आज के हिंदी/अंग्रेजी अखबारों के संपादकीय: 10 अप्रैल, 2018

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नवभारत टाइम्स

रिश्ते का नया रंग

नेपाल के प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली की भारत यात्रा से भारत-नेपाल संबंध को एक नया आयाम मिला है। प्रधानमंत्री बनने के बाद ओली ने अपनी पहली विदेश यात्रा के लिए भारत को चुना और भारत ने भी काफी गर्मजोशी के साथ उनका स्वागत किया। दोनों अतीत की कड़वाहट को भुलाकर एक नई शुरुआत करना चाहते हैं। इस तरह बराबरी और परस्पर विश्वास पर आधारित रिश्ते की शुरुआत हुई है। आज हमारे सामने एक नया नेपाल खड़ा है। इसका नेतृत्व वर्ग बदला हुआ है, जो पुराने नेताओं से अलग नजरिया रखता है। वह व्यावहारिक रवैया अपनाना चाहता है। वह किसी एक देश से विशिष्ट संबंध रखने के बजाय सभी पड़ोसियों और अन्य मुल्कों के साथ बराबरी का रिश्ता कायम करना चाहता है। चीन से बेहद निकटता के बावजूद ओली ने भारत के महत्व को कम करके नहीं देखा। उन्हें अहसास है कि भारत से बेहतर संबंध बनाए बगैर नेपाल में स्थायी शांति और आर्थिक विकास संभव नहीं है। उनका मानना है कि नेपाल के नव निर्माण के लिए चीन और भारत दोनों की जरूरत है। इसलिए वह एक संतुलन बनाकर रखना चाहते हैं। भारत ने भी नेपाल के प्रति अपना नजरिया बदलने की जरूरत महसूस की है। शायद इसीलिए ओली से मुलाकात के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि भारत की द्विपक्षीय सहायता अब काठमांडू की प्राथमिकता से तय होगी। जाहिर है, भारत सरकार नई वास्तविकता को स्वीकार कर रही है। दरअसल पिछले कुछ वर्षों में एक के एक ऐसी परिस्थितियां बनती गईं जिससे भारत-नेपाल के बीच कड़वाहट आई। मजबूरन नेपाल को चीन की तरफ झुकना पड़ा। चीन ने इसका फायदा उठाते हुए वहां तेजी से निवेश किया। यही तत्परता शुरू से भारत ने दिखाई होती तो चीन के पैर वहां कभी नहीं जमते। यह एक सचाई है कि नेपाल में भारत की मदद से शुरू की गई कई परियोजनाएं बेहद धीमी गति से चल रही हैं, कुछ तो दशकों से लंबित हैं। अपनी यात्रा में ओली ने इस ओर ध्यान खींचा। उनकी यात्रा के दौरान दोनों देश बिहार के रक्सौल से काठमांडू तक रेल लाइन बिछाने पर सहमत हुए हैं। आम लोगों के साथ-साथ माल ढुलाई के लिहाज से भी यह परियोजना काफी अहम मानी जा रही है। भारत नेपाल को अपने जल मार्गों के जरिए समुद्र तक पहुंचने का रास्ता देने पर भी सहमत हुआ है। भारत काठमांडू को कृषि में भी सहायता देने जा रहा है। भारत कृषि के विकास में अपने अनुभव और नई तकनीकों को साझा करेगा। यात्रा के दौरान प्रधानमंत्री ओली जीबी पंत कृषि विश्वविद्यालय भी गए और उन्होंने वहां कृषि क्षेत्र में हो रहे प्रयोगों का जायजा भी लिया। अगर नेपाल में चीन के प्रभाव को बढ़ने से रोकना है तो भारत को अपनी सभी परियोजनाएं तेजी से पूरी करनी होंगी। तभी वहां की जनता में भी भारत के प्रति विश्वास कायम होगा।


जनसत्ता

स्त्री का हक़

पारंपरिक नजरिया पुरुष को स्त्री के मालिक के रूप में ही देखने का रहा है। इसलिए आश्चर्य नहीं कि सारे अहम फैसलों में पुरुष की ही चलती रही है। हमारे समाज में यह कड़वा यथार्थ पति-पत्नी के संबंधों में आज भी बड़े पैमाने पर देखा जाता है। यह अलग बात है कि संविधान ने दोनों को बराबर के अधिकार दे रखे हैं। कानून के समक्ष समानता का सिद्धांत तो देश के सारे नागरिकों पर लागू होता है। लेकिन पुरुष के स्त्री के स्वामी होने की मानसिकता अब भी बहुतायत में देखी जाती है। पुरुष तो मालिक होने के अहं में डूबे ही रहते हैं, बहुत-सी स्त्रियां भी पति से अपने रिश्ते को इसी रूप में देखती हैं। लेकिन शिक्षा-दीक्षा की बदौलत स्त्री में जैसे-जैसे बराबरी के भाव का और अपने हकों को लेकर जागरूकता का प्रसार हो रहा है, वैसे-वैसे पुरुष वर्चस्ववाद को चुनौती मिलने का सिलसिला भी तेज हो रहा है। पति-पत्नी के संबंधों में केवल पति की मर्जी मायने नहीं रखती। इस नजरिए की पुष्टि सर्वोच्च अदालत के एक ताजा फैसले से भी हुई है। एक महिला की तरफ से अपने पति पर क्रूरता का आरोप लगाए हुए दायर आपराधिक मामले की सुनवाई के दौरान सर्वोच्च अदालत ने कहा कि पत्नी ‘चल संपत्ति’ या ‘वस्तु’ नहीं है, इसलिए पति की इच्छा भले साथ रहने की हो, पर वह इसके लिए पत्नी पर दबाव नहीं बना सकता।

गौरतलब है कि इस मामले में महिला का पति चाहता था कि वह उसके साथ रहे, पर वह खुद उसके साथ नहीं रहना चाहती थी। इससे पहले अदालत ने दोनों को समझौते से मामला निपटाने के लिए मध्यस्थता की खातिर भेजा था। लेकिन सुनवाई के दौरान दोनों पक्षों ने बताया कि उनके बीच समझौता नहीं हो पाया है। ऐसे में महिला को पति के साथ रहने के लिए अदालत कैसे कह सकती है? अदालत की टिप्पणी का निष्कर्ष साफ है, दांपत्य और साहचर्य दोनों तरफ की मर्जी पर आधारित है। जिस तरह केवल पति की मर्जी निर्णायक नहीं हो सकती, उसी तरह केवल पत्नी की मर्जी भी नहीं हो सकती। गौरतलब है कि सर्वोच्च अदालत ने अपने एक अन्य फैसले में कहा था कि वह पति को (जो कि पेशे से पायलट था) अपनी पत्नी को साथ रखने के लिए बाध्य नहीं कर सकता। अलबत्ता वैसी सूरत में अदालत ने पत्नी के लिए फौरन अंतरिम गुजारा भत्ता जमा करने का आदेश दिया था। ताजा मामले की परिणति भी तलाक में होनी है, क्योंकि महिला ने पति पर जुल्म ढाने का आरोप लगाते हुए संबंध विच्छेद की गुहार लगाई है।

जहां केवल पुरुष की मर्जी चलती हो, स्त्री की मर्जी कोई मायने न रखती हो, स्त्री वहां पुरुष की चल संपत्ति या वस्तु जैसी हो जाती है, जबकि हमारा संविधान हर नागरिक को, हर स्त्री और हर पुरुष को न सिर्फ जीने का बल्कि गरिमा के साथ जीने का अधिकार देता है। इसी तरह हमारे संविधान का अनुच्छेद 14 कानून के समक्ष समानता की गारंटी देता है। इन्हीं प्रावधानों का हवाला देते हुए मुंबई उच्च न्यायालय ने शनि शिंगणापुर और हाजी अली की दरगाह में महिलाओं के प्रवेश का रास्ता साफ किया था। और इन्हीं प्रावधानों की बिना पर सर्वोच्च अदालत ने पिछले साल तलाक-ए-बिद्दत को खारिज किया था, और पिछले महीने उसने बहुविवाह तथा निकाह हलाला की संवैधानिकता पर भी सुनवाई करने का अनुरोध स्वीकार कर लिया। उम्मीद की जानी चाहिए कि ये अदालती फैसले समता के संवैधानिक प्रावधानों को जीवंत बनाने तथा उनके अनुरूप समाज की मानसिकता गढ़ने में मददगार साबित होंगे।


हिंदुस्तान

विशेषज्ञ डाक्टरों की कमी

बेरोजगारी की चर्चा इन दिनों आम है। अक्सर यह कहा जाता है कि देश में जितने लोगों को डिग्री मिल रही है, उतने रोजगार के अवसर नहीं हैं। यह भी बताया जाता है कि इंजीनियर और डॉक्टर तक बेरोजगार हैं। यह बात काफी हद तक सही भी है, लेकिन पूरी तरह से सही नहीं है। बेशक, निचले स्तर पर रोजगार के अवसरों के यही हालात हैं, लेकिन जहां मामला विशेषज्ञता का आता है, तो निपुण लोगों का टोटा दिखाई देता है। चिकित्सा के पोस्ट गे्रजुएट कोर्स में सीटों के खाली रह जाने के जो आंकड़े आए हैं, वे चौंकाने वाले हैं। खबर में बताया गया है कि इस साल कार्डियक सर्जरी के लिए पोस्ट ग्रेजुएशन की 104 सीटें खाली रह गई हैं, इसी तरह कार्डियोलॉजी की भी 55 सीटें खाली रह गई हैं। इसी तरह, बच्चों की सर्जरी के कोर्स की 87 सीटें खाली रह गईं।

प्लास्टिक सर्जरी की 58 सीटों के लिए छात्र नहीं होंगे, न्यूरोलॉजी और न्यूरोसर्जरी की भी चार-चार दर्जन सीटें इस बार खाली रहेंगी। इन चिकित्सा विशेषज्ञताओं के लिए छात्र न मिलने के कारण दो हैं। एक तो यह कि इसके लिए होने वाली प्रवेश परीक्षा में योग्य लोग पर्याप्त संख्या में नहीं मिले और दूसरा यह कि पोस्ट ग्रेजुएट के लिए जो योग्य छात्र मिले भी, उन्होंने इन कोर्सेज में जाना पसंद ही नहीं किया। चिकित्सा विशेषज्ञ मानते हैं कि आज के छात्र उन कोर्सेज को नहीं अपनाना चाहते, जिनमें विशेषज्ञता हासिल करने में लंबा समय लगता है, इसकी बजाय वे ऐसे क्षेत्र को चुनना चाहते हैं, जहां जल्द ही वे विशेषज्ञता हासिल करके पैसा कमाने लगें। एक डॉक्टर के अनुसार, यूरोलॉजी का विशेषज्ञ 35 साल की उम्र तक पहुंचते-पहुंचते ऑपरेशन करने लगता है, जबकि कार्डियक सर्जन को यह मौका 45 साल की उम्र से पहले नहीं मिलता। जाहिर है कि दिल का मामला काफी नाजुक होता है और इसमें लंबे अनुभव का काफी महत्व है।

यह खबर परेशान करने वाली इसलिए भी है कि आज जिन विशेषज्ञताओं के लिए हमें छात्र नहीं मिल रहे, कल उन क्षेत्रों से जुड़ी समस्याओं के इलाज के लिए हमें योग्य डॉक्टर नहीं मिलेंगे। हालांकि इस मामले में एक राय यह भी है कि समस्या छात्रों की कमी की नहीं है, समस्या विशेषज्ञता के कोर्स की व्यवस्था में है। कहा जाता है कि मेडिकल पोस्ट गे्रजुएट कोर्स के लिए देश में मेरिट की जो पद्धति है, उसे बदले बिना विशेषज्ञ डॉक्टरों की संख्या को बढ़ाना संभव न होगा। ऐसा नहीं है कि लोग विशेषज्ञता हासिल नहीं करना चाहते, पर व्यवस्था ऐसी बन गई, जो ऐसी चाह रखने वाले कई योग्य लोगों को भी रोक लेती है।

यह खबर हमें एक और कारण से चौंकाती है। न जाने कब से हम यही पढ़ते आए हैं कि मरीजों की संख्या और उपलब्ध डॉक्टरों का जो अनुपात होना चाहिए, उसमें भारत में बहुत असमानता है, और इसे डॉक्टरों, अस्पतालों की संख्या बढ़ाकर ही दूर किया जा सकता है। ऐसे में, यह खबर डर पैदा करती है कि विशेषज्ञता हासिल करने वाले डॉक्टरों की संख्या भविष्य में कम हो जाएगी। यह भी सच है कि जितने लोग मेडिकल विशेषज्ञता हासिल करते हैं, वे सभी यहां नहीं रहते। उनमें से एक बड़ी संख्या विदेश चली जाती है। अक्सर कहा जाता है कि दुनिया के सभी बड़े अस्पतालों में भारतीय डॉक्टर होते हैं, जिनकी खासी प्रतिष्ठा भी होती है। जाहिर है, अगर हमें अपनी भावी पीढ़ी को एक स्वस्थ जीवन देना है, तो इस पूरी व्यवस्था को बदलना होगा।


अमर उजाला

हिंसा की राजनीति

सर्वोच्च न्यायालय ने पश्चिम बंगाल में प्रस्तावित पंचायत चुनावों में दखल देने से इन्कार किया है और कहा है कि राज्य के विपक्षी दल अपनी शिकायतों को लेकर राज्य निर्वाचन आयोग के पास जा सकते हैं। जाहिर है, शीर्ष अदालत की यह व्यवस्था राज्य में सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस के लिए कोई  प्रमाण पत्र नहीं है, जिस पर बलपूर्वक बड़े पैमाने पर विपक्षी दलों के उम्मीदवारों को नामांकन पत्र दाखिल करने से रोकने के आरोप हैं; बल्कि इससे सांविधानिक संस्थाओं की स्वायत्तता रेखांकित होती है। पश्चिम बंगाल में मई के पहले हफ्ते में पंचायत की 42 हजार सीटों के लिए त्रिस्तरीय चुनाव होने हैं, वाम दल, भाजपा और कांग्रेस पार्टी जैसे तमाम विपक्षी दलों ने तृणमूल कांग्रेस पर उनके उम्मीदवारों को आतंकित करने और धमकाने के आरोप लगाए हैं। इस राज्य में चुनावी और राजनीतिक टकराव और हिंसा का अतीत रहा है, जहां वाम दलों के लंबे शासन के बाद 2011 में ममता बनर्जी की अगुआई वाली तृणमूल कांग्रेस की सरकार बनने के बाद भी स्थिति में कोई बदलाव नहीं आया है। यहां सत्ता की मशीनरी विपक्षी दलों और विरोधियों के खिलाफ किस तरह काम करती है, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि बीरभूम जिले में नामांकन दाखिल करने को लेकर हुए टकराव और प्रदर्शन के बाद पुलिस ने 10,000 अज्ञात लोगों के खिलाफ एफआईआर दर्ज की है। चूंकि 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले राज्य में ये चुनाव राजनीतिक दलों के लिए अपनी ताकत दिखाने का आखिरी मौका है, लिहाजा कोई भी दल पीछे नहीं रहना चाहता। मई, 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को मिली जीत के बाद राज्य में इस पार्टी ने लगातार अपनी जमीन मजबूत की है और वह तेजी से वाम दलों और कांग्रेस को पीछे छोड़कर तृणमूल की मुख्य प्रतिद्वंद्वी बन गई है। इसके अलावा पूर्वोत्तर के राज्यों में जीत दर्ज करने के बाद पश्चिम बंगाल उसका अगला लक्ष्य है, जहां वह आक्रामक तरीके से तृणमूल को चुनौती दे रही है। लेकिन राज्य में नए उद्योग-धंधों और रोजगार के कम अवसरों को मुद्दा बनाने के बजाय राजनीतिक दल वर्चस्व की लड़ाई में उलझ गए हैं। यह दुखद है कि कभी देश को दिशा देने वाले बंगाल में टकराव की इस राजनीतिक संस्कृति ने बेरोजगारों को राजनीतिक दलों का हथियार बना दिया है।


 

राजस्थान पत्रिका

लानी होगी खेल क्रांति

ये है भारतीय खेलों की असली कहानी, जो राष्ट्रमंडल खेलों में देश को स्वर्ण पदक दिलाने वाली पूनम यादवने सुनाई। पूनम को भारोत्तोलन की तैयारी कराने के लिए उसके पिता को अपनी भेस बेचनी पड़ गई। पिछले राष्ट्रमंडल खेलों में पूनम ने कांस्य पदक जीता तो मिठाई खिलाने के लिए पैसे उसके पास नहीं थे। कई बार ट्रेनिंग के दौरान पूनम को भूखे सोना पड़ा। वहीं दूसरी तरफ खेलों के विकास के नाम पर देश और राज्यों की सरकारें अरबों-खरबों रुपए खर्च करती हैं। प्रतिभाओं की खोज के नाम पर कई योजनाएं चल रही हैं। अनेक औद्योगिक घराने खेलों को बढ़ावा देने के नाम पर करोड़ों रुपए बहा रहे हैं। पूनम की व्यथा सुनकर सवाल उठता है कि आखिर ये पैसा जा कहां रहा है? पैसा खिलाड़ियों की प्रतिभा तराशने पर खर्च हो रहा है अथवा

अधिकारियों के विदेशी सैर-सपाटों पर हर क्षेत्र में आज भारत का लोहा दुनिया मान रही है। भारत ने दुनिया को अच्छे वैज्ञानिक दिए हैं। दुनियाभर के अस्पतालों में भारतीय डॉक्टर बेहतर काम कर रहे हैं। अंतरिक्ष के क्षेत्र में भी हमारी उपलब्धियां गर्व करने लायक हैं। रक्षा क्षेत्र में भी हम अपने पैरों पर खड़ा होने की दिशा में आगे बढ़ रहे हैं। लेकिन चंद खेलों को छोड़ दिया जाए तो हमारी उपलब्धियां अंगुलियों पर गिनने लायक हैं। ओलम्पिक खेलों में आज तक बंटे पांच हजार से अधिक स्वर्ण पदकों में से हमारे खाते में कुल नौ ही दर्ज हैं। कुल 15 हजार पदकों में से अब तक हम सिर्फ 28 पदक ही बटोर पाए। हैं। हमसे बहुत छोटे-छोटे देश पदक जीतने का शतक लगा चुके हैं। पूनम की कहानी शायद हमारे तमाम सवालों का जवाब देने के लिए पर्याप्त हैं। गांवों में प्रतिभाओं की कमी नहीं है, जरूरत उन्हें तराशने की है। पूनम जैसी कितनी लड़कियां होंगी जो भूखे रहकर भी खेलने का जुनून रखती होगी। पूनम के पिता जैसे कितने पिता होंगे जो अपनी बच्ची को खेलता देखने के लिए भेस बेच दें। खेल प्रबंधन से जुड़े तमाम पदाधिकारियों के लिए ये सवाल चिंता के साथ शर्मनाक होने चाहिए। ऐसे सवाल पहले भी उपजे हैं लेकिन उनका गंभीरता से हल तलाशने की कोशिश आज तक नहीं की गई। जब तक ये कोशिश सफल नहीं होगी, तब तक पूनम सरीखी दूसरी लड़कियों की व्यथाएं यू ही अख़बारों के पन्नों की सुर्खियां बनती रहेगी। आज खेलों की स्थिति सुधारने के लिए मरहम-पट्टी की जरूरत नहीं है। जरूरत एक बड़ी खेल क्रांति लाने की है ताकि खेल जगत में हम भी अपना सिर गर्व से ऊंचा कर सकें।


दैनिक भास्कर

महिला खिलाडियों से रौशन होता भारतीय खेल जगत

हिंदुस्तानी खेल लगातार नया कौशल और आत्मविश्वास हासिल कर रहा है और क्रीड़ा क्षितिज पर नई प्रतिभाओं का उदय हो रहा है। इस बात को राष्ट्रमंडल खेलों में भारत की महिला खिलाड़ी दमदारी के साथ साबित कर रही हैं। वे घरेलू खींचतान और लैंगिक असमानता की बाधाएं तोड़कर भारत का नाम रोशन कर रही हैं। राष्ट्रमंडल खेलों के टेबल टेनिस मुकाबले में सिंगापुर जैसी मजबूत टीम को हराना वैसा ही है जैसे ओलिंपिक में चीन को परास्त करना। भारतीय कोच मसिमो कांस्तैंतिनी को लगता था कि भारतीय टीम तो सिंगापुर टीम की प्रशंसक (फैन) टीम है न कि प्रतिस्पर्धी। इस धारणा को ध्वस्त करते हुए भारतीय टीम ने ऑस्ट्रेलिया के गोल्ड कोस्टा में मणिका बत्रा और मौमा दास के सहारे वह कमाल कर दिया, जिस पर हम नाज कर सकते हैं। 2006 में पुरुषों की टीम को स्वर्ण मिला था। महिला टीम तो 2002 से ही इंतजार कर रही थी। इस जीत ने मणिका को भी हैरत में डाल दिया, क्योंकि वे जब भी सिंगापुर की यिहान झाउ से खेलती थीं तो हार ही नसीब होती थी। अकेले दम पर सर्वाधिक प्रशंसनीय उपलब्धि तो मनु भाकर की है जिन्होंने 10 मीटर की एअर पिस्टल निशानेबाजी में स्वर्णपदक जीता। भारत की सबसे कम उम्र की स्वर्ण पदक विजेता भाकर महज 16 वर्ष की हैं। झज्जर की यह खिलाड़ी इतनी अल्हड़ है कि मेडल जीतने के बाद उसे अपने बिस्तर के सिरहाने रखकर टेबल टेनिस खेलने में लग गई। इसीलिए कोच जसपाल राणा मानते हैं कि ऊर्जा और प्रतिभा से भरपूर भाकर भारत के लिए बड़ी संभावना हैं। पूनम यादव ने भी 222 किलो का वजन उठाकर न सिर्फ इंग्लैंड की सराह डेविस को हराया है बल्कि भारत की झोली में स्वर्ण पदक डालकर देश को खेल के स्तर पर ऊंचा उठाया है। साइना नेहवाल ने हमेशा की तरह अपनी दमदार उपस्थिति दर्ज की है। महिला खिलाड़ियों की यह उपलब्धियां पुरुष खिलाड़ियों को प्रेरणा देने वाली हैं। यह सारी उपलब्धियां तब हासिल की गई हैं, जब भारतीय खेल तमाम तरह की राजनीति का शिकार है और इंडियन ओलिंपिक एसोसिएशन ने खेल गांव में रहे भारतीय खिलाड़ियों के लिए आचार संहिता की लंबी चौड़ी सूची जारी की है। इसमें चोरी, शराब, जुआ और यौन दुराचार से बचने की हिदायत दी गई है। बिखराव, कमजोरी और आशंका के विपरीत वातावरण में खिलाड़ियों की उपलब्धियां भारत का माथा ऊंचा करने वाली हैं।


दैनिक जागरण

खाने और दिखाने के दांत

राजनीतिक दल किस तरह दिखावे की राजनीति करने और उसके जरिये लोगों की भावनाओं से खेलने में माहिर हो गए हैं, इसे एक बार फिर साबित किया कांग्रेसी नेताओं के उस कथित उपवास ने जो जातीय ¨हसा के विरोध और सांप्रदायिक सद्भाव के पक्ष में किया गया। अगर यह उपवास एक उपहास में तब्दील हो गया तो इसके लिए कांग्रेस के नेता अपने अतिरिक्त अन्य किसी को दोषी नहीं ठहरा सकते। कांग्रेसी नेता तथाकथित उपवास के जरिये अपने राजनीतिक मकसद को हासिल करने के प्रति कितने बेपरवाह थे, यह एक तो इससे साबित हुआ कि वे रेस्त्रं में छोले-भटूरे खाने के बाद राजघाट पहुंचे और दूसरे इससे कि राजनीतिक प्रहसन बन गए अनशन में योगदान देने सिख विरोधी दंगों में आरोपित नेता भी पहुंच गए। यह तो वही बात हुई कि भ्रष्टाचार के विरोध में कांग्रेस किसी धरना-प्रदर्शन का आयोजन करे तो उसमें कार्ति चिदंबरम भी भागीदार बनें। कांग्रेसी नेता अपने उपवास को लेकर बिल्कुल भी गंभीर नहीं थे और उनका मकसद केवल प्रचार पाना और दलितों को झूठी दिलासा देना था, यह इससे सिद्ध हुआ कि जब उनकी पोल खोलने वाली फोटो सामने आ गई तो इस बहाने की आड़ लेने में संकोच नहीं किया गया कि उपवास का समय तो साढ़े दस से साढ़े चार बजे तक था। अगर कोई चंद घंटे भी बिना कुछ खाए-पिए नहीं रख सकता तो फिर उसे उपवास का स्वांग करने से बाज आना चाहिए। क्या ऐसा ही कथित उपवास लाखों लोग रोजाना नहीं करते? सवाल यह भी है कि अगर कांग्रेसी नेता सचमुच चंद घंटे का उपवास कर लेते तो क्या उससे जातीय ¨हसा पर विराम लग जाता? 1पेट-पूजा करने के बाद उपवास पर बैठना राजनीतिक छल-छद्म के अलावा और कुछ नहीं। दुर्भाग्य से राजनीति में ऐसे छल-छद्म बढ़ते जा रहे हैं और यही कारण है कि राजनीतिक दलों के सार्वजनिक आयोजन एक तमाशे की तरह होने लगे हैं। राजनीतिक दलों के धरना-प्रदर्शन से लेकर रैलियों तक में किराये की भीड़ अब आम बात है। राजनीतिक दलों के नेता और कार्यकर्ता कभी-कभी गिरफ्तारी देने भी निकलते हैं, लेकिन चंद मिनटों की सांकेतिक गिरफ्तारी देकर वे इस प्रचार में जुट जाते हैं कि उन्होंने जनहित के लिए बड़ा काम किया। चूंकि दिखावे की राजनीति बढ़ती चली जा रही है इसीलिए विधानमंडलों में व्यर्थ हंगामा करना अथवा बात-बात पर राज्यपाल या राष्ट्रपति को फालतू के ज्ञापन देना भी राजनीतिक दलों की आदत बन गई है। आम तौर पर राजनीतिक दल अपने आचार-व्यवहार से जो कुछ प्रदर्शित करते हैं उसके ही खिलाफ आचरण अधिक करते हैं। जब सभी दलों में खुद को दलित हितैषी दिखाने की होड़ मची है तब दलितों को उत्पीड़न एवं भेदभाव से मुक्ति नहीं मिल पा रही है तो इसीलिए कि हाथी की तरह राजनीतिक दलों के भी खाने के दांत और हैं और दिखाने के और। अगर कांग्रेस को सचमुच दलित हितों की चिंता होती तो उसके नेताओं ने एससी-एसटी एक्ट पर देश को गुमराह करने की कोशिश नहीं की होती। सच यह भी है कि यदि हमारे सभी दल दलित हितैषी होते, जैसा कि वे बताने की कोशिश कर रहे हैं तो एससी-एसटी एक्ट की तो जरूरत ही नहीं रहती।


प्रभात खबर

माकूल नहीं माहौल

सत्ता में वापसी के बाद अपने पहले दौरे पर भारत पहुंचे नेपाली प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली इस्लामाबाद में प्रस्तावित दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन (सार्क) सम्मेलन की वकालत करते नजर आये. लेकिन, सीमा पर जारी तनाव और आतंकवादपरस्त पाक नीतियों का हवाला देते हुए भारत ने बैठक में शामिल होने से इनकार कर दिया है. दरअसल, नवंबर, 2016 में पाकिस्तान को 19वें सार्क सम्मेलन की मेजबानी करनी थी, लेकिन सम्मेलन से पहले पठानकोट और उड़ी में हुए आतंकी हमलों के बाद भारत ने विरोध में सम्मेलन का बहिष्कार कर दिया था. इसके बाद बांग्लादेश, भूटान, अफगानिस्तान भी भारत के समर्थन में खड़े हो गये थे. खुद को अलग-थलग पड़ता देख पाकिस्तान अब एक बार फिर से सम्मेलन के लिए आपसी सहमति बनाने पर जुट गया है. पाकिस्तान के स्थापना दिवस पर मुख्य अतिथि के रूप में पहुंचे श्रीलंकाई राष्ट्रपति मैत्रिपाला सिरिसेना ने भी सार्क सम्मेलन के आयोजन को जरूरी बताया था.

नेपाल और श्रीलंका ही नहीं, बल्कि पाकिस्तान अन्य दक्षिण एशियाई देशों के साथ मिलकर सहमति बनाने के लिए प्रयासरत है. नेपाल में नयी सरकार के गठन के बाद पहले विदेशी मेहमान के रूप में पहुंचे पाकिस्तानी प्रधानमंत्री शाहिद खाकान अब्बासी ने सार्क सम्मेलन के लिए नेपाल का समर्थन मांगा था. पाकिस्तान की इस अकुलाहट के पीछे दो बड़े कारण हैं- पहला, साल के अंत में पाकिस्तान में प्रस्तावित आम चुनाव और दूसरा, पाकिस्तान के बगैर दक्षिण एशियाई देशों का भारत के साथ बिम्सटेक के रूप में मजबूत होता विकल्प. चीन के साथ सामरिक और आर्थिक संबंधों के दबाव में पाकिस्तान को दक्षिण एशिया में प्रासंगिक बने रहने के लिए तमाम प्रयास करने हैं. लेकिन, सार्क के दूसरे सबसे बड़े सदस्य के रूप में रचनात्मक भूमिका निभाने के बजाय पाकिस्तान का अब तक का रवैया दुर्भाग्यपूर्ण रहा है.

वर्ष 2016 में सार्क सम्मेलन के बहिष्कार के बाद गोवा में ब्रिक्स सम्मेलन के सामानांतर बिम्सटेक देशों के नेताओं को आमंत्रित कर भारत ने सख्त संदेश देने की कोशिश की थी. लेकिन, जिस पाकिस्तान ने दुनिया की आंख में धूल झोंककर आतंकवाद को ही अपनी राष्ट्रीय नीति का हिस्सा बना लिया हो, उससे उम्मीद ही क्या की जा सकती है. पाकिस्तान आतंकियों के पनाहगाह ही नहीं, बल्कि आतंकवाद की मानसिकता के बीजारोपण में जुटा है. वह अपने पालतू आतंकियों पर लगाम लगाये बिना क्षेत्र में शांति और सहयोग का प्रपंच करता है. दुनिया की 21 प्रतिशत आबादी और वैश्विक अर्थव्यवस्था में नौ प्रतिशत से अधिक का योगदान देनेवाले दक्षिण एशियाई देशों के संगठन का गठन ही क्षेत्रीय विकास के बड़े सपने के साथ हुआ था. आज दक्षिण एशिया में ड्रग्स तस्करी रोकने, शिक्षा, पर्यावरण, अर्थव्यवस्था जैसे तमाम मुद्दे हैं, लेकिन आतंकवाद को लगाम लगाकर जब तक शांति और सौहार्दपूर्ण माहौल तैयार नहीं किया जाता, आगे बढ़ने की कल्पना कैसे की जा सकती है.


देशबन्धु

राहुल गांधी भाजपा को हल्के में न लें

2019 के पहले विपक्षी दलों की एकजुटता की कोशिश से भाजपा परेशान हो रही है। यह स्वाभाविक भी है। किसी को भी अपनी सत्ता खोना अच्छा नहीं लगेगा, न ही कोई ये चाहेगा कि उन्हें चुनौती देने के लिए मजबूत विकल्प सामने हो। 2014 के चुनाव में तो भाजपा को ऐसा बहुमत मिला था कि विपक्ष नाममात्र को रह गया। फिर धीरे-धीरे भाजपा के प्रति दलों और नेताओं में असंतोष सामने आने लगा। अलग-अलग खेमों में बंटे विपक्ष को यह बात समझ आने लगी कि मजबूत भाजपा का जवाब मजबूत विपक्ष ही दे सकता है, लिहाजा वे सब नए ढंग की चुनावी रणनीति बनाने में जुट गए हैं।

कांग्रेस इस विपक्ष की धुरी रहेगी, फिलहाल यही लग रहा है। और शायद इसलिए कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी भी इस संभावित विपक्षी एकता के उत्साह में आकर कह रहे हैं कि 2019 के चुनाव में राजग यानी एनडीए का ऐसा पतन होगा, जैसा कई वर्षों में नहीं देखा होगा। एकजुट विपक्ष के सामने भाजपा चुनाव जीतने की बात तो भूल ही जाए, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी अपनी वाराणसी सीट गंवा सकते हैं। अगर यह बात उन्होंने कांग्रेस समर्थकों और कार्यकर्ताओं में उत्साह भरने के लिए कही है, तब तो ठीक है। लेकिन अगर वे सचमुच मानते हैं कि विपक्ष की एकता के कारण नरेन्द्र मोदी वाराणसी की सीट गंवा देंगे, तो यह बयान उनकी राजनीतिक अनुभवहीनता को दिखाता है।

वैसे तो चुनाव में जीत-हार अप्रत्याशित ही होती है। लेकिन फिर भी कुछ सीटों पर परंपराओं और रूझानों को देखकर अनुमान लगाना कठिन नहीं होता है। जैसे 2014 में मोदी-मोदी के शोर में भी यह माना जा रहा था कि स्मृति ईरानी या कुमार विश्वास राहुल गांधी को अमेठी सीट पर नहीं हरा पाएंगे, और वैसा ही हुआ भी। वाराणसी सीट की बात करें तो यहां 2014 में नरेन्द्र मोदी ने रिकार्ड जीत दर्ज की थी। आम आदमी पार्टी के उम्मीदवार अरविंद केजरीवाल को दो लाख दस हजार वोट के आसपास मिले थे। कांग्रेस के अजय राय को मात्र 75 हजार, सपा उम्मीदवार को 45 हजार और बसपा उम्मीदवार को 60 हजार। जबकि अकेले नरेन्द्र मोदी को 5 लाख 81 हजार वोट मिले थे। ऐसा नहीं है कि केवल 2014 में भाजपा ने यहां जीत दर्ज की, बल्कि वाराणसी तो 1991 से भाजपा की झोली में जाती रही है।

केवल 2004 में ऐसा नहीं हुआ, लेकिन 2009 में जब यूपीए फिर से केेंद्र की सत्ता में आई, तब भी भाजपा से मुरली मनोहर जोशी यहां के सांसद बने। 2019 में भी भाजपा अपनी इस सीट को खोना नहीं चाहेगी और बहुत मुमकिन है कि नरेन्द्र मोदी ही यहां से फिर खड़े होंगे। बेशक उनकी लोकप्रियता में अब पहले वाला जादुई फैक्टर नहीं रहा है, लेकिन उनके बरक्स कोई और नेता भी तो नहीं है, जो वैसा करिश्मा दिखा सके। इसलिए नरेन्द्र मोदी की हार की भविष्यवाणी करने से पहले राहुल गांधी को जमीनी सच्चाई ठीक से परख लेना चाहिए।

जहां तक बात 2019 के आम चुनाव की है, तो इसमें विपक्ष का एक होना और निस्वार्थ भाव से एक-दूसरे की मदद करना इतना आसान है नहीं, जितना बताया जा रहा है। अच्छी बात है कि अलग-अलग दलों के तमाम बड़े नेता एकता कायम करने की पहल कर रहे हैं, लेकिन जिस तरह अखिलेश यादव या मायावती ने बयान दे दिया है कि सीटों के बंटवारे आदि पर कोई मतभेद नहीं होगा, वैसी ही नीयत तमाम क्षत्रपों द्वारा अभी की जाहिर किया जाना बाकी है। मान लें विपक्षी दल इस बाधा को पार कर लेते हैं तो अगली बाधा भाजपा और उसके सहयोगी दलों की ओर से पेश की जाएगी।

एनडीए सत्ता में है और इसे बरकरार रखने के लिए वह हर मुमकिन कोशिश करेगी। एनडीए और भाजपा की मजबूती का जवाब विपक्षी गठबंधन किस तरह से देगा, यह देखना होगा। इस विपक्षी गठबंधन के सामने तीसरी बाधा जातीय, धार्मिक और क्षेत्रीय समीकरणों को ठीक-ठीक बिठाना होगा। कई छोटे-बड़े मुद्दे हैं, जिन पर ईमानदार और निष्पक्ष सोच सामने रखनी होगी, अन्यथा नेताओं के बीच मोल-भाव की गुंजाइश बढ़ेगी और उसका फायदा विरोधी उठाएंगे। इस वक्त देश में दलित मुद्दे पर विपक्ष लामबंद होकर भाजपा को घेर रहा है।

भाजपा के ही कुछ दलित सांसद उसका विरोध कर रहे हैं। दलितों पर अत्याचार, सांप्रदायिक सौहार्द्र और संसद न चलने देने पर कांग्रेस ने आज उपवास का ऐलान किया था, जिसमें राहुल गांधी खुद 1 बजे राजघाट पहुंचे, जबकि भाजपा से फिर कांग्रेस में आए अरविंदर सिंह लवली, हारून युसूफ और दिल्ली कांग्रेस अध्यक्ष अजय माकन सुबह छोले-भटूरे खाते दिखे। इसकी तस्वीरें वायरल होने पर लवली का जवाब था कि ये तस्वीर तो सुबह 8 बजे की है, उपवास तो 10 बजे से था। कहना जरूरी नहीं कि कांग्रेस के ऐसे नेता ही उसकी जड़ों को कमजोर करते हैं। वे लोग कुछ गंभीर मुद्दों पर उपवास जैसे गांधीवादी तरीके को अपना रहे थे या उसका मजाक उड़ा रहे थे। राहुल गांधी को इन्हें जरूर तलब करना चाहिए। अन्यथा इतने दिनों से वे कांग्रेस की छवि ठीक करने की जो कोशिशें कर रहे हैं, वह व्यर्थ हो जाएंगी।


The Times if India

Whipping Boy
Politics over Cauvery took a predictable but disturbing turn with the two new entrants in Tamil politics, actors Rajinikanth and Kamal Haasan, dragging IPL matches into the imbroglio. Trust politicians, even the novices, to spot opportunity in making the cricket league a pawn in an inter-state dispute, which instead needs urgent executive action after a tortuous judicial process. The irony is that despite – or perhaps because – they have been at the receiving end of bans during their film career, the duo has mastered the populist template of identifying the most vulnerable scapegoats. With the 2018 season having commenced IPL that is enjoyed by millions was a sitting duck.

As politicians, it raises questions on Rajini and Kamal’s promises of change. If it is going to be more of the same it is unlikely people would choose clones when there are AIADMK and DMK. Both parties successfully disrupted Parliament for three weeks over the Cauvery issue. Perhaps, holding IPL hostage is the only way for those without parliamentary representation to match up. Unfortunately, these are two supremely gifted and creative individuals, with business interests to boot, pandering to the ban culture. Conflating the enjoyment of cricket with the unconnected Cauvery issue is the kind of populist sophistry that requires little political acumen.
At a superficial level, it neatly dovetails into an emotive issue even when it is a disruptive and non-productive solution. Hark back to the drought in Marathwada when cricket again became the villain and the specious idea of abandoning cricket matches to conserve water and express solidarity gained traction. Such calls may have emotive appeal for some but do not solve problems or create awareness.

The Centre has sought three more months to implement Supreme Court’s order to set up a “scheme” under the Inter-State River Water Disputes Act claiming its intervention could vitiate Karnataka elections. Buying time does not cause the problem to go away. Soon there will be Lok Sabha elections and more political constraints. While Karnataka is sitting pretty over the increased allocation of water, it is opposed to Tamil Nadu’s demand for creating the Cauvery Management Board that the Cauvery Tribunal mooted to supervise reservoir management and regulate water releases. The substantive issues are known to all; neither prevarication nor fanning outrage against IPL solves any of them.


The Indian Express

Good Neighbours
The visit of Nepal Prime Minister K P Oli has been hailed by both sides as “successful” in resetting the relationship. Whether this is true will become evident only with time. For the moment, Oli, who is viewed as “pro-China” in India, and his host, Prime Minister Narendra Modi, appeared to have made an effort to find meeting ground. The Nepali prime minister, whose visit to India came soon after he won a floor test with two-thirds of the 275-member Parliament backing him, is arguably the most powerful politician to lead his country in recent times. His rise on a nationalist platform mirrors Prime Minister Modi’s own style of politics, and though he kept the tradition of newly elected Nepal leaders visiting India first, he came demanding an equal friendship. Anxious about the Chinese footprint in Nepal, India showed it was ready to please.

Indeed, one of the main outcomes from the visit reflected India’s China anxiety. The two sides have agreed that India will build an electrified rail link between the Indian border town of Raxaul and Kathmandu, apparently in response to China’s reported plans to expand its railways from Tibet into Nepal. Prime Minister Modi described the project grandiosely as a plan to link the Everest to the ocean. Given India’s track record of completion of projects in other countries, the focus should be on getting this project on track and completing it without delay so that it gives people in Nepal — hundreds of thousands of them are employed in this country, study here, or visit regularly for business or religious tourism — easier access to the country’s vast rail network. A more ambitious project is to provide Nepal inland waterway connectivity to transport cargo. The two sides have opened up a new area of co-operation in agriculture. Oli is also reported to have brought up the need for India to complete unfinished projects such as the Pancheshwar dam on the river Mahakali, and to keep a commitment to build a road link the Terai.

The joint statement flags the resolve of the two prime ministers “to work together to take bilateral relations to newer heights on the basis of equality, mutual trust, respect and benefit”. It also references the cultural and historical ties between the two countries. Prime Minister Modi’s good governance mantra, Sabka saath sabka vikas, found mention in the statement as “a guiding framework for India’s engagement with its neighbours”. Such assertions are good for joint statements. Good neighbourliness can only come out of a deep understanding of each other, including the fact that a neighbour is bound to have more than one neighbour.


The New Indian Express

How Did Violence Enter Our Political Lexicon?
Political violence of any sort and on any scale is often a reflection of deep-rooted, suppressed social anger— though enacted at a few removes, like subprime mortgages being sold in the market. For a nation whose freedom was fuelled by the motto of non-violence, the level of political violence it’s seen is a symptom. It happens at three levels: to ensure social/political dominance; for electoral gains; and for the propagation of ideologies through intimidation. Of these three, the second subverts the very mechanisms of democracy.

In the latest example playing out in the West Bengal panchayat polls, we see a most unlikely trio, the BJP, Congress and Left, coming together. Facing the brunt of physical violence from the goons of the ruling Trinamool Congress, candidates of these three parties have failed to file their nomination papers; even aspiring women were seen in videos being kicked and pushed around.

The SC has referred the demand for extension of time for nomination and deployment of central forces to the state poll panel, and it must rise up to the occasion. Mamata Banerjee, who’s looking for a greater role in national politics, must do better than what old feudals used to do in the face of threats. She could trust her own popularity rather than the muscle power of her lumpen cadre to win polls. Not that she’s the only one practising this deadly craft. She herself came out of the Congress’s stable of muscular youth politics.

And the way Kannur in Kerala has remained a killing field for decades earns no credit to the other two, one of whom practised ‘scientific rigging’ behind the iron curtain in Bengal for years. Nor can trishuls, swords, yellow tee-shirts and red bandannas be associated with Ram. Devout Vaishnavs would agree the religious iconography is all wrong. The very message becomes not about popularisation, not even evangelism, but invasion and intimidation. How did violence, outsourced to out-of-job youth, become our primary political vocabulary? Every election sharpens the need for introspection.


The Telegraph

Growing Well
If the Reserve Bank of India governor, Urjit Patel, and his monetary policy cohorts are right, the Indian economy could return to a Goldilocks phase next year – with real gross domestic product growth surging to 7.4 per cent in 2018-19 from 6.6 per cent in the prior year, and retail inflation remaining relatively benign at 4.4 per cent next March. What is more, GDP growth rate is projected to jump to 7.7 per cent in 2019-20. These forecasts stem from a baseline scenario of expectations predicated on five assumptions: that there will be a normal monsoon this year, crude oil will hover at current levels of $68 to the barrel, global economic growth will be robust at 3.9 per cent in both 2018 and 2019, the rupee will remain steady at the current exchange rate of Rs 65 to the dollar, and the Narendra Modi government will be able to stick to its budgetary commitment to cap fiscal deficit at 3.3 per cent of GDP. In its first monetary policy review for this fiscal, the RBI did, however, hedge one bet: it said that if there was a deficient monsoon, then GDP growth for the year could be lower by 20 to 30 basis points, which means around 7.1 per cent.

The RBI chose not to raise interest rates and its unexpected dovish stand considerably reduces the prospect for a rate revision for at least the next 12 months. But with the American Federal Reserve poised to raise interest rates at least three times this year after a 25 basis point increase on March 21, and with the American president, Donald Trump, and China’s president, Xi Jinping, firing warning shots that could snowball into a bruising global trade war, the rosy scenario that the RBI has limned could disintegrate even before the paint is dry.

But what is not so clear is why the central bank opted to switch to real GDP as the new headline measure of economic activity – abandoning the gross value added indicator, which strips out the impact of taxes and subsidies on economic growth. Three years ago, the then governor, Raghuram Rajan, had opted for GVA because he had many misgivings about GDP calculations which made the Modi government’s growth achievements look a lot better than warranted by macroeconomic fundamentals. Mr Patel has chosen not to explain the reasons for making the change – preferring to announce the switch through a small footnote to the latest monetary policy statement. The change actually does two things: first, it removes the popular confusion over the growth rates put out by the Central Statistics Office and the RBI. Second, and more fortuitously, it also means that the Modi government – bracing for a tough general election next year – will be able to tom-tom its efforts to restore India’s strong economic growth. At a projected 7.4 per cent, India looks certain to re-emerge as the fastest growing major economy in the world – a title that it briefly ceded to China.