घाट घाट का पानी : बनारस में सम्‍मान-सापेक्षता का सबक


सम्मान देने का फ़ैशन बनारस में अब कुछ ढीला पड़ गया है


मीडिया विजिल मीडिया विजिल
काॅलम Published On :


कुछ एक साल पहले की बात है. बनारस में उस वक्त इज़्ज़त का मौसम चल रहा था. आज दैनिक के दफ़्तर में गया हुआ था, पत्रकारों से बात हो रही थी, विदेशी मीडिया के प्रभाव पर चर्चा छिड़ी, तो एक पत्रकार ने गुजारिश की कि मैं इस मुद्दे पर एक साक्षात्कार दे दूं. मेरा काम तो साक्षात्कार लेना हुआ करता था, खैर मान गया. साक्षात्कार कैसे हुआ इसकी चर्चा छोड़ी जाय, बहरहाल वह छप गया. उसके दो हफ़्ते बाद शहर के पत्रकार संघ से फ़ोन आया कि वे मेरा सम्मान कर देना चाहते हैं, साथ ही चाहते हैं कि विदेशी मीडिया के कुप्रभाव पर हो रही परिचर्चा में बोलूं. मुझे यह विषय कुछ चुनौती जैसा लगा, मैं मान गया.

निर्धारित समय पर पराड़कर भवन में पहुंचा, तो वहां कई दिग्गज मौजूद थे. दिल्ली से विभांशु दिव्याल और इंस्टीट्युट ऑफ़ मास कम्युनिकेशंस से मेरे पुराने मित्र प्रमोद माथुर आये हुए थे. चाय समोसे के साथ हमारा स्वागत हुआ, भाषण सुनने पड़े, बोलना भी पड़ा. वहां के माहौल से मुझे ऐसा लगा कि भूमिपुत्र होने के नाते मुझे सम्मान तो दिया जा रहा है, लेकिन शहर में वामपंथी युवा कार्यकर्ता के रूप में मेरे पुराने परिचय के कारण एक खेमा मुझसे निपटने के लिये तैयार होकर आया है. विदेशी मीडिया से बहुतों का मतलब अपसंस्कृति से था, सवाल भी अधिकतर कपड़ों की अपर्याप्तता के बारे में पूछे गये. मैंने उनसे कहा कि कपड़ों के अभाव को अगर अपसंस्कृति का मुहावरा समझा जाय, तो हमारी फ़िल्मों में उसके बहुतेरे नमूने देखे जा सकते हैं. एक नौजवान से मैंने पलटकर पूछा कि अगर किसी अभिनेत्री का थोड़ा सा बदन दिख जाय तो वे इतने घायल क्यों हो जाते हैं. यूएनआई के शहर प्रतिनिधि ने अपने सवाल के तहत पश्चिमी संस्कृति के बारे में एक लंबे भाषण के बाद मुझसे कहा कि मैं हां या ना में जवाब दूं कि ऐसी हालत में…वगैरह-वगैरह. मैंने उनसे हां या ना में जवाब देने को कहा कि उन्होंने अपनी पत्नी को पीटना छोड़ दिया है या नहीं. कुल मिलाकर माहौल मुझे पसंद आ रहा था.

एक युवा पत्रकार से परिचय हुआ, जो बार-बार मुझे कायल करने की कोशिश कर रहा था कि वह मेरी गहन विद्वता और विरल प्रतिभा से अत्यंत प्रभावित है. इसी बीच शहर के वरिष्ठ पत्रकार ईश्वरी लाल मिश्र ने मुझसे अनुरोध किया कि मैं दो दिन बाद काशी विद्यापीठ के पत्रकारिता विभाग में हो रही परिचर्चा में आऊं और वहां अपने विचार रखूं. मैंने उनसे पूछा, किस विषय पर, तो उन्होंने कहा कि विषय आप खुद चुन लीजिएगा. मैंने हामी भर दी. मेरा युवा पत्रकार मित्र काफ़ी उत्साहित दिखा और उसने कहा कि वह भी वहां पहुंच जाएगा.

काशी विद्यापीठ भी गया. दिव्याल जी ने एक क्रांतिकारी भाषण दिया. आज़ादी के दिनों की याद दिलाते हुए उन्होंने कहा कि वे आज के पत्रकारों से हाथ जोड़कर विनती करना चाहते हैं कि अगर वे त्याग के लिये तैयार नहीं हैं तो यह पेशा छोड़ दें. मुझे जब बोलने का मौका मिला तो मैंने कहा कि अब क्या इस समाज में पत्रकार ही त्याग के लिये बचे हैं? मेरा कहना था कि अगर पत्रकार अपने पेशे की ईमानदारी बरकरार रख पाते हैं, तो यह काफ़ी होगा. सारी खामियां यहीं दिख रही हैं. थोड़ी बहस हुई, जो परिचर्चा में जान लाने के लिये ज़रूरी भी थी. इसके बाद पता चला कि यहां भी मेरा सम्मान किया जाएगा. एक गणेश की मूर्ति दी गई, माला पहनाया गया. एक शाल ओढ़ाया गया.

बहरहाल, मंच पर बैठने के कुछ देर बाद ही मेरा युवा मित्र कुर्सी के पीछे उकड़ूं मार कर बैठते हुए मुझसे कह गया था कि वह आ गया है. मैंने प्रथानुसार अपनी ख़ुशी भी ज़ाहिर की थी. जब भाषण चलने लगे, पहला घंटा दूसरे घंटे की ओर सरकने लगा, तो वह फिर एकबार आया. उसने मुझसे कहा कि उसे अब जाना पड़ेगा. समझदारी दिखाते हुए मैंने कहा कि दफ़्तर का काम सबसे पहले. उसने कहा- नहीं सर, दफ़्तर से आज मैंने छुट्टी ले रखी है. दरअसल, मुहल्ले के क्लब में आज मुझे सम्मान दिया जाने वाला है.

मुझे अपने सम्मान की गरिमा की सापेक्षता के बारे में सचेत होना पड़ा. गनीमत है कि सम्मान देने का यह फ़ैशन बनारस में अब कुछ ढीला पड़ गया है. पिछले तीन-चार सालों से मुझे कहीं भी सम्मान देने के लिये बुलाया नहीं गया है. कभी-कभी उसकी कमी खलती है. फिर सावधान हो जाता हूं: लालच बुरी बला है.

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