चन्द्र प्रकाश झा
किसी भी राजनीतिक दल को अपने दैनंदिन कामकाज के लिए खर्च ज्यादार पार्टी के बाहर से ही जुटाना पड़ता है। जग-जाहिर है कि सभी राजनीतिक पार्टियों का खर्च , चुनावों में बेतहाशा बढ़ जाता है। इन खर्चों के लिए धन उपलब्ध कराने की राष्ट्र -राज्य से सांविधिक व्यवस्था करने की बरसों से की जा रही उठ मांग के बावजूद अभी तक कुछ भी ठोस उपाय नहीं किया गया है। ऐसे हालात में चुनावी राजनीति में लिप्त पार्टियां , अपने ही नहीं अपने प्रत्याशियों के भी चुनावी खर्च जुटाने के लिए घोषित -अघोषित चन्दा लेती हैं.
पार्टी सदस्यों से एक आना , दो आना , फिर चवन्नी-अठन्नी से लेकर बाद में चंद रूपये में परिवर्तित वार्षिक सदस्य्ता शुल्क सिर्फ एक औपचारिकता है। इसके निर्वहन की एक साफ झलक खबरिया चैनलों पर तब नज़र आई थी जब 2014 के लोकसभा चुनाव से ऐन पहले बहुचर्चित पत्रकार-लेखक एवं कांग्रेस के पूर्व सांसद और प्रवक्ता भी रहे एम.जे.अकबर, नई दिल्ली में भारतीय जनता पार्टी के मुख्यालय पहुँच कर इस पार्टी में औपचारिक रूप से शामिल हुए थे। तत्कालीन भाजपा अध्यक्ष (मौजूदा केंद्रीय गृह मंत्री) राजनाथ सिंह ने उन्हें , अपनी अँगुलियों से चुटकी-सी बजाकर सदस्य्ता शुल्क भरने की ताकीद करने में गुरेज नहीं किया था। सब जानते और मानते हैं कि फिलवक्त देश की सबसे बड़ी पार्टी होने का दावा करने वाली भाजपा तो क्या किसी भी पार्टी का सदस्यता शुल्क से प्राप्त धनराशि से काम कत्तई नहीं चलता है।
सब तो नहीं , पर कुछ पार्टियां ऐसी भी हैं जो अपने सदस्यों से उनकी आय के तयशुदा अनुपात में ‘ लेवी ‘ वसूलती हैं। इनमें ख़ास तौर पर
कम्म्युनिस्ट पार्टियां सबसे आगे हैं जिनके त्रिपुरा के पूर्व मुख्यमंत्री माणिक सरकार सरीखे पूर्णकालिक कार्यकर्ता अपनी समस्त आय प्रदान कर पार्टी से मिले मासिक कार्यकर्ता-वृत्ति के सहारे गुजर बसर करते हैं। पर कम्युनिस्ट पार्टियों को भी चाहे -अनचाहे धन्ना सेठों से चन्दा लेना ही पड़ता है और वे अपनी सम्पदा को बढ़ाने पूंजी बाजार में निवेश भी करते हैं।
भारत में टेलीकॉम क्रान्ति के जनक माने जाने वाले और कांग्रेस के करीबी गुजराती उधमी , सैम पित्रोदा ने कुछेक बरस पहले मुंबई प्रेस क्लब में पत्रकारों के साथ औपचारिक बातचीत में सुझाव दिया था निर्वाचन आयोग से पंजीकृत एवं मान्यता प्राप्त हर राजनीतिक दल को कम्पनी अधिनियम की एक विशेष सेक्शन 20 बी के तहत धर्मार्थ न्यास सदृश, ” नॉट -फॉर-प्रॉफिट” कम्पनी में परिणत कर उसे शेयर बाज़ार में सूचीबद्ध किया जाए ताकि उन पार्टियों के सदस्य और समर्थक भी इन शेयरों की विधि-सम्मत खरीद फरोख्त कर इन राजनीतिक कंपनियों को चुनाव लड़ने या नहीं लड़ने के लिए उत्प्रेरित कर सकें. उस सुझाव पर राजनीतिक और मीडिया हल्के में भी, कभी समुचित चर्चा नहीं हुई.
दिवंगत पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह ने अपनी पार्टी की रैलियों में लोगों के खुदरा से लेकर थोक दान तक मिलाकर एकत्रित कुल रकम की ‘ थैली’ लेने की परम्परा विकसित की थी। नई दिल्ली के बोट क्लब मैदान में 23 दिसंबर 1978 को उनकी 75 वीं जयन्ती के अवसर पर उनकी स्वयं अनुमानित और इंडिया टुडे के प्रभु चावला की प्रकाशित रिपोर्ट की रिपोर्ट में उल्लेखित ‘5 लाख’ लोगों की किसान रैली में बड़ी धनराशि की थैली भी हासिल हुई थी। चौधरी चरण सिंह पर हाल में प्रकाशित एक पुस्तक की अंग्रेज़ी पाक्षिक, फ्रंटलाइन में समीक्षा करने वाले वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप कुमार ने इस स्तम्भकार को आज सुबह फोन पर बताया कि वह थैली कम -से-कम 75 लाख रूपये की रही होगी क्योंकि तय यही किया गया था कि थैली में उनके हर जन्म दिन के हिसाब से एक-एक लाख रूपये अवश्य दिए जाएँ।
चौधरी साहब ने ‘किसान ट्रस्ट’ की स्थापना और उस ट्रस्ट की और से ‘ असली भारत ‘ नामक पत्रिका का प्रकाशन इस थैली का सदुपयोग कर ही किया था। उनके पुत्र एवं पूर्व केंद्रीय मंत्री अजित सिंह और पौत्र एवं मथुरा के पूर्व सांसद जयंत चौधरी अपनी मौजूदा पार्टी राष्ट्रीय लोक दल के लिए थैली परम्परा को बहुत दूर तक नहीं ले जा सके. किसान ट्रस्ट तो कायम है लेकिन उसकी पत्रिका, ‘असली भारत’ का प्रकाशन बंद हुए बरसों गुजर गए हैं।
अलबत्ता , बहुजन समाज पार्टी की प्रमुख एवं उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती ने थैलियां लेने की परम्परा और आगे बढ़ाई। उनके राजनीतिक विरोधी आरोप लगाते रहे हैं कि उन्होंने इन थैलियों से और पार्टी के चुनावी टिकट बेच -बेच कर और भ्रष्टाचार के अनेक तरीकों से भी अकूत धनराशि जमा की। जवाहरलाल नेहरू विश्विद्यालय ( नई दिल्ली ) से शिक्षित अर्थवेत्ता एवं पूर्व पत्रकार और अब आंध्र प्रदेश के वैज़ाग में स्वतंत्र व्यवसाय कर रहे , जी वी रमन्ना के अनुसार उत्तर प्रदेश विधान सभा के पिछले चुनाव से पहले 8 दिसंबर 2016 की रात आठ बजे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अचानक की गई घोषणा और उसी मध्य -रात्रि से लागू नोटबंदी एक उद्देश्य संभवतः बसपा प्रमुख को चुनाव में इस्तेमाल की जाने वाली उनकी नगदी से वंचित करना भी था। बहरहाल ,उन राजनीतिक दलों को थैली , चन्दा लेने में कोई ख़ास अड़चन तब तक नहीं है जबतक कि ऐसा देश के कानून के अनुसार हों.
लेकिन इस बरस के बजट सत्र में सत्ता पक्ष ने , मुख्य विपक्ष कांग्रेस के साथ संसदीय गलबहियां डाल कर राजनीतिक दलों को विदेशी चन्दा के नियमन से सम्बंधित कानून ही एक-दो नहीं 42 बरसों के पूर्वकालिक प्रभाव से बदल दिया डाले तो संदेह स्वाभाविक है कि ‘दाल में कुछ काला है।’ संसद के 29 जनवरी से 7 अप्रैल , 2018 तक रूक -रूक कर चले बजट सत्र में यह कारनामा हो गया और निर्वाचन आयोग से लेकर भारतीय न्याय व्यवस्था की कान पर जूँ तक नहीं रेंगी. हालांकि मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव सीताराम येचुरी ने ट्वीट किया है कि उनकी पार्टी ने इस कानून में किये संशोधन की वैधानिकता को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देने के कदम उठाये हैं. दरअसल , लोकसभा में राजनीतिक पार्टियों के चंदे से संबंधित अधिनियम , एफसीआरए अर्थात , विदेशी चंदा नियमन कानून ( 2010 ) संशोधन विधेयक को केंद्रीय बजट से सम्बंधित वित्त विधेयक की तरह बिना बहस के ही ‘गिलोटिन’ के छू-छू मंतर से पारित कर दिया गया । जिस अधिनियम में संशोधन किया गया है वह राजनीतिक दलों को विदेशी कंपनियों द्वारा दिए जाने वाले चंदे पर अंकुश लगाता था।
मोदी सरकार ने पहले भी , वित्त विधेयक (2016 ) के जरिए एफसीआरए में संशोधन कर राजनीतिक दलों के लिए विदेशी चंदा लेने को आसान बनाया था। नए संशोधन से राजनीतिक पार्टियों को वर्ष 1976 से मिले सारे-के-सारे विदेशी चंदे पूर्वकालिक प्रभाव से बिलकुल वैध हो गए हैं. सरकार ने विदेशी कंपनी की परिभाषा ही बदल दी है। संसद से पारित करवा ली गई नई परिभाषा के तहत किसी भी कंपनी में 50 फीसदी से कम शेयर -पूंजी, विदेशी इकाई के पास है तो वह विदेशी कंपनी नहीं कही जाएगी। इस संशोधन को भी पूर्वकालिक प्रभाव से सितंबर 2010 से ही लागू किया गया है. सरकार ने वित्त विधेयक आदि के जरिए एफसीआरए में जो नया संशोधन किया उसकी बदौलत राजनीतिक दलों के लिए विदेशी चंदा लेना और भी आसान हो गया. यही नहीं अब 1976 के बाद से मिले किसी भी प्रकार के और कितनी भी राशि के विदेशी चंदे की जांच संभव नहीं होगी।
नए संशोधन के अनुसार, ” वित्त अधिनियम ( 2016 ) की धारा 236 के पहले पैरा में 26 सितंबर 2010 की जगह पर 5 अगस्त 1976 पढ़े जाएंगे”. गौरतलब यह है कि एफसीआरए कानून में उक्त संशोधन के फलस्वरूप दिल्ली हाईकोर्ट के 2014 उस फैसले से भाजपा ही नहीं कांग्रेस को भी कानूनी शिकंजे से बचने में मदद मिलेगी जिसमें उन्हें एफसीआरए कानून के उल्लंघन का दोषी पाया गया। मीडिया के अधिकतर हिस्से ने या तो इस संशोधन के अलोकतांत्रिक निहितार्थ को समझने और उस समझ से अपने पाठकों, दर्शकों और श्रोताओं को समझाने की लगभग कोई कोशिश ही नहीं की या फिर वह सब समझ कर भी नहीं समझना-समझाना चाहती है। इस संशोधन का भारत में चुनावी व्यवस्था पर जो असर पड़ा है और आगे भी पड़ना तय है, वह कोई मामूली बात नहीं है। देश को निकट भविष्य में इसकी बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ सकती है।
इस बीच ” एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स” ( एडीआर ) ने विभिन्न राजनीतिक दलों द्वारा वित्त वर्ष 2016 -17 के अपने आय -व्यय के निर्वाचन आयोग को सौंपे ब्योरा का विस्तृत विश्लेषण परक रिपोर्ट जारी कर दी है जिसके कई तथ्य चौंकाने वाले हैं। नौ अप्रैल 2018 को जारी इस रिपोर्ट के अनुसार निर्वाचन आयोग को यह ब्योरा सौंपने की अंतिम तारीख 30 अक्टूबर 2017 थी। लेकिन सांविधिक रूप से अनिवार्य यह ब्योरा वित्त एवं विधि विशेषज्ञों से भरपूर भाजपा ने 99 दिनों की देरी से 8 फरवरी 2018 को और कांग्रेस ने तो 138 दिनों के विलम्ब से 19 मार्च 2018 को दाखिल किये।
निर्वाचन आयोग से राष्ट्रीय राजनीतिक पार्टी की मान्यता प्राप्त सात दलों, भाजपा, कांग्रेस, बसपा, माकपा, भाकपा और तृणमूल कांग्रेस ने वित्त
वर्ष 2016 -17 में समस्त भारत से कुल मिलाकर 1, 559 . 26 करोड़ रूपये की आय तथा कुल 1228. 26 का व्यय दर्शाया है। भाजपा ने सर्वाधिक कुल 710 .057 करोड़ रूपये का ऑडिट किया खर्च घोषित किया है। कांग्रेस ने अपनी कुल आय से 96 . 30 करोड़ रूपये अधिक 321 . 66 करोड़ रूपये का खर्च दिखाया है। कांग्रेस के मामले में कह सकते है कि “आमदनी अठन्नी, खर्चा रुपैया।
एडीआर के विश्लेषण से पता चलता है कि 1914 में मोदी सरकार के गठन के बाद से भाजपा का खज़ाना खूब भरा है और कांग्रेस का खज़ाना खाली हो रहा है। वित्त वर्ष 2015 – 16 से एक ही बरस में भाजपा का खज़ाना 570 . 86 करोड़ रूपये से 81 . 18 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज कर 1034 . 27 करोड़ रूपये का हो गया। दूसरी ओर , इसी दरम्यान कांग्रेस का खज़ाना 261 . 56 करोड़ रूपये से 14 प्रतिशत घटकर 225 . 36 करोड़ रूपये रह गया। इन दोनों दलों ने अपनी आय के तीन मुख्य स्रोतों में से चन्दा को सर्वाधिक दिखाया है। चन्दा के मद में भाजपा ने 997 करोड़ रूपये और कांग्रेस ने 50 करोड़ की प्राप्ति दिखाई है। खर्च के मद में भी भाजपा सबसे आगे है। उसने वर्ष 2016 -17 में चुनाव और आम प्रचार पर 606 करोड़ रूपये और प्रशासनिक मद में 69 करोड़ रूपये खर्च किये। इसी दौरान चुनाव और आम प्रचार पर कांग्रेस ने सिर्फ 149 करोड़ रूपये और प्रशासनिक मद में 115 करोड़ रूपये खर्च किये। कांग्रेस का प्रशासनिक खर्च भाजपा से ज्यादा क्यों रहा इसकी वजह विश्लेषण से नहीं पता चल सकी।
एक गज़ब की बात यह है कि निर्वाचन आयोग से राष्ट्रीय राजनीतिक पार्टी की मान्यता प्राप्त सात दलों , भाजपा , कांग्रेस , बसपा , माकपा , भाकपा और तृणमूल कांग्रेस ने वित्त वर्ष 2016 -17 में बैंकों में जमा अपनी धनराशि और सावधिक जमा पर ब्याज से कुल मिलाकर 128 करोड़ रूपये की आमदनी स्वीकार की है। इन दलों में से भाजपा , कांग्रेस, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी और पूर्व रक्षा मंत्री शरद पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी ने पिछले पांच वर्षों से अपने आय -व्यय की ऑडिट कराई रिपोर्ट निर्वाचन आयोग को देने में लगातार देरी की है। राष्ट्रीय राजनीतिक पार्टी की मान्यता प्राप्त सात दलों की कुल आमदनी 2015 -16 के 1033 करोड़ रूपये से 51 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज कर 1559 करोड़ हो गई है.
एडीआर ने सुप्रीम कोर्ट के 13 सितम्बर 2013 के एक निर्णय का हवाला देते हुए कहा है निर्वाचन आयोग प्रभावी नियम लागू करे कि कोई भी राजनीतिक दल फॉर्म 24 बी में 20 हज़ार रूपये से अधिक के मिले चंदे का ब्योरा देने का कॉलम का कोई भी भाग खाली नहीं छोड़े। साथ ही, अमरीका, जापान, जर्मनी, फ़्रांस, ब्राजील, इटली, बुल्गारिया, नेपाल और भूटान की तरह ही भारत में भी राजनीतिक पार्टियों को प्राप्त चंदा का पूर्ण विवरण सूचना के अधिकार के तहत सार्वजनिक समीक्षा के लिए उपलब्ध कराना अनिवार्य हो।
उपरोक्त देशों में से किसी में राजनीतिक दलों को प्राप्त धन का 75 प्रतिशत हिस्सा छुपाया नहीं रखा जा सकता है। रिपोर्ट में रेखांकित किया गया है कि 2017 के वित्त विधेयक में आयकर अधिनियम के सेक्शन 13 ए में संशोधन कर कहा गया है कि पंजीकृत राजनीतिक पार्टियों को आय कर से माफी दी जाएगी बशर्ते कि वे सेक्शन 139 के सब सेक्शन 4 बी के तहत पूर्व वित्त वर्ष की अपनी आय का पूरा ब्योरा निर्धारित तिथि या उसके पहले दाखिल करें। इसलिए अगर कोई भी राजनीतिक पार्टी ऐसा नहीं करती है तो निर्वाचन आयोग उसकी मान्यता रद्द कर दी जाए।
लेकिन ये सारी बातें लोकतंत्र का ढकोसला ही लगती हैं। नहीं तो देखें सब लोग चंदा के हमाम में नंगी पड़ी सभी राजनीतिक पार्टियां कब तक और कैसे पतली गली से कानून को धता बताकर चुनाव लड़ती रहती हैं.
(चंद्र प्रकाश झा वरिष्ठ पत्रकार हैं, जिन्हें मीडिया हल्कों में सिर्फ ‘सी.पी’ कहते हैं। सीपी को 12 राज्यों से चुनावी खबरें, रिपोर्ट, विश्लेषण, फोटो आदि देने का 40 बरस का लम्बा अनुभव है।)