एक अरसे से गुरूजी (नामवर सिंह) के बारे में लिखना चाहता था और हमेशा इसे टाल जा रहा था. हाल में पुस्तक मेले में इस बारे में चर्चा होने पर मित्र लीलाधर मंडलोई ने कहा था, ‘’उनके रहते-रहते लिख डालिये. यह बेहतर होगा’’. सोचा था वह स्वस्थ होकर घर लौट आएंगे. उनसे मिलूंगा, फिर लिखूंगा. यह उम्मीद पूरी नहीं हुई. गुरूजनों को श्रद्धांजलि देना अनुजों का एक दुखद अवश्यकर्तव्य है लेकिन मेरे लिये उनका जाना दुखद ही नहीं, निराशाजनक है.
मैं जब चार-साढ़े चार साल का था, गुरूजी ने मुझे गोद में खेलाया था. बनारस में वह हिन्दी में और प्रो. चंद्रबली सिंह अंग्रेज़ी में पार्टी क्लास लेते थे. मेरी मां नामवर जी की क्लास में थीं. मैं कभी औपचारिक रूप से उनका छात्र नहीं रहा, लेकिन हमेशा गुरूजी कहता था. बचपन की बात मुझे याद नहीं, 1988 में एरिष फ़्रीड की कुछ कविताओं का अनुवाद लेकर अपना परिचय देते हुए उनसे मिला था. उन्होंने आलोचना में आठ कवितायें छापीं और मुझे फ़्रीड का अनुवाद जारी रखने के लिये प्रोत्साहित किया. बाद में उनके प्रोत्साहन से फ़्रीड के सौ कविताओं के अनुवाद का संग्रह ‘वतन की तलाश’ प्रकाशित हुआ. वह पुस्तक के रूप में मेरी पहली प्रकाशित रचना थी.
उसके बाद संपर्कों का एक सिलसिला शुरू हुआ. कम से कम दो महीने में एक बार मैं जर्मनी से फ़ोन पर उनसे बात करता था. भारत आने पर हर साल तीन-चार बार अलकनंदा में उनके घर में मुलाक़ात होती थी. कभी हम दोनों अकेले, कभी साथ में केदार जी और विजय मोहन जी भी होते थे. वहीं रामचंद्र रथ व यूआर अनंतमूर्ति से भी मुलाक़ात हुई. एक या दो बार हम मित्र कुलदीप कुमार के घर पर भी मिले. जब वह यूरोप गये तो वहां भी मैं उनसे मिलने पहुंचा– चाहे लंदन हो या हाइडेलबैर्ग.
ब्रेष्त की 101 कविताओं के मेरे अनुवाद के संग्रह ‘एकोत्तरशती’ की भूमिका गुरूजी ने लिखी थी. संग्रह का नाम भी उनका दिया हुआ था. अनुवाद पढ़ने के बाद उन्होंने संशोधन भी किये थे. संग्रह के नाम व कुछ संशोधनों से मैं सहमत नहीं था, लेकिन मैंने आपत्ति नहीं की. मेरे काम पर उनकी कलम के महत्व से वाकिफ़ था. इसी प्रकार कविताओं के चयन से वह संतुष्ट नहीं थे, लेकिन उन्होंने मेरे चयन को स्वीकार कर लिया. कविताओं के चयन व अनुवाद में ब्रेष्त की मेरी समझ उभरती थी. गुरूजी की समझ उससे अलग थी, जिसे परंपरावादी कम्युनिस्ट समझ कहा जा सकता है. यह द्वंद्व उनकी भूमिका में पूरी तरह से उभरता है. यह भूमिका ब्रेष्त की कविताओं के इस संग्रह का प्रतिवाद है. मुझे यह बेहद दिलचस्प लगा था. मैंने उनसे कहा भी था. हंसते हुए उन्होंने कहा था: ‘’ऐसा ही तो होना चाहिये. यह मेरा आशीर्वाद है’’.
डॉयचे वेल्ले के हिंदी कार्यक्रम के लिये उन्होंने अनेक साक्षात्कार दिये. इनमें व्याख्या होती थी, विश्लेषण होते थे और मेरी कोशिश रहती थी कि इनके पीछे छिपे नामवर सिंह को उनके समय में पहचाना जाय. मेरी यह कोशिश बिल्कुल नाकाम रही. मैं कभी उनको पकड़ नहीं पाया.
नामवर विमर्श के अनेक हिस्से हैं : आलोचना विमर्श, अध्यापन विमर्श, नियुक्ति विमर्श, अकादमी विमर्श, सिंह विमर्श, आदि-आदि. उनके साथ आत्मीय संबंधों के बावजूद मैं इन विमर्शों से दूर रहा, कभी-कभी ख़ामोश दर्शक या श्रोता रहा. इन सभी विमर्शों में वह विवादास्पद रहे. व्यक्ति चयन के सिलसिले में वह बेहद भाग्यहीन थे. जिनको उन्होंने प्रोत्साहित किया, उनमें से अधिकतर उनसे दूर चले गये. जिनकी प्रत्याशाएं पूरी नहीं हुईं, वे ज़िन्दगी भर के लिये उनके विरोधी बन गए.
आलोचक के रूप में उनका आकलन मेरी क्षमता से परे है, फिर भी कोशिश करूंगा. हिन्दी में बड़े आलोचक हुए हैं, गहन व व्यापक अध्ययन पर आधारित जिनकी रचनाएं हैं. गुरूजी ने अपने सारे जीवन में ‘निराला की साहित्य साधना’ जैसी पुस्तक नहीं लिखी. इसके बावजूद मेरा मानना है कि हिन्दी साहित्य के जगत में मानक व मापदंड तैयार करने के मामले में उनका कोई मुक़ाबला नहीं था. इस सिलसिले में मैं ख़ासकर ‘दूसरी परम्परा की खोज’ का उल्लेख करना चाहूंगा. इस पुस्तक के ज़रिये उन्होंने आज के दौर में कबीर को प्रतिष्ठित नहीं किया. यह काम उनके गुरू द्विवेदी जी कर चुके थे. नामवर सिंह ने दूसरी परम्परा को प्रतिष्ठित किया. हिन्दी साहित्य का इतिहास है. इतिहास में सामाजिक इतिहास लेखन की परंपरा है. अपनी इस पुस्तक में दूसरी परम्परा को रेखांकित करते हुए उन्होंने हिन्दी साहित्य के सामाजिक इतिहास लेखन को केंद्र में लाने का काम किया..
मेरा मानना है कि बाद में वह ख़ुद इससे विचलित हो गए. दलित साहित्य में उभरे विमर्श व मुहावरों को वह कभी स्वीकार नहीं कर पाए. अपने एक बहुचर्चित भाषण में आज के साहित्य को प्रति-उपनिवेशीकरण का साहित्य कहते हुए उन्होंने निदर्शन के रूप में दो रचनाएं चुनीं, रवींद्रनाथ का ‘गोरा’ और यूआर अनंतमूर्ति का ‘संस्कार’. दोनों रचनाओं में वर्चस्व के प्रस्थान बिंदु से हाशिये तक पहुंचने या उसे समेटने का प्रयास देखा जा सकता है.
एक बार उनके घर में हम दोनों बात कर रहे थे. मैंने उनसे पूछा : अपने बाद आप किसे सबसे बड़ा आलोचक मानते हैं? एक लंबी चुप्पी के बाद उन्होंने कहा : विष्णु, अगर वह चाहे. एक दूसरी घटना मुझे याद आती है. कोलोन के एक पब में विष्णु खरे जी के साथ मैं बियर पी रहा था. बात-बात में अचानक उत्तेजित होकर खरे जी ने अपनी उंगली से मेरा सीना ठोंकते हुए कहा : तुम्हारा नामवर सिंह. जब से उसने जनौरी-फरौरी कहना छोड़ा है, वह बरबाद हो गया.
नामवर सिंह छोटे किसान परिवार के कस्बाई ठाकुर थे. उनके जीवन का बड़ा हिस्सा संघर्ष में बीता. जब मान्यता के साथ-साथ प्रतिष्ठा मिली, तो आस-पास देखकर उन्होंने पाया कि लुटियेन संस्कृति का हिस्सा हो चुका अभिजात हिन्दी जगत उन्हें कभी नहीं अपनाएगा. वह ख़ुद हाशिये से शंकित होने के कारण उसे अपना नहीं सकते थे. उन्हें पता था कि वह अकेले हैं. इस अकेलेपन को उन्होंने शिखर का अकेलापन बनाने की कोशिश की. इसके अलावा उनके सामने कोई विकल्प नहीं था.
अवार्ड वापसी पर उनका रुख़ सर्वज्ञात है. मैं पुरस्कार वापस करने वालों के साथ था, उनके कार्यक्रमों में भाग ले रहा था. गुरूजी के रुख़ से मैं बेहद निराश था, रूठा हुआ था. अचानक मैंने उनसे मिलना बंद कर दिया. दो साल बाद अफ़सोस होने लगा, लेकिन संकोच में था कि मिलने पर जब वह पूछेंगे कि इतने दिन क्यों नहीं मिले, तो क्या जवाब दूंगा? इसी में और दो साल बीत गये. इस बार तय किया था कि जर्मनी वापस जाने से पहले हर हालत में मिलूंगा. अचानक ख़बर आई कि वे एम्स में हैं, कोमा में हैं. अब वह चले गए. अपने इस अफ़सोस का बोझ मुझे ज़िन्दगी भर ढोना पड़ेगा.
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