महामारी के इस समय में जब लाशें गंगा में बह रही हैं, टीके की कमी शर्मनाक है। कुछ ऐसे लोग भी मर गए जो टीका लगवाए होते तो शायद बच जाते पर टीका नहीं लगवा पाए क्योंकि उनके आयुवर्ग के लिए टीका लगना शुरू ही नहीं हुआ था। इस बीच, खबर यह भी आई कि जो लोग एक टीके की पहली खुराक लगवा चुके हैं उन्हें दूसरी खुराक नहीं मिल रही है। वैसे तो यह सब बड़ी खबर है और सिस्टम की नालायकी बताती है। पर इन खबरों को जैसे छपना चाहिए था वैसे नहीं छपीं। प्रचारक अपने उपाय करते रहे और इसी क्रम में कुछ नए उपाय किए गए हैं जो आज के अखबारों में दिख रहे है। द टेलीग्राफ ने इन खबरों को वैसे नहीं छापा है जैसे आम अखबारों में है। आज आप मेरी इस टिप्पणी को पढ़कर समझ सकेंगे कि कैसे खबरें गढ़ी जाती हैं, मौके पर पेश कर दी जाती हैं और अखबार वाले पहले पन्ने पर तान दें तो जनता खुश हो जाती है। देखिए टीके की कमी या समस्या कैसे दूर कर दी गई। दूसरी खुराक नहीं मिलने की समस्या तो दो हफ्ते के लिए बिल्कुल छूमंतर हो गई। लेकिन उसका खामियाजा क्या होगा और सरकार ने असल में क्या किया वह बहुत कम लोगों को समझ में आएगा। आज के मेरे पांचों अखबारों में कल की सरकारी खबर ही लीड है और आज सिर्फ उसी की चर्चा करूंगा।
1.द हिन्दू
सरकार ने कहा, “स्पूतनिक-V टीके भारत में अगले हफ्ते उपलब्ध हो जाएंगे” उपशीर्षक है, “नीति आयोग के सदस्य ने कहा, हम टीकों की उपलब्धता दुरुस्त करने, बढ़ाने के लिए काम कर रहे हैं।” द हिन्दू में इसके साथ ही एक खबर है, कोविशील्ड की दूसरी खुराक अब 12-16 हफ्ते के बाद। इस तरह, सरकार और सरकारी अधिकारियों ने इन दो घोषणाओं से यह बताने की कोशिश की है कि टीकों की कमी नहीं है और सरकार ‘काम‘ कर रही है। कल जो खबर थी और जैसे भी छपी थी उसकी खास बात यह थी कि विपक्ष के नेताओं ने संयुक्त रूप से मुफ्त, सबके लिए टीकाकरण की मांग की थी। सरकार ने इस बारे में कुछ नहीं कहा (या क्या कहा वह खबर थी या होनी चाहिए थी) पर खबर यह है कि सरकार काम कर रही है। वही काम जो सात साल से रोज 18 घंटे चल रहा है बिना नागा, बिना छुट्टी। मैं इस बारे में नियमित लिखता रहा हूं इसलिए आज फिर बताने की जरूरत नहीं है।
2.टाइम्स ऑफ इंडिया
आज अधपन्ना भी है। इसलिए दो लीड हैं। मुख्य लीड पहले। “सरकार ने टीकाकरण तेज करने का एलान किया।” कहा, “अगस्त से दिसंबर तक 217 करोड़ टीके प्राप्त करेगी।” मैंने कल लिखा था कि अखबार (आम जनता के लिए) विपक्ष की मांग को कम महत्व दे रहे हैं और सरकार के बचाव को ज्यादा। आज इस लीड में भी कल की मांग का कोई जिक्र नहीं है। उसका कोई फॉलोअप नहीं है। पर सरकारी एलान (या प्रचार) ही लीड बन गई है। अब खबर के तथ्यों पर ध्यान दीजिए। अंग्रेजी से अनुवाद मेरा है। इसमें कुछ ऊंच-नीच की गुंजाइश जरूर है फिर भी मोटे तौर पर अखबार बता रहा है, “केंद्र ने वीरवार को कहा कि भारत को अगस्त से दिसंबर के बीच (जी हां, अभी मई है अगस्त से दिसंबर यानी सात महीने बाद तक) सरकार को अनुमानतः 217 करोड़ टीके प्राप्त करने में सक्षम हो जाना चाहिए। अभी रोज 4,000 लोग संक्रमित हो रहे हैं, रोज हजारों लोग मर रहे हैं, अस्पताल नहीं, ऑक्सीजन नहीं है और अखबार की सबसे बड़ी खबर है, सात महीने बाद तक हमें सक्षम हो जाना चाहिए। पत्रकारिता या संपादकीय नजरिए से देखें तो इस खबर में कुछ गलत नहीं है। सरकार ने कहा है, ऐसे कामों में समय लगता ही है तो जो कहा वह छप गया। लेकिन जो मर रहे हैं वह कम महत्वपूर्ण है। कई अखबारों में खबर छपी ही नहीं, टाइम्स ऑफ इंडिया ने पहले पन्ने से पहले के अधपन्ने पर छापा है, गोवा के अस्पताल में ऑक्सीजन की आपूर्ति फिर कम होने से 15 और मरीज मरे। यह खबर भी अपनी जगह ठीक है। लेकिन प्रधानमंत्री चुनाव प्रचार में डबल इंजन की सरकार बनाने की बात करते हैं। पर गोवा में डबल इंजन की सरकार होने का कोई लाभ नागरिकों को मिल रहा है उसकी चर्चा अखबारों में इस समय प्रमुखता से होनी चाहिए थी वह नहीं हो रही है। भविष्य के लिए सरकारी घोषणाएं अंदर के पन्नों पर क्यों नहीं?
3.हिन्दुस्तान टाइम्स
“कोविशील्ड की दूसरी खुराक 12-16 हफ्ते बाद लीजिए: सरकार” उपशीर्षक है, “एक्सपर्ट पैनल ने कहा कोवैक्सिन के मामले में कोई बदलाव नहीं, चर्चा इस बात पर हुई कि संक्रमति हो चुके लोगों को टीका लगवाने से पहले छह महीने इंतजार करना चाहिए।” इसके साथ दूसरी खबर है, “भारत दिसंबर तक दो अरब टीके प्राप्त कर सकता है, स्पूतनिक टीके अगले हफ्ते लगने लगेंगे : केंद्र।” आप समझ सकते हैं कि अपनी इन दो खबरों से अखबार ने जनता की सारी परेशानी दूर कर दी है। एक टीका लगवा चुके लोग परेशान हैं कि दूसरा नहीं मिल रहा है। सरकार ने कह दिया, 12-16 हफ्ते बाद भी लगवा सकते हैं। अखबार में छपा है इसलिए आपको यह सही लगेगा पर मैं नियमित खबरें पढ़ता हूं इसलिए मुझे मजाक लग रहा है। ऐसे जैसे टीका नहीं हुआ बच्चों की टॉफी हो। एक तो अंतराल बढ़ाने से प्रभाव का क्या होगा और प्रभाव में फर्क नहीं है तो दूसरी खुराक की जरूरत ही क्यों हैं और जरूरत है तो देर करना क्या सरकारी नालायकी नहीं है? पर खबर से आपको ऐसा कुछ लगा? यही नहीं, कोवैक्सिन और कोवीशील्ड के बारे में यही कहा बताया गया है कि दोनों एक हैं कोई भी लगवा लीजिए। कई मामलों में लगवाने वाले की पसंद नहीं चली। पर कोवैक्सिन की खुराक में अंतराल नहीं बढ़ रहा है। अब भी नहीं बढ़ा। इस लिहाज से मुझे कोवैक्सिन भरोसेमंद लग रहा है। क्या ऐसा है। नहीं है तो क्यों और है तो टीका लगवाने वाले को चुनने क्यों नहीं दिया जाए। चुनाव टीका लगवाने वाले को ही करना है। उसकी अपनी समस्याएं और जरूरतें हैं। लेकिन उसपर भी कुछ नहीं है। और पूरा मामला बहुत ही टालू, चलताऊ अंदाज में आग बुझाने के लिए पानी डालने भर जैसा लग रहा है।
4.इंडियन एक्सप्रेस
फ्लैग शीर्षक है, पर्याप्त खुराक प्राप्त कर रहे हैं। लाल रंग में इससे बेहतर प्रचार नहीं हो सकता था। लेकिन उनके लिए इसका क्या मतलब जो मर गये या संक्रमित होकर अस्पताल में पड़े हैं, या अस्पताल में जगह ढूंढ़ रहे हैं या कल किसी अस्पताल में ऑक्सीजन की कमी से मरेंगे। गोवा में मरे ही हैं। क्या इतने दिनों बाद भी ऑक्सीजन की व्यवस्था नहीं हो पाना इस सरकारी प्रचार से कम महत्वपूर्ण खबर है? इंडियन एक्सप्रेस में यह खबर बेशक पहले पन्ने पर है लेकिन उसे कम महत्व दिया गया है। लीड का मुख्य शीर्षक है, “देर से ही सही, सरकार ने टीकों की आपूर्ति योजना का खुलासा किया।” कहने की जरूरत नहीं है कि शीर्षक से ऐसा लग रहा है जैसे मुद्दा टीकाकरण की योजना का खुलासा करना ही था (बेशक वह भी एक था) और अब खुलासा हो गया तो सब ठीक है। सभी अखबारों में दो खुराक के लिए टीकों की संख्या दूनी बताई गई है जबकि दो अरब खुराक 100 करोड़ लोगों के लिए ही हैं। दो अरब सुनकर लगता है इतनी तो आबादी नहीं है। इससे भारी संतोष होता है और इसीलिए प्रचारक ऐसे खेल खेलते हैं और अखबार अगर सेवा में लगे हों तो संपादक जी छाप देते हैं। इंडियन एक्सप्रेस ने आज लीड के साथ एक तस्वीर छापी है जिसका कैप्शन है, “जर्मनी से 176 वेंटीलेटर, फिनलैंड से 324 ऑक्सीजन सिलेंडर और ग्रीस से 10 ऑक्सीजन सिलेंडर लेकर एक विमान वीरवार को नई दिल्ली पहुंचा।” अगर यह राहत सामग्री है तो ठीक है लेकिन भारत सरकार ने खरीद कर अब मंगाया है तो बताया जाना चाहिए कि अभी और इस मात्रा का फैसला कैसे किस आधार पर हुआ। अगर बता दिया जाता तो सवाल उठता ही नहीं। पर सवालों की किसे परवाह है।
5.द टेलीग्राफ
वैसे तो अखबार का मुख्य शीर्षक ‘धैर्य‘ है पर तस्वीरों के साथ फ्लैग शीर्षक और उपशीर्षक में बहुत कुछ कहा गया है जिसे कहने की हिम्मत आज दूसरे अखबारों ने नहीं दिखाई है। सात कॉलम का पूरा शीर्षक इस प्रकार है, “ना ऑक्सीजन पर्याप्त है, ना टीका पर नरेन्द्र मोदी को पता है कि हमारे पास एक चीज भरपूर है, धैर्य।” उपशीर्षक है, “समय लगता है …. कृपया, इसमें समय लगेगा …. हमें विनम्रता के साथ इसे एक वास्तविकता के रूप में देखना चाहिए – भारत के टीका सलाहकार।” आप जानते हैं कि टीकों पर कार्रवाई बहुत पहले शुरू हो जानी चाहिए थी। हो भी गई थी लेकिन एक भारतीय निर्माता को प्रत्यक्ष परोक्ष लाभ पहुंचाने की खुली कोशिशें खबर नहीं बनीं जबकि इस कारण एक विदेशी निर्माता ने आवेदन वापस ले लिया। शायद दूसरे निर्माताओं ने आवेदन ही नहीं किया। राहुल गांधी ने विदेशी टीकों की जरूरत बताई तो उनका मजाक उड़ाया गया फिर उन्हें अनुमति दे दी गई। स्पूतिक अब मिलने लगेगा, यह उसी का नतीजा है। पर राज्यों के लिए केंद्र सरकार द्वारा मात्रा तय कर दिया जाना, एमआरपी जैसा कानून होने के बावजूद अलग कीमत रखने की अनुमति देना बहुत सारे मामले हैं जो इन घोषणाओं से छिपाए गए हैं पर मेरे चार अखबार तो राजा का बाजा ही बजा रहे हैं।
द टेलीग्राफ ने उपरोक्त मुख्य शीर्षक के तहत दोनों मुख्य खबरें पूरी गंभीरता से वैसे ही छापी हैं जैसी खबर है। एक का शीर्षक है, कोविशील्ड की दूसरी खुराक का अंतर बढ़ाया गया। दूसरी का शीर्षक है, टीके की कमी तीन महीने रहेगी। इसी खबर को दूसरे अखबारों ने कैसे सकारात्मक बना दिया है वह आप समझ सकते हैं। मीडिया का काम है जो वह अब नहीं करता है। दुर्भाग्य यह है कि ज्यादातर लोग इसे नहीं समझ रहे हैं।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार और प्रसिद्ध अनुवादक हैं।