घाट घाट का पानी : कुछ पाया कुछ खोया

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दफ़्तर में क्रिस्टा के साथ अब कम बात होती थी, मेरे काम में वह दिलचस्पी भी नहीं लेती थी लेकिन मारिता और मैं अक्सर उसके घर जाते थे. उसके पति क्लाउस को विदेश में काम करने की इजाज़त मिल चुकी थी और वह स्विटज़रलैंड के ज़्युरिष के प्रसिद्ध नाट्यगृह शाउश्पीलहाउस के निदेशक बन गये थे. बीच-बीच में जब वह पूर्वी बर्लिन आते थे तो घर में पूरब और पश्चिम के लेखकों का जमावड़ा लग जाता था. यहीं मुझे जर्मनी के अनेक लेखकों से परिचित होने का मौक़ा मिला. एक दिन शाम को क्रिस्टा ने बताया कि वह रेडियो के काम से इस्तीफ़ा दे रही है. वहां अब उसके लिये काम का माहौल नहीं रह गया है. मेरे लिये यह ख़बर एक सदमे सी थी. चुपचाप मैंने सुना, कोई टिप्पणी नहीं की.

मेरे लिये भी दफ़्तर का माहौल ऊबाऊ होता जा रहा था. फ़्रीडमान्न लगातार इसका ख़्याल रखता था कि मुझे काम करने का मौक़ा मिले और मैं अपने लिये कोई नई परेशानी न खड़ा करूं. बहरहाल, दफ़्तर में ऐसे माहौल की वजह से मैं बाहरी दुनिया में सक्रिय होने लगा. कई सांस्कृतिक गोष्ठियों में मुझे निमंत्रण मिला, भारत से जुड़े विषयों पर बोलने के लिये लोग मुझे बुलाने लगे. हुम्बोल्ट विश्वविद्यालय के भारतीय अध्ययन संकाय व बर्लिन के संस्कृतिकर्मियों के क्लब से मेरे नज़दीकी रिश्ते बने. विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग से अनुरोध आया कि स्नातक अंतिम वर्ष के छात्रों के लिये मैं हफ़्ते में दो कक्षाएं लूं. तीन सेमेस्टर तक मैं वहां पढ़ाता रहा.

1984. रवींद्रनाथ ठाकुर के 125वें जन्मदिन के अवसर पर पूर्वी बर्लिन में कई कार्यक्रम आयोजित किये गये. दो कार्यक्रमों में मेरी विशेष भागीदारी रही. हुम्बोल्ट विश्वविद्यालय में एक संगोष्ठी हुई, जहां पूर्वी जर्मनी के साथ-साथ भारत से भी कई विद्वान आये हुए थे. मुझसे कहा गया कि मैं भी अंग्रेज़ी या जर्मन में एक पेपर तैयार करूं. मैंने रवींद्रनाथ की कविताओं के परिणत चरण पर एक पेपर तैयार किया, जिसका नाम था Brilliance before the Sunset. यह मेरे लिये किसी विश्वविद्यालय में पेपर पढ़ने का पहला मौक़ा था.

दूसरा कार्यक्रम पूर्वी जर्मन कला अकादमी की ओर से आयोजित किया गया था. मुझसे कहा गया कि मैं वहां रवींद्रनाथ की एक कविता पढ़ूं, ऐसी एक कविता जिसका जर्मन अनुवाद उपलब्ध हो. उन्हीं दिनों वहां रवींद्रनाथ का उपन्यास शेषेर कविता का जर्मन अनुवाद आया था. इस उपन्यास में अनेक कवितायें शामिल हैं और मैं उन्हीं में से एक लंबी कविता पढ़ना चाहता था. मैंने सुझाव दिया कि मैं बांगला कविता पढ़ूं और क्रिस्टा ट्रागेलेन उसका जर्मन अनुवाद प्रस्तुत करे. अकादमी वाले मान गये.

मैंने क्रिस्टा से कहा. उसने कहा कि मैं उपन्यास का जर्मन अनुवाद लेकर उससे मिलूं. एक शाम मैं गया. उपन्यास में कविता का जर्मन अनुवाद देखकर उसने उसे सीधे-सीधे ठुकरा दिया. क्रिस्टा का कहना था कि रवींद्रनाथ ऐसी वाहियात कविता लिख ही नहीं सकते. फिर आदेश हुआ : मूल बांगला कविता ले आओ. मैं ले आया, और एक-एक पंक्ति का टूटा-फूटा जर्मन अनुवाद सुनाने लगा. क्रिस्टा बीच-बीच में मुझे टोककर किसी ख़ास शब्द के बारे में पूछती थी. फिर उसने कहा, मारो गोली छपे हुए इस अनुवाद को, हम दोनों मिलकर इस कविता का अनुवाद करेंगे. लगभग तीन-चार शाम लगे, कई लीटर काली कॉफ़ी व दर्जनों सिगरेट पीने के बाद कविता का जर्मन अनुवाद हुआ. हमने उसे अकादमी के हॉल में दो भाषाओं में प्रस्तुत किया. उसके बाद क्रिस्टा ने मुझसे कहा : यह रवींद्रनाथ की पहली कविता थी. आगे का काम तुम अकेले करोगे.

अपरिचित शीर्षक से यह कविता जर्मन एकीकरण के बाद बर्लिन के पश्चिमी हिस्से से निकलने वाली प्रतिष्ठित यूरोपीय पत्रिका लेत्रे आंतरनासियोनाल में छपी थी. उससे पहले मुझे फ़ोल्क उंड वेल्ट प्रकाशन गृह के आदेश पर रवींद्रनाथ की 114 कविताओं का अनुवाद करने का मौक़ा मिला था. इस संग्रह के संपादक थे प्राग के प्रसिद्ध भारतविद प्रो. स्बावितेल. अनुवाद को काव्यरूप देने की ज़िम्मेदारी कवयित्री अन्ने मारी बोश्ट्रोएम को दी गई थी. मारिता के साथ मिलकर हमने प्रारंभिक अनुवाद किया था. श्रीमती बोश्ट्रोएम ने मुझसे कहा कि उन्हें हमारे अनुवाद इतने पसंद हैं कि वह उनमें कम से कम बदलाव लाना चाहती हैं.

जर्मन एकीकरण के झंझावात में इस पुस्तक की परियोजना रद्द हो गई. भारतविद व प्रकाशक रोलांड बेयर चार-पांच साल बाद मुझसे मिले. वे इस अनुवाद को छापना चाहते थे. मैंने कहा कि पांडुलिपि प्रकाशक के पास है. उन्होंने पता लगाने की कोशिश की. पता चला कि अनुवाद की पांडुलिपि ग़ायब हो चुकी है.


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