अरविंद शेष
“मेरी जमीन और मेरे अधिकार को ही छीनना तेरा धर्म है और ये तेरे भगवान का धर्म है तो मैं तेरे भगवान का भी नहीं छोड़ूंगा।”
जिस दौर में परदे पर जबर्दस्ती की ठूंसी हुई कहानियों के जरिए दिखावे की देशभक्ति या धर्म के नशे में ब्राह्मणवाद की धीमा जहर परोसने की राजनीति चल रही है, उस दौर में ‘काला’ एक ताजा हवा का झोंका है। लेकिन यह झोंका किसी भी संवेदनशील मन को झकझोर कर रख देने के लिए काफी है। यह आज अमूमन हर जगह अपने पांव फैलाती-जमाती जहरीली राजनीति के सूत्रों की पहचान करती है और उसकी परतें उधेड़ कर रख देती है।
जिस दौर में एससी-एसटी अत्याचार निवारण कानून को दुरुपयोग की दलील पर कमजोर करने का खिलवाड़ हुआ है, उस पर फिल्म के शुरुआती दृश्यों में ही तीखे तेवर से तंज है- ‘वो तो कुछ कानून हम गरीबों के लिए भी बनाया गया है, वरना तुम सबने हम लोगों को सात समंदर पार फेंक दिया होता!’ अगर देश और समाज पर हमारी नजर रहती है तो यहां ‘गरीबों’ के मायने दलित-वंचित जातियां सुनने और समझने में हमें दिक्कत नहीं होती है!
दरअसल, इसे पर्दे पर ब्राह्मणवाद की परतों को छील-छील कर उधेड़ देने और उसे हवा में उछालने वाली फिल्म कहा जाए तो अतिश्योक्ति नहीं होगी! सेंसर बोर्ड की चायछन्नी से छन कर आने के बावजूद ‘काला’ में जिस तरह सीधा सांस्कृतिक टकराव मौजूद है, वह चौंकाता है। जाति-संरचना में लिथड़े भारत में ब्राह्मण समुदाय यानी सवर्ण जातियों के सामने गैर-सवर्ण जातियों और खासतौर पर दलितों की जो सामाजिक हैसियत आज भी मौजूद है, देश के ही अलग-अलग इलाकों में किसी सवर्ण दबंग के सामने बोलने, चलने, बैठने, नाम रखने, मूंछ रखने, घोड़ी पर सवार होने वगैरह पर जिस तरह के मनु-स्मृतीय कायदों के तहत पाबंदियां थोपी जा रही हैं, उनके खिलाफ जमीन पर भी आग धधक रही है। ‘काला’ उन्हीं सबको समेटती है और मनुवादियों के खिलाफ बगावत की आग की हौसलाअफज़ाई करता है। हासिल- दलित-वंचित जातियों-तबकों के हर पात्र का सम्मान, स्वाभिमान और हक की चेतना से लैस आक्रोश से दपदप चमकता चेहरा..!
धारावी के ‘धोबी’ घाट पर कब्जा करने आए एक राष्ट्रवादी पार्टी के नेता हरि के नजदीकी लोगों को उल्टे मुंह लौटाने, उसके नजदीकी के मारे जाने के बाद कलफ़दार झक सफेद कपड़ा ओढ़े हरि जब काला के दर पर आता है, काला की पत्नी सेल्वी के हाथों लाया पानी पीने से मना कर देता है। वहां बाकी कुछ का ‘बड़ा आदमी’ और ‘सफेद’ से चौंधियाना है तो सेल्वी का यह तल्ख बयान है- ‘सफेद कपड़े पहनने से क्या होता है… इसने हमारा पानी तक पीने से मना कर दिया.!’
इस फिल्म के रचेता पा रंजीत यहीं अपना इरादा साफ कर देते हैं। दर पर रोब से आए हरि को बिना काला से भीख में इजाजत लिए वहां से निकलना मुमकिन नहीं रह जाता है। अपने जातीय अहं पर बुरी मार की चोट से अपमानित हरि की सिर्फ एक ख्वाहिश है- काला उसके पांव छूकर माफी मांग ले। लेकिन बागी काला जिस मिट्टी का बना है, उसमें हरि जैसों से माफी उसकी फितरत में नहीं है। इसलिए उसकी पत्नी और बेटे की हत्या करवाने वाले हरि के घर अकेला जाने के बाद और हरि के तलवार तान कर पांव छूने का फरमान सुनाने के बाद काला मेज पर पांव चढ़ा कर हरि को चिढ़ाता है!
वहीं वह हरि की पोती को अपना पांव छूने से मना करता है और सीधा रह कर नमस्ते कहने को कहता है। यह ब्राह्मण-परंपरा में गुलामी और सम्मान के नाम पर पांव छूने की सामाजिक व्यवस्था पर एक शानदार सवाल है, जिसे पा रंजीत ज़रीना के जरिए यहां तक पहुंचाते हैं- ‘हाथ मिलाने से इक्वॉलिटी आती है, पांव छूने से नहीं!’
हाल के सालों में देश में उभरा दलित आंदोलन शिक्षा के आह्वान के साथ जिन प्रतीकों और बगावत के तौर-तरीकों, रंगों, झंडों, नारों के साथ आगे बढ़ रहा है, जबर्दस्त तरीके से असर्ट कर रहा है, पा रंजीत उसमें से कुछ को भी नहीं भूलते। जिस समय ‘श्रीराम’ के नारों के साथ देश में दलित-वंचितों पर कहर ढाने के खेल चल रहे हैं, उसमें ‘गौतम बुद्ध विहार’ के सामने संगठन और आंदोलन के आह्वान का हौसला है तो ऐसा भी पहली बार है कि पर्दे पर ‘जय भीम’ का नारा गूंज जाता है। वह भी हकमारी के खिलाफ आम जनता के ‘हड़ताल’ के बीच में, तो इस देश में जन-आंदोलनों के तकाजों की भी पहचान होती है। इस लड़ाई को पहले काला रंग, फिर उस पर लाल और फिर आखिर में नीला रंग एक खूबसूरत हासिल रचता है, जहां ‘भगावा’ को छोड़ कर सारे रंग घुलमिल जाते हैं। इस तरह के प्रयोगधर्मी दृश्य बहुत कम फिल्मों में देखने को मिलते हैं। मेरी सीमित निगाह में ‘सैराट’ और ‘अनारकली ऑफ आरा’ के आखिरी दृश्यों के प्रयोग के बाद यह तीसरा शानदार प्रयोगधर्मी अंत था।
लेकिन इस अंजाम तक पहुंचने के ठीक पहले जिस रामकथा को रूपक के तौर पर पेश किया गया है, उसमें यह फिल्म रामकथा के समूचे विमर्श को ही सिर के बल खड़ा कर देती है। ‘रावण… वाल्मीकि ने लिखा है तो मारना तो पड़ेगा ही…!’ हरि को रामकथा की पूजा के लिए काला का सिर चाहिए। यानी रामकथा के अंजाम में रावण का अंत चाहिए। लेकिन अफसोस…! राम यानी हरि का ही अंत हो जाता है, वह भी रावण यानी काला के हाथों..! बहुत उड़ते दृश्यों के बीच यह भी दिखता है कि अपने पांवों को काला से छुआने की हसरत लिए काला से मार खाकर सिर के बल जमीन पर गिरते हरि के पांव हवा में लहरा रहे होते हैं।
यही नहीं, सरकार की नाकामी, सरकार और बिल्डर माफिया के गठजोड़, सवर्ण तंत्र की चालबाजियां, एनजीओ, सांप्रदायिक जहरबाजों… सबसे टकराती यह फिल्म ‘जमीन के हक’ के ठोस मांग तक पहुंचती है, लेकिन भारत में जमीन पर कब्जे में धर्म और ब्राह्मणवाद के संदर्भों के साथ- “मेरी जमीन और मेरे अधिकार को ही छीनना तेरा धर्म है और ये तेरे भगवान का धर्म है तो मैं तेरे भगवान का भी नहीं छोड़ूंगा।”
भक्ति और देशभक्ति का चाशनी में ऊब-डूब करती फिल्मों के दौर में… बेहद मामूली बातों को देशद्रोह और ईशनिंदा घोषित कर हमला कर देने के दौर में जब आप यह डायलॉग सुनते हैं तो कई बार यकीन कर पाना मुश्किल होता है कि संघी उत्पात के दौर में पर्दे पर आ सकी यह फिल्म देख रहे हैं आप।
इस तरह के छोटे-छोटे टुकड़ों के साथ खूबसूरती के साथ गुंथी यह फिल्म मौजूदा दौर की राजनीति को आरएसएस-भाजपा से लड़ने का एक विकल्प देती है। ‘रमेश का भाई रहीम और अब्दुल का जीजा गणेश’ जैसी खूबसूरत तस्वीरों के साथ दलित-मुसलिम एकता और गजब के सद्भाव के बीच एक मुकम्मल पोलिटिकल पैकेज है, जो संघी राजनीति के लिए चुनौती हो सकती है। कायदे से इस फिल्म को आम जनमानस के बीच दिखाए जाने की जरूरत है। सामाजिक सशक्तीकरण में इस फिल्म की बड़ी भूमिका हो सकती है।
‘काला’ फिल्म के राजनीतिक महत्त्व का अंदाजा आप इससे लगा सकते हैं कि इस फिल्म के खिलाफ न तो भाड़े पर हंगामा मचा कर फिल्म का प्रोमो करने वालों ने और न ही उन लोगों ने एक शब्द कहा, जो इस फिल्म के राजनीतिक असर को बखूबी समझ रहे हैं और उसके दर्शक-दायरे को कम रखना चाहते हैं!
यह ब्राह्मणवाद के प्रतीक गोरे को बागी ‘काला’ की चुनौती है!
यहां फिलहाल इतना ही। बहुत कुछ छूट गया है। लेकिन इस फिल्म पर विस्तार से लिखना है, ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ की तरह..!
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं