घाट घाट का पानी : आपात काल, चांसलर श्रीमाली और सीपीआई

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आपात काल के बारे में अलग से थोड़ा कहना ज़रूरी है. बीएचयू में आपात काल के दो आयाम थे : इन्दिरा गांधी और वाइस चांसलर कालुलाल श्रीमाली. और जैसा कि मुग़लिया सल्तनत के ज़माने से चला आ रहा है, दिल्ली से दूर रियासतों में बादशाह की नहीं, नवाबों की चलती थी.

डा. कालुलाल श्रीमाली कभी भारत के शिक्षा मंत्री भी थे. वह पावर पोलिटिशियन थे, और वैचारिक रूप से भयानक संघ विरोधी. वाइस चांसलर के रूप में बनारस आने के बाद उन्होंने देखा कि यहां छात्र संगठनों की अच्छी-ख़ासी हस्ती है. छात्र आन्दोलन को हस्तगत करने के लिये उनके सामने तीन विकल्प थे : एसवाईएस, युवा कांग्रेस और एआईएसएफ़. जल्द ही उनको पता चल गया कि एसवाईएस को निकट लाने से कोई फ़ायदा नहीं है, वहां एक गुट साथ आने से बाक़ी सारे गुट खिलाफ़ हो जाएंगे. साथ ही वे भयानक अराजक हैं. युवा कांग्रेस की भी कैंपस में कोई हस्ती नहीं थी. रह गया एआईएसएफ़. सीपीआई के साथ उस समय कांग्रेस का हनीमून चल रहा था. इसके अलावा दोनों पक्ष सोच रहे थे कि दूसरे पक्ष का फ़ायदा उठाया जा सकेगा. तो एक राजनीतिक रूप से व्यवहारिक, लेकिन नैतिक रूप से अपवित्र रिश्ता पनपा. एआईएसएफ़ व सीपीआई के कुछ नेता वाइस चांसलर से नियमित संपर्क बनाये रखे, कुछ नेताओं ने तो हर दिन दरबार लगाना शुरू किया, लेकिन उससे परे ज़मीन पर पार्टी संगठन बनाने का काम जारी रहा. ऐसी स्थिति में आपात काल की घोषणा की गई.

जहां तक बीएचयू का सवाल है तो आपात स्थिति से कांग्रेस को कोई ख़ास फ़ायदा नहीं हुआ. लेकिन सीपीआई को हुआ था. यह सच है कि बहुत सारा खर-पतवार जमा हो गया था. लेकिन उनके छंट जाने के बाद भी बहुत से प्रतिबद्ध छात्र रह गये, जो आज भी बुद्धिजीवी के रूप में राजनीतिक रूप से अपने-अपने क्षेत्र में सकारात्मक भूमिका निभाये जा रहे हैं. किसी हद तक उनमें आपस में एक नेटवर्क भी बना हुआ है.

यहां बता देना ज़रूरी है कि आपात काल लागू होने से पहले ही कैंपस में सीपीआई के संगठन को ज़िला संरचना से बाहर लाते हुए सीधे प्रादेशिक व केंद्रीय नेतृत्व के अधीन लाया गया था. मेरी सदस्यता ज़िले में बनी रही, क्योंकि उस साल मैं बीएचयू का छात्र नहीं था. उसके बाद मैं कभी भी बीएचयू शाखा का सदस्य नहीं बना, हालांकि कैपस में पार्टी व एआईएसएफ़ के कार्यक्रमों में भाग लेता रहा.

आपात काल में हम सीपीआई में गहरी राजनीतिक समझ के साथ विश्लेषण करते थे. भारत में फ़ासीवाद को रोक दिया गया – इसमें तो कोई संदेह नहीं था. लेकिन इंदिरा का मूल्यांकन कैसे किया जाय ? मुझे याद है कि एक वरिष्ठ नेता ने पार्टी कार्यकर्ताओं की एक बैठक में कहा था : इंदिरा गांधी अब लेफ़्ट टु द राइट ऑफ़ द सेंटर से राइट टु द लेफ़्ट ऑफ़ द सेंटर में आ गई है.

लेकिन कांग्रेस व सीपीआई का हनीमून जल्द ही ख़त्म हो गया. ठीक-ठीक कहा जाय तो गुवाहाटी में इंदिरा के भाषण के बाद, जिसमें उन्होंने कहा था कि संजय पर हमला करनेवाले मुझ पर हमला कर रहे हैं. यूथ कांग्रेस के गुंडों की तारीफ़ करते हुए उन्होंने कहा था : You have stolen the thunder. शायद वहीं देवकांत बरुआ ने Indira is India and India is Indira कहा था. ठीक-ठीक याद नहीं है.

1976 में सीपीआई की हालत ‘न घर का न घाट का’ वाली हो गई थी. बीएचयू में कई ‘प्रगतिशील’ प्रोफ़ेसरों ने रातोंरात सीपीआई से इस्तीफ़ा दे दिया था.

मैं पिछले 28 सालों से सीपीआई का सदस्य नहीं हूं. किसी अन्य पार्टी में जाने का सवाल नहीं उठा. आपात काल में पार्टी की भूमिका पर संदेह था. काफ़ी सालों से उसका घनघोर विरोधी हूं. सीपीआई ने भी उस समय की पार्टी लाइन की आलोचना की है लेकिन एक मसले पर सीपीआई का बचाव करना चाहूंगा : अक्सर कुछ छोटे व कुछ उससे बड़े नेता व पत्रकार बडे शौक़ से कहते हैं कि सीपीआई वाले आपात काल में मुखबिरी कर रहे थे. इन महाविद्वानों को इतना भी नहीं पता है कि किसी पार्टी या संगठन के लोगों की मुखबिरी के लिये उस पार्टी या संगठन में होना पड़ता है. आपात काल से पहले ही समाजवादियों के साथ सीपीआई के लोगों के रिश्ते कड़वे हो चुके थे. कम से कम बनारस में आपात काल की घोषणा के बाद सीपीआई का कोई भी उनके खेमे में नहीं गया था. फिर मुखबिरी वे कैसे करते?

शायद इन नौसिखियों को मुखबिर शब्द का मतलब नहीं पता है. मुखबिर पार्टी या संगठन के अंदर होते हैं, उन्हें बाक़ायदा प्लांट किया जाता है. सीपीआई के अंदर भी मुखबिर प्लांट किये जाते थे, कभी न कभी उनका पता चल जाता था, इसका ख़्याल रखा जाता था कि ऐसे लोगों को कोई सूचना न मिले, फिर मौक़ा मिलते ही उन्हें पार्टी से बाहर कर दिया जाता था. यह ज़रूर है कि मुखबिर को जान से मार देने की संस्कृति सीपीआई में नहीं थी लेकिन भारत में कम्युनिस्ट आन्दोलन में यह भी किया गया है.

और अंत में एक वाकये, यानी एक सज्‍जन का ज़िक्र करना चाहूंगा.

आपात स्थिति की घोषणा होते ही वह परिषद छोड़कर एआईएसएफ़ में आ गये. वाह, क्या बात है! हृदय परिवर्तन हो गया! संगठन के लिये वह निष्ठा से काम करने लगे. सिर्फ़ एक बात पर वह अड़े रहते थे : मेरे हॉस्टल को आप मुझ पर छोड़ दीजिये. उनकी बात मान ली गई थी, क्योंकि वह बीएचयू में एआईएसएफ़ के नेता के हमनाम थे.

1977 आया. तपाक से कूदकर वह फिर परिषद में चले गये.

आज वे केंद्रीय मंत्री हैं.


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