जीवन चार दीवारों में सिमटता जा रहा था. हां, सामाजिक और सांस्कृतिक संपर्क बढ़ते जा रहे थे, लेकिन सोच का दायरा सिमट रहा था, अराजनैतिक होता जा रहा था. एक शाम फ़्रीडमान्न के साथ बियर पीते हुए मैंने कहा, लगता है एक ऐसे दौर में हम पैदा हुए हैं कि सब कुछ धीमी गति से चलता रहेगा – कहीं कोई बड़ा बदलाव नहीं आने वाला है. हंसते हुए उसने कहा था – बदलाव हमारे पसंद के मुताबिक नहीं भी हो सकता है.
मध्य दूरी के अमरीकी मिसाइल तैनात होने लगे थे. उनके जवाब में पूर्वी जर्मनी में छोटी दूरी के सोवियत मिसाइल तैनात किये गये. पहली बार जर्मन भूमि पर दोनों ओर परमाणु हथियार. शांति आंदोलन धीमा पड़ गया था. पश्चिम-पूरब, हर कहीं मायूसी छाई हुई थी. इसी बीच सोवियत नेता चेरनेंको की मौत हुई, उनकी जगह अपेक्षाकृत कम उम्र के मिषाएल गोर्बाच्योव कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव बने. हम इस बीच इतने आशावादी हो चुके थे कि हमें पूरा विश्वास था कि हालत जहां पहुंच चुकी है, अब सिर्फ़ बेहतरी ही मुमकिन है.
उन्हीं दिनों पश्चिम के मीडिया से ख़बर मिली कि सोवियत संघ में दो नारे चल पड़े हैं : ग्लासनोस्त और पेरेस्त्रोयका. ठीक से समझ में तो नहीं आ रहा था, लेकिन इतना साफ़ था कि अब खुलकर बातें की जा रही हैं, सारे सोवियत संघ में फैली हुई शराबखोरी के ख़िलाफ़ सख़्त क़दम उठाये जा रहे हैं. कुछ दिनों के बाद मध्य दूरी व छोटी दूरी के मिसाइलों को हटाने पर सोवियत-अमरीकी समझौता हो गया. आशा की एक नई किरण दिखने लगी थी. पूर्वी जर्मनी में एक पुराना नारा था : सोवियत संघ से सीखने का मतलब है जीतना सीखना. यह नारा अब आम लोगों के बीच फिर से प्रचलित होने लगा था.
और यह नारा पूर्वी जर्मनी के बूढ़े नेतृत्व के ख़िलाफ़ लक्षित था.
सतह के नीचे भंवरों की समझ हमें नहीं थी. कामगार वर्ग उसे समझ रहा था.
पूर्वी जर्मनी एक उद्योग प्रधान देश था, जहां औद्योगिक उत्पादन की औसत गुणवत्ता काफ़ी नीची थी. मज़ाक में कहा जाता था कि उत्पादों की गुणवत्ता के तीन स्तर होते हैं : बहुत नीची, जिसे सोवियत संघ में निर्यात किया जाता है; नीची, जो घरेलू उपयोग के लिये होता है; और स्तरीय, जिसे पश्चिम में निर्यात किया जाता है. ख़ासकर कामगारों को शिकायत थी कि उनका सारा माल सोवियत संघ में भेज दिया जाता है, उन्हें पता नहीं था कि पूर्वी जर्मनी को सोवियत संघ से बेहद सस्ते में तेल और गैस की आपूर्ति की जाती है, जिस पर सारी अर्थव्यवस्था टिकी हुई है.
गोर्बाच्योव को अक्सर पश्चिम का दलाल कहा जाता है. वह कोई क्रांतिकारी नेता नहीं थे और लगातार समझौतापरस्त होते गये. यह सच है कि कम्युनिस्ट खेमे को मिटाना पश्चिम, ख़ासकर अमरीका का एजेंडा था, उसके लिये वे लगातार काम किये जा रहे थे. लेकिन जो लोग समझते हैं कि पश्चिम के षडयंत्र से कम्युनिस्ट देशों का खेमा ख़त्म हो गया, वे सोवियत संघ व पूर्वी यूरोप के देशों में पनपी समाजवादी प्रणाली के अंतर्विरोधों और खामियों को समझ नहीं पाते हैं. इस बीमारी का केंद्र सोवियत संघ था और उस पर आश्रित बाकी कम्युनिस्ट देश भी उससे ग्रस्त थे. इसके अलावा हर देश की अपनी ख़ास समस्या थी, मसलन पूर्वी जर्मनी में अनसुलझा राष्ट्रीय सवाल.
बहरहाल, मैं नहीं मानता कि गोर्बाच्योव पश्चिम के इशारे पर काम करने वाले दलाल थे. वह पार्टी की संरचना से उभरे थे, लेकिन देश इतने व्यापक स्तर पर अंदर से खोखला हो चुका है, इसका अंदाज़ा शायद उन्हें नहीं था. वह जल्द ही इस नतीजे पर पहुंचे कि समूचे पूर्वी यूरोप में स्तालिनवादी साम्राज्य को बनाये रखना मुमकिन नहीं है, इन देशों को भी अपनी ज़िम्मेदारी उठानी पड़ेगी. पहले क़दम के रूप में खनिज तेल और गैस की कीमतों को अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार की कीमतों से जोड़ा गया. वे अब भी सस्ते थे, लेकिन पहले से काफ़ी महंगे.
और पूर्वी जर्मन अर्थव्यवस्था के लिये यह जानलेवा साबित हुआ.
हमें शिकायत थी कि बुद्धिजीवियों, कलाकारों या लेखकों को स्वतंत्रता नहीं है. उपभोक्ता सामग्रियों का अभाव था, लेकिन उससे बुद्धिजीवियों को कोई ख़ास शिकायत नहीं थी. मकान के किराये सस्ते थे, शिक्षा-स्वास्थ्य मुफ़्त, सारी ज़रूरी चीज़ों के दाम कम – लेकिन यह सब कहां से आ रहा था ? इसका आधार था कामगारों का काम, उनके उत्पाद. निर्यात पर आश्रित पूर्वी जर्मनी को जब सोवियत संघ को होनेवाले निर्यात की गुणवत्ता का हिसाब देना पड़ा, ऊर्जा महंगा होने के बाद जब उत्पादन का खर्च बढ़ गया, जब आर्डर के अभाव में कारखानों में कामगारों को बिठे-बिठाये पगार दिया जाने लगा, तो कामगारों ने विद्रोह का बीड़ा उठाया. वे पहले चरमराती सीमा को तोड़ते हुए देश छोड़कर भागने लगे, फिर उन्होंने तय किया कि इस देश को साथ लेकर पश्चिम भागना है और इसकी ख़ातिर सबसे पहले सत्ता पर कब्ज़ा करना है. सारे देश में दसियों हज़ार लोगों का प्रदर्शन शुरू हुआ. उन्होंने नारा दिया : Wir sind das Volk, जनता हम हैं. चंद हफ़्तों के अंदर नारे दिये जाने लगे Wir sind ein Volk, यानी हम एक जनता हैं. अब समाजवाद में सुधार का बकवास नहीं, पश्चिम जर्मन पूंजीवाद का हिस्सा बनकर जर्मनी का एकीकरण एजेंडे पर था.
हाइनर म्युलर के साथ एक बातचीत याद आ रही है. उनका कहना था कि दूसरे समाजवादी देशों के साथ पूर्वी जर्मनी का एक बुनियादी अंतर रहा है. द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद पूर्वी जर्मनी का कम्युनिस्ट नेतृत्व निर्वासन और यातना शिविरों से लौटा था. उसके जीवन का अनुभव था कि जब नात्सी आये तो जर्मन कामगार वर्ग ने कम्युनिस्टों को धोखा देते हुए हिटलर के नेतृत्व को स्वीकार कर लिया. इस कामगार वर्ग पर भरोसा नहीं किया जा सकता है, इसे नियंत्रण में रखना पड़ेगा. पूर्वी जर्मनी के स्तालिनवाद के पीछे कम्युनिस्ट नेतृत्व की यह चेतना, जनता और नेतृत्व के बीच अविश्वास की यह खाई भी बेहद महत्वपूर्ण थी.
1989 में इस माहौल में प्रदर्शन शुरू हुए. अभिव्यक्ति कीस्वतंत्रता के लिये बुद्धिजीवियों का आंदोलन अब विदेश यात्रा की स्वतंत्रता औरउपभोक्ता सामग्रियों के लिये कामगार जनता का आंदोलन बन गया.
पूर्वी जर्मन कामगारों ने कम्युनिस्टों को फिर एकबार धोखा दिया.
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