राम मंदिर बनाया जाएगा। पेशे से वकील आलोक कुमार का कहना है कि सांस्कृतिक अयोध्या में मस्जिद नहीं बनेगी। वे उससे बाहर कहीं भी चाहे मस्जिद बना लें। यानी साफ है कि अदालत का आदेश किसी के भी पक्ष में आए, मंदिर निर्माण की मुहिम चलती रहेगी। इधर आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने विराट हिंदू सम्मेलन में मंदिर-मस्जिद विवाद पर एक नयी थ्योरी पेश की है कि मंदिर को भारत के मुस्लिम समुदाय ने नहीं बल्कि विदेशियों ने तोड़ा है। यह नया ज्ञान उन्हें कब और कहां मिला, इसका खुलासा अभी नहीं हुआ है। श्री भागवत ने आलोक कुमार की तरह मंदिर को संस्कृति से जोड़ते हुए कहा कि अगर अयोध्या में मंदिर निर्माण नहीं किया गया तो हमारी संस्कृति की जड़ें कट जाएंगी।

श्री भागवत से यह पूछा जा सकता है कि क्या भारत की संस्कृति सर्वधर्म समभाव की है या धर्म के नाम पर मार-काट मचाने की है। हम अब तक गंगा-जमुनी तहजीब की बात करते थे, यानी सब धर्मों में एकता की। तो क्या अब गाय-गंगा की नई तहजीब भारत में शुरु होगी, जिसमें बाकी धर्म के लोगों को डरकर, दबकर रहना होगा। ऊपर बताए गए तीनों बयानों पर फिलहाल कोईर् राजनीतिक टिप्पणी सामने नहीं आई है। सरकार भी इसे इन तथाकथित सांस्कृतिक, धार्मिक संगठनों की राय बता सकती है। लेकिन अगर समाज अब भी शुतुरमुर्ग की तरह रेत में सिर गड़ाए रखेगा तो धार्मिक उन्माद की आंधी सचमुच हमारी तहजीब, संस्कृति को नष्ट कर देगी।


The Times of India

Rush to Gold
India’s performance at the 2018 Commonwealth Games has been heartening as they finished with their third highest tally of 66 medals. This was underlined by India’s gold rush almost doubling from 15 medals in Glasgow four years ago to 26 medals at the Gold Coast this year. India finished third behind Australia and England who bagged 80 and 45 gold medals respectively. The silver lining for Indian sports has been the emergence of a new crop of athletes who can compete with the best in the business.

India’s challenge in shooting was led by new kids on the block like Manu Bhaker, Mehuli Ghosh and 15-year-old Anish Bhanwala who became the country’s youngest gold medallist in four decades in the men’s 25 metre rapid fire pistol event at the Games. The biggest surprise came from the 10-member Indian table tennis squad which won a total of eight medals including three golds. Manika Batra did superbly to win an individual and team gold to go with the women’s doubles silver and mixed doubles bronze.

Indian athletes have often been criticised for delivering their best performances at home but failing on the big stage, especially in track and field events. Thus, it was heartening to see 20-year-old Neeraj Chopra claiming a gold medal in javelin throw. Muhammad Anas lost a podium finish in the 400 metre run but broke the national record in the process. Jinson Johnson too broke a 23-year-old national record in the final of the 1,500 metre. Meanwhile, 35-year-old Mary Kom proved that she still has what it takes to be the best by winning gold in the 45-48 kg women’s boxing event.

India’s Achilles heel has been poor management of sports federations and lack of long-term support. This has resulted in most of our medals coming from individual events. But sustained sporting success requires institutional backing. The sports ministry must step in to provide world-class coaching and regular international exposure to our promising young athletes. Commonwealth Games may not be the acme of international sports. But India’s performance at Gold Coast gives enough reasons to believe that with the right inputs, our athletes can do wonders at the Asian Games later this year and at the 2020 Tokyo Olympics. Authorities must do all they can to help.


The Indian Express

Judges in Contempt
Pakistan Supreme Court’s ruling disqualifying Nawaz Sharif from contesting for any elected office for life smacks of judicial overreach and is a blow against that country’s democracy. It was hoped that after its trial by fire in 2007 as it faced down a military ruler, Pakistan’s higher judiciary knew better. Indeed, it was the former Chief Justice, Ifthikar Chaudhary, who was the star of the 2007 Judiciary vs Musharraf battle, who first laid down that a disqualification under the controversial Article 62 (1) (f) was for life. The present judgment was delivered on petitions seeking the court’s opinion on this question again, and was confirmed by a larger bench. Sharif was disqualified last year under this article, which holds that no person shall hold office unless s/he is “sagacious, righteous, non-profligate, honest and ameen, there being no declaration to the contrary by a court of law”. The subsection — none would meet its exacting demands — was inserted during Zia’s dictatorship. It was always clear that the ruling would hold consequences for Sharif, but the court’s reading of the article now makes every politician vulnerable, including Imran Khan, who may believe that he is months away from the prime ministership.

Lawyers for Sharif had argued for limiting subsection (f) with the same provisions available under subsection (g) of the same article, to a person convicted of “moral turpitude” — a term that could be held to cover all the alleged failings for which Sharif was ousted — and sentenced to a minimum of two years’ imprisonment, enabling such a person to contest elections five years after the sentence has ended. But the court rejected this, along with another argument that perpetual disqualification was against the fundamental right of association. Even without this ruling, it was unclear if Sharif could have participated in the elections in Pakistan due by July. The ruling takes away, too, the one Pakistani politician who is at the moment viewed as the best hope for India-Pakistan normalisation — unless, that is, his party wins the election with an overwhelming majority, changes the constitution, and brings about changes in the top judiciary with the aim of overturning last week’s ruling. It’s a tall order.

However, it is also clear that the former prime minister, who continues to face a trial in the National Accountability Court for alleged corruption charges arising from the revelations in the Panama Papers, is not about to walk away into the sunset. His party remains a formidable fighting force. Like leaders of all dynastic parties in South Asia, Sharif’s concern right now would be to ensure that his daughter, Maryam Nawaz, viewed as his political heir but who is also facing trial for the same charges, escapes with lighter or no punishment. His brother, Shehbaz Sharif, presently the chief minister of Punjab province, is also a candidate in the succession stakes, though with the judiciary holding the keys to political office, no one is safe. The message that goes out from the verdict is of a judicial-political imbalance in Pakistan as dangerous as its military-civilian one.


The New Indian Express

Fighting for Power in West Asia
Two wrongs do not a right make. There’s little doubt that Bashar al-Assad has used brute military force to hang onto power, treating his own people as pawns in the great game of West Asia. But what have the US President Donald Trump and his triumphal allies Britain and France achieved? They have pounded an already battered Syria yet again with more than 100 missiles. Without waiting for the Organisation for Prohibition of Chemical Weapons (OPCW) to begin their investigation in Douma, just 16 km from Damascus. Instead, Trump and his friends, true to their calling, depended only on Pentagon reports about Assad’s ‘chemical arsenal’.

There’s no two ways about it: Assad deserved to be punished if he had actually used dirty weapons against his own people. He has countered that it was not him, but the rebels. Without a probe by a UN-backed body, there’s no way to know the truth. And despite Trump’s brag talk, it’s admittedly a precision strike, no more. Assad is safe and sound as before, secure with his backing from Russia and Iran. In fact, he is in recovery mode. Does that mean all this was only shadow-boxing between the West and Russia taking the shape of a regional conflict, leaving much of West Asia in ruins?

Reports suggest the strike has improved the French premier’s ‘he-man’ rating! Well, Russia did move a UN resolution condemning the Syria strike, but it had few backers, except for China, from the big boys club. Syria has been smashed beyond recognition by the civil war, but it’s still a step away from utter chaos, at least in the areas controlled by Assad. Perhaps that’s why all players, including the Saudis, Israel and the Emirates, maintain a ‘this far and no further’ tone.

However, keeping Syria on the boil will not help anyone in the long run. A semblance of peace and coercive, intensive diplomacy may. A new political order, maybe a neutral hand like India, with no to axe to grind, can chip in. Believe it or not, Damascus may not mind Delhi.


The Telegraph

Fast One
Uniqueness is a gift: some have it, some do not. The prime minister of India, Narendra Modi, has it in full measure. He always stands out, and clearly never has any doubt that he deserves to. His latest unprecedented action was to go on a fast with the rest of the leaders in his party for one day in protest against the Congress’s disruption of Parliament. That was quite amazing. An Opposition going on a fast in symbolic protest – as Rahul Gandhi did against the atrocities on Dalits – is a conventional step. Whether or not such fasts lead to anything constructive, the Opposition traditionally has such a method of protest at hand. But a government fasting to protest against the Opposition would have been inconceivable before April 12. It is the government that runs Parliament. If the Opposition is making it impossible to conduct business there, it is up to the government to take steps. It either throws the culprits out – the Tamil Nadu legislators who refused to let Parliament function by agitating on the Cauvery issue appeared to have the government’s benign indulgence – or it coaxes, cajoles, or comes to an understanding with the Opposition so that work can be done. Is the Bharatiya Janata Party-led government so ineffectual that it does not know what to do with the Opposition’s opposition, or did it want the Parliament session to be disrupted? Had business been restored, the government would not have been able to duck the no-confidence motions that Opposition parties were asking for. So the prime minister’s fast was either a confession of ineffectiveness or a strategy designed to cover up the fact that it was the BJP, not the Congress, which actually wanted the session to fail.
Governments cover up a lot of things, and they constantly look to distract the people from their failures: there is nothing unique or new in that. What is novel is the the prime minister’s strategy. But even when projecting himself dramatically as the humble servant of the people, fasting in sorrow, he did not express regret at the failure of the last Parliament session, but stuck to blaming the Congress. This combination of high drama and aggressive petulance is also unique. Instead of distracting attention from the incidents of horror and inhumanity around the country, as the BJP might have hoped, the fast laid bare the party’s hypocrisy. So another unique moment was created: the BJP looked ridiculous.