नवभारत टाइम्स
टकराव का कारोबार
अमेरिका और चीन के बीच ट्रेड वॉर ने पूरी दुनिया को चिंता में डाल दिया है। शुरू में लगा कुछ मसलों पर मतभेद उभर आए हैं जो आपसी बातचीत से सुलझा लिए जाएंगे, लेकिन दुर्भाग्य से दोनों पक्ष ज़िद पर अड़ गए हैं। गुरुवार को अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रम्प ने सख्त लहजे में कहा कि अगर चीन ने व्यापार करने के अपने तरीकों में बदलाव नहीं किया तो वह उस पर 100 अरब डॉलर का टैरिफ लगा देंगे। इससे पहले बुधवार को चीन ने 50 अरब डॉलर मूल्य के 106 अमेरिकी उत्पादों के आयात पर 25 प्रतिशत शुल्क लगाने का फैसला किया। मार्च में ट्रंप ने चीन से आयात पर 60 अरब डॉलर यानी 3910 अरब रुपए का टैरिफ लगाने की घोषणा की थी। इससे बौखलाए चीन ने भी उन अमेरिकी उत्पादों की लिस्ट जारी की, जिन पर वह भारी-भरकम आयात शुल्क लगाने की तैयारी कर रहा है। बहरहाल ट्रंप की धमकी के बाद चीन ने शुक्रवार को कहा कि वह अमेरिका के कदमों के मुहतोड़ जवाब देगा। अमेरिका ने अब तक कई बार चीन पर टैरिफ लगाया है। उसका तर्क है कि चीन गैर-कानूनी तरीके से व्यापार करता है और उसकी इन गतिविधियों ने अमेरिका में हजारों लोगों की नौकरियां छीन ली हैं। ऐसे में अपने व्यापार को बचाने के लिए उसे यह सही कदम लगता है। अपने हितों की रक्षा के लिए अमेरिका ने पूरी विश्व अर्थव्यवस्था को संकट में डाल दिया है। जब से ट्रंप ने सत्ता संभाली है, उनका ध्यान सिर्फ अपने वोट बैंक को संतुष्ट करने पर रहता है। वे यह भूल गए हैं कि अमेरिका की अगुआई में ही दुनिया ने उदार अर्थव्यवस्था और भूमंडलीकरण की ओर कदम बढ़ाए हैं। आज वैश्विक कारोबार की दिशा को अचानक पीछे की ओर लौटाया नहीं जा सकता। ट्रेड वॉर से विश्व में संरक्षणवाद की प्रवृत्ति बढ़ेगी। इससे बेरोजगारी बढ़ेगी, आर्थिक विकास कम होगी और ट्रेडिंग साझेदार देशों के रिश्ते बिगड़ेंगे। इस टकराव का एक कूटनीतिक पहलू भी है। चीन को इस प्रकरण में रूस का साथ मिल रहा है। दोनों देश आपसी संबंधों और व्यापारिक रिश्तों को सुधारने की कोशिश में हैं और ट्रेड वॉर में भी वे अमेरिका के खिलाफ एकजुट हैं। इस कारोबारी टकराव का भारत पर सीधा असर भले न हो, लेकिन परोक्ष रूप से अर्थव्यवस्था प्रभावित जरूर होगी। एसोचैम का कहना है कि भारत अगर अपना आयात संभाल लेता है तो भी निर्यात पर प्रभाव पड़ेगा, क्योंकि एक्सचेंज रेट्स भी बढ़ेंगे। विश्व बिरादरी को इस मामले में मूकदर्शक नहीं बने रहना चाहिए। उसे चीन और अमेरिका दोनों पर दबाव डालकर इस टकराव को समाप्त करने की पहलकदमी करनी चाहिए। विश्व व्यापार संगठन और अंतराष्ट्रीय मुद्राकोष जैसी संस्थाएं भी इसमें हस्तक्षेप कर सकती हैं।
जनसत्ता
नेपाल के साथ
भारत और नेपाल के रिश्ते जैसे रहे हैं, उसकी तुलना किसी और द्विपक्षीय संबंध से नहीं की जा सकती। भारत और नेपाल न सिर्फ पड़ोसी हैं बल्कि इतिहास, सभ्यता, संस्कृति, भाषा आदि और भी बहुत-से तार उन्हें जोड़ते हैं। दोनों देशों के बीच की सीमा खुली हुई है। भारत ने नेपाल के लोगों को अपने यहां काम करने और शिक्षा ग्रहण करने जैसी कई अहम सुविधाएं दे रखी हैं। दोनों के बीच दशकों से एक मैत्री संधि चली आ रही है जो आपसी संबंधों की प्रगाढ़ता का एक और प्रमाण है। यही नहीं, नेपाली सरकार का हर मुखिया अपनी पहली विदेश यात्रा के लिए भारत को चुनता रहा है। नेपाल के प्रधानमंत्री केपी ओली ने भी इस परंपरा का निर्वाह किया। इस साल फरवरी में वे दूसरी बार प्रधानमंत्री बने, और अपनी पहली विदेश यात्रा के लिए उन्होंने भारत को चुना। यह बात नेपाल के किसी और प्रधानमंत्री की तुलना में ओली के संदर्भ में ज्यादा मायने रखती है, क्योंकि भारत उन्हें चीन की तरफ झुका हुआ मानता रहा है। ओली भी मानते रहे हैं कि 2016 में सत्ता से उनके बेदखल होने, मधेशी असंतोष और सीमा पर आर्थिक नाकेबंदी के पीछे भारत का हाथ था। ओली ने अपने पिछले कार्यकाल में चीन के साथ दस सूत्री ढांचागत निर्माण करार किया था। यह भारत को इतना नागवार गुजरा कि ओली के उत्तराधिकारियों ने उस करार को ताक पर रख देने में ही भलाई समझी।
तब भी भारत को बुरा लगा जब नेपाल ने ‘चीन के वन बेल्ट इनीशिएटिव’ में शामिल होने का फैसला किया, क्योंकि भारत चीन की इस बेहद महत्त्वाकांक्षी परियोजना को अपने रणनीतिक और आर्थिक हितों के प्रतिकूल मानता है। नेपाल में चीन की मदद से जलविद्युत परियोजना शुरू होना भी भारत को रास नहीं आया। इस पृष्ठभूमि में ओली का भारत आना मायने रखता है। ओली ने कहा कि वे एक मिशन पर आए हैं, मिशन यह कि दोनों देशों के रिश्तों को एक नई ऊंचाई पर पहुंचाया जाए, जो इक्कीसवीं सदी की वास्तवकिताओं से मेल खाता हो। ये वास्तविकताएं क्या हैं? नेपाल को विकास-कार्यों के लिए पूंजी की दरकार है। इसलिए ओली ने नेपाल को निवेश के लिए सुरक्षित ठिकाना बताते हुए भारतीय कंपनियों को निवेश का न्योता दिया।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ और दोनों तरफ के प्रतिनिधिमंडलों के बीच जलमार्ग और रेलमार्ग के जरिए संपर्क और आवाजाही बढ़ाने पर भी बात हुई। दूसरी तरफ, ओली की यहां आना भारत के लिए भी अहम था, क्योंकि यह आपसी भरोसे की बहाली का मौका था, खुद को आश्वस्त करने का भी, कि नेपाल चीन के पाले में नहीं है। भारत के पड़ोसी देशों में अपना प्रभाव बढ़ाने के लिए चीन जमकर निवेश कर रहा है, खुलकर वित्तीय मदद भी दे रहा है। चीन के इस रुख से ओली लाभ उठाना चाहते हैं, बगैर इस बात की परवाह किए कि चीन की पैठ बढ़ने का आगे चलकर कोई दूसरा नतीजा भी हो सकता है। ओली ने भारत को यह उलाहना देने में कोई संकोच नहीं किया कि नेपाल में भारत की मदद से शुरू की गई परियोजनाएं बेहद धीमी गति से चल रही हैं, कुछ तो दशकों से लंबित हैं। यह शिकायत वाजिब है। अगर भारत चीन के प्रति नेपाल के आकर्षण को रोकना चाहता है तो उसका पहला तकाजा यह है कि नेपाल में भारत की मदद से शुरू की गई परियोजनाएं जल्द से जल्द पूरी हों।
हिंदुस्तान
प्लास्टिक की खुराक
कभी-कभी जब आवारा गायों के पेट से प्लास्टिक निकलने की खबरें आती हैं, तब या तो हम उन लोगों को कोसते हैं, जो अपना कूड़ा प्लास्टिक की थैलियों में डालकर फेंक देते हैं या फिर उस व्यवस्था को, जो गायों को आवारा इधर-उधर खाने के लिए छोड़ देती है। नए शोध बताते हैं कि प्लास्टिक सिर्फ गाय जैसे आवारा पशुओं के पेट में ही नहीं जा रहा, हमारे जैसे उन लोगों के पेट में भी जा रहा है, जो साफ-सफाई से खाना पसंद करते हैं। ब्रिटेन में हैरियट-वॉट यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने पाया है कि हर बार जब हम खाना खाने बैठते हैं, भोजन के साथ हमारे पेट में प्लास्टिक के सौ से ज्यादा सूक्ष्म कण पहुंच जाते हैं। इन शोधकर्ताओं ने एक बार प्रयोगशाला में इस्तेमाल होने वाली पेट्री डिश में ऐसे कण देखे, तो उन्होंने सोचा कि भोजन की थाली में ऐसे कितने कण होते होंगे, जो काफी बड़ी होती है। यह शोध उसके बाद ही शुरू हुआ। शोधकर्ताओं ने गणना की, तो पता चला कि एक पेट्री डिश में अगर प्लास्टिक के 20 कण होते हैं, तो भोजन की बड़ी थाली में औसतन 114 कण। इन शोधकर्ताओं ने जब इस गणना को आगे बढ़ाया, तो वे इस नतीजे पर पहुंचे कि ब्रिटेन में एक व्यक्ति हर साल औसतन 68,415 प्लास्टिक के सूक्ष्म कण निगल जाता है। अगर इस गणना को और आगे बढ़ाया जाए, तो पता चलेगा कि हम अपने शरीर की हर मांसपेशी के लिए प्लास्टिक के दो सूक्ष्म कण हर साल निगल जाते हैं। वैसे पिछले दिनों एक खबर यह भी आई थी कि समुद्री जीवों के शरीर में इतना प्लास्टिक हो गया है कि जो लोग सी-फूड खाते हैं, वह उनके शरीर में भी पहुंच जाता है।
ऐसा नहीं है कि प्लास्टिक के कण सिर्फ भोजन के जरिए ही हमारे शरीर में पहुंचते हैं। प्लास्टिक के ये सूक्ष्म कण हमारे वातावरण में हर जगह पहुंच गए हैं, इसलिए जब हम सांस लेते हैं, तो वे हमारे फेफड़ों में भी जा विराजते हैं। शोधकर्ताओं का कहना है कि हमारे घरों में जो धूल होती है, उसमें प्लास्टिक के ये कण बहुतायत में होते हैं। प्लास्टिक के ये कण कहीं से भी आ सकते हैं। वे हमारी दरी या कालीन में इस्तेमाल होने वाले प्लास्टिक के भी हो सकते हैं, कार-टायर के भी हो सकते हैं, पैकेजिंग के भी हो सकते हैं, हमारी कुरसी, सोफे, यहां तक कि हमारे कपड़ों के भी हो सकते हैं। हम उन्हें देख नहीं पाते, लेकिन वे हमारी खुराक का नियमित हिस्सा बन चुके हैं।
प्लास्टिक के ये नन्हे कण हमारे शरीर, हमारी सेहत को क्या नुकसान पहुंचाते हैं, यह अभी ठीक से नहीं पता, लेकिन एक बात स्पष्ट है कि हमारा पूरा शरीर और उसका पूरा रसायनशास्त्र प्रकृति से मिलने वाले कार्बनिक पदार्थों को खाने-पचाने के लिए ही बना है। इसलिए यह उम्मीद तो नहीं ही है कि प्लास्टिक के ये कण शरीर में पहुंचकर कोई अच्छी भूमिका निभाते होंगे। और समस्या सिर्फ प्लास्टिक की नहीं है, हमने तरह-तरह के सिंथेटिक डिटर्जेंट और रसायन बनाए हैं, जिन्हें हम हर रोज इस्तेमाल करते हैं और उनके अंश भी हमारे शरीर में नियमित रूप से पहुंच रहे हैं। दुर्भाग्य से शरीर पर इनके प्रभाव का भी अभी ठीक से शोध नहीं हो सका है। हमें नहीं पता कि ये हमें कौन सी बीमारी देते हैं और हमारी किन परेशानियों का कारण बनते हैं? यह ऐसा मामला है, जिसका समाधान सिर्फ प्लास्टिक की थैलियों का इस्तेमाल बंद कर देने से भी नहीं निकलने वाला।
राजस्थान पत्रिका
ले डूबेगी नाराजगी
दलित सांसदों को मनाने के लिए अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मैदान में उतरने की तैयारी है। कर्नाटक चुनाव सिर पर ” है, सो शायद भाजपा कोई खतरा मोल नहीं लेना चाहती। भाजपा के दलित सांसद अगर अपनी ही पार्टी से नाराज हैं तो इसे हल्के में नहीं लिया जा सकता। नाराजगी भी इस कदर कि सांसद प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर, इसे मीडिया को जारी कर रहे हैं। भाजपा को आशंका है कि नाराज दलित सांसदों की संख्या बढ़ सकती है। कर्नाटक में 18 फीसदी दलित मतदाता हैं। इस हवा से भला कर्नाटक कैसे अछूता रह सकता है। अपने नाराज दलित सांसदों को मनाने का अधिकार हर दल को है। लेकिन राजनीतिक रूप से अहम सवाल ये कि पूर्ण बहुमत वाली भाजपा सरकार से अपने ही नाराज क्यों हो रहे हैं? क्या नाराज सांसदों को आने वाले चुनाव में हार का खतरा दिख रहा है या दलित समाज के भीतर वे कोई सुगबुगाहट देख रहे हैं या प्रधानमंत्री को पत्र लिखना आलाकमान का ध्यान अपनी ओर आकर्षित कराना भर है।
कारण चाहे जो रहे हों, लेकिन केंद्र सरकार को सिर्फ सांसदों ही नहीं, बल्कि तमाम दलित-पिछड़ों के ‘मन की बात’ सुननी चाहिए। उनकी नाराजगी की वजह जानकर उनका निदान किया जाना चाहिए। दलितों के अधिकारों पर कुठाराघात की आशंकाओं को दूर किया जाना चाहिए। साथ ही समाज के सभी वर्गों में सामाजिक समरसता के भाव को मजबूत किया जाना चाहिए। जाहिर है ये काम एक सरकार ही बेहतर ढंग से कर सकती है। दलित हों अथवा दुसरे वर्ग, उन्हें वोटों के अंकगणित के हिसाब से नहीं तोला जाना चाहिए। प्रधानमंत्री भाजपा के ही नहीं, तमाम दलों के दलित सांसदों से मिले। दूसरी जातियों के सांसदों से भी मिले। उनसे देशहित में कोई बात निकलती हो तो उसे स्वीकार भी किया जाना चाहिए। पिछले कुछ समय से जातीय तनाव की बढ़ती घटनाएं चिंता का बड़ा कारण बनती जा रही हैं। राजनीतिक दल ऐसी घटनाओं को शांत करने की बजाए इसमें अपना फायदा तलाशने की कोशिशों से ऊपर नहीं उठ पाते। आग बुझाने की बजाए उसमें घी डालने के लिए सब तत्पर दिखते हैं। गुजरात विधानसभा का विषैला प्रचार देश देख चुका है। कनाटक भी उसी रास्ते पर बढ़ता दिख रहा है। इसे रोकने की जरूरत है। नरेन्द्र मोदी दलित सांसदों से एक प्रधानमंत्री के तौर पर मिले, भाजपा नेता की तरह नहीं। रास्ता तभी निकलेगा। छोटे फायदे के लिए बड़े नुकसान को रोकने की जिम्मेदारी सबकी है। प्रधानमंत्री की सबसे ज्यादा।
दैनिक जागरण
गुमराह करने वाली राजनीति
अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों को उत्पीड़न और भेदभाव से बचाने वाले एससी-एसटी एक्ट पर सुप्रीम कोर्ट के दिशा-निर्देशों के बाद विभिन्न राजनीतिक दलों में खुद को दलित हितैषी बताने की जो होड़ मची है उससे यही अधिक स्पष्ट हो रहा है कि चिंता दलित हितों की कम, बल्कि आगामी लोकसभा चुनावों की ज्यादा की जा रही है। दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि ऐसा करते हुए छल-छद्म का सहारा लेने से भी नहीं बचा जा रहा है। विडंबना यह है कि यह काम राजनीतिक दलों के बड़े नेता भी करने में लगे हुए हैं। राहुल गांधी खुद और कांग्रेस को दलित हितैषी बताने की कोशिश कम कर रहे हैं और भाजपा एवं मोदी सरकार को दलित विरोधी बताने पर कुछ ज्यादा ही जोर दे रहे हैं। इस क्रम में वह यह कहने से भी नहीं चूके कि एससी-एसटी एक्ट को हटा दिया गया है। यह महज गलतबयानी ही नहीं, बल्कि देश की जनता को गुमराह करने वाला काम है। अब यदि खुद कांग्रेस अध्यक्ष इस तरह का काम करेंगे तो फिर अन्य नेताओं के आचरण के बारे में सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। राहुल गांधी दलित हित की चिंता में राजघाट पर उपवास करने के लिए स्वतंत्र हैं, लेकिन यह चिंता छल-छद्म से करने का कोई मतलब नहीं। 1एससी-एसटी एक्ट के संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट ने जो दिशा-निर्देश दिए उसे लेकर वह अपना स्पष्टीकरण भी दे चुका है, लेकिन राहुल गांधी और ऐसे ही अन्य नेता स्थितियों को सही तरह समझने के बजाय भ्रम का माहौल बनाकर राजनीतिक रोटियां सेंकने में लगे हुए हैं। राहुल गांधी को एससी-एसटी एक्ट पर छल-छद्म का सहारा लेने के बजाय इस पर आत्मचिंतन करना चाहिए कि दलित समुदाय पार्टी से क्यों छिटक गया और क्या कारण रहा कि दलित हित के नाम पर कई राजनीतिक दल उभरकर सामने आ गए? नि:संदेह ऐसा इसीलिए हुआ, क्योंकि कांग्रेस ने लंबे समय तक सत्ता में रहने के बावजूद दलितों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति को बेहतर बनाने के लिए वैसा कुछ भी नहीं किया जो किया जाना चाहिए था। यदि दलित आज भी शोषित-वंचित हैं तो उसके लिए अगर कोई राजनीतिक दल सबसे अधिक जिम्मेदार और जवाबदेह है तो वह कांग्रेस ही है। कांग्रेस वास्तव में दलितों के प्रति कितनी चिंतित है, इसका पता इससे चलता है कि एससी-एसटी एक्ट पर सुप्रीम कोर्ट के दिशा-निर्देशों के बाद आयोजित भारत बंद के दौरान जिन दलों के बारे में संदेह है कि उन्होंने ¨हसा भड़काने का काम किया उनमें कांग्रेस प्रमुख है। राहुल गांधी की तरह से बसपा प्रमुख मायावती भी मोदी सरकार को दलित विरोधी बताने के लिए सक्रिय हैं, लेकिन वह यह बताने के लिए तैयार नहीं कि 2007 में सत्ता में आते ही उन्होंने एससी-एसटी एक्ट के मामले में करीब-करीब वैसे ही निर्देश क्यों जारी किए थे जैसे सुप्रीम कोर्ट ने जारी किए? इन स्थितियों में दलित समाज के लिए भी यह आवश्यक हो जाता है कि वह चुनाव की चिंता में खुद को दलित हितैषी बताने वाले नेताओं की बातों पर ठोक-बजाकर ही भरोसा करे। इसी के साथ दलित समुदाय को इसके प्रति भी सचेत रहना होगा कि उनके बीच वैसे तत्व न सक्रिय होने पाएं जिनका एकमात्र उद्देश्य माहौल बिगाड़कर राजनीतिक उल्लू सीधा करना है।
प्रभात खबर
गतिरोध की संसद
लोकतंत्र में संसद की सर्वोच्चता इसलिए स्वीकार की गयी है कि वहां देश के अहम मुद्दों पर विमर्श होगा, पर हाल में समाप्त हुए संसद के बजट सत्र को इसलिए याद किया जायेगा कि हमारे सांसदों ने काम से ज्यादा हंगामा किया. 21वीं शताब्दी के इन अठारह वर्षों में पहला मौका है जब संसद की कार्यवाही इतनी कम चली और 23 फीसदी ही कामकाज हो पाया. 70 साल में पहली बार आम बजट और वित्त विधेयक जैसे मामले बगैर किसी बहस-मुबाहिसे के पास हो गये. देश से जुड़े बहुत सारे ऐसे मसले थे, जिन पर संसद में ही बात होनी चाहिए थी, लेकिन ऐसा लगता है कि देश चलाने वाले लोग अपनी असहमतियों का निबटारा संसद के बदले सड़क पर करना चाहते हैं. संसद में इस गतिरोध के लिए भाजपा ने कांग्रेस पर आरोप लगाया है, तो कांग्रेस ने भी पलटवार किया है. अब दोनों बड़ी पार्टियां एक-दूसरे के खिलाफ सड़क पर उतरने वाली हैं. यह स्थिति बेहद दुखद है. सड़क के मसलों पर संसद में चर्चा होनी चाहिए थी. संसद की प्रासंगिकता भी इसी बात पर निर्भर करती है कि वह अपने कामकाज के दायरे में लोगों की समस्याओं, ज्वलंत मुद्दों, देश से जुड़े गंभीर सवालों को किस हद तक ला पाती है. इस कसौटी पर देखें, तो ऐसा लगता है कि संसद अपनी भूमिका से क्रमश: फिसलती जा रही है. लोकतंत्र में असहमति को उसकी जीवंतता का प्रतीक भी माना जाता है. पक्ष और विपक्ष, दोनों की भूमिकाएं तय हैं. इतिहास में कई ऐसे मौके आये, जब विपक्ष ने संसद को चलने नहीं दिया, लेकिन सरकारी पक्ष ने संसद को चलाने के लिए पहल की, कोई बीच का रास्ता निकाला.
दोनों पक्षों के बीच सहमति बनी और संसद की कार्यवाही चलने लगी. इसके अनेक उदाहरण हैं, लेकिन दुर्भाग्य से बीते बजट सत्र के गतिरोध को दूर करने की कोशिश किसी भी ओर से नहीं हुई. न तो विपक्ष ने अपने संसदीय दायित्वों और प्रतिबद्धता को पूरा करने के लिए नर्म रुख अपनाया, न ही सत्तापक्ष के इसके लिए कोई प्रभावी पहल की. ऐसे में जरूरी ग्यारह विधेयक लटक गये. संसद के 120 घंटे बर्बाद हो गये. उस पर खर्च होनेवाला पैसा देश के आम आदमी का है, मगर अर्थव्यवस्था, रोजगार, बैंकिंग घोटालों, अलग-अलग हिस्सों में फैले जातीय तनाव-उन्माद, चीन की ओर से हमारी सीमा में घुसपैठ, कश्मीर की चिंताजनक हालत जैसे मुद्दों पर कोई चर्चा नहीं हुई. अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निरोधक) कानून को लेकर भारत बंद हुआ. सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाये गये, पर किसी भी सवाल पर संवाद नहीं हो सका. ऐसे में कामकाजी और जनता के प्रति उत्तरदायी संस्था के बदले संसद एक प्रतीकात्मक संस्था बनकर रह जाये, तो मान लेना चाहिए कि जनता का यह तंत्र बीमारी से जूझ रहा है.
देशबन्धु
क्या मोदी जी से डरना होगा?
6 अप्रैल को भाजपा का 38वां स्थापना दिवस मनाया गया। हर पाार्टी, संस्था अपने-अपने स्थापना दिवस का जश्न भी मनाती है। लेकिन भाजपा का स्थापना दिवस तो राष्ट्रीय सुर्खी बन गया। पार्टी की स्वर्ण या हीरकजयंती नहीं थी, न ही उसने अभी कोई महान उपलब्धि हासिल की थी। पर केेंद्र की सत्ता पर भाजपा का कब्जा है। और अगले साल चुनाव हैं, इसलिए भाजपा का स्थापना दिवस देशव्यापी आयोजन बन गया। इस माौके पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपने कार्यकर्ताओं को संबोधित किया। अमूमन मोदीजी का भाषण चर्चा में रहता है, लेकिन इस बार बाजी मार ले गए पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह। उन्होंने मुंबई में पार्टी कार्यकर्ताओं और समर्थकों को संबोधित किया।
अमित शाह राजनैतिक विचारक नहीं हैं, कि इस मौके पर वे कोई नया विचार, कोई नयी बात लोगों के सामने रखते। वे राजनीतिज्ञ यानी स्टेट्समैन भी नहीं हैं, वे तो खांटी राजनेता यानी पालिटिशियन हैं, जिनका मकसद हर चुनाव में जीत हासिल करना है, चाहे वह किसी भी तरह से हो। इसलिए भाजपा के स्थापना दिवस पर भी उन्होंने 2019 के आम चुनाव को अपने भाषण का मुद्दा बनाया। और इसमें विपक्ष को कोसने की बाढ़ में वे खुद बेकाबू होकर बह गए। भाजपा को रोकने के लिए कई विपक्षी दल अपने मतभेदों और राजनीतिक हितों को भुलाकर एक साथ आने की तैयारी में है। यह बात भाजपा अध्यक्ष को रास नहीं आ रही। शायद इसलिए कि चुनाव जीतने की सारी तिकड़मों पर वे अपना कापीराइट समझते हैं।
बहरहाल, विपक्षी एकता पर तंज कसते हुए अमित शाह ने कहा कि जब बहुत बाढ़ आती है तो सारे पेड़-पौधे पानी में बह जाते हैं। एक वटवृक्ष अकेले बच जाता है तो सांप भी उस वृक्ष पर चढ़ जाता है, नेवला भी चढ़ जाता है, बिल्ली भी चढ़ जाती है, कुत्ता भी चढ़ जाता है, चीता भी चढ़ जाता है, शेर भी चढ़ जाता है, क्योंकि नीचे पानी का डर है, इसलिए सब एक ही वृक्ष पर इक_ा होते हैं। यह मोदी जी की बाढ़ आई हुई है, इसके डर से सांप, नेवला, कुत्ती, कुत्ता, बिल्ली सब इक_ा होकर चुनाव लड़ने का काम कर रहे हैं।
गठबंधन की राजनीति पर इतने निम्न स्तर की टिप्पणी इससे पहले शायद कभी नही ंआई। बाढ़ की आपदा हाल के बरसों में बिहार, गुजरात, उत्तराखंड, महाराष्ट्र. जम्मू-कश्मीर, तमिलनाडु इन तमाम प्रांतों के लोगों ने खूब सही है। यहां के लोगों ने जब अमित शाह की यह कड़वी टिप्पणी सुनी होगी, तो उनके जख्म ताजा हो गए होंगे, जब उन्हें भी जान बचाने के लिए न जाने किन-किन परिस्थितियों में रहना पड़ा होगा। लेकिन अमित शाह ने तो बाढ़ की आपदा का ही मजाक बना दिया। वो बिल्कुल नरेन्द्र मोदी की राह पर चले हैं। याद करें संसद में बीते साल फरवरी में नरेन्द्र मोदी ने उत्तराखंड के भूकंप पर कहा था कि आखिरकार भूकंप आ ही गया।
दरअसल मोदीजी ने राहुल गांधी के उस बयान का मजाक उड़ाया था, कि सहारा-बिड़ला पेपर्स के संबंध में अगर उन्हें संसद में बोलने दिया जाए तो भूकंप आ जाएगा। तो दूसरों की पीड़ा पर मजाक बनाना भाजपा की नयी परंपरा है, ऐसा हम मान सकते हैं। रहा सवाल अमित शाह द्वारा की गई तुलना का, तो इसमें समझना कठिन है कि उन्होंने वटवृक्ष किसे कहा है? क्योंकि 2014 में तो ऐसा कहा गया कि मोदी लहर में सब बह गए। क्या शाह के मुताबिक कांग्रेस वटवृक्ष है, क्योंकि विपक्षी मोर्चे का आधार तो वही है। फिर तो अमित शाह को कांग्रेसमुक्त भारत का राग छोड़ देना चाहिए, क्योंकि वटवृक्ष की जड़ें कितनी गहरी और फैली हुई होती हैं, यह भी उन्हें पता होगा।
मोदीजी भी लहर बने रहते तो ठीक था, लेकिन सुनामी या बाढ़ तो जानलेवा होती है। फिर अमित शाह ने प्रधानमंत्री की तुलना एक डरावने प्रतीक से क्यों की? क्या अब देश को नरेन्द्र मोदी से डरना चाहिए? बड़े-बुजुर्ग कह गए हैं कि बड़े लक्ष्य को पाने के लिए मतभेदों को भूलना चाहिए और एक होना चाहिए। इस वक्त कांग्रेस, सपा, बसपा, टीएमसी, टीआरएस, टीडीपी, एनसीपी, यही करने की कोशिश तो कर रहे हैं। एक घाट पर शेर और बकरी पानी पिएं, इससे अधिक आदर्श स्थिति क्या हो सकती है? तो अमित शाह को एकता की यह कोशिश खटक क्यों रही है?
क्या इसलिए कि इससे उनकी सत्ता के लिए खतरा पैदा होता है। क्या विपक्ष की तुलना जानवरों से करने और उसकी तबाही की सोच लोकतंत्र के खिलाफ नहीं है? राहुल गांधी ने अमित शाह के बयान पर सही कहा है कि पीएम मोदी और अमित शाह को छोड़कर सब जानवर हैं। वो जो करें तो सब सही, चाहे वह पीडीपी के साथ गठबंधन हो या नीतीश कुमार को दोबारा साथ लेना हो। लेकिन सपा-बसपा साथ आएं तो उन्हें सांप-छुछंूदर कहा जाता है और कई विपक्षी एक साथ हो रहे हैं, तो सबको जानवर बतलाया जा रहा है। वैसे ये बात तो अमित शाह भी जानते होंगे कि जानवर बिना भूख के दूसरों का शिकार नहीं करते और जंगल में सबको अपनी प्रकृति, स्वभाव, खानपान की आदतों के साथ रहने की छूट होती है। भारत फिर से वैसा ही जंगल बन जाए तो शायद दलितों, अल्पसंख्यकों के लिए भी अच्छा हो।
Indian Express
Flight to safety
Sugarcane farmers in Uttar Pradesh are owed over Rs 8,300 crore for the crop they have supplied to mills this crushing season at the state government’s “advised” price (SAP). Maharashtra’s cane growers had similar unpaid dues of Rs 2,213 crore as on March 31, that too, against the Centre’s lower mandated “fair and remunerative price” (FRP). Yet, cane area in Maharashtra for the coming 2018-19 season from October is nearly 19 per cent up, while there are reports of UP farmers, too, planting more, undeterred by mounting payment arrears. One reason for this could be sugarcane’s hardiness and ability to withstand hail, frost, fire, water, nilgai and wild boar, making it practically a default crop in areas where there is assured irrigation. The fact that its green top leaves can meet the fodder requirements of animals during the crushing period from October to April further adds to the attractiveness.
But the current rush to grow sugarcane has less to do with its profitability, as much as the falling returns, if not losses, from other crops. We are, indeed, witnessing a disturbing trend now of farmers going back to planting not just cane, but also paddy and wheat. These are “safe” crops, where there is reasonable guarantee of receiving minimum support price (MSP) through government procurement. Sugarcane farmers, likewise, know that mills will eventually be forced to pay the FRP/SAP, though the monies may come with a few months’ delay. There’s no such certainty of return or even yields vis-à-vis other crops. Bt cotton has lost its bite, with the existing hybrids becoming increasingly susceptible to white-fly and pink bollworm attacks. Oilseeds and pulses have been trading below MSPs over the last 2-3 harvesting seasons. Farmers aren’t making money even in vegetable cultivation: Tomatoes in Kolar (Karnataka), onions in Lasalgaon (Maharashtra) and potatoes in Agra (UP) are currently selling or were just sold at Rs 6-7 per kg.
Given these realities, it is not difficult to see why farmers are seeking a flight to safety — from chana to wheat in Madhya Pradesh, tur, soyabean and ginger to sugarcane in Marathwada, cotton and maize to paddy in Punjab. This is more akin to distress migration rather than a response to any profit signals. The policy prescription to address it is simple: The Centre and state governments should desist from hiking MSPs/FRPs/SAPs of paddy, wheat and sugarcane, which will further incentivise the cultivation of these relatively water-intensive crops. Instead, farmers should be ensured of getting MSPs and reasonable returns at least in oilseeds, pulses, tomatoes, onions and potatoes, whether through physical procurement or price deficiency payment transfers directly into their bank accounts.
Times of India
Stop Poll Violence
Violence in the run up to panchayat polls in Bengal is resulting in rare opposition unity – with the Left, Congress and even BJP coming together to accuse the ruling Trinamool of orchestrating violence. Elections for the 42,000 panchayat seats are scheduled for May 1, 3 and 5 with today being the last date for filing nomination papers. The Left, Congress and BJP have all accused Trinamool of terrorising their candidates, specifically in a bid to prevent them from filing nominations. Opposition parties have therefore approached the courts, seeking relief from use of state might and political muscle to subvert the panchayat polls.
Bengal, unfortunately, has a long and benighted history of political violence and Trinamool has ushered in little poriborton or change in this regard. True, BJP which is looking to make political inroads in Bengal has been resorting to aggressive tactics too. From taking out provocative Ram Navami processions to engaging in pitched battles with police at various places, BJP’s mantra seems to be to fight fire with fire. That said, law and order is a state subject and it is the Mamata government’s duty to ensure peaceful polls in Bengal.
There’s a deeper structural issue here as well. Given Bengal’s lacklustre economic situation with few formal jobs, party work has become a ‘job’ avenue for otherwise jobless youths. And since Trinamool commands the levers of state power, it effectively has a youth army practising extortion and strong arm tactics at its disposal even as police departments are heavily politicised. This used to be the state of affairs under Left Front rule too, and it’s unfortunate that little has changed in this regard under Trinamool.
As far as the panchayat polls are concerned, chief minister Mamata Banerjee should heed the concerted demand of the Left, Congress and BJP – for deployment of central forces to curb election violence. The last date to file nomination papers should be extended to ensure free and fair nominations. These developments also illustrate how a grand opposition coalition for the 2019 Lok Sabha polls is an uphill project. At a time when Mamata is trying to play a bigger role on the national stage and is busy forging opposition unity against the BJP led government at the Centre, it hardly makes sense for Trinamool to alienate potential allies in Bengal.
New Indian Express
Creeping Trend In University Appointments
The Bihar governor’s decision to appoint retired Army officers as registrars of universities has understandably raised many eyebrows in the state. Of the 12 appointments Governor Satya Pal Malik has made, 10 are ex- Army men while two are retired bureaucrats. Although the governor was not violating any rule, registrars have traditionally been appointed from the teaching community. The explanation offered is: Army men are highly disciplined and they will administer universities better. Registrars are the de facto administrative and financial heads of universities.
Although there is no universally applicable role of a registrar as the exact responsibilities differ from university to university, among their main jobs is to provide quality student service and supervise admissions. In most universities in India and abroad these tasks have always been performed by registrars appointed from the teaching community. The logic perhaps has been that teachers will be better placed to understand the needs of students.
In India, this practice is increasingly being given the go-by. Even vice chancellors are being picked from outside the teaching community. Retired Lt General Zameeruddin Shah was for long the vice chancellor of Aligarh Muslim University. Najeeb Jung, a career bureaucrat, was the vice chancellor of Jamia Millia Islamia before he was appointed the lieutenant governor of Delhi. There is perhaps nothing wrong in these appointments. It is after all the prerogative of the government. But to justify these appointments on the ground that retired Army officers and bureaucrats are better suited for the job is to say that teachers are third-rate administrators.
If retired officers were better at managing universities, then AMU would not have witnessed many a student agitation when Lt General Shah was at the helm. Jung would not have faced the wrath of students on many occasions. The Bihar governor would have done well to recall these before he went ahead with, in a way, militarising temples of learning.
The Tlegraph
Mighty Mess
It is gentlemanly of the chairman of the Rajya Sabha, M. Venkaiah Naidu, to describe the mayhem in the two Houses of Parliament as a breakdown in communication between their different sections. Hours of business wasted in Parliament because of disruptions by one group or another are far from new. But the decline in parliamentary decorum seems to have reached its nadir in the second part of the budget session this year. Judged the least productive budget session since 2000, it bared the political parties ‘ indifference to the needs and welfare of the nation and, at least in one case, the single- minded determination not to confront anything that might suggest even a minuscule dip in power in any sphere. Although the Speaker has cheerfully listed the bills passed, she did not mention that they were passed within minutes and without discussion. Again, not that this has not happened before, but if this is the totality of the session ‘ s achievement, then it marks a complete inversion of the principles of parliamentary democracy.
Taking democracy as a mark of civilization, its opposite, metaphorically, would have to be the law of the jungle. That is what took over Parliament in this session, when no- confidence motions proposed by various segments of the Opposition were steadily held at bay because of disorder in the House. Here the Speaker was going according to rule. The disorder came from the All India Anna Dravida Munnetra Kazhagam, which ceaselessly disrupted proceedings on the Cauvery waters issue. The government, whose job is to suspend unruly members, sat tight. It had no intention of facing critical questions, let alone a no- confidence motion, although such a motion would have been just a formality. The National Democratic Alliance is not willing to risk even a symbolic disapproval. Was the AIADMK, perceived often by rivals as dancing to the Bharatiya Janata Party ‘ s tune, helping the BJP, as other parties have claimed? As the Opposition blames the BJP for paralysing House, so the BJP blames the Opposiiton.
Mr Naidu ‘ s description of all this as a breakdown in communication may be gentlemanly, but it is not wrong. Instead of the debate, dissent, discussion and decision that are grounded in the mutual respect of government and Opposition, what reigns now is a mix of hostility, aggression and the belief that might alone is right. This erosion of the parliamentary spirit spells real danger for India.